त्याग की गरीमा

भारतीय तत्त्व दर्शन में त्याग का स्थान बहुत महत्व का है। त्यागमय जीवन को ही यहां सर्वश्रेष्ठ माना गया है। दान में भी किसी पर अहसान करने का भाव रहता है, अपने अहंकार का पोषण होता है और बदले में नाम, यश, कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि की आकांक्षा भी रहती है। पर त्याग तो दान से भी ऊपर की स्थिति है जो दुख, मोह, क्रोध, अहंकार आदि सब से परे है। जिस व्यवस्था में रूपये, पैसे व अन्य भौतिक संपत्तियों के त्याग का इतना महत्व है वहां अपने दोष दुर्गुणों के त्याग की गरिमा का स्वतः ही अनुभव किया जा सकता है। इनमें भी पारस्परिक बैर भाव को त्यागना परिवार व समाज की उन्नति का मुख्य आधार है। जब मन में द्वेष भाव समाप्त हो जाता है तो वहां पवित्रता और निर्मलता का वास होता है। इससे मनुष्य के हृदय में लोगों के प्रति सदभावना जाग्रत होती है और बदले में उसे सबका सहयोग मिलता है। समाज हो या परिवार जब तक सबमें हृदय की एकता, मन की एकता, द्वेष का अभाव तथा प्रेम एवं सदभाव का व्यवहार नहीं होगा, सुख और शांति का वातावरण बन ही नहीं सकेगा। लक्ष्य एक होने भी पर भी यदि आपस में द्वेष है, कलह है, ईर्ष्या है और मनोमालिन्यता है तो काम कैसे चलेगा? यदि विचारों की एकता नहीं है, विचार भेद हैं, मतभेद है तो लक्ष्य भी एक नहीं हो सकेगा। जब लक्ष्य ही निश्चित नहीं होगा तो फिर 'अपनी अपनी ढपली, अपना अपना राग' की स्थिति हो जाएगी। यदि किसी प्रकार लक्ष्य एक हो जाए फिर सबके मन व हृदय एक होने चाहिए तभी तो आपस में सहयोग एवं सहानुभूति का वातावरण बनेगा। सच्चे मन से हार्दिक सहयोग मिलने पर ही लक्ष्य पूर्ति संभव हो सकेगी। इसी से प्रेरणा और क्रियाशीलता आती है, पारस्परिक प्रेम और सहानुभूति की अभिवृद्धि होती है। सर्वत्र घनिष्ट प्रेम का प्रवाह होने से लोग अपने स्वार्थ से उपर उठकर एक दूसरे का हित चिंतन करते हैं और उसमें अपने प्राण देने तक को तत्पर रहते हैं। आपसी प्रेम की भावना का महत्व सर्वाधिक है। प्रेम और स्नेह से भी ऊपर वात्सल्य का भाव होता है। जिस प्रकार मां अपने बच्चों को या गाय अपने बछडे को दुलारती व पुचकारती है तथा उसकी भलाई के लिए संसार का बडे से बडा संकट भी स्वयं झेलने को तैयार रहती है, उसी भावना यदि हम आपसी व्यवहार में उतार सकें तो यह संसार स्वर्ग बन जाए। पर यह प्रेम, स्नेह व वात्सल्य की भावना हमारे मन में उपजे भी तो कैसे। वहां पर तो बैर, द्वेष, मनोमालिन्यता का कीचड भरा है। जब तक उनका निवारण नहीं होगा प्रेम के अंकुर कैसे फूटेंगे? द्वेष प्रेम का सबसे बडा शत्रु है। पारस्परिक एकता, स्नेह, सदभाव और सामंजस्य से ही आत्मीयता व सहकारिता स्थापित होती है तथा व्यक्तित्व का विकास होता है। आपसी प्रेम बंधन पुष्ट होने से एक दूसरे के सुख दुख में सहभागी होने की प्रवृत्ति बढेगी। परिवार के हित में, समाज के हित में और राष्टृ के हित में ही लोग अपना भी हित समझेंगे। बैर और द्वेष भाव को अपने मन में घुसने ही नहीं देना चाहिए और यदि कभी आ जाए तो बलपूर्वक धक्का देकर निकाल देना चाहिए।

मनुष्य लोग आलस्य को छोड़कर सबके द्रष्टा न्यायाधीश परमात्मा को, और आचरण करने योग्य उसकी आज्ञा को मानकर शुभ-कर्मों को करते हुए और अशुभ कर्मों को छोड़ते हुए, ब्रह्मचर्य के द्वारा विद्या और उत्तम-शिक्षा को प्राप्त करके उपास्य- इन्द्रिय के संयम से वीर्य को बढ़ाकर, अल्पायु में मृत्यु को हटावे, और युक्त आहार- विहार से सौ वर्ष की आयु को प्राप्त करें। जैसे-जैसे मनुष्य श्रेष्ठ- कर्मों की ओर बढ़ते हैं, वैसे-वैसे ही पाप- कर्मों से उसकी बुद्धि हटने लगती हैं। जिसका फल यह होता है कि – विद्या,आयु और सुशीलता आदि गुणों की वृद्धि होती हैं।



