।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
श्रीमती विष्णुप्रिया देवी
गौरशक्तिं महामायां नवद्वीपनिवासिनीम्।
विष्णुप्रियां सतीं साध्वीं तां देवीं प्रणतोऽस्म्यहम्।
यह विश्व महामाया शक्ति के ही अवलम्ब से अवस्थित है। शक्तिहीन संसार की कल्पना ही नहीं हो सकती। सर्वशक्तिमान शिव भी शक्ति के बिना शव बने पड़़े रहते हैं। जब उनके अचेतन शव में शक्ति देवी का संचार होता है, तभी वे शव से शिव बन जाते हैं। शक्ति प्रच्छन्न रहती है और शक्तिमान प्रकट होकर प्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है। यथार्थ में तो उस शक्ति की ही साधना कठोर है। वनवासी वीतरागी विरक्त तपस्वियों की अपेक्षा छिपकर साधना करने वाली सती-साध्वी, शक्तिरूपिणी देवी की तपस्या को मैं अधिक श्रेष्ठ मानता हूँ। हृदय पर हाथ रखकर उस सती की तपश्चर्या की कल्पना तो कीजिये, जो संसार में रहकर भी संसार से एकदम पृथक रहती है। उसका सम्पूर्ण संसार पति की मनोहर मूर्ति में ही सन्निहित हो जाता है। उसकी सभी इन्द्रियों के व्यापार, चित्त और मन की क्रियाएं एकमात्र पति के ही लिये होती हैं। पति के रूप का चिन्तन ही उसके मन का आहार बन जाता है। अहा ! कितनी ऊँची स्थिति होती होगी, क्या कोई शरीर को सुखाकर ही अपने को कृतकृत्य समझने वाला तपस्वी इस भयंकर तपस्या का अनुमान लगा सकता है?
भगवान बुद्धदेव के राज्य-त्याग की सभी प्रशंसा करते हैं, किन्तु उस साध्वी गोपा का कोई नाम भी नहीं जानता जो अपने पांच वर्ष के पुत्र राहुल को संन्यासी बनाकर स्वयं भी राजमहल का परित्याग करके अपने पति भगवान बुद्धदेव के साथ भिक्षुणी वेष में द्वार-द्वार भिक्षा माँगती रही। परमहंस रामकृष्णदेव के वैराग्य की बात सभी पर विदित है, किन्तु उस भोली बाला शारदादेवी का नाम बहुत कम लोग जानते हैं जो पांच वर्ष की अबोध बालिका की दशा में अपने पितृगृह को परित्याग करके अपने पगले पति के घर में आकर रहने लगी। परमहंसदेव ने जब प्रेम के पागलपन में संन्यास लिया था, तब वह जगन्माता पूर्ण युवती थी। अपने पति के पागलपन की बातें सुनकर वह लोकलाज की कुछ भी परवा न करके अपने संन्यासी स्वामी के साथ रहने लगी। कल्पना तो कीजिये। युवावस्था, रूपलावण्ययुक्त परम रूपवान पुरुष की सेवा, सो भी एकान्त में और वह भी पादसेवा का गुरुतर कार्य। परम आश्चर्य की बात तो यह है कि वह पुरुष भी परपुरुष नहीं अपना सगा स्वामी ही है जिस पर भी किसी प्रकार का विकार मन में न आना। ‘कामश्चाष्टगुण: स्मृत:।’कहने वाले वे कवि कल्पना करें कि क्या ऐसी घोर तपस्या पंचाग्नि तापने और शीत में सैकड़ों वर्षों तक जल में खड़े रहने वाली तपस्या से कुछ कम है? अहा ! ऐसी सती-साध्वी देवियों के चरणों में हम कोटि-कोटि प्रणाम करते हैं।
महाप्रभु के त्याग-वैराग्य का वृत्तान्त तो पाठक पिछले प्रकरणों में पढ़ ही चुके हैं, किन्तु उनसे भी बढ़कर त्याग संसार को विदित हो गया, परन्तु श्री विष्णुप्रिया जी की साधना घर के भीतर एक गहरे कोने में नर-नारियों की दृष्टि से एकदम अलग हुई, इसलिये वह उतनी अधिक प्रसिद्धि प्राप्त न कर सकी। उनकी साधना का जो भी कुछ थोड़ा-बहुत समाचार मिलता है, उसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। क्या कोई भी व्यक्ति इस प्रकार की कठोरता कर सकता है? अबला कही जाने वाली नारी-जाति के द्वारा क्या इतनी तीव्रतम तपस्या सम्भव हो सकती है ?
