गीताप्रेस गोरखपुर में पूज्य श्रीहरिबाबा महाराज की एक डायरी रखी है ।उसमें बाबा के द्वारा हस्तलिखित लेख है । उसमें उन्होंने अपने पूज्य गुरुदेव के जीवन की घटना लिखी है वृंदावन की सेवा कुंज की घटना है
सेवा कुंज में एक बार बाबा ने रात बिताई कि देखूं तो सही रास होता है या नहीं?
कहते हैं एक दिन रातभर रहे कुछ नहीं दिखा तो मन मे यह नहीं आया कि यह सब झूठ है।
दूसरे रात फिर बिताई ।मंदिर बंद होने पर लताओं में छुप कर रात बिताई। उस रात कुछ न के बराबर मध्यम -मध्यम अनुभव हुआ ।एकदम न के बराबर उस दिव्य संगीत को सुना। लेकिन उस संगीत के स्वर – लहरियों का ऐसा प्रताप हुआ कि बाबा मूर्छित हो गये ; जब सुबह चेतना में आये तब दर्शन तो करना है ऐसा संकल्प ले लिया ।
बाबा ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर एक बार और प्रयास किया कि देखूं तो सही रास कैसा होता है?
तो इस तीसरी रात श्रीहरिबाबा के पूज्य गुरुदेव लताओं के बीच कहीं छुप गये ।आधी रात तक उन्होंने लिखा कि कहीं कुछ दर्शन नहीं हुआ ।
परंतु प्रतीक्षा में रहे । मध्य रात्रि होने पर सेवाकुंज में एक दिव्य सुगंध का प्रसार होने लगा ; एक अलौकिक सुगंध ।अब बाबा सावधान हो गये ।समझ गये कि लीला आरंभ होने वाली है ; बाबा अब और सावधानी से बैठ गये ।
तभी कुछ समय बाद बाबा को कुछ धीरे- धीरे नूपुर के झंकार की आवाज आने लगी। छण-छण-छण बाबा को लगा कोई आ रहा है ।तब बाबा और सावधान हो गये ।बाबा ने और मन को संभाला और गौर से देखने का प्रयास जब किया तब बाबा ने देखा कि किशोरी जी – लाल जी के कंठ मे गलबईयां डालकर धीरे-धीरे एक- एक कदम बढ़ाकर सेवा कुंज की लताओं के मध्य से आ रही हैं ।बाबा तो देखकर आश्चर्यचकित होगये ।
बाबा और संभल गये । बाबा ने लिखा आज प्रियाजी को देखकर मन में बड़ा आश्चर्य हो रहा है। आज प्रिया जी प्रत्येक लता के पास जाकर कुछ सूंघ रही थीं।
लाला ने पूछा हे किशोरी जी आप हर एक लता के पास क्या सूंघ रही हैं? क्या आपको कोई सुगंध आ रही है?
श्रीकिशोरीजी ने कहा लालजी आज हमें लगता है कि हमारे आज इस निकुंज वन में किसी मानव ने प्रवेश कर लिया है ।हमें किसी मानव की गंध आरही है ।
इतना सब सुनकर बाबा की आँखों से झर-झर अश्रु बहने लगे । बाबा के मन में भाव आया कि सेवा कुंज में प्रिया-प्रियतम विहार कर रहे है ।क्यों न जिस मार्ग पर ये जा रहे हैं उस मार्ग को थोड़ा सोहनी लगाकर स्वच्छ कर दूँ।
बाबा ने कल्पना की नहीं-नहीं । अरे अगर मार्ग को सोहनी से साफ किया तो मैेंने क्या सेवा की? सेवा तो उस सोहनी ने की। तो फिर मैं क्या करुं ?
कल्पना करने लगे ।क्यों न इन पलकों से झाड़ू लगाने का प्रयास कुरूँ।फिर ध्यान आया अगर इन पलकों से लगाऊँगा तो इन पलकों को श्रेय मिलेगा ।आखिर क्या करूँ?
आँखों से अश्रु प्रवाह होने लगे कि मैं कैसे सेवा करूँ। आज साक्षात् प्रिया-प्रियतम का विहार चल रहा है। मैं सेवा नहीं कर पा रहा कैसे सेवा करूँ ?
उसी क्षण प्रिया जी ने कहा लालजी आज हमारे नित्यविहार का दर्शन करने के लिये कोई मानव प्रवेश कर गया है? किसी मानव की गंध आ रही है । उधर तो बाबा की आँखों से अश्रु बह रहे थे और इधर लालजी प्रिया जी के चरणों मे बैठ गये लालजी के भी अश्रुपात होने लगे !
प्रियाजी ने पूछा लालजी क्या बात है? आपके अश्रु कैसे आने लगे?
तब श्रीजी के चरणों में बैठ गये। शयामसुंदर नतमस्तक होगये ।तब कहा “श्रीजी” आप जैसी करुणामयी सरकार तो केवल आप ही हो सकती हैं । अरे आप कहती हो कि किसी मानव की गंध आरही है!!
हे श्रीजी जिस मानव की गंध आपने ले ली हो फिर वह मानव रहा कहाँ। उसे तो आपने अपनी सखी रूप में स्वीकार कर लिया ।
“श्रीजी ने कहा चलो फिर उस मानव की तरफ ।
बाबा तो आँखें बंद कर ध्यान समाधि में रो रहे हैं कि कैसे सेवा करूँ? तभी दोनों युगल सामने प्रकट हो गये … कहे बाबा रास देखने ते आयो है ?
न बाबा बोल पा रहे ; न कुछ कह पात रहे हो; अपलक निहार रहे है “श्रीजी” ने कहा रास देखते के ताय तो सखी स्वरूप धारण करनो पड़े।सखी बनोगे। बाबा कुछ नहीं बोले।करुणामयी सरकार ने कृपा करके श्रीजी ने अपने हाथ से अपनी प्रसादी “चंद्रिका” उनके मस्तक पर धारण करा दी।इसके बाद बाबा ने अपने डायरी में लिखा “इसके बाद जो लीला मेरे साथ हुई न वह वाणी का विषय था न वह कलम का विषय था।
यह सब स्वामीजी की कृपा से निवृतनिकुंज की लीलाएँ प्राप्त होती हैं।
स्वामीजी के रस प्राप्ति के लिये इन सात को पार करना होता है
प्रथम सुने भागवत,भक्त मुख भगवत वाणी
द्वितीय आराध्य ईश व्यास,नव भाँती बखानी।
तृतीय करे गुरु समझ,दक्ष्य सर्वज्ञ रसीलौ
चौथे बने विरक्त,बसे वनराज वसीलौ
पांचे भूले देह सुधि
तब छठे भावना रास की
साते पावें रीति रस,श्री स्वामी हरिदास की।