माला मन से लड़ पड़ी , कहाॅं फिरावैं मोहिं ।
मन की माला फेरी ले, राम मिलाउं तोहिं ॥
कबीर दास जी का यह पद कोई साधारण काव्य नहीं , बल्कि सोई हुई मानवीय चेतना पर किया गया एक तीक्ष्ण प्रहार है ।
वह कहते है कि सुनो !
तुम्हारी माला तुमसे बगावत कर रही है । वह लकड़ी का टुकड़ा , जिसे तुम बेजान समझते हो , वह तुम्हारी नादानी पर अट्टहास कर रहा है । क्योंकि तुम्हारी चेतना सोई हुई है । वह तुम्हारे हाथों के इस यांत्रिक घर्षण से थक गई है ।
तुम हाथ में माला घुमा रहे हो और समझते हो कि भक्ति हो रही है ?
नहीं ! यह भक्ति नहीं !!!
यह केवल एक यांत्रिक आदत है ।
तुम माला नहीं घुमा रहे , तुम बस अपनी ‘बेहोशी’ को एक लय दे रहे हो । लकड़ी तो बेजान है , पर तुम्हारी चेतना इतनी सोई हुई है कि उस बेजान लकड़ी को भी तुम्हारी मूर्खता पर तरस आ गया है ।
वह कह रही है…
“अरे नादान ! मुझे क्यों घिसता है ? मैं तो पहले ही वृक्ष से कटकर मर चुकी हूँ , तू मुझे क्या मार रहा है ? मारना है तो उस मन को मार जो तुझे चारों दिशाओं में नचा रहा है !”
अंगूठा माला के मनकों को धकेल रहा है ।
और बुद्धि , वह तो मुनीम बनी बैठी है , हिसाब रख रही है… १०७ , १०८ ठीक है , कोटा पूरा हुआ !
मन तो यहाँ है ही नहीं ! वह तो बाजार में है , वह तिजोरी में है , वह काम-वासनाओं की गलियों में भटक रहा है ।
परमात्मा ‘हाथ की सफाई’ का खेल नहीं है ।
तुम ईश्वर को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हो जैसे वह कोई भोला-भाला सम्राट है , जो तुम्हारी गिनती से खुश हो जाएगा ? नहीं !
परमात्मा तुम्हारी गिनती में नहीं , तुम्हारी ‘शून्यता’ में उतरता है ।
कबीर दास जी के वचन तुम्हें हैरत में डाल देंगे , क्योंकि उनकी वाणी तुम्हारे तथाकथित उपदेशकों से मेल नहीं खाती !
कबीर दास जी का यह सूत्र बड़ा क्रांतिकारी है ।
इसे ठीक से समझना !
मन की माला तो ‘अजपा-जाप’ है ।
असली माला “सांसों की डोर” है । इसे फेरना नहीं पड़ता , यह तो फिर ही रही है ।
हर पल सुमिरन , प्रत्येक श्वास में परमात्मा का नाम ही तुम्हारे होश की माला है ।
मन की माला या कोई करनी नहीं है ।
वह अजपा-जाप है ।
वह अपने-आप होता है ।
जैसे श्वास चलती है… बिना प्रयास के…
श्वास भीतर जाती है , बाहर आती है ।
उसे फेरना नहीं पड़ता… वह फिर ही रही है ।
‘प्रयास’ करना एक बाधा है । जब तक तुम “कर” रहे हो , तब तक “कर्ता” मौजूद है । और जहाँ “मैं” है ,
वहाँ “राम” कैसे हो सकता है ?
“जप” वह है जो तुम “करते” हो ।
“अजपा” वह है जो “होता” है ।
जब तक कर्ता मौजूद है , तब तक तुम परमात्मा के मार्ग में पत्थर की तरह खड़े हो ।
जिस क्षण तुम झुक जाते हो…
जिस क्षण यह “मैं” ढह जाता है…
उसी रिक्तता में… अनाहत नाद बजने लगता है ।
वही सुरति-योग है ।
सुरति-योग कोई अभ्यास नहीं ,
वह सुमिरन की अखंड धारा है ।
एक दिव्य ध्वनि , जो हर क्षण भीतर गूँज रही है…
तुम उसे सुन नहीं पाते क्योंकि बाहर बहुत शोर है ।
आत्मा का परमात्मा से मिलन ही सुरति-योग है ।
जब तक चेतना संसार में फंसी है , तब तक परमात्मा से मिलना कठिन है !