किन्तु इसमें अविश्वासी की तो कोई बात ही नहीं। अद्वैताचार्य जी के प्रिय शिष्य ईशान नागर ने प्रत्यक्ष देखकर अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘अद्वैत-प्रकाश’ में इसका उल्लेख किया है। उस कठोरता की कथा को सुनकर तो कठोरता का भी हृदय फटने लगेगा। बड़ी ही करुण कहानी है।
महाप्रभु संन्यास लेकर गृहत्यागी वैरागी बन गये, उससे उस पतिप्राणा प्रिया जी को कितना अधिक क्लेश हुआ होगा, यह विषय अवर्णनीय है। मनुष्य की शक्ति के बाहर की बात है। एक बार वृन्दावन जाते समय केवल विष्णुप्रिया जी की ही तीव्र विरहवेदना को शान्त करने के निमित्त क्षणभर के लिये प्रभु अपने पुराने घर पर पधारे थे। उस समय विष्णुप्रिया जी ने अपने संन्यासी पति के पादपद्मों में प्रणत होकर उनसे जीवनालम्बन के लिये किसी चिह्न की याचना की थी। दयामय प्रभु ने अपने पादपद्मों की पुनीत पादुकाएं उसी समय प्रिया जी को प्रदान की थीं और उन्हीं के द्वारा जीवन धारण करते रहने का उपदेश किया था। पति की पादुकाओं को पाकर पतिपरायणा प्रिया जी को परम प्रसन्नता हुई और उन्हीं को अपने जीवन का सहारा बनाकर वे इस पाँचभौतिक शरीर को टिकाये रहीं। उनका मन सदा नीलाचल के एक निभृत के स्थान में किन्हीं अरुण रंग वाले दो चरणों के बीच में भ्रमण करता रहता। शरीर यहाँ नवद्वीप में रहता, उसके द्वारा वे अपनी वृद्धा सास की सदा सेवा करती रहतीं। शचीमाता के जीवन का एकमात्र अवलम्बन अपनी प्यारी पुत्र वधू का कमल के समान म्लान मुख ही था। माता उस म्लान मुख को विकसित और प्रफुल्लित करने के लिये भाँति-भाँति की चेष्टाएँ करतीं। पुत्र वधू के सुवर्ण के समान शरीर को सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से सजातीं। प्रभु के भेजे हुए जगन्नाथ जी के बहुत ही मूल्यवान पट्टवस्त्र को वे उन्हें पहनातीं तथा और विविध प्रकार से उन्हें प्रसन्न रखने की चेष्टा करतीं। किन्तु विष्णुप्रिया जी की प्रसन्नता तो पुरी के गम्भीरा मन्दिर के किसी कोने में थिरक रही है, वह नवद्वीप में कैसे आ जाये। शरीर तो उसके एक ही है इसीलिये इन वस्त्राभूषणों से विष्णुप्रिया जी को अणुमात्र भी प्रसन्नता न होती। वे अपनी वृद्धा सास की आज्ञा को उल्लंघन नहीं करना चाहती थीं। प्रभु के प्रेषित प्रसादी पट्टवस्त्र का अपमान न हो, इस भय से वे उस मूल्यवान वस्त्र को भी धारण कर लेतीं और आभूषणों को भी पहन लेतीं किन्तु उन्हें पहनकर वे बाहर नहीं जाती थीं।
प्रभु का पुराना भृत्य ईशान अभी तक प्रभु के घर पर ही था। शचीमाता उसे पुत्र की भाँति प्यार करतीं। वही प्रिया जी तथा माता जी की सभी प्रकार की सेवा करता था। ईशान बहुत वृद्ध हो गया था, इसीलिये प्रभु ने वंशीवदन नामक एक ब्राह्मण को माता की सेवा के निमित्त और भेज दिया था। ये दोनों ही तन-मन से माता तथा प्रिया जी की सभी सेवा करते थे। प्रिया जी के पास कांचना नाम की एक उनकी सेविका सखी थी, वह सदा प्रिया जी के साथ रहती और उनकी हर प्रकार की सेवा करती। दामोदर पण्ड़ित भी नवद्वीप में ही रहकर माता की देख-रेख करते रहते और बीच-बीच में पुरी जाकर माता जी तथा प्रिया जी का सभी संवाद सुना आते। विष्णुप्रिया जी उन दिनों घारे त्यागमय जीवन बिताती थीं। दामोदर पण्ड़ित के द्वारा प्रभु जब इनके घोर वैराग्य और कठिन तप का समाचार सुनते तब वे मन ही मन अत्यधिक प्रसन्न होते।
विष्णुप्रिया जी का एकमात्र अवलम्बन वे प्रभु की पुनीत पादुकाएं ही थीं। अपने पूजागृह में वे एक उच्चासन पर पादुकाओं को पधराये हुए थीं और नित्यप्रति धूप, दीप, नैवेद्य आदि से उनकी पूजा किया करती थीं। वे निरन्तर–
हरे राम हरे राम राम राम हरे रहे।
हेर कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
-इसी मंत्र को जपती रहतीं। उन्होंने अपना आहार बहुत ही कम कर दिया था, किन्तु शची माता के आग्रह से वे कभी-कभी कुद अधिक भोजन कर लेती थीं। पुत्रशोक से जर्जरित हुई वृद्धा माता का हृदय फट गया था। पुत्र की दिव्योन्मादकारी अवस्था सुनकर तो उसके घायल हृदय में मानो किसी ने विष से बुझे हुए बाण वेध दिये हों।
एक दिन माता ने अधीर होकर भक्तों से कहा– ‘निमाई के विरहदु:ख की ज्वाला अब मेरे अन्त:करण को तीव्रता के साथ जला रही है, अब मेरा यह पार्थिव शरीर टिक न सकेगा, इसलिये तुम मुझे भगवती भागीरथी के तट पर ले चलो।’ भक्तों ने जगन्माता की आज्ञा का पालन किया, और वे स्वयं अपने कंधों पर पालकी रखकर माता को गंगा किनारे ले गये। पीछे से पालकी पर चढ़कर विष्णुप्रिया जी भी वहाँ पहुँच गयीं। पुत्रशोक से तड़फड़ाती हुई माता ने अपनी प्यारी पुत्र वधू को अपने पास बुलाया। उसके हाथ को अपने हाथ से धीरे-धीरे पकड़कर माता ने कष्ट के साथ पुत्र वधू का माथा चूमा और उसे कुछ उपदेश करके इस नश्वर शरीर को त्याग दिया।