भारतीय तत्त्व दर्शन में त्याग का स्थान बहुत महत्व का है। त्यागमय जीवन को ही यहां सर्वश्रेष्ठ माना गया है। दान में भी किसी पर अहसान करने का भाव रहता है, अपने अहंकार का पोषण होता है और बदले में नाम, यश, कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि की आकांक्षा भी रहती है। पर त्याग तो दान से भी ऊपर की स्थिति है जो दुख, मोह, क्रोध, अहंकार आदि सब से परे है। जिस व्यवस्था में रूपये, पैसे व अन्य भौतिक संपत्तियों के त्याग का इतना महत्व है वहां अपने दोष दुर्गुणों के त्याग की गरिमा का स्वतः ही अनुभव किया जा सकता है। इनमें भी पारस्परिक बैर भाव को त्यागना परिवार व समाज की उन्नति का मुख्य आधार है। जब मन में द्वेष भाव समाप्त हो जाता है तो वहां पवित्रता और निर्मलता का वास होता है। इससे मनुष्य के हृदय में लोगों के प्रति सदभावना जाग्रत होती है और बदले में उसे सबका सहयोग मिलता है। समाज हो या परिवार जब तक सबमें हृदय की एकता, मन की एकता, द्वेष का अभाव तथा प्रेम एवं सदभाव का व्यवहार नहीं होगा, सुख और शांति का वातावरण बन ही नहीं सकेगा। लक्ष्य एक होने भी पर भी यदि आपस में द्वेष है, कलह है, ईर्ष्या है और मनोमालिन्यता है तो काम कैसे चलेगा? यदि विचारों की एकता नहीं है, विचार भेद हैं, मतभेद है तो लक्ष्य भी एक नहीं हो सकेगा। जब लक्ष्य ही निश्चित नहीं होगा तो फिर ‘अपनी अपनी ढपली, अपना अपना राग’ की स्थिति हो जाएगी। यदि किसी प्रकार लक्ष्य एक हो जाए फिर सबके मन व हृदय एक होने चाहिए तभी तो आपस में सहयोग एवं सहानुभूति का वातावरण बनेगा। सच्चे मन से हार्दिक सहयोग मिलने पर ही लक्ष्य पूर्ति संभव हो सकेगी। इसी से प्रेरणा और क्रियाशीलता आती है, पारस्परिक प्रेम और सहानुभूति की अभिवृद्धि होती है। सर्वत्र घनिष्ट प्रेम का प्रवाह होने से लोग अपने स्वार्थ से उपर उठकर एक दूसरे का हित चिंतन करते हैं और उसमें अपने प्राण देने तक को तत्पर रहते हैं। आपसी प्रेम की भावना का महत्व सर्वाधिक है। प्रेम और स्नेह से भी ऊपर वात्सल्य का भाव होता है। जिस प्रकार मां अपने बच्चों को या गाय अपने बछडे को दुलारती व पुचकारती है तथा उसकी भलाई के लिए संसार का बडे से बडा संकट भी स्वयं झेलने को तैयार रहती है, उसी भावना यदि हम आपसी व्यवहार में उतार सकें तो यह संसार स्वर्ग बन जाए। पर यह प्रेम, स्नेह व वात्सल्य की भावना हमारे मन में उपजे भी तो कैसे। वहां पर तो बैर, द्वेष, मनोमालिन्यता का कीचड भरा है। जब तक उनका निवारण नहीं होगा प्रेम के अंकुर कैसे फूटेंगे? द्वेष प्रेम का सबसे बडा शत्रु है। पारस्परिक एकता, स्नेह, सदभाव और सामंजस्य से ही आत्मीयता व सहकारिता स्थापित होती है तथा व्यक्तित्व का विकास होता है। आपसी प्रेम बंधन पुष्ट होने से एक दूसरे के सुख दुख में सहभागी होने की प्रवृत्ति बढेगी। परिवार के हित में, समाज के हित में और राष्टृ के हित में ही लोग अपना भी हित समझेंगे। बैर और द्वेष भाव को अपने मन में घुसने ही नहीं देना चाहिए और यदि कभी आ जाए तो बलपूर्वक धक्का देकर निकाल देना चाहिए।

Human people except laziness, except laziness, the seer judge of the divine, and by obeying his command to behave, by doing auspicious deeds and leaving inauspicious deeds, semen from the restraint of the sensation by attaining learning and excellent education by celibacy By increasing, remove death at a young age, and get a hundred years of age from a diet rich in. As humans move towards superior deeds, in the same way, his intellect starts removing from sin and deeds. The result of which is that – there is an increase in qualities like learning, age and gauge etc.

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