ओशो लेख

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मैं अपने निवास स्थान योगेश भवन से निकलकर नजदीक ही स्थित भंवरताल पार्क की ओर जाने लगा। मेरी वह चाल ही नई थी, ऐसा लग रहा था जैसे ंगुरुत्वाकर्षक समाप्त हो गया हो। मुझे लग रहा था मैं चल नहीं दौड़ रहा हूं या उड़ रहा हूं। उस समय मैं निर्भार सा था। जैसे कि कोई उर्जा मुझे खींच रही थी, किसी ऊर्जा ने मुझे अपने हाथों में ले लिया था।
पहली बार मैं अकेला नहीं था, पहली बार मैं एक व्यक्ति नहीं था। पहली बार बूंद सागर में गिर गई थी। अब वह सारा सागर मेरा था, मैं ही सागर बन गया था। उसकी कोई सीमा नहीं थी। मेरे भीतर ऐसी शक्ति उठ रही थी जिसके कारण मैं कुछ भी कर सकता था। वस्तुतः मैं था ही नहीं, केवल वह शक्ति वहां थी।

मैं उस बगीचे के पास पहुंचा जो उस समय बंद था क्योंकि रात का लगभग एक बज रहा था। माली सो गए थे। मुझे चोरों की तरह फाटक पर चढ़कर कूदना पड़ा क्योंकि कुछ मुझे उस बगीचे की ओर खींच रहा था और मैं अपने आपको रोक नहीं सकता था। मैं तो हवा में तैर रहा था।

जैसे ही मैं भंवरताल बगीचे में घुसा वैसे ही वहां पर सब कुछ प्रकाशमान हो गया। चारों ओर भगवत्ता बरस रही थी। मैंने पहली बार वृक्षों की हरियाली और उनके भीतर के जीवन रस को देखा। समस्त बगीचा सोया हुआ था, वृक्ष भी सोए हुए थे, लेकिन मुझे वह सारा बगीचा जीवंत मालूम हुआ। घास के छोटे-छोटे पत्ते भी बहुत सुंदर दिखाई दे रहे थे। मैंने चारों ओर देखा। एक पेड़-मौलश्री का पेड़ बहुत ही ज्योतिर्मय था। उसने मुझे अपनी ओर आकर्षित किया। मैंने नहीं, परमात्मा ने ही उसे चुना था। मैं जाकर उसके नीचे बैठ गया।

जैसे ही मैं बैठा, सब शांत होने लगा। समस्त विश्व से भगवत्ता बरसने लगी। यह कहना मुश्किल है कि इस स्थिति में मैं कब तक रहा। जब मैं वापस घर आया तो सुबह के चार बज रहे थे। तो इसका अर्थ है कि मैं वहां तीन घंटे रहा।

वे तीन घंटे अनंत काल की तरह लग रहे थे- वह अनुभव समयातीत था, समय था ही नहीं, उस अस्पर्शित, विशुद्ध, कुंवारी, वास्तविकता की कोई सीमा नहीं थी, उसे मापा नहीं जा सकता था। उस दिन जो घटा वह मेरे भीतर अंतरधारा की तरह निरंतर बहने लगा। हर क्षण, वह बार-बार घटने लगा। हर क्षण वह चमत्कार होने लगा। उस रात से मैं अपने शरीर में नहीं रहा- मैं बस उसके इर्द-गिर्द घूमने लगा।

|| OSHO ||

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