शचीमाता के वैकुण्ठ गमन से सभी भक्तों को अपार दु:ख हुआ। सास की क्रिया कराकर प्रिया जी घर लौटीं। अब वे नितान्त अकेली रह गयी थीं। ईशान माता से पहले ही परलोकवासी बन चुका था, उसे अपनी स्नेहमयी माता का हृदयविदारक दृश्य अपनी आँखों से नहीं देखना पडा। घर में वंशीवदन था, और दामोदर पण्डित भी गृह के कार्यों की देख-रेख करते थे। विष्णुप्रिया जी का वैराग्य और भी अधिक बढ़ गया, अब वे दिन-रात्रि अपने प्राणनाथ के विरह में तड़पती रहती थीं। अभी तक माता के वियोग का दु:ख कम नहीं हुआ था कि प्रिया जी को यह हृदयविदारक समाचार मिला कि श्री गौर अपनी लीला को संवरण करके अपने नित्यधाम को चले गये। इस दुस्सह समाचार को सुनकर तपस्विनी विष्णुप्रिया जी, कटे हुए केले के वृक्ष के समान भूमि पर गिर पड़ीं। उन्होंने अन्न–जल का एकदम परित्याग कर दिया। स्वामिनी-भक्त वंशीवदन ऐसी दशा में केसे अन्न ग्रहण करता।
वह प्रिया जी का मन्त्र शिष्य भी था, इसलिये उसने भी अपने मुँह में अन्न का दाना नहीं दिया। भक्तों ने आकर भाँति-भाँति की विनती की, किन्तु प्रिया जी ने अन्न-जल ग्रहण करना स्वीकार ही नहीं किया। जब स्वप्न में आकर प्रत्यक्ष श्री गौरांग देव ने उनसे अभी कुछ दिन और शरीर धारण करने की आज्ञा दी, तब उन्होंने थोड़ा अन्न ग्रहण किया।
एक दिन प्रिया जी भीतर शयन कर रही थीं, वंशीवदन बाहर बरामदे में सो रहा था। उसी समय स्वप्न में उन्होंने देखा– मानो प्रत्यक्ष श्री गौरांग आकर कह रहे हैं– ‘जिस नीम के नीचे मैंने माता के स्तन का पान किया था, उसी के नीचे मेरी काष्ठ की मूर्ति स्थापित करो, मैं उसी में आकर रहूँगा।’ विष्णुप्रिया देवी उसी समय चौंककर उठ बैठीं, प्रात:काल होने को था, वंशीवदन भी जाग गया और उसने भी उसी क्षण ठीक यही स्वप्न देखा था। जब दोनों ने परस्पर एक-दूसरे को स्वप्न की बात सुनायी, तब तो शीघ्र ही दारुमयी मूर्ति की स्थापना का अयोजन होने लगा। वंशीवदन ने उसी नीम की एक सुन्दर लकडी काटकर बढ़ई से एक बहुत ही सुन्दर श्री गौरांग की मूर्ति बनवायी। पंद्रह दिन में मूर्ति बनकर तैयार हो गयी, वंशीवदन ने लोहे की सलाका से उस पर अपना नाम खोदा। जब वस्त्राभूषण पहनाकर श्रीगौरांग विग्रह को सिंहासन पर पधराया गया, तब सभी को उसमें प्रत्यक्ष श्रीगौरांग के दर्शन होने लगे। वंशीवदन ने दूर-दूर से भक्तों को बुलाकर खूब धूमधाम से उस मूर्ति की प्रतिष्ठा की और एक बडा भारी भण्डारा किया।
देवी विष्णुप्रिया जी ने श्रीविग्रह की नित्य-नैमित्तिक पूजा के निमित्त अपने भाई तथा भाई के पुत्र यादवनन्दन को मन्दिर में नियुक्त किया। श्री विष्णुप्रिया जी नित्यप्रति मन्दिर में दर्शन करने के निमित्त जाया करती थीं और वंशीवदन भी उस मनोहर मूर्ति के दर्शनों से परम प्रसन्न होता था। वह मूर्ति अब तक श्री नवद्वीप में विराजमान है और उसके गोस्वामी पुजारी उन्हीं श्री यादवनन्दनाचार्य के वंशजों में से होते हैं। आजकल वे सभी श्रीमान और धन सम्पन्न हैं, भक्तों में वे महाप्रभु के स्यालकवंश गोस्वामी बोले जाते हैं।
कुछ काल के अनन्तर वंशीवदन भी इस असार संसार को परित्याग करके परलोकवासी बन गये। अब प्रिया जी की सभी सेवा का भार वृद्ध दामोदर पण्डित के ही ऊपर पड़ा। अपने प्रिय शिष्य के वियोग से प्रिया जी को अत्यधिक क्लेश हुआ और अब उन्होंने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया। पहले अँधेरे में कांचना के साथ गंगा स्नान करने के निमित्त घाट पर चली जाती थीं, अब घर में ही गंगा जल मँगाकर स्नान करने लगीं। कोई भी पुरुष उनके दर्शन नहीं कर सकता था। उन्होंने वैसे तो पर-पुरुष से जीवन भर में कभी बातें नहीं कीं, किन्तु अब उन्होंने भक्तों को भी दर्शन देना बंद कर दिया। शाम के समय पर्दे की आड़ में से भक्तों को उनके चरणों के दर्शन होते थे, उन अरुण रंग के कोमल चरणकमलों के दर्शन से ही भक्त अपने को कृतकृत्य समझते।
श्रीमद् अद्वैताचार्य जी अभी तक जीवित थे। वृद्धावस्था के कारण उनका शरीर बहुत ही अधिक जर्जरित हो गया था। उन्होंने जब प्रिया जी के ऐसे कठोर तप की बात सुनी, तब तो उन्होंने अपने प्रिय शिष्य ईशान नागर को प्रिया जी का समाचार लेने के निमित्त नवद्वीप भेजा। शान्तिपुर से नागर महाशय आये। यहाँ दामोदर पण्डित ईशान नागर को प्रिया जी के अन्त:पुर में लग गये और वे प्रिया जी के चरण कमलों के दर्शनों से कृतार्थ हुए। उन दिनों प्रिया जी का तप अलौकिक हो रहा था। वे सदा पूजा मन्दिर में ही बैठी रहतीं। एक पात्र में चावल भरकर सामने रख लेतीं और दूसरे पात्र को खाली ही रखतीं। प्रात:काल स्नान करके वे महामंत्र का जप करने बैठतीं। एक बार–
हरे राम हरे राम राम राम हरे रहे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
यह सोलह नामों वाला मंत्र कह लिया और एक चावल उस खाली पात्र में डाल दिया। इस प्रकार तीसरे पहर तक वे निरन्तर जप करती रहतीं।
