जीव कल्याण सत्मार्ग पर चलकर है

आज का भगवद चिंतन।
इस शरीर पर जब जीव का अधिकार नहीं है तो संपत्ति और संतति पर कैसे हो सकता है?शरीर मिटटी से बना हुआ है। जीव व्यर्थ ही ऐसा मानता है कि शरीर,संपत्ति आदि मेरा अपना है। वास्तव में ऐसा नहीं है।

जीव का कल्याण केवल सत्मार्ग पर चलकर ही हो सकता है। हम जो भी सत्कर्म करेंगे,केवल वही हमारे साथ जाएंगे।क्योंकि जब हमारी साँसे भी अपनी नही तो संसार मे अपना कुछ है ही नही।नाते,रिश्ते,सम्बन्ध केवल एक यात्रा के सहभागी है।यात्रा पूर्ण होने पर हम अपने गंतव्य पहुंच जाते हैं और सहयात्री आगे निकल जाते है।

भगवद गीता का आरम्भ “धर्म” शब्द से किया गया है। गीता का प्रथम शब्द है “धर्मक्षेत्रे”. गीता की समाप्ति “मम”शब्द से की गई है। गीता का अंतिम शब्द है “मम”. इन दो शब्दों (धर्म-ममः) के मध्य में सारी गीता समायी हुई है।
“मम”का अर्थ है मेरा। “मम धर्म” मेरा धर्म। धर्म अर्थात सत्कर्म।
मेरे हाथों से जो भी सत्कर्म हो पाये,वही और उतना ही मेरा है। जितने सत्कर्म करोगे,उतना ही तुम्हारा होगा।
अर्जुन ने भगवान से कहा है -मै आपका हूँ और आपकी शरण में आया हूँ।
तब भगवान को उसे अपनाना पड़ा और उनके रथको भी चलाना पड़ा।
मनुष्य यह नहीं जानता कि उसका क्या है और क्या नहीं है ,फलतः संघर्ष होता है।
द्रव्य के सिवाय भी कोई अन्य सुख है या नहीं और आत्मानंद जैसी भी कोई चीज है,यह मनुष्य नहीं जानता।


अपने हाथों से किया हुआ सत्कर्म ही अपना है।
यह जीव (मनुष्य) नहीं,प्रभु (आत्मा-परमात्मा) ही स्वामी है। जीव (मनुष्य)तो मात्र मुनीम है।
इस शरीर पर जब जीव (मनुष्य) की सत्ता नहीं है तो और किसी चीज पर कैसे हो सकती है?यमराज की आज्ञा होते ही शरीर का त्याग करना पड़ता है। जगत के कानून वहाँ नहीं चलते।
यह कभी मत भूलो कि तन और मन के स्वामी मात्र परमात्मा ही है,फिर भी जीव मेरा-मेरा करता है।
जो मेरा-मेरा करता है उसे भगवन मारते है और जो तेरा-तेरा करता है उसे तारते है।



Today’s meditation on God. When the living being does not have rights over this body, then how can it have rights over property and progeny? The body is made of clay. The living being vainly believes that the body, property etc. are my own. not actually.

The welfare of a living being can be achieved only by following the right path. Whatever good deeds we do, only they will go with us. Because when even our breath is not our own, then there is nothing of our own in the world. Relations, relations and relations are only partners in a journey. After the completion of the journey, we reach our destination. And the co-travellers move ahead.

Bhagavad Gita begins with the word “Dharma”. The first word of Geeta is “Dharmakshetre”. Geeta ends with the word “Mam”. The last word of Geeta is “Mam”. The entire Geeta is contained between these two words (Dharma-Mamah). “Mam” means mine. “Mam Dharma” My religion. Religion means good deeds. Whatever good deed can be done by my hands, that and that much is mine. The more good deeds you do, the more will be yours. Arjun has said to God – I am yours and have come to take refuge in you. Then God had to accept him and also had to drive his chariot. Man does not know what is his and what is not his, as a result conflict occurs. Man does not know whether there is any other happiness other than matter and whether there is such a thing as spiritual bliss.

Only the good deeds done with your own hands are yours. It is not the living being (human being), but the Lord (soul-God) who is the master. The living being (human being) is just a bookkeeper. When the living being (human being) does not have power over this body, then how can it have power over anything else? As soon as Yamraj orders, the body has to be sacrificed. The laws of the world do not apply there. Never forget that only God is the master of body and mind, yet the living being does everything as mine. God kills the one who does what is mine and punishes the one who does yours.

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