हटे वह सामनेसे, तब कहीं मैं अन्य कुछ देखूँ।
सदा रहता बसा मनमें तो कैसे अन्यको लेखूँ ?
उसीसे बोलनेसे ही मुझे फुरसत नहीं मिलती।
तो कैसे अन्य चर्चाके लिये फिर जीभ यह हिलती ?
सुनाता वह मुझे मीठी रसीली बात है हरदम।
तो कैसे मैं सुनूँ किसकी, छोड़ वह रस मधुर अनुपम ?
समय मिलता नहीं मुझको टहलसे एक पल उसकी।
छोडक़र मैं उसे, कैसे करूँ सेवा कभी किसकी ?
रह गयी मैं नहीं कुछ भी किसीके कामकी हूँ अब।
समर्पण हो चुका मेरा जो कुछ भी था उसीके सब॥
He moved away from me so that I could see something else. How can I write to others if it always resides in my mind?
I don’t get any time just by talking to him. So how could the tongue move for any other discussion?
He always tells me sweet and juicy things. So how can I listen to whom, except that sweet and incomparable juice?
I don’t get time for even a moment’s walk. Leaving him aside, how can I ever serve whom?
Now I am no longer of any use to anyone. Whatever I had, everything has been surrendered.