जप की संख्या के साथ डाले हुए उतने ही चावलों को तीसरे पहर बनातीं। उनमें न तो नमक डालती और न दाल बनातीं। बस, उन्हीं में से थोड़े से चावल भोग लगाकर प्रसादरूप में स्वयं पा लेतीं, और शेष थोड़े से भक्तों को प्रसाद बांटने के निमित्त थाली में छोड़ देतीं, जिसे कांचना भक्तों में बांट देती। पाठक, अनुमान तो लगावें। बत्तीस अक्षर वाले इस मंत्र को जपने से कितने चावल तीसरे पहर तक होते होंगे, उन्हें ही बिना दाल-साग के पाना और प्रसाद के लिये शेष भी छोड़ देना। अल्पाहार की यहाँ हद हो गयी। ईशान नागन ने अपने ‘चैतन्यप्रकाश’ नामक ग्रन्थ में स्वयं वर्णन किया है–
विष्णुप्रिया माता शचीदेवीर अन्तर्धाने।
भक्त–द्वारे द्वाररुद्ध कैला स्वेच्छाक्रमे।।
तार आाज्ञा विना ताने निेषेध दर्शने।
अत्यन्त्य कठोर व्रत करिला धारणे।।
प्रत्यूषेते स्नान कहर कृताह्निक हय्या।
हरिनाम करि किछु तण्डुल लइया।।
नाम प्रति एक तण्डुल मृत-पात्रे राखय।
हेन मते तृतीय प्रहर नाम लय।।
जपान्ते सेइ संख्यार तण्डुल मात्र लय्या।
यत्ने पाक करे मुख वस्त्रेते बान्धिया।।
अलवण अनुपकरण अन्न लय्या।
महाप्रभुर भोग लगाय काकुति करिया।।
विविध विलाप करि दिया आचमनी।
मुष्टिक प्रसाद मात्र भुंजेन आपनि।।
अवशेषे प्रसादान्न बिलाय भक्तेरे।
एछन कठोर ब्रत के करिते पारे।।
अर्थात ‘शचीमाता के अन्तर्धान हो जाने के अनन्तर श्री विष्णुप्रिया देवी भक्तों के द्वारा अपने घर के किवाड़ बंद करा लेती थीं। द्वार खुलवाने न खुलवाने का अधिकार उन्होंने स्वयं ही अपने अधीन कर रखा था। उनकी आज्ञा के बिना कोई भी उनके दर्शन नहीं कर सकता था। उन्होंने अत्यन्त ही कठारे व्रत धारण कर रखा था।
प्रात:काल नित्य कर्मों से निवृत्त होकर वे हरिनाम-जप करने के निमित्त कुछ चावल अपने सम्मुख रख लेती थीं और प्रति मंत्र पर एक-एक चावल मिट्टी के पात्र में डालती जाती थीं। इस प्रकार वे तीसरे पहर तक जप करती थीं। फिर तीसरे पहर यत्नपूर्वक वस्त्र से मुख को बाँधकर उन चावलों को पाक करती थीं। बिना नमक और बिना दाल शाक के उन चावलों का महाप्रभु को भोग लगाती थीं, भाँति-भाँति के स्नेह वचन कहतीं, स्तुति-प्रार्थना करके विविध भाँति के विलाप करतीं, अन्त में आचमनी देकर भोग उतारतीं और उसमें से एक मुट्ठीभर चावल प्रसाद समझकर पा लेतीं। शेष बचा हुआ प्रसाद भक्तों में वितरित कर दिया जाता था। इस प्रकार का कठोर व्रत कौन कर सकेगा?’ सचमुच कोई भी इस व्रत को नहीं कर सकता। श्री गौरांग की अर्धांगिनी ! सचमुच तुम्हारा यह व्रत तुम-जैसी तपस्वी की प्रणयिनी के ही अनुरूप है। माता! तुम्हारे ही तप से तो गौरभक्त तप और व्रत का कठोर नियम सीखे हैं। हमारी माताएँ तुम्हें अपना आदर्श बना लें तो यह अशान्ति पूर्ण संसार स्वर्ग से भी बड़कर सुखकर और आनन्दप्रद बन जाय। श्री ईशान नागर ने प्रिया जी का सभी वृत्तान्त अपने प्रभु अद्वैताचार्य से जाकर कहा। आचार्य सुनकर कुछ अन्यमनस्कभाव से कहा– ‘अच्छा, जैसी श्रीकृष्ण की इच्छा।’
अवधूत नित्यानन्द जी भी जाह्नवी और वसुमती नाम की अपनी दोनों गृहिणियों को छोड़कर परलोकवासी बन चुके थे। वसुमती की गोद में वीरचन्द्र नामक एक पुत्र था, जाह्नवी की गोद खाली थी ! जाह्नवी पढ़ी-लिखी और देश-काल को समझने वाली थीं। पति के पश्चात वे ही भक्तों को मंत्र दीक्षा देती थीं। उनका आज तक कभी श्रीविष्णुप्रिया जी से साक्षात्कार नहीं हुआ था। अपने पति अवधूत नित्यानन्द द्वारा वे विष्णुप्रिया जी के गुणों को सुनती रहती थीं। अब जब उन दोनों ने विष्णुप्रिया जी के ऐसे कठारे तप की बात सुनी तब तो श्री विष्णुप्रिया जी के दर्शनों की उनकी इच्छा प्रबल हो उठी। वे दोनों शान्तिपुर से श्री अद्वैताचार्य के घर आयीं और वहाँ से अद्वैताचार्य की गृहिणी श्री सीता देवी को साथ लेकर विष्णुप्रिया जी के दर्शनों को चलीं। नवद्वीप में वे वंशीवदन के घर आकर उतरीं। इस बात को हम पहले ही बता चुके हैं कि वंशीवदन इस असार संसार को सदा के लिये त्याग गये थे, उनके चैतन्यदास और निताई दास ये दो पुत्र थे। बड़े पुत्र के उन दिनों एक पुत्र हुआ था, जिसका नाम घर वालों ने रामचन्द्र रखा था। आग चलकर ये ही रमाई पण्डित के नाम से प्रसिद्ध हुए। इनमें वंशीवदन का अंश माना जाता है।
