अर्जुन की तपस्या पाशुपतास्त्र



भगवान शिव का पाशुपतास्त्र एक अमोघ अस्त्र माना जाता है। बात उस समय की जब हस्तिनापुर के कार्यकारी महाराज धृतराष्ट्र ने, सम्राट युधिष्ठिर को सभी भाइयों एवं पत्नी साम्राज्ञी द्रौपदी के साथ निमंत्रित किया था। परंतु कौरवों कि नियत गलत थी, जिसने जघन्य अपराध का रूप लिया।

सम्राट युधिष्ठिर द्यूत में हार रहे थे, क्योंकि मामा शकुनि मायावी पासों से खेल रहे थे। ये पासे, मामा शकुनि के अनुरूप अंक लाते थे। कौरव, हारते युधिष्ठिर के शब्दों के साथ खेल कर उन्हें धर्म संकट में डाल रहे थे।

युधिष्ठिर अपने कहे हुए शब्दों में रहने को ही धर्म समझ रहे थे। यही उनसे भूल हुई और उनके चारों भाई बंदी बन गए और उनकी धर्मपत्नी साम्राज्ञी द्रौपदी का अपमान हुआ।

कौरवों ने साम्राज्ञी द्रौपदी के वस्त्र हरण करने की चेष्टा की, परंतु श्री हरि नारायण ने उनकी रक्षा की। हालांकि, चेष्टा मात्र ने पर्याप्त अपमान किया और इस अधर्म के भागीदार हस्तिनापुर की राज्यसभा में बैठे हर एक सभा जन हुए।

पांडवों को