(जब बाली और सुग्रीव शत्रु बन गए – हनुमान)
प्रीति रही कछु बरनी न जाई…
(रामचरितमानस)
भरत भैया !
पर इन दोनों भाइयों में अपार प्रेम था… बाली और सुग्रीव में ।
एक दिन दोनों का ये प्रेम टूटा… और शत्रुता इतनी बढ़ गयी कि दोनों एक-दूसरे के प्राणों के प्यासे ही हो गये थे… हनुमान जी ने भरत जी को बताया ।
तब मैंने सुग्रीव का साथ देते हुए… किष्किन्धा को छोड़ दिया… और हम लोग ऋष्यमूक पर्वत पर आकर रहने लगे थे ।
सुग्रीव का साथ देने वालों में उपदेव जामवन्त भी थे ।
पर बाली और सुग्रीव की तो अच्छी खासी मित्रता थी… फिर दोनों सहोदर भाई भी थे… शत्रुता का कारण क्या था पवनसुत ?
भरत जी ने पूछा ।
हनुमान जी मुस्कुराते हुए उस प्रसंग को सुनाने लगे… जिसके कारण दोनों भाई आज शत्रुता की अग्नि में जल रहे थे ।
भरत भैया ! एक मायावी नामक राक्षस था ।
अपने जीजा रावण को… जब सुना कि… एक वानर ने अपने काँख में दबा लिया था… तब से ये मन्दोदरी का भाई “मायावी”, बाली को सबक सिखाने के फ़िराक में ही था ।
एक दिन मदिरा पीकर… किष्किन्धा में चला आया… और वो भी अर्ध रात्रि को… बाली ! ए बाली ! चल निकल बाहर !
मैं तुझसे युद्ध करने आया हूँ… बाहर निकल ।
भरत भैया ! उस मायावी ने बाली को देखा नही था… इसके बारे में सुना मात्र था… बाली क्रोधित हो उठा… और मायावी से लड़ने को निकला बाहर… पर बाली के साथ सुग्रीव भी निकले… और सुग्रीव के साथ मैं तो था ही ।
भरत भैया ! मुझे हँसी आई… बाली का शरीर देखकर वो मायावी राक्षस तो भागा… अब बाली… शत्रु को क्यों छोड़ने लगा भला ! बाली उस मायावी के पीछे… और बाली के पीछे सुग्रीव और हम लोग ।
विचित्र था वो मायावी राक्षस… छुपने के लिए एक गुफा में चला गया… पर गुफा इतनी संकरी थी कि एक ही आदमी उसमें जा पाता था…
बाली ने रोक दिया अपने भाई सुग्रीव को… और कहा… जब तक मैं न आऊँ… तुम लोग यही रहना… मेरी प्रतीक्षा करना… ठीक है ?
सुग्रीव ने अपना सिर हाँ में हिलाया ।
पर जाते-जाते बाली फिर एक बात बोल गया… 15 दिन तक मेरी प्रतीक्षा करना… उसके बाद वापस किष्किन्धा चले जाना ।
इतना कहकर बाली गुफा में चला गया… और हम लोग गुफा के बाहर ही बैठे रहे ।
दिन रात आवाज आती रहती थी… गदाओं के टकराने की…
चीखने और चिल्लाने की… पत्थरों के… तोड़-फोड़ मचाने की ।
15 दिन क्या… हमें तो एक महीना हो गया था…
कुछ दिनों से कोई आवाज नही आ रही है… हाँ अंतिम आवाज के रूप में… एक चीख सुनाई दी थी… उसके बाद खून की धारा पनारे के रूप में गुफा से बाहर निकली थी…।
डर गए सुग्रीव… हनुमान ! देखो ना मेरे प्रिय बड़े भाई बाली को उस मयसुत ने मार दिया ।
मैं उन दिनों शान्त ही रहता था… और शान्त न भी रहता तो क्या कर लेता… मैं तो अपना बल पराक्रम सब भूला हुआ था ।
एक बड़ा पर्वत उठाकर सुग्रीव ने गुफा के द्वार को बन्द कर दिया…
और लौटकर किष्किन्धा में चले आये ।
किष्किन्धा में आते ही सुग्रीव को राजा बना दिया गया था…
पर भरत भैया ! जब मन्त्रोच्चार के बीच राज्याभिषेक सुग्रीव का हो रहा था… तभी बाली आ गया ।
और बाली का शरीर उस समय क्रोध से काँप रहा था… सीधे राजगादी में बैठे अपने अनुज सुग्रीव को उसने मारना शुरू कर दिया ।
पर मुझे आश्चर्य हुआ… वो सुग्रीव भागा वहाँ से… पीछे-पीछे बाली भागता रहा… पर सुग्रीव ऋष्यमूक पर्वत पर आकर रुक गया था… और हम लोग भी… ऋष्यमूक पर्वत पर आकर रहने लगे थे ।
ये ऋष्यमूक पर्वत तो किष्किन्धा के पास में ही होगा ना ?
