गतंक से आगे-
कोकिल जी के गुरुदेव परम सिद्ध एक ज्ञानी पुरुष थे …ज्ञान की उच्चतम अवस्था में वो पहुँचे हुये थे …श्रीअविनाशचन्द्र जी उनका नाम था ….पर ज्ञान की उच्च अवस्था में पहुँचा व्यक्ति ही भक्ति को समझता है ….मूल रूप से दोनों में भेद नही है । कोकिल साँई को ज्ञान विरासत में प्राप्त हो गया था …क्यों की उनके गुरुदेव तत्वज्ञानी थे …पर भक्ति, ये गुरु सेवा का फल थी ।
“सुखनिवास” में गौरांगी और हम पहुँच गये थे ….सिन्धी भक्तों की भीड़ लगी थी भजन गाये जा रहे थे …भक्त लोग नाच रहे थे …….
“जुग जुग जिवे तेरी बेटडी सुनयना रानी !
पार्थिवी प्यारी तेरे घर में प्रकट भई , श्रीवेदवती वेद बखानी …..सुनयना रानी ।
अचल सुहाग भाग जस-भाजन, सुखद सीय विज्ञानी …..
जेहिं पदकमल सेवि मन वच क्रम, उमा रमा ब्रह्माणी…..सुनयना रानी ।
मुखड़ो दिखाय विदेह कुँवरि को , उन्मत सुख मस्तानी !
जावाँ क़ुर्बान श्रीसियापति जानी पै, ग़रीबी श्रीखण्ड सहदानी ……सुनयना रानी ! “
सिन्धि और पंजाबियों में एक अलग ही मस्ती होती है …नाचना गाना …ढोल भी उसी मस्ती का ।
पर मैं चकित इस बात से था कि ये पद कितना भावपूर्ण ! …मानों कोई जनकपुर की सहचरी ही गा रही हो । गौरांगी ! कितना सुन्दर पद है ना ! सुनयना मैया की गोद में उनकी बेटी सिया लली हैं और आशीष दे रहे हैं सब …आहा ! ये सहचरी मिथिला की नही सिन्धी लगती है ……मैं हंसा …तो एक सिन्धी भक्त हमारी बातें सुन रहे थे … वो बोले – कोकिल साँई भी सिया जू की सहचरी ही थे ….ये पद उन्हीं का लिखा हुआ है । क्या ! और इस पद की रचना जनकपुर में ही की , साँई ने की थी ……ओह ! मैं बस अब सुनना चाह रहा था …..कोकिल जी को …उनके विषय में जानने की इच्छा मेरी अब प्रबल हो उठी थी ।
कोकिल जी के गुरुदेव परम ज्ञानी पुरुष थे …….उनके ही साथ कोकिल साँई ने रहना शुरू किया था ….सेवा आदि से गुरुदेव को रिझाया ……वाल्मीकि रामायण का नित्य पाठ करते थे उनके गुरुदेव …..ज्ञान परक व्याख्या होती थी वाल्मीकि रामायण की ….पर पता नही क्यों …..आत्मज्ञान की चर्चा सुनने पर भी कोकिल जी रोने लगते ….ये कोई समझ नही पाता था ……अध्यात्म रामायण एक बार इनके गुरुदेव सुना रहे थे …….उसी समय कोकिल साँई ने रोना शुरू किया ……सब लोग उन्हें समझाने लगे …..क्या दुःख है तुम्हें बताओ ! पर कोकिल कुछ नही बोले बस रोते रहे ….उस समय उनके गुरुदेव ने साधकों से कहा था …..ये अपने आपको ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में ही देखते हैं …..जगत जननी सीता जी को दुखी वहाँ देखकर इन्हें अतिशय कष्ट होता है ……तब साधकों ने इनकी ऊँची स्थिति जानी …….।
लाहौर चले गये अपने गुरुदेव के साथ कोकिल साँई …..वहाँ पर भी इनका मन नही लगा ….अब स्थिति बदल रही थी कोकिल जी की , अब इन्हें ज्ञान की चर्चा में कोई रुचि नही थी ……मैं ब्रह्म हूँ , मैं आत्मा हूँ ….ये ज्ञान श्रीकिशोरी जू के विरह से बह रहा था …अब तो प्रेम , बस प्रेम ।
तुम मीरपुर के दरबार की सेवा सम्भालो ….महंती स्वीकार करो ।
गुरुदेव आज्ञा देकर बंगाल तो चले गये ।
पर कोकिल साँई सोचने लगे – अब वापस अपनी जन्म भूमि मीरपुर जाकर महन्त बनूँ ?
कोकिल जी कि तनिक भी इच्छा नही हैं । पर क्या करें गुरुदेव की आज्ञा …आगये मीरपुर , वहाँ के दरबार की जिम्मेवारी उठा ली …महन्त बन गये ….नित्य सत्संग शुरू हो गया था ।
दरबार के सत्संग में ज्ञान की चर्चा होती थी ….ये भी ज्ञान की ही चर्चा करते ….संगत को बताते …तुम ब्रह्म हो , आत्मा हो देह नही …देह तो नाशवान है , नाशवान तुम कैसे हो सकते हो ।
पर कोकिल जी के भीतर जो श्रीकिशोरी जू की विरहाग्नि धधक रही थी उसका क्या ?
