गतांक से आगे –
एक दिन – लाला बाबू पालकी में बैठ कर जा रहे हैं …उनके आगे पीछे नौकर हैं ….सन्ध्या की वेला है …पवन अपनी मन्द गति से बह रहा है ….गंगा के किनारे इनकी पालकी को रोकी गयी ….सुन्दर स्थान है वह , लता पताओं से आच्छादित स्थान है वह ….यह स्थान बचपन से ही प्रिय था लाला बाबू को ….ये पालकी से उतरे हैं ….सामने एक पाषाण है उसी में इनके नौकरों ने एक धवल श्वेत गद्दी बिछा दी है ….चार मसनद लगा दिये हैं , दो पीछे और दो बगल में ….एक नौकर ने हुक्का में सुगन्धित तम्बाकू भरकर उसकी नली लाला बाबू के सामने रख दी …लाला मसनद में पीठ टिकाए मस्ती में बैठे हैं गंगा की लहरों को देख रहे हैं ….आग लग चुकी है हुक्का में पर लाला बाबू का ध्यान गंगा की ओर है ….नौकर ने फिर हुक्के में आग लगाई है और नली फिर लाला की ओर …..इस बार नली हाथ में ले ली और मुँह से लगाकर गुडगुडाने लगे ….और धुंऐ का छल्ला बनाकर ऊपर उड़ा दिया था । मन में मस्ती छा गयी थी लाला बाबू के ….
गंगा में कई नावें चल चल रहीं हैं …..केवट नाव को खींच रहे हैं …कोई किनारे में नाव को सजा रहा है ….क्यों की रात्रि भर के लिए अमीर लोग नाव को लेते हैं विलासिता के लिए ….कोई मोल भाव कर रहा है …..पर उस केवट से उसकी बात बन नही रही ….तो वो दूसरे के पास जाने लगता है ….पहला केवट दूसरे केवट से उलझ पड़ा है ये कहकर कि मेरे ग्राहक से तू क्यों बात करता है …..लाला बाबू इन सबको देखते हुये अपना हुक्का गुडगुडाने में ही लगे हैं ।
तभी ……दूर एक मधुर आवाज सुनाई दी …”बाबा ! दिन शेष हय गेलो ….उठो ।”
ये आवाज सुनी लाला बाबू ने ….वो चौंक गये …हाथ में से हुक्के की नली छूट गयी …वो गिर गयी ….लाला उठे , जिस दिशा से आवाज आरही थी उसी दिशा की ओर देखने लगे …आवाज गूंज रही थी …किसी बालिका की आवाज थी …बाबा ! दिन शेष हय गेलो ,उठो ।
“लाला ! मैं श्रीवृन्दावन जा रहा हूँ …..क्यों ? क्यों की कल मुझे श्रीराधारानी ने कहा …दिन शेष हय गेलो – उठो “। लाला बाबू को पुरी के उन सिद्ध महात्मा की बात स्मरण हो आयी वो भी तो यही बोले थे …ओह !
वो गंगा की ओर दौड़े ……तभी एक नाव आरही थी …..सूर्य अस्ताचलगामी हो रहे थे ….उनकी किरणे गंगा में पड़ रहीं थी …..और एक बालिका , अत्यन्त सुन्दर बालिका …जो अपने सोते हुये पिता को जगा रही थी …..नाव वही चला रही थी । नाव चलाते हुए अपने पिता को जगा रही थी …..शायद उसका पिता ताड़ी ज़्यादा पी लिया था ….वो कह रही थी …..उठो , जागो ।
लाला बाबू अपने घर की ओर लौट पड़े थे , पालकी छोड़ दी थी …..चप्पलें भी बिना पहनें ….नौकर लोग चप्पल हाथ में लेकर पीछे दौड़ रहे थे ….पर नही , इन्हें क्या हो गया था एकाएक …कोई समझ नही पा रहा था …कलकत्ता शहर के लोग पैदल चलते हुए लाला बाबू को पहली बार देख रहे थे ….हाथ जोड़ते थे पर लाला का ध्यान कहाँ था इन सब पर ….वो तो घर में आगये ….और सीधे अपने कक्ष में । “ज़्यादा चिलम पी ली होगी” ..परिवार का यही कहना था ।
लाला ! वो तो सबको जगा रही हैं ….श्रीराधा रानी मुझे ही नही …तुमको भी कह रही हैं …पर तुम सुनते नही ….मैंने सुन लिया …..चलो , लाला ! तुम भी चलो श्रीवृन्दावन ।
नही , मैं नही आसकता ….क्यों , क्यो लाला ?