विष्णुप्रिया जी ने अवधूत की धर्मपत्नियों के आगमन का समाचार सुना। उन्होंने उन बेचारियों को पहले कभी नहीं देखा था। हां, वे सुना करती थीं कि अवधूत अब गृहस्थी बनकर रहते हैं। प्रिया जी बाहर तो निकलती ही नहीं थीं। किन्तु जब उन्होंने अवधूत की गृहिणियों का और सीता देवी का समाचार सुना, तब तो अपने प्रिय शिष्य वंशीवदन के घर जाने में कोई आपत्ति न समझीं। वंशीवदन उनके पुत्र के समान था, वंशीवदन का पुत्र चैतन्यदास भी प्रिया जी के चरणों में अत्यधिक भक्ति रखता था, उसके घर को कृतार्थ करने और उसके पुत्र रामचन्द्र को देखने तथा सीता देवी आदि से मिलने के निमित्त प्रिया जी चैतन्यदास के घर पधारीं। चैतन्यदास का घर प्रिया जी के घर के अत्यन्त ही समीप था। प्रिया जी के पधारने से परिवार के सभी लोगों के हर्ष का ठिकाना नहीं रहा। नित्यानन्द जी की गृहिणी जाह्नवी देवी ने उठकर विष्णुप्रिया जी का स्वागत किया। दोनों ही महापुरुषों की अर्धांगिनी सगी दो बहिनों के समान परस्पर हृदय से हृदय मिलाकर मिलीं। तब जाह्नवी देवी एकान्त में प्रिया जी को लेकर उनसे स्नेह की बातें करने लगीं। जाह्नवी ने स्नेह से प्रिया जी के कोमल कर को अपने हाथ में लेते हुए कहा– ‘बहिन ! तुम इतना कठोर तप क्यों कर रही हो ? इस शरीर को सुखाने से क्या लाभ ? इसी शरीर से तो तुम हरि नाम ले सकती हो। बहिन ! तुम्हारी ऐसी दयनीय दशा देखकर मेरी छाती फटी जाती है। मेरे पति महाप्रभु की आज्ञा से अवधूतवेष छोड़कर गृहस्थी बन गये। उन्हें इतनी कठोरता अभीष्ट नहीं थी। मेरे पति मुझसे अन्तिम समय में कह गये थे, शरीर को कष्ट देना ठीक नहीं है। बहुत कठोरता काम की नहीं होती।’
धीरे-धीरे आँखों में आंसू भरकर प्रिया जी ने कहा– ‘बहिन ! तुम अपने पति की आज्ञा का पालन करो। मेरे पति तो भिक्षुक बनकर, भिक्षा पर निर्वाह करके, स्त्रियों के स्पर्श से दूर रहकर घोर तपस्वी की तरह जीवन भर रहे। उन्होंने अपने शरीर को कभी सुख नहीं पहुँचाया। मैं तो जितना बन सकेगा, शरीर को सुखाऊँगी’। इतना कहते-कहते प्रिया जी रुदन करने लगीं।
इसके अनन्तर उन्होंने जाकर सीता देवी के पैर छुए। सीता माता ने उनके हाथ पकड़ते हुए कहा– ‘तुम गौरांग की गृहिणी हो, जगन्माता हो, तुम मेरे पैर मत छुआ।’ विष्णुप्रिया जी अधीर होकर वृद्धा सीता माता की गोद में लुढ़क गयीं। सीता माता ने उनके सिर को गोदी में रखते हुए कहा– ‘इस कमलवदन को देखकर ही मैं गौरांग के दु:ख को भूल जाती हूँ। विष्णुप्रिये ! तुम इतनी कठोरता मत करो। मेरे वृद्ध पति तुम्हारे इस कठोर व्रत से सदा खिन्न-से रहते हैं।’ विष्णुप्रिया जी के दोनों कमल के समान बड़े-बड़े नेत्रों से निरन्तर अश्रु निकल रहे थे। सीता माता उन्हें अपने अंचल से पोंछ देतीं और उसी क्षण वे फिर भर आते। सीता देवी के वस्त्र भीग गये, किन्तु विष्णुप्रिया जी के नेत्रों का जल न रुका। रोते-रोते उन्होंने सबसे विदा ली। जाह्नवी देवी ने पूछा– ‘बहिन ! अब कब भेंट होगी ?’
अपने आंसुओं से जाह्नवी देवी के वक्ष:स्थल को भिगोती हुई विष्णुप्रिया जी ने कहा– ‘अब मिलना क्या? जब दैव की इच्छा होगी।’ इतना कहते-कहते प्रिया जी ने रोते-रोते जाह्नवी देवी का और वसुमती देवी का आलिंगन किया, सीतामाता के पैर छुए और वे घर को चली आयीं। अब विष्णुप्रिया जी का वियोग दिनों दिन अधिकाधिक बढ़ने लगा। अब वे दिन-रात रोती ही रहती थीं। कांचना उन्हें श्री चैतन्य लीलाएँ सुना-सुनाकर सान्त्वना प्रदान करती रहती, किन्तु विष्णुप्रिया जी का हृदय अपने पति के पास पतिलोक में जाने के लिये तड़प रहा था। इसलिये रात-दिन उनके नेत्रों से अश्रुधारा ही प्रवाहित होती रहती।
फाल्गुनी पूर्णिमा थी, चैतन्यदेव के जन्म का दिवस था। विष्णुप्रिया जी की अधीरता आज अन्य दिनों की अपेक्षा अत्यधिक बढ़ गयी थी। वे पगली की तरह हा प्राणनाथ ! हा हृदयरमण ! हा जीवनसर्वस्व कहकर लम्बी-लम्बी सांसें छोड़ती थीं। कांचना उनकी दशा देखकर चैतन्य–चरित्र सुना-सुनाकर सान्त्वना देने लगी किन्तु आज वे शान्त होती ही नहीं थीं, थोड़ी देर के पश्चात् उन्होंने कहा– ‘कांचने ! तू यादव को तो बुला ला, आज मैं उनकी मूर्ति के भीतर से दर्शन करना चाहती हूँ।’ कांचना ने उसी समय आज्ञा का पालन किया। वह जल्दी से यादवाचार्य गोस्वामी को बुला लायी। आचार्य ने मन्दिर के कपाट खोले। लंबी-लंबी सांस लेती हुई वस्त्र से शरीर ढककर विष्णुप्रिया जी ने मन्दिर में प्रवेश किया और थोड़ी देर एकान्त में रहने की इच्छा से किवाड़ बंद करा दिये। यादवाचार्य ने किवाड़ बंद कर दिये। कांचाना द्वार पर खड़ी रही। जब बहुत देर हो गयी तब कांचना ने व्यग्रता के साथ आचार्य से किवाड़ खोलने को कहा। आचार्य ने ड़रते-ड़रते किवाड़ खोले। बस, अब वहाँ क्या था, श्री विष्णुप्रिया जी तो अपने पति के साथ एकीभूत हो गयीं। उसके पश्चात फिर किसी को श्री विष्णुप्रिया जी के इस भौतिक शरीर के दर्शन नहीं हुए। मन्दिर को शून्य देखकर कांचना चीत्कार मारकर बेहोश होकर गिर पड़ी, सभी भक्त हाहाकार करने लगे। हा गौर ! हा विष्णुप्रिये ! की करुणा भरी ध्वनि से दिशा-विदिशाएं भर गयीं। भक्तों के करुणाक्रन्दन से आकाश मण्डल गूँजने लगा।
क्रमशः अगला पोस्ट [174]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Mrs. Vishnupriya Devi
Gaurashakti, the great illusion, inhabiting the nine islands. I salute that chaste and virtuous goddess dear to Vishnu.
