मन की मलिनता दो प्रकार की होती है।
स्थूल मलिनता साधारण साधन तप,व्रत,अनशन आदि से यह मलिनता दूर होती है,।
सूक्ष्म मलिनता — तीव्र भक्ति से ही उसे दूर कर सकती है,।
शुकदेवजी ने इसलिए आरम्भ में विराट पुरुष का ध्यान धरने की बात कही है,विराट पुरुष की धारणा किये बिना मन शुद्ध नहीं होता,।
शुकदेवजी कहते है कि – वैसे तो मेरी निष्ठां निर्गुण में है तथापि नंदनंदन यशोदानंदन मेरे मन को बार-बार
अपनी ओर खींच लेते है, श्रीकृष्ण की मधुर लीलायें मेरे मन को,मेरे हृदय को बलपूर्वक अपनी ओर आकर्षित करती हैं,इसी कारण से मैने भागवतपुराण का अध्ययन किया और मै वह आपको सुनाऊँगा।
भगवान के नाम का प्रेम से संकीर्तन करना ही शास्त्रों का सार है,सभी शास्त्र पढ़ो,उन पर विचार करो किन्तु याद रखो कि – नारायण हरि,ही सच्चे हैं!
शुकदेवजी कहते है-मैने सब शास्त्र देख डाले,कई बार विचार किया,फिर भी सार तो एक ही निकला कि उन सभी के ध्येय केवल नारायण हरि ही है
सभी शास्त्रों के वाचन-मनन के बाद मैने तय किया कि केवल भगवान का ही ध्यान करना चाहिए,।
निर्गुण के प्रति जब तक निष्ठा न हो सके तब तक मन के रागद्वेष नहीं जायेंगे,,!
इसीलिए.. जिसकी सगुण में निष्ठा हो किन्तु वह निर्गुण को न माने तो उसकी भक्ति अपूर्ण ही रहती है!
ध्यान के आरम्भ में मन से सेवा करो, ध्यान के समय मन शुद्ध-ना- हो तो आनंद नहीं मिलता,।
मन को बाहरी विषयों में भटकते रहने की आदत पड़ गई है,वर्तमान काल में जीवन भोगप्रधान बन गया है। अतः मन को अन्तर्मुखी करना बड़ा कठिन है!
ज्ञानी पुरुष मन की मलिनता धोने के लिए विराट पुरुष की धारणा करते है!
विराट पुरुष की धारणा का अर्थ है “सारे जगत को ब्रह्मरूप मानना” साधारण साधक के लिए इस विराट पुरुष की कल्पना और धारणा कठिन है!
अतः कुछ लोग अति सुन्दर नारायण भगवान का ध्यान करते हैं!
भागवत में वैराग्य का उपदेश दिया गया है,बिना वैराग्य के ध्यान नहीं हो सकता,ध्यान में एकाग्रता नहीं हो सकती,संसार का स्मरण ही दुःख है और संसार का विस्मरण ही सुख है।,,!
ज्ञानमार्ग में तीव्र वैराग्य होना चाहिए, भक्तिमार्ग में समर्पण की प्रधानता है,भक्ति करनी हो तो वह वैराग्य के बिना तो चल सकती है किन्तु सबके साथ प्रेम तो करना ही पड़ेगा,,!
सबके साथ प्रेम करो अथवा अकेले ईश्वर से प्रेम करो,
जगत के प्रत्येक पदार्थ के साथ प्रेम करना भक्ति-मार्ग है,,!
ज्ञान-मार्ग त्याग प्रधान है, भक्ति मार्ग में समर्पण का प्राधान्य है,,!
ज्ञानी सबका निषेध करता हुआ परिनिषेध में जो शेष रहता है उसी में मन को दृढ करता है,मनुष्य सर्वस्व त्याग तो नहीं कर सकता, भक्तिमार्ग में सद्भाव आवश्यक है!
जय श्री हरि!
सादर प्रणांम..।।🙏
Morning, greetings..🙏🌹
Shri.Hari Sharanam,..