जरा देखो ! उन ग्रामीण पनिहारिनों को ।
क्या अदभुत नृत्य है उनके जीवन का !
उनके सिर पर मिट्टी के घड़ों की एक पूरी मीनार खड़ी है… एक नहीं , दो नहीं , तीन-तीन घड़े । हाथ बिल्कुल स्वतंत्र हैं , जैसे किसी उत्सव में झूम रहे हों । सहेलियों से संसार भर की बाते चल रही है , हंसी के फव्वारे छूट रहे हैं , ठिठोली हो रही है… पर भीतर ?
भीतर एक दीया जल रहा है…
अखंड होश का दीया !
ऊपर संसार , भीतर केंद्र ?
उनका शरीर चल रहा है , जुबान बोल रही है , लेकिन उनकी आत्मा उस घड़े के केंद्र पर ठहरी हुई है । वे जानती हैं कि एक पल की बेहोशी और सब कुछ बिखर जाएगा ।
बाहर विक्षेप है , पर भीतर “सुरति” है ।
यही तो योग का असली सार है ।
असली ध्यान वह नहीं जो एकांत गुफा में हो , असली ध्यान वह है जो बाजार की भीड़ में भी तुम्हारे भीतर एक दीया जलाए रखे ।
राम का अर्थ है…
वह जो ब्रह्मांड के कण-कण में रम रहा है । राम वह आधार है जिस पर यह पूरा अस्तित्व टिका है ।
तुम उसे खोजने तीर्थ स्थानों में जाते हो ।
जब तुम्हारी बाहरी भाग-दौड़ पूरी तरह ठहर जाती है , तब तुम पाते हो कि जिसे तुम पुकार रहे थे , वह तो तुम्हारी पुकार के पीछे छिपी हुई ध्वनि थी ।
जब तुम “कुछ नहीं” होते हो , तभी तुम “सब कुछ” होने की पात्रता पाते हो ।
बाहरी माला अहंकार को पुष्ट करती है , वह कहती है कि “मैं भक्त हूँ ।”
भीतरी माला अहंकार को नष्ट करती है और कहती है कि “मैं तो कुछ हूँ ही नहीं।”
जिस पल तुम इस “मैं” के बोझ को उतारकर रख दोगे , उसी क्षण उसी वक्त जो बचेगा , वही सत्य है ।
॥ “वही राम है” ॥
Mala struggled with her mind, where should I turn, Mohin? Take the rosary of your mind only to meet Ram.
This verse of Kabir Das ji is not an ordinary poem, but a sharp attack on the sleeping human consciousness.
वह कहते है कि सुनो ! तुम्हारी माला तुमसे बगावत कर रही है । वह लकड़ी का टुकड़ा , जिसे तुम बेजान समझते हो , वह तुम्हारी नादानी पर अट्टहास कर रहा है । क्योंकि तुम्हारी चेतना सोई हुई है । वह तुम्हारे हाथों के इस यांत्रिक घर्षण से थक गई है । तुम हाथ में माला घुमा रहे हो और समझते हो कि भक्ति हो रही है ? नहीं ! यह भक्ति नहीं !!! यह केवल एक यांत्रिक आदत है । तुम माला नहीं घुमा रहे , तुम बस अपनी ‘बेहोशी’ को एक लय दे रहे हो । लकड़ी तो बेजान है , पर तुम्हारी चेतना इतनी सोई हुई है कि उस बेजान लकड़ी को भी तुम्हारी मूर्खता पर तरस आ गया है । वह कह रही है… “अरे नादान ! मुझे क्यों घिसता है ? मैं तो पहले ही वृक्ष से कटकर मर चुकी हूँ , तू मुझे क्या मार रहा है ? मारना है तो उस मन को मार जो तुझे चारों दिशाओं में नचा रहा है !” अंगूठा माला के मनकों को धकेल रहा है । और बुद्धि , वह तो मुनीम बनी बैठी है , हिसाब रख रही है… १०७ , १०८ ठीक है , कोटा पूरा हुआ ! मन तो यहाँ है ही नहीं ! वह तो बाजार में है , वह तिजोरी में है , वह काम-वासनाओं की गलियों में भटक रहा है । परमात्मा ‘हाथ की सफाई’ का खेल नहीं है । तुम ईश्वर को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हो जैसे वह कोई भोला-भाला सम्राट है , जो