गतांक से आगे –
रामचन्द्र का क्षौरकर्म हुआ …यमुना जी में स्नान करके आया है ये …गुरुदेव श्रीहरिप्रियाशरण देव ने पंचसंस्कार के द्वारा इसे दीक्षा प्रदान किया ….ऊर्ध्व पुन्ड् ..कण्ठ में तुलसी की माला ….हंस भगवान द्वारा श्रीसनकादि ऋषि को प्रदत्त मन्त्रराज श्रीगोपाल मन्त्र श्रीहरिप्रिया शरण देव ने अपने शिष्य रामचन्द्र को प्रदान किया ।
श्रीहरिप्रियाशरण देव जैसे महान भक्ति के आचार्य को गुरु रूप में पाकर रामचन्द्र धन्य हो गया था….पर पंचसंस्कार में तो नाम भी बदल जाता है …और गोत्र भी …अब नाम हो गया “श्रीचक्रपाणि शरण” …और गोत्र वही जो सभी वैष्णवों का होता है …अच्युत गोत्र ।
चक्रपाणि शरण ने दीक्षा के बाद जब साष्टांग प्रणाम किया अपने गुरुदेव को , और जब वो उठे तभी सामने क्या देखते हैं –
रामचन्द्र ! मेरो छोरा !
सामने से रोती चीखती उनकी माता जी आरही थीं ।
चक्रपाणि शरण चौंक गये ….ये यहाँ कैसे आगयीं ! नेपाल से इन्हें कौन लाया ! और मैं श्रीवृन्दावन में हूँ ये किसने बताया ? तभी पीछे देखा इनके चाचा के साथ शिक्षा गुरु भी आरहे थे …ये वही शिक्षा गुरु थे जो काशी से श्रीवृन्दावन लेकर आये थे …और ये वृन्दावन में आकर खो गए ….ओह ! तो इन्होंने ही जाकर बताया मेरे चाचा को और चाचा मेरी माता जी को लेकर यहाँ आगये । चक्रपाणि शरण सब कुछ समझ गये थे ।
राम चन्द्र !
माता ने रोते हुये आकर अपने पुत्र को छाती से लगा लिया और खूब रोने लगीं । तू बन गया जोगी ….मैंने कहा था तू जोगी बनेगा ….अब मेरा क्या होगा …मेरे लाल ! मैं रह नही पाऊँगी तेरे बिना …..दहाड़ मारकर माता रो रही थीं । गुरुदेव ने ये सब देखकर पूछा …..चक्रपाणि ! ये कौन हैं ? ये क्यों रो रही हैं ? गुरुदेव ! ये इस शरीर की माता हैं …नेपाल से पुत्र मोह में यहाँ आगयीं हैं ….आप जैसी आज्ञा देंगे मैं तो वही करूँगा । चक्रपाणि शरण ने स्पष्ट गुरुदेव के ऊपर बात छोड़ दी थी । पर अब तो तुम्हारा नाम और गोत्र बदल चुका है …फिर तुम्हारी कौन माता ? तुम विरक्ति की दीक्षा ले चुके हो …अब तुम्हारा किसी से कोई सम्बन्ध नही है ….गुरुदेव ने फिर परीक्षा ली । चक्रपाणि अब बिना कुछ बोले यमुना की ओर चल पड़े ….उनकी माता रोने लगीं …मूर्छित हो गयीं रोते रोते …..पर चक्रपाणि चलते रहे ।
चक्रपाणि ! आओ , इधर आओ …..जोर से आवाज देकर गुरुदेव बुलाया । वो आये ….
मेरी आज्ञा मानोगे ? गुरुदेव ने पूछा ।
इस बार सजल नेत्रों से चक्रपाणि ने देखा गुरुदेव को और बोले ….मैं कलियुग का साधारण जीव हूँ गुरुदेव ! ज़्यादा परीक्षा मत लीजिये ….ये सुनते ही गुरुदेव ने अपने हृदय से लगा लिया अपने इस प्यारे से शिष्य को …..शिष्य इस बार खूब रोया अपने गुरुदेव के हृदय से लगकर । मेरे पिता मुझे छोड़ कर पाँच वर्ष की अवस्था में चले गये थे …..मुझे पिता का स्नेह स्मरण नही है …पर आप मेरे पिता से भी बढ़कर है ….मुझे आज बहुत अच्छा लग रहा है …..मैं धन्य हो गया गुरुदेव !
चक्रपाणि ! अपनी माता जी को भी अपने साथ रख लो …….गुरुदेव ने आज्ञा दी ।
पर गुरुदेव !
कुछ नही ये मेरी आज्ञा है ……चक्रपाणि ! हमारे श्रीनिम्बार्क भगवान ने भी निम्बग्राम में अपने माता पिता को अपने साथ रखा था …उनकी सेवा करते हुये वो रहे थे …..इसलिये अपनी माता को भी धाम वास कराओ ….ये भी भजन में ही गिना जायेगा …तुम मेरी बात मानोगे ना ?
चक्रपाणि शरण ने अब अपना मस्तक झुकाकर कहा …गुरुदेव ! आपकी आज्ञा मैं कैसे न मानूँ ।
पर ….गुरुदेव ! मेरी माता को भी आप दीक्षा दीजिये ….अपने प्रिय शिष्य की बात को ये टाल न सके और उनकी माता जी को भी गुरुदेव श्रीहरिप्रिया शरण देव ने दीक्षा प्रदान किया ।
अपनी माता जी को इस तरह से सम्भाला था चक्रपाणि शरण ने …अटलवन में ही एक झोपड़ी बनाकर अपनी माता जी को इन्होंने रखा …भिक्षा के लिए जाते थे और भिक्षा में जो भी मिलता अपनी माता जी को लाकर देते …माता जी भोग बनातीं …ठाकुर जी को भोग लगातीं ।
पहाड़ी शरीर था …सुन्दर थीं चक्रपाणि शरण की माता जी ..और ज़्यादातर अकेले ही रहना …एक दिन एक दुष्ट पुरुष की दृष्टि इन पर पड़ी …ये लकड़ियाँ लाकर देने लगा ….ये बेचारी क्या समझतीं इन्हें लगता कि ये सेवा भाव से लकड़ियाँ लाकर देता है तो ये रख लेतीं और उसे अपना पुत्र ही समझतीं। एक दिन दोपहर वो दुष्ट कुटिया में आया …उस समय चक्रपाणि शरण अपनी माता को लाकर भिक्षा दे रहे थे ….चक्रपाणि शरण जी ने जब उसे देखा तो पूछा ये कौन है ? तो बड़े प्रेम से माता ने उस दुष्ट के सिर में हाथ फेरते हुये कहा …तेरा भाई है ये ….ये मुझे माता मानता है और नित्य लकड़ियाँ लाकर देता है ….ये कहते हुये माता अभी भी उसके सिर में हाथ रखी ही हुई थीं ….पर ये क्या हुआ ! मातृवत् स्पर्श पाकर उस दुष्ट के तो नेत्र बह चले थे ….वो स्पर्श पाकर ही अब बदल गया था ।
उसने उठकर सबसे पहले माता जी के चरणों में प्रणाम किया …और अपने अश्रु पोंछते हुए वो वहाँ से चला गया । चक्रपाणि शरण जी ने अपनी माता से कहा ….कितना भक्त आदमी है ना ये ।
“हाँ”……इतना कहकर माता जी ठाकुर जी का भोग बनाने लगी थीं ।
शेष कल –