बाबा ! मेरी पत्नी है मेरे बालक हैं ……..
पर लाला ! इन सबको तो तुम्हें छोड़ना ही होगा ….कब तक पकड़े रहोगे ….तुम नही छोड़ोगे तो काल छुड़वाएगा । वो महात्मा , पुरी के महात्मा मुस्कुरा रहे थे ये बोलते हुये ….और चले गये …दूर …दूर …दूर ।
लम्बी साँस ली लाला बाबू ने ….फिर इधर उधर देखा ….तो सामने कल कल करती हुई गंगा दिखाई दी ….सूर्य अस्त हो रहे थे ….लालिमा छा रही थी गंगा में ….तभी उसी लालिमा की लाली में ……”दिन शेष हय गेलो ….उठो” । वो दिव्य स्वरूप वाली कन्या लाला बाबू को ही इंगित करते हुये बोल रही थी ….दिन बीत रहा है ….अब तो उठो , जागो ।
ओह ! लाला बाबू के कानों में यही ध्वनि ….हृदय का भेदन कर दिया था ।
लाला बाबू के कानों में यही शब्द …..बार बार , बार बार ….दिन शेष हय गेलो , उठो ।
घबराहट में उठे लाला बाबू ….उनके हृदयाकाश में भी ये शब्द गूंज उठा था ।
पसीने से नहा गये हैं लाला बाबू ….सब मिथ्या हैं …अभी भी नही उठोगे …तो कब ?
दिन तो बीता जा रहा है …क्या यही करते हुये समय बिताना है ?
क्या यही करते हुये समय बिताना है ? लाला बाबू की पत्नी ने भी आकर यही पूछा ।
सुबह के समय ये जागे हुये ही थे ….सपने के सच से उबर भी नही पाये थे कि पत्नी ने भी यही कहा ।
झकझोर दिया था लाला बाबू को ।
ये उठे और बिना कुछ बोले ….गंगा के किनारे चले गये ….वहाँ जाकर इन्होंने स्नान किया …आँखें बन्दकर के बैठे तो फिर वही आवाज ….दिन शेष हय गेलो , उठो ।
जीवन की सन्ध्या आ गयी है …..दिन डूबने को ….कब क्या हो जाये क्या पता ?
ध्यान भी तो तब सधेगा जब मन शान्त हो …..मन शान्त ही नही है ….ये गंगा किनारे से भी उठे और अब धीरे धीरे अपने घर की ओर बढ़ रहे थे ।
लाला ! श्रीराधारानी तो सबको बुला रही हैं ….तुझे भी ….चल श्रीवृन्दावन ।
लाला बाबू के हृदयाकाश में पुरी के महात्मा फिर प्रकट हो गए थे और वो इन्हें झकझोर रहे थे ।
लाला बाबू से अब चला नही जा रहा …ये धन वैभव मान सम्मान किसलिये ? ये क्या चिर स्थाई है ? धन से अगर शान्ति मिलती तो मुझे मिल जानी चाहिए थी …..क्यों की मेरे पास तो बचपन से ही अपार धन था …मैं सोने के पालने में झूला हूँ ….आज भी मेरे पास जितनी सम्पत्ति है उतनी किसके पास ? शायद ही कलकत्ता शहर में किसी के पास होगा । पर इन सबसे मुझे शान्ति क्यों नही मिल रही ! क्यों ? लाला बाबू के नेत्रों से अब अश्रु बहने लगे ……पुरुष जब रोता है तो उसका रुदन बड़ा भयानक होता है …..अकेले हिलकियों से रो पड़े थे लाला बाबू ।
शेष कल –