भगवत पथ कृपा स्वरूप है,

हरि कृपा….

भगवत पथ कृपा स्वरूप है, कृपा, सहज कृपा, अकारण कृपा, नित्य कृपा, अहैतुकी कृपा , केवल कृपा।कलुषित चित्त जीव का सामर्थ्य भी नहीं की एक भी भगवत नाम का उच्चारण कर सके। इसका अर्थ यह नहीं कि भगवत मार्ग कठिन है, मार्ग कठिन नहीं वरन उस कृपा की सहजता अनुभव करना ही कठिन है। कृपा वर्षा नित्य है, निरन्तर है। जीवन मे रसिक सँग, भगवत नाम, भगवत कथा सब कृपा स्वरूप हैं , क्षण क्षण स्वास कृपा है, सम्पूर्ण जीवन कृपा है, परन्तु जड़ता वश इस कृपा का आदर नहीं है।जीव की जड़ता के आवरण इतने गहरे हैं कि नित्य हो रही कृपा वर्षा से बचने को अहंकार का छाता लगा हुआ है, जिससे इस कृपा वृष्टि में भीजना सम्भव नहीं। अविरल बरस रही कृपा वृष्टि का पान ही सम्पूर्ण जड़ता को धो सकता है, गलित कर बहा सकता है, शुद्ध कर सकता है। जैसे वर्षा से पूर्व सम्पूर्ण वनस्पति पर धूल, कालिमा का आवरण रहता है , परन्तु वर्षा उपरन्त एक दिव्यता, सौम्यता, मधुरता ही बिखरती है, क्योंकि उस कृपा वृष्टि से सम्पूर्ण कलुषता बह जाने से मधुरिमा प्रकट हो रही है। वनस्पति जगत में कोई अहंकार रूपी छाता नहीं है परन्तु जीव भिन्न भिन्न रँग के छाते के नीचे इस वर्षा से भीगने को बच रहा है।

कृपा वृष्टि का आदर ही इस कृपा को भीतर उतारने का साधन है। जितनी कृपा अनुभवित है , जीव भाव उतना ही गलित है। उसी कृपा में भीगते हुए व्याकुलता प्राप्त होती है जो निर्मलता की ओर अग्रसर कर उस वर्षा में भिगो देती है। कृपा के आस्वादन करवाने को श्रीप्रभु नित्य नव नव लीला रचते हैं,

परन्तु नेत्रों पर ऐसा विलासी चश्मा है जो कृपा को अनुभव नहीं करने दे रहा। श्रीप्रभु का एक एक नाम कृपा है, जो जीव को किसी सामर्थ्य से प्राप्त नहीं, उनकी कृपा से प्राप्त है। रसिक स्पर्श वह अहैतुकी कृपा है जो लोहे को पारस सम कर देती है। इतनी कृपा होते हुए भी यदि जड़ता शेष है तो उसका एकमात्र कारण कृपा का अनादर ही है। जब जीवन मे हीरे मोती माणिक सहजता से बरसते हैं परन्तु कोई इनकी प्राप्ति के लिए कोयले की खान का खनन करे , तो हाथ केवल कालिमा ही शेष है, क्योंकि प्राप्त कृपा का अनादर है। नाम रस की मधुरिमा छोड़ अन्य कोई वस्तु प्रिय है तो उस मूर्ख की दशा माखन मिश्री की मधुरता का आस्वादन छोड़ विष्ठा पान की दशा है

जिससे प्राप्त सम्पूर्ण कृपा का अनादर ही है। सार रूप में कृपा नित्य है,सहज है, सबको प्राप्त है, यदि कहीं जड़ता है तो केवल अनादर के कारण ही। श्रीप्रभु दोनो भुजा पसारे हुए जीव रूपी अपने अंश के आलिंगन को व्याकुल खड़े हैं, केवल उनकी ओर निहारने, पुकारने तथा दौड़ने भर की देरी है

जय श्री श्यामा श्याम



Hari Kripa….

Bhagwat Path is the form of grace, grace, spontaneous grace, causeless grace, eternal grace, causeless grace, only grace. A person with a polluted mind is not even able to pronounce even a single name of God. It does not mean that the path of God is difficult, the path is not difficult, but it is difficult to experience the ease of that grace. The shower of grace is continuous, continuous. Lover’s company in life, Bhagwat name, Bhagwat story are all forms of grace, every moment of breath is grace, whole life is grace, but this grace is not respected due to inertness. There is an umbrella of ego to avoid it, due to which it is not possible to get wet in this rain of blessings. Only the betel leaf of rain of grace that is showering continuously can wash away all inertness, melt it away, purify it. Just like before the rain, there is a cover of dust and blackness on the entire vegetation, but after the rain, only a divinity, gentleness, sweetness spreads, because due to the rain of grace, all the impurities are being washed away. There is no umbrella in the form of ego in the plant world, but the living being is avoiding getting wet from this rain under different colored umbrellas.

Respect for the shower of grace is the only means to bring this grace inside. The more grace is experienced, the more the sense of life is wrong. Getting wet in the same grace, distraction is achieved which leads to purity and gets soaked in that rain. Shriprabhu creates new leela daily to make us taste the grace,

But there are such luxurious spectacles on the eyes which are not allowing to experience grace. Each and every name of Shriprabhu is grace, which is not attained by the creature by any power, it is attained by His grace. Romantic touch is that causeless grace which turns iron into Paras. Despite having so much grace, if inertia remains, then the only reason for it is the disrespect of grace. When diamonds, pearls and rubies rain easily in life, but someone digs a coal mine to get them, then only blackness is left on the hand, because the received grace is disrespected. If anything other than the sweetness of name is dear, then the condition of that fool is the condition of excrement, leaving the taste of the sweetness of Makhan Mishri.

Due to which all the grace received is disrespected. In essence, kindness is eternal, it is easy, it is available to everyone, if there is inertia, it is only because of disrespect. Shree Prabhu is standing anxious to embrace his part in the form of creatures with both arms spread, there is only delay in looking at him, calling out and running

Jai Shree Shyama Shyam

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One Response

  1. Your article gave me a lot of inspiration, I hope you can explain your point of view in more detail, because I have some doubts, thank you.

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