भक्त के प्राणों में अभिलाषा यहीं जो छिपा है वह प्रकट हो जाए


।। श्रीहरि: ।।
भक्त का हृदय एक प्रार्थना है, एक अभीप्सा है- परमात्मा के द्वार पर एक दस्तक है। भक्त के प्राणों में एक ही अभिलाषा है कि जो छिपा है वह प्रकट हो जाए, कि घूंघट उठे, कि वह परम प्रेमी या परम प्रेयसी मिले! इससे कम पर उसकी तृप्ति नहीं। उसे कुछ और चाहिए नहीं। और सब चाहकर देख भी लिया। चाह-चाह कर सब देख लिया। सब चाहें व्यर्थ पाई। दौड़ाया बहुत चाहों ने, पहुंचाया कहीं भी नहीं।
जन्मों-जन्मों की मृगतृष्णाओं के अनुभव के बाद कोई भक्त होता है। भक्ति अनंत-अनंत जीवन की यात्राओं के बाद खिला फूल है। भक्ति चेतना की चरम अभिव्यक्ति है। भक्ति तो केवल उन्हीं को उपलब्ध होती है जो बड़भागी हैं। नहीं तो हम हर बार फिर उन्हीं चक्करों में पड़ जाते हैं। बार-बार फिर कोल्हू के बैल की तरह चलने लगते हैं।
मनुष्य के जीवन में अगर कोई सर्वाधिक अविश्वसनीय बात है तो वह यह है कि मनुष्य अनुभव से कुछ सीखता ही नहीं। उन्हीं-उन्हीं भूलों को दोहराता है। भूले भी नई करे तो भी ठीक; बस पुरानी ही पुरानी भूलों को दोहराता है। रोज-रोज वही, जन्म-जन्म वही।

भक्ति का उदय तब होता है जब हम जीवन से कुछ अनुभव लेते हैं, कुछ निचोड़। निचोड़ क्या है जीवन का ? – कि कुछ भी पा लो, कुछ भी पाया नहीं जाता। कितना ही इकट्ठा कर लो और तुम भीतर दरिद्र ही रहे जाते हो। धन तुम्हें धनी नहीं बनाता- जब तक कि वह परम धनी न मिल जाए, वह मालिक न मिले। धन तुम्हें और भीतर निर्धन कर जाता है। धन की तुलना में भीतर की निर्धनता और खलने लगती है।
मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा, सब धोखे हैं, आत्मवंचनाएं हैं। कितना ही जानते ही रहोगे कि भीतर घाव है, ऊपर गुलाब का फूल रखकर छिपाया है। सारे जगत को भी धोखा देना संभव है, लेकिन स्वयं को धोखा देना संभव नहीं है।
जिस दिन यह स्थिति प्रगाढ़ होकर प्रकट होती है, उस दिन भक्त का जन्म होता है। और भक्त की यात्रा विरह से शुरू होती है। क्योंकि भक्त के भीतर एक ही प्यास उठती है अहर्निश- कैसे परमात्मा मिले? कहां खोजें उसे? उसका कोई पता और ठिकाना भी तो नहीं। किससे पूछें? हजारों हैं उत्तर देनेवाले, लेकिन उनकी आंखों में उत्तर नहीं। और हजारों हैं शास्त्र लिखनेवाले, लेकिन उनके प्राणों में सुगंध नहीं। हजारों हैं जो मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारे में प्रार्थनाएं कर रहे हैं, लेकिन उनकी प्रार्थनाओं में आंसुओं का गीलापन नहीं है। उनकी प्रार्थनाओं में हृदय का रंग नहीं है- रूखी हैं, सूखी हैं, मरुस्थल सी हैं। और प्रार्थना कहीं मरुस्थल होती है? प्रार्थना तो एक उद्यान है; उसमें तो बहुत फूल खिलते हैं, बहुत सुवास उठती है।



, Shrihari:.. The heart of the devotee is a prayer, an aspiration – a knock at the door of God. There is only one desire in the soul of the devotee that what is hidden should be revealed, that the veil should be lifted, that he may find the ultimate lover or the ultimate beloved. He is not satisfied with anything less than this. He doesn’t need anything else. And he tried everything he wanted. Saw everything as per my wish. Everyone wants useless pie. Made me run with many desires, but took me nowhere. One becomes a devotee after experiencing the mirages of many births. Devotion is a flower that blooms after the journey of infinite life. Devotion is the ultimate expression of consciousness. Devotion is available only to those who are fortunate. Otherwise we fall into the same trap again and again. Again and again they start moving like bulls in a crusher. If there is anything most unbelievable in human life, it is that man does not learn anything from experience. Repeats the same mistakes. Even if you forget and make a new one, it is okay; Just repeats the same old mistakes. Same day after day, same birth after birth.

Devotion arises when we experience something from life, squeeze something out. What is the essence of life? – That no matter what you achieve, nothing is found. No matter how much you collect, you remain poor inside. Money does not make you rich – unless you find the ultimate rich, the master. Money makes you poorer within. Compared to wealth, inner poverty becomes more painful. Respect, position and prestige, all are deceptions, self-deceptions. No matter how much you know that there is a wound inside, you have hidden it by placing a rose flower on it. It is possible to deceive the whole world, but it is not possible to deceive oneself. The day when this state becomes intense and manifests, a devotee is born. And the devotee’s journey begins with separation. Because only one thirst arises within the devotee, Aharnish – How to find God? Where to find him? There is no address or whereabouts of his. Whom to ask? There are thousands of people who want to answer, but there is no answer in their eyes. And there are thousands who write scriptures, but there is no fragrance in their lives. There are thousands who are offering prayers in temples, mosques, gurudwaras, but their prayers do not have the wetness of tears. There is no color of heart in his prayers – they are dry, dry, like a desert. And is prayer a desert somewhere? Prayer is a garden; Many flowers bloom in it, a lot of fragrance arises.

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