✍️..प्रेरक प्रसंग..🌹मन की मलिनता दो प्रकार की होती है,।
स्थूल मलिनता साधारण साधन तप,व्रत,अनशन आदि से यह मलिनता दूर होती है,।
सूक्ष्म मलिनता — तीव्र भक्ति से ही उसे दूर कर सकती है,।
शुकदेवजी ने इसलिए आरम्भ में विराट पुरुष का ध्यान धरने की बात कही है,विराट पुरुष की धारणा किये बिना मन शुद्ध नहीं होता,।
शुकदेवजी कहते है कि – वैसे तो मेरी निष्ठां निर्गुण में है तथापि नंदनंदन यशोदानंदन मेरे मन को बार-बार
अपनी ओर खींच लेते है, श्रीकृष्ण की मधुर लीलायें मेरे मन को,मेरे हृदय को बलपूर्वक अपनी ओर आकर्षित करती हैं,इसी कारण से मैने भागवतपुराण का अध्ययन किया और मै वह आपको सुनाऊँगा,।
भगवान के नाम का प्रेम से संकीर्तन करना ही शास्त्रों का सार है,सभी शास्त्र पढ़ो,उन पर विचार करो किन्तु याद रखो कि – नारायण हरि,ही सच्चे हैं,!
शुकदेवजी कहते है-मैने सब शास्त्र देख डाले,कई बार विचार किया,फिर भी सार तो एक ही निकला कि उन सभी के ध्येय केवल नारायण हरि ही है,!
सभी शास्त्रों के वाचन-मनन के बाद मैने तय किया कि केवल भगवान का ही ध्यान करना चाहिए,।
निर्गुण के प्रति जब तक निष्ठा न हो सके तब तक मन के रागद्वेष नहीं जायेंगे,!
इसीलिए.. जिसकी सगुण में निष्ठा हो किन्तु वह निर्गुण को न माने तो उसकी भक्ति अपूर्ण ही रहती है,!
ध्यान के आरम्भ में मन से सेवा करो, ध्यान के समय मन शुद्ध-ना- हो तो आनंद नहीं मिलता,।
मन को बाहरी विषयों में भटकते रहने की आदत पड़ गई है,वर्तमान काल में जीवन भोगप्रधान बन गया है। अतः मन को अन्तर्मुखी करना बड़ा कठिन है,!
ज्ञानी पुरुष मन की मलिनता धोने के लिए विराट पुरुष की धारणा करते है,!
विराट पुरुष की धारणा का अर्थ है “सारे जगत को ब्रह्मरूप मानना” साधारण साधक के लिए इस विराट पुरुष की कल्पना और धारणा कठिन है,!
अतः कुछ लोग अति सुन्दर नारायण भगवान का ध्यान करते हैं,!
भागवत में वैराग्य का उपदेश दिया गया है,बिना वैराग्य के ध्यान नहीं हो सकता,ध्यान में एकाग्रता नहीं हो सकती,संसार का स्मरण ही दुःख है और संसार का विस्मरण ही सुख है।,!
ज्ञानमार्ग में तीव्र वैराग्य होना चाहिए, भक्तिमार्ग में समर्पण की प्रधानता है,भक्ति करनी हो तो वह वैराग्य के बिना तो चल सकती है किन्तु सबके साथ प्रेम तो करना ही पड़ेगा,!
सबके साथ प्रेम करो अथवा अकेले ईश्वर से प्रेम करो,
जगत के प्रत्येक पदार्थ के साथ प्रेम करना भक्ति-मार्ग है,!
ज्ञान-मार्ग त्याग प्रधान है, भक्ति मार्ग में समर्पण का प्राधान्य है,!
ज्ञानी सबका निषेध करता हुआ परिनिषेध में जो शेष रहता है उसी में मन को दृढ करता है,मनुष्य सर्वस्व त्याग तो नहीं कर सकता, भक्तिमार्ग में सद्भाव आवश्यक है,!!
Jai Shri Hari!!
Regards…🙏