जगत में दो मार्ग है – त्याग और समर्पण


हम सभी जानते और कहते हैं कि प्रत्येक कार्य करते समय ईश्वर को सदैव याद रखे।किन्तु परिस्थिति बदलने पर सब भूल जाते है। ज्ञान सतत नहि रहता। इसलिए रोज थोड़ा-थोड़ा सत्संग करो। सत्संग करने से मैल दूर होता है। जीव जन्म के समय तो शुद्ध होता है किन्तु संग का रंग चढ़ने के कारण वह भी उसी की तरह हो जाता है। हम सांसारिक प्राणी केवल अपना हित ही ऊपर रखते है।और अपना हित पाने के लिए अनेक लोग जाने अंजाने अनेतिक कार्य करते है।
सो हमेशा संतों के संग में रहो।
सन्त वह है,जो हर कही सौन्दर्य देखता है किन्तु मन में नहीं लाता। हमेशा प्रभु का ही चिंतन करता है। त्रिलोक का राज्य मिलने पर भी जो भगवान को न भूले,वही सच्चा संत है।
जब तक सांसारिक विषय प्रिय लगे,तब तक तुम संत नहीं बन सकते। मुक्ति के लायक नहीं हो।
जगत में दो मार्ग है – त्याग और समर्पण। जो त्याग मार्ग पर न जा सके उसके लिए समर्पण मार्ग बताया है। त्याग से आशय सभी गैर जरूरी भौतिक वस्तुओं का सेवन छोड़ दो,यदि ऐसा नहीं कर सकते तो स्वयं का परमात्मा के आगे समर्पण कर दो।
महात्माओं ने कहा है – सभी के साथ प्रेम करो पर उनमे आसक्त न हो। सर्व कार्य कृष्णार्पण बुद्धि से करो। अर्थात मै किसी का नहीं हूँ और कोई मेरा नहीं है,ऐसा मानकर सर्वस्व का त्याग करके प्रभु से प्रेम करो।
कायेन वाचा मनसेंद्रियैवा बुद्धयात्मना वा नृसूतस्वभावत।
करोति यद् यत सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयेतत।
शरीर,वाणी,मन,इन्द्रियाँ,बुद्धि तथा स्वभाव से किये जाने वाले सभी कर्मो को
नारायण को समर्पित करना ही सीधा सरल भगवत धर्म है।
इस प्रकार प्रतिक्षण प्रत्येक वृत्ति द्वारा भगवान के चरणकमलों का भजन करनेवाला व्यक्ति,प्रभु की प्रीति,प्रेममयी भक्ति तथा संसार के प्रति वैराग्य और भागवत-स्वरुप का अनुभव-ये सब एक साथ प्राप्त करना है।
आत्मस्वरूप भगवान समस्त प्राणियों में आत्मरूप-नियंतारूप से स्थित है।
जो भक्त, कही भी अधिकता या न्युनत्ता न देखकर सर्वत्र भागवत-सत्ता को ही देखता है,और,”समस्त प्राणी और पदार्थ आत्मस्वरूप भगवानका ही रूप है,भागवत -स्वरुप है”
ऐसा अनुभव करता है,उसे भगवान का परम प्रेमी भक्त मानो। (साभार: अज्ञात)
जय जय श्री राधेकृष्ण जी।श्री हरि आपका कल्याण करें।

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One Response

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