तुम्हारी गिनती से खुश हो जाएगा ? नहीं ! परमात्मा तुम्हारी गिनती में नहीं , तुम्हारी ‘शून्यता’ में उतरता है । कबीर दास जी के वचन तुम्हें हैरत में डाल देंगे , क्योंकि उनकी वाणी तुम्हारे तथाकथित उपदेशकों से मेल नहीं खाती ! कबीर दास जी का यह सूत्र बड़ा क्रांतिकारी है । इसे ठीक से समझना ! मन की माला तो ‘अजपा-जाप’ है । असली माला “सांसों की डोर” है । इसे फेरना नहीं पड़ता , यह तो फिर ही रही है । हर पल सुमिरन , प्रत्येक श्वास में परमात्मा का नाम ही तुम्हारे होश की माला है । मन की माला या कोई करनी नहीं है । वह अजपा-जाप है । वह अपने-आप होता है । जैसे श्वास चलती है… बिना प्रयास के… श्वास भीतर जाती है , बाहर आती है । उसे फेरना नहीं पड़ता… वह फिर ही रही है । ‘प्रयास’ करना एक बाधा है । जब तक तुम “कर” रहे हो , तब तक “कर्ता” मौजूद है । और जहाँ “मैं” है , वहाँ “राम” कैसे हो सकता है ? “जप” वह है जो तुम “करते” हो । “अजपा” वह है जो “होता” है । जब तक कर्ता मौजूद है , तब तक तुम परमात्मा के मार्ग में पत्थर की तरह खड़े हो । जिस क्षण तुम झुक जाते हो… जिस क्षण यह “मैं” ढह जाता है… उसी रिक्तता में… अनाहत नाद बजने लगता है । वही सुरति-योग है । सुरति-योग कोई अभ्यास नहीं , वह सुमिरन की अखंड धारा है । एक दिव्य ध्वनि , जो हर क्षण भीतर गूँज रही है… तुम उसे सुन नहीं पाते क्योंकि बाहर बहुत शोर है । आत्मा का परमात्मा से मिलन ही सुरति-योग है । जब तक चेतना संसार में फंसी है , तब तक परमात्मा से मिलना कठिन है ! जरा देखो ! उन ग्रामीण पनिहारिनों को । क्या अदभुत नृत्य है उनके जीवन का ! उनके सिर पर मिट्टी के घड़ों की एक पूरी मीनार खड़ी है… एक नहीं , दो नहीं , तीन-तीन घड़े । हाथ बिल्कुल स्वतंत्र हैं , जैसे किसी उत्सव में झूम रहे हों । सहेलियों से संसार भर की बाते चल रही है , हंसी के फव्वारे छूट रहे हैं , ठिठोली हो रही है… पर भीतर ? भीतर एक दीया जल रहा है… अखंड होश का दीया ! ऊपर संसार , भीतर केंद्र ? उनका शरीर चल रहा है , जुबान बोल रही है , लेकिन उनकी आत्मा उस घड़े के केंद्र पर ठहरी हुई है । वे जानती हैं कि एक पल की बेहोशी और सब कुछ बिखर जाएगा । बाहर विक्षेप है , पर भीतर “सुरति” है । यही तो योग का असली सार है । असली ध्यान वह नहीं जो एकांत गुफा में हो , असली ध्यान वह है जो बाजार की भीड़ में भी तुम्हारे भीतर एक दीया जलाए रखे । राम का अर्थ है… वह जो ब्रह्मांड के कण-कण में रम रहा है । राम वह आधार है जिस पर यह पूरा अस्तित्व टिका है । तुम उसे खोजने तीर्थ स्थानों में जाते हो । जब तुम्हारी बाहरी भाग-दौड़ पूरी तरह ठहर जाती है , तब तुम पाते हो कि जिसे तुम पुकार रहे थे , वह तो तुम्हारी पुकार के पीछे छिपी हुई ध्वनि थी । जब तुम “कुछ नहीं” होते हो , तभी तुम “सब कुछ” होने की पात्रता पाते हो । बाहरी माला अहंकार को पुष्ट करती है , वह कहती है कि “मैं भक्त हूँ ।” भीतरी माला अहंकार को नष्ट करती है और कहती है कि “मैं तो कुछ हूँ ही नहीं।” जिस पल तुम इस “मैं” के बोझ को उतारकर रख दोगे , उसी क्षण उसी वक्त जो बचेगा , वही सत्य है । ॥ “वही राम है” ॥