“रामायण में सीता जी के साथ श्रीराम ने उचित नही किया …परित्याग कर दिया, क्यों ?
ये एक साधक ने सत्संग में पूछ लिया था …बस फिर क्या था ….उसी डिबिया को चूमते हुये
( साधकों ! कल मैंने बताया था कि एक सुवर्ण की डिबिया कोकिल साँई को प्राप्त हुयी ..जिसमें श्रीजी के चरण चिन्ह बने हुये थे ) वो हा स्वामिनी ! हा सर्वेश्वरी ! हा सिया जू ! यही कहकर रोते हुये उन्होंने पूरी रात तो काट ली ….पर दरबार में रहना अब इनके लिये सक्य नही था ….महन्त पद तो मात्र गुरुदेव की आज्ञा पालन के लिये इन्होंने स्वीकार की थी ….महंती इन्हें क्यों चाहिये ?
ये उसी दरबार के दूसरे महात्मा को महन्त बनाकर वहाँ से निकल पड़े ….क्यों की दरबार की परम्परा ज्ञान की थी और ये अब विलक्षण प्रेम के मार्ग में चल पड़े थे ।
ज्ञान का मार्ग कमसे कम एक सीध में तो है ….पर इस अटपटे प्रेम के मार्ग का क्या पता ! इसलिये ये इस प्रेम मार्ग को आम साधक के लिये अभी खोलना नही चाहते थे ।
ये निकल पड़े ….कहाँ जाना है इन्हें पता नही …इनके साथ एक साधक था ….पक्का साधक था …इसलिये उसे अपने साथ रख लिया ।
कहाँ जाएँगे जी ? साधक ने कोकिल जी से जब ये पूछा तो उनके मुख से निकला तीर्थयात्रा के लिये । पर तीर्थयात्रा में पहली यात्रा कहाँ की ? साधक के इस प्रश्न पर वो निरुत्तर हो गये ये समझ ही नही पा रहे थे ……कि पहले कहाँ जायें ? तभी इनके हृदय में श्रीसिया जू प्रकट हो गयीं ….जनकपुर धाम ! सिया जू ने ही कहा ।
बस उसी समय इन्हें फिर भावावेश आगया …..ये भाव में पाँच दिन तक डूबे ही रहे ……
पर जब आवेश से बाहर आये तब भी ये सब लोगों से यही पूछ रहे थे …ये जनकपुर है ? ये मेरी स्वामिनी की जन्मभूमि है ? उनके साथ के साधक ने रेल की टिकट ले ली …..दिल्ली और दिल्ली से पटना, पटना में पहुँचकर ये सिया जू , सिया जू पुकारते रहे …..पटना के स्टेशन में इन्हें श्रीसियाराम जी का जब एक चित्र दिखाई दिया तब तो ये …वहीं साष्टांग प्रणाम करने लगे थे ……स्टेशन में ही इनकी इस लीला के कारण एक दिन पूरा बिताना पड़ा ।
अद्भुत भाव से सिक्त भक्त थे कोकिल जी ! वो सिन्धी भक्त हमें बता रहे थे ।
जनकपुर पहुँचे ……और जैसे ही जनकपुर की भूमि में उन्होंने अपने पाँव रखे ……उन्हें रोमांच होने लगा , प्रेम की उच्च अवस्था में जो स्थिति होती है साधक की वहीं स्थिति इनकी होने लगी …..
पर ये अब भक्ति के साधक नही रसिकता की ओर बढ़ रहे थे ।
निरन्तर अश्रु प्रवाह , वाणी का अवरुद्ध हो जाना ….लगना कि इष्ट मेरे सामने ही हैं ।
इनसे आगे बढ़ा नही गया …वहीं , उसी भूमि में ही बैठ गये….आँखें बन्द हो गयीं लम्बी लम्बी स्वाँस चलने लगी थी ……कि तभी ….लीला राज्य में इनका प्रवेश हो गया ।
****पृथ्वी से अभी अभी प्रकटीं हैं सिया लली ! सुनयना महारानी ने भूमिजा को तुरन्त अपनी गोद में उठा लिया है ….वो उन कन्या को छुपा कर ले जा रही हैं …किसी की नज़र ना लगे मेरी लाली को इसलिये । तभी सुनयना मैया की गोद में छुपी लाली को देखने के लिये कोकिल जी पीछे पीछे चल पड़े ….पर ये क्या ! कोकिल साँई तो सहचरी बन गये थे ….सुनयना रानी मना कर रही हैं ….नही नही , मैं नही दिखाऊँगी अपनी लाली को …जाओ , जाओ यहाँ से ।
पर सहचरी बने कोकिल कहाँ मानने वाले थे ……..वो तो विनती करने लगे ….वो सुनयना रानी के चरणों में गिरने लगे ….पागल है सखी ! लाली को चोट लग जाएगी ….दूर हट्ट ! डाँट दिया था जनक जी की महारानी ने …अब तो रोते हुये दूर खड़े हो गये कोकिल ….और उसी समय ये पद इनके मुखारविंद से प्रकट हुआ था ……जो ये गा रहे थे ना ………
गौरांगी ने गुनगुनाया ……
“जुग जुग जीवे तेरी बेटडी सुनयना रानी”
शेष कल –