भरत जी ने प्रश्न किया…
हाँ, भरत भैया ! पास में ही था… हनुमान जी ने उत्तर दिया ।
फिर बाली उस ऋष्यमूक पर्वत पर क्यों नही गया ?
नही जा सकता… क्यों कि ऋषि मतंग का श्राप है… बाली ऋष्यमूक पर्वत में जाएगा तो उसका सिर टूक-टूक हो जाएगा ।
हनुमान जी ने कहा ।
उस प्रसंग को भी सुनना चाहते हैं भरत जी… तो पवनसुत भी सुनाने लगे थे ।
एक राक्षस था… उसका नाम था दुन्दुभि
वो महिष यानि भैंस के रूप में ही रहता था…
बड़ा भारी राक्षस था ये दुन्दुभि… किष्किन्धा आ गया एक बार… और किष्किन्धा की सुन्दरता को बिगाड़ने लगा था… राज्य के उपवन… सब उजाड़ दिए ।
ये सब देखकर बाली बहुत क्रोधित हो गया था… उसने दुन्दुभि की पूंछ पकड़कर किष्किन्धा से कुछ ही दूर ऋष्यमूक पर्वत पर… फेंक दिया… पर ये क्या !
माता शबरी के पूज्य गुरुदेव ऋषि मतंग साधना में लीन थे…
उनके ही ऊपर आकर गिरा उस दुन्दुभि का शरीर… उसकी हड्डियां बिखर गयी थी…
तब परमशान्त ऋषि मतंग ने भी श्राप दे दिया था… बाली ! आज के बाद अब तू इस ऋष्यमूक पर्वत पर आया भी ना… तो तेरे सिर के टुकड़े टुकड़े हो जायेंगे…
ये श्राप मिला था बाली को… भरत भैया ! इसलिये ऋष्यमूक पर्वत पर आ नही सकता था… इसलिये उस पर्वत को ही अपना स्थान चुना सुग्रीव ने… हनुमान जी ने भरत जी को ये बात बताई ।
हनुमान जी ! बाली ऋष्यमूक पर्वत पर नही जा सकता… पर किसी और शूर वीर को तो भेज ही सकता था… भरत जी ने ये बात पूछी ।
हाँ… भरत भैया ! वो किसी और को भेज सकता था… पर मैं था सुग्रीव की रक्षा में… इस बात को बाली समझता था ।
वो कहता भी था हनुमान अवध्य है… उसको कोई मार नही सकता ।
बस ये केसरी नन्दन हनुमान सुग्रीव के पास से हटे… तो सुग्रीव क्या मैं काल से भी लड़ जाऊँ… ये बात बाली कहता था ।
शेष चर्चा कल…
हे दुखभंजन मारुती नन्दन, सुन लो मेरी पुकार
पवनसुत विनती बाम्बार ।