This world exists only because of the support of Mahamaya Shakti. A powerless world cannot be imagined. Almighty Shiva also remains a dead body without power. When there is communication of Shakti Devi in his unconscious dead body, only then he becomes Shiva from dead body. Shakti remains hidden and Shaktimaan appears and gains fame. In reality, the practice of that power is tough. I consider the penance of the Sati-Sadhvi, Shaktirupini Devi, who does spiritual practice in secret, better than the exiled ascetics who live in exile. Just imagine the austerity of that Sati by placing her hand on her heart, who, despite living in the world, remains completely aloof from the world. Her whole world gets embodied in the charming idol of her husband. The business of all her senses, the activities of the mind and heart are only for the husband. The thought of her husband’s form becomes the food of her mind. Aha! How high would be the condition, can any ascetic who considers himself to be grateful by drying the body, can estimate this terrible penance?
Everyone praises Lord Buddhadev’s renunciation of the kingdom, but no one knows the name of that sadhvi Gopa who, after making her five-year-old son Rahul a monk, herself abandoned the palace and went door-to-door with her husband Lord Buddhadev in the form of a monk. Kept begging. Everyone is aware of the asceticism of Paramhansa Ramkrishnadev, but very few people know the name of that innocent girl Shardadevi, who left her ancestral house in the condition of a five-year-old innocent girl and started living in the house of her crazy husband. When Paramhansdev had retired in the madness of love, she was a perfect maiden. Hearing the words of her husband’s insanity, she started living with her sanyasi master, not caring about the localities. Just imagine. Youth, service to the most beautiful man with beauty, that too in solitude and that too a great work of Padseva. The matter of ultimate surprise is that even that man is not another man, he is his real master, on whom no kind of disorder comes in mind. Those poets who say, ‘Kamaschashtgunah smritah.’ Can imagine whether such severe penance is anything less than the penance of standing in water for hundreds of years in the panchagni and in the cold? Aha! We offer our obeisances at the feet of such Sati-Sadhvi goddesses.
Readers have already read the story of Mahaprabhu’s renunciation in the previous episodes, but even more renunciation became known to the world, but Shri Vishnupriya ji’s meditation in a deep corner inside the house was completely separated from the eyes of men and women. , That’s why she could not get that much fame. Whatever little news we get of his spiritual practice, we get goosebumps on hearing it. Can anyone do this kind of harshness? Can such intense austerity be possible through the so-called female caste? But there is no question of unbelievers in this. Advaitacharya’s favorite disciple Ishan Nagar has mentioned this in his famous book ‘Advaita-Prakash’ after seeing it directly. Hearing the story of that harshness, even the heart of harshness will start bursting. It is a very sad story.
It is indescribable that Mahaprabhu retired and became a renunciate. It is indescribable how much distress that husband and wife Priya ji must have suffered because of that. It is beyond the power of man. Once, while going to Vrindavan, Lord Vishnupriya ji had visited his old home for a moment only to pacify the intense separation pain. At that time, Vishnupriya ji had requested for some sign from her monk husband’s lotus feet for life support. Dayamay Prabhu had given the holy shoes of his lotus feet to Priya ji at the same time and had preached to keep living through them. Patiparayana Priya ji was very happy after getting her husband’s sandals and by making them the support of her life, she sustained this five physical body. His mind always kept wandering in the place of a Nibhrit of Neelachal, between two feet of some arun color. The body would remain here in Navadweep, through it she would always serve her old mother-in-law. The only support of Sachimata’s life was the lotus-like face of her beloved daughter-in-law. Mother used to make various efforts to develop and make that droopy face happy. The son decorates the bride’s gold-like body with beautiful clothes and ornaments. She used to wear Jagannath ji’s very valuable pattavastra sent by the Lord and tried to keep him happy in various other ways. But Vishnupriya ji’s happiness is languishing in some corner of Puri’s Gambhira temple, how can she come to Navadweep. Her body is only one, that’s why Vishnupriya ji would not have been happy even an atom by these clothes. She didn’t want to disobey her old mother-in-law’s orders. Due to the fear that Prasadi Prasadi Pattvastra of the Lord would not be insulted, she used to wear that valuable cloth as well as put on ornaments but she did not go out wearing them.
Prabhu’s old servant Ishaan was still at Prabhu’s house. Sachimata loved him like a son. He used to do all kinds of service to Priya ji and mother. Ishaan had become very old, that’s why the Lord had sent a Brahmin named Vanshivadan to serve the mother. Both of them used to do all the service of mother and Priya ji with body and mind. Priya ji had a maidservant friend named Kanchana, she would always stay with Priya ji and serve her in every way. Damodar Pandit also used to take care of the mother by staying in Navadweep and used to go to Puri in between and listen to all the dialogues of mother and Priya ji. Vishnupriya ji used to lead an ascetic life in those days. When the Lord heard the news of his severe disinterest and difficult penance through Damodar Pandita, he would have been very happy in his heart. The only support of Vishnupriya ji was the pious feet of the Lord. She used to worship him with incense, lamp, naivedya etc. on a high pedestal in her worship house. they constantly-
Hare Ram Hare Ram Ram Ram Hare. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare.
She used to chant this mantra. She reduced her diet very much, but at the insistence of Sachi Mata, she used to eat a little more sometimes. The old mother’s heart was torn apart due to the bereavement of her son. Hearing the ecstatic condition of the son, it was as if someone had pierced his wounded heart with an arrow extinguished with poison. One day the mother became impatient and said to the devotees- ‘The flame of sorrow for the separation of Nimai is now burning my conscience with intensity, now this earthly body of mine will not be able to survive, so you take me to the banks of Bhagwati Bhagirathi. The devotees obeyed the order of Jaganmata, and they themselves carried the palanquin on their shoulders to the banks of the Ganges. Vishnupriya ji also reached there by climbing on a palanquin from behind. Distressed by the bereavement of her son, the mother called her beloved daughter-in-law to her. Holding his hand slowly with her hand, the mother kissed the bride’s forehead with pain and left this mortal body after admonishing her.
All the devotees were deeply saddened by Sachimata’s departure to Vaikunth. Priya ji returned home after performing the rituals of her mother-in-law. Now she was left all alone. Ishaan had already become a resident of the other world before his mother, he did not have to see the heart-wrenching scene of his loving mother with his own eyes. There was Vanshivadan in the house, and Damodar Pandit also looked after the work of the house. Vairagya of Vishnupriya ji increased even more, now she used to suffer day and night in separation from her Prannath. Till now the sorrow of mother’s separation had not subsided that Priya ji got the heart-wrenching news that Mr. Gaur had gone to his eternal abode after wrapping up his pastimes. Hearing this sad news, Tapaswini Vishnupriya ji fell on the ground like a cut banana tree. He completely abandoned food and water. Swamini-devotee Vanshivadan how would he have taken food in such a condition.
He was also a mantra disciple of Priya ji, so he also did not give a grain of food in his mouth. Devotees came and made various requests, but Priya ji did not accept food and water at all. When Shri Gauranga Dev, appearing in a dream, ordered him to assume the body for a few more days, then he took some food.
One day Priya ji was sleeping inside, Vanshivadan was sleeping outside in the verandah. At the same time, he saw in his dream – as if Shri Gaurang had come and said – ‘Install my wooden idol under the neem tree under which I drank mother’s breast, I will come and live in it.’ The time was startled and she sat up, it was about to be morning, Vanshivadan also woke up and he too had seen the same dream at that very moment. When both of them told each other about the dream, then soon the planning for the installation of Darumayi idol started. Vanshivadan cut a beautiful wood of the same neem and got a carpenter made a very beautiful idol of Shri Gauranga. The idol was ready in fifteen days, Vanshivadan engraved his name on it with an iron rod. When the Deity of Shri Gauranga was put on the throne dressed in Vastra Bhushan, then everyone started seeing Shri Gauranga directly in it. Vanshivadan consecrated the idol with great fanfare by calling devotees from far and wide and made a huge bhandara.
Goddess Vishnupriya ji appointed her brother and brother’s son Yadavanandan in the temple for daily worship of Srivigraha. Shri Vishnupriya ji used to go to the temple regularly for darshan and Vanshivadan also used to be very happy to see that beautiful idol. That idol is still enshrined in Sri Navadvipa and its Goswami priests are from among the descendants of the same Sri Yadavanandacharya. Now-a-days all of them are Mr. and wealthy, among the devotees they are called Syalakvamsa Goswami of Mahaprabhu.
After a period of time, Vanshivadan also became a resident of the other world by abandoning this Asar world. Now the burden of all the service of Priya ji fell on the old Damodar Pandit. Priya ji was very upset due to the separation of her beloved disciple and now she stopped coming out of the house. Earlier in the dark, Ganga used to go to the ghat to bathe with Kanchana, now she started bathing by asking for Ganga water at home. No man could see him. Although he never talked to other men in his life, but now he has stopped giving darshan to the devotees as well. In the evening, the devotees used to see his feet through the cover of the curtain, the devotees would consider themselves grateful just by seeing those soft lotus feet of arun color.
Shrimad Advaitacharya ji was still alive. Due to old age, his body had become very dilapidated. When he heard about such harsh penance of Priya ji, then he sent his dear disciple Ishan Nagar to Navadweep to get the news of Priya ji. Nagar Mahasaya came from Shantipur. Here Damodar Pandit Ishan Nagar got involved in Priya ji’s antarpur and he was blessed by seeing Priya ji’s lotus feet. In those days, Priya ji’s penance was becoming supernatural. She always used to sit in the temple of worship. Filled rice in one vessel and kept it in front of her and kept the other vessel empty. After taking bath in the morning, she would sit to chant the Mahamantra. Once-
Hare Ram Hare Ram Ram Ram Hare. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare.
Said this mantra with sixteen names and put a rice in that empty vessel. In this way, till the third hour, she used to chant continuously.
The same number of rice poured with the number of chants would be cooked in the third hour. She neither puts salt in them nor cooks pulses. Simply, by applying some rice as bhog, she herself would get it in the form of Prasad, and would leave the rest in a plate for the purpose of distributing Prasad to the devotees, which Kanchana would distribute among the devotees. Reader, take a guess. By chanting this mantra of thirty-two letters, how much rice would be available till the third hour, getting only those without pulses and greens and leaving the rest for Prasad. The snacks are over here. Ishaan Nagan himself has described in his book called ‘Chaitanya Prakash’-
Sachidevi, the mother of Vishnu, disappeared. He closed the door of the devotee in his own order. Without the wire command, the strings are forbidden to see. She observed a very strict vow. The morning bath is a disaster for the afternoon horse. Bring some rice in the name of Harinam. Put one rice per name in the dead vessel. According to Hen, the third hour is the name of the rhythm. Japan took only seven loaves of rice. She cooked her face with care and tied it with clothes. Unsalted utensils food laya. Mahaprabhur bhog lagay kakuti karia. Various lamentations made the bath. I will only eat a handful of offerings. The rest of the grace does not disappear from your devotee. Echan kathoor brat ke karite pare.
That is, ‘Shri Vishnupriya Devi used to get the doors of her house closed by the devotees after Sachimata passed away. He himself had kept the right to open the door or not to open it. No one could visit him without his permission. He had observed a very strict fast.
