तुलसीदासजी ने बहुत ही सुन्दर सिद्धान्त की बात कही है। जब वे व्रज में भगवान् श्यामसुन्दर के विग्रह के सामने पहुँचे तो देखा त्रिभंगरूप मुरली मनोहर, मुग्ध हो गये।
बोले–‘देखो! राघवेन्द्र ने कैसा रूप बनाया है आज।’ यह नहीं सोचे कि ये दूसरे हैं परन्तु वे तो राघवेन्द्र रूप के उपासक हैं इसलिये सिद्धान्त कहकर अपनी उपासना में उपास्य को याद किया।
कहा कहूँ छबि आजु की भले बने हो नाथ’। हो तुम मेरे ही नाथ, दूसरे नहीं, यहाँ आकर विराजमान हो गये। हमने ऐसी छबि तो कभी देखी नहीं। तीन तो तुम्हारे शरीर में टेढ़ हैं। धनुष-बाण तो है ही नहीं और यह मोर मुकुट बाँधे हुए, हाथ में वंशी लिये यहाँ खड़े-खड़े मुस्करा रहे हो। बहुत सुन्दर बने हो।
इस शोभा का बखान किया जाये ‘भले बने हो नाथ’ परन्तु यदि मुझसे सर झुकवाना हो तो ‘तुलसी मस्तक जब नवै धनुष बाण हो हाथ’ धनुर्धारी बन जाओ रामभद्र, तुलसी का मस्तक झुक जायेगा। कितनी अनन्यता है! किसी का विरोध नहीं। दूसरे नाम, रूप का विरोध नहीं परन्तु अपनी अनन्यता का पूर्ण भाव। इसलिये साधक कभी लड़ता नहीं, किसी का खण्डन-मण्डन नहीं करता अपितु अपने मार्ग पर ही अग्रसर होता है।
जो कोई कुछ कहे तो बहुत ठीक, तुम भी हमारे ही भगवान् का गुण गा रहे हो। राग किसी से है नहीं, झगड़ा किसी से हैं नहीं। सब हमारे भगवान् के उपासक और हमारे भगवान् इतने विचित्र, लीलामय कि कोई कहे कि हम तुम्हें इस नाम से पुकारेंगे तो कहते हैं हाँ, पुकारो। लीलामय जो ठहरे।
उपनिषद कहता है ‘एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति’ एक ही तत्त्व बहुत प्रकार से बखाना जाता है। यह उस तत्व का चमत्कार है। वह यदि एक में रहकर आबद्ध हो जाये तब तो वह हम बद्ध जीवों की भाँति हो जायेगा।
सभी नाम रूप उसके और कोई भी नाम रूप उसका नहीं। वह सर्वातीत, सर्वमय, सर्वगुणातीत और सर्वगुणमय है। सबसे रहित और सबका रूप है। राम, कृष्ण, लड्डू गोपाल, मुरलीमनोहर, कुरुक्षेत्र के भगवान, गीता वाले हाथ में चाबुक लिये ‘तोत्रवेत्रैक पाणये’ जो कोई भी अपने भगवान् हों उनके सामने विश्वासपूर्वक अपनी चाह पूर्ण करनेके लिये प्रार्थना करे तथा अपनी चाह को जीवन की चाह बना ले।
जीवन को चाह का अर्थ है अनिवार्य आवश्यकता । जिसके बिना जीवन रहे ही नहीं। जैसे तीव्र पिपासा के समय जल की आवश्यकता होती है। उस समय जल के अलावा किसी अन्य वस्तु से प्यास नहीं बुझती। जल अनिवार्य आवश्यकता हो जाती है।