Early in the morning, after retiring from daily rituals, she used to keep some rice in front of her for chanting Harinam and used to put one rice in an earthen pot on every mantra. In this way she used to chant till three in the afternoon. Then in the third hour, she diligently used to clean those rice by tying her face with a cloth. Without salt and pulses, she used to offer that rice to Mahaprabhu, used to say many affectionate words, praised and prayed, lamented in various ways, in the end she used to offer achmani and get a handful of rice as prasad. . The remaining prasad was distributed among the devotees. Who would be able to observe such a rigorous fast?’ Really no one can observe this fast. The wife of Shri Gaurang! Truly this fast of yours is in accordance with the love of an ascetic like you. Mother! Gaurabhakts have learned the strict rules of penance and fasting from your penance. If our mothers make you their role model, then this restless world will become happier and more blissful than heaven. Mr. Ishan Nagar went and told all the stories of Priya ji to his Lord Advaitacharya. After listening to Acharya said with some other mind – ‘Good, as desired by Shri Krishna.’
Avdhoot Nityanand ji had also become a resident of the other world leaving his two housewives named Jahnavi and Vasumati. Vasumati had a son named Veerachandra in her lap, Jahnavi’s lap was empty! Jahnavi was educated and understood the country and time. After her husband, she used to initiate mantras to the devotees. He had never had an interview with Shri Vishnupriya ji till date. She used to listen to the virtues of Vishnupriya ji through her husband Avdhoot Nityananda. Now when both of them heard about such harsh penance of Vishnupriya ji, then their desire to see Shri Vishnupriya ji got stronger. Both of them came from Shantipur to Shri Advaitacharya’s house and from there took Advaitacharya’s wife Shri Sita Devi along with them to visit Vishnupriya ji. She landed in Navadweep after coming to Vanshivadan’s house. We have already told this thing that Vanshivadan had left this Asar world forever, he had two sons Chaitanya Das and Nitai Das. The eldest son had a son in those days, whom the family members named Ramchandra. After going through the fire, he became famous by the name of Ramai Pandit. It is considered a part of Vanshivadan.
Vishnupriya ji heard the news of the arrival of Avadhoot’s wives. He had never seen those poor women before. Yes, she used to hear that Avdhoots now live as householders. Priya ji did not come out at all. But when he heard the news of Avadhoot’s housewives and Sita Devi, then he did not consider any objection to going to the house of his beloved disciple Vanshivadan. Vanshivadan was like his son, Vanshivadan’s son Chaitanyadas also used to have a lot of devotion at the feet of Priya ji, Priya ji came to Chaitanyadas’s house to see his son Ramchandra and meet Sita Devi etc. Chaitanya Das’s house was very close to Priya’s house. Due to the arrival of Priya ji, there was no place for the joy of all the family members. Jahnavi Devi, the housewife of Nityanand ji, got up and welcomed Vishnupriya ji. The better half of both the great men met each other heart to heart like real sisters. Then Jhanvi Devi started lovingly talking about Priya ji in solitude. Jhanvi affectionately took Priya ji’s soft hand in her hand and said- ‘Sister! Why are you doing such a harsh penance? What is the benefit of drying this body? With this body you can take the name of Hari. Sister! Seeing your pitiable condition breaks my heart. By the order of Mahaprabhu, my husband gave up his disguise and became a householder. He did not want such harshness. My husband had told me at the last moment that it is not right to give pain to the body. Too much harshness is of no use.
Slowly, with tears in her eyes, Priya ji said – ‘Sister! You obey your husband’s orders. My husband lived like a severe ascetic, becoming a mendicant, living on alms, staying away from the touch of women. He never gave pleasure to his body. I will dry the body as much as I can’. While saying this, Priya ji started crying.
After this he went and touched the feet of Sita Devi. Sita Mata holding her hands said- ‘You are Gaurang’s housewife, Jaganmata, you don’t touch my feet.’ Vishnupriya ji got impatient and rolled in the lap of old Sita Mata. Sita Mata kept his head in her lap and said- ‘I forget Gaurang’s sorrow just by seeing this lotus flower. Vishnu Priya! Don’t be so harsh. My old husband is always upset because of this strict fast of yours.’ Tears were continuously coming out of both the eyes of Vishnupriya ji, big like lotus. Sita Mata would wipe them from her lap and at the same moment they would be filled again. Sita Devi’s clothes got wet, but Vishnupriya ji’s eyes did not stop watering. He said goodbye to everyone while crying. Jhanvi Devi asked – ‘Sister! Now when will we meet?
Wetting the chest of Jhanvi Devi with her tears, Vishnupriya ji said- ‘What to meet now? When God wills it. Saying this, Priya ji hugged Jahnavi Devi and Vasumati Devi while crying, touched Sita Mata’s feet and went home. Now the separation of Vishnupriya ji started increasing day by day. Now she used to cry day and night. Kanchana used to console her by reciting Sri Chaitanya’s pastimes, but Vishnupriya ji’s heart was yearning to go to her husband in Patiloka. That’s why tears used to flow from his eyes day and night.
It was Falguni Purnima, the day of Chaitanyadev’s birth. Vishnupriya ji’s impatience had increased more today than other days. They are like crazy Ha Prannath! Ha Hridayaraman! She used to exhale long after saying yes to life. Seeing her condition, Kanchana started consoling her by reciting Chaitanya-charitra, but today she was not able to calm down, after a while she said- ‘Kanchane! You call Yadav, today I want to have darshan from inside his idol.’ Kanchana obeyed at the same time. She quickly called Yadavacharya Goswami. Acharya opened the doors of the temple. Covering her body with a cloth, taking a long breath, Vishnupriya ji entered the temple and closed the doors with the desire to remain alone for a while. Yadavacharya closed the doors. Kanchana stood at the door. When it was too late, Kanchana anxiously asked Acharya to open the door. Acharya opened the door in fear. That’s all, what was there now, Shri Vishnupriya ji got united with her husband. After that no one could see this physical body of Shri Vishnupriya ji. Seeing the empty temple, Kanchana fell down unconscious screaming, all the devotees started crying. Oh look! Oh Vishnu Priya! The directions were filled with the sound of compassion. The sky started resounding with the cries of compassion of the devotees.
respectively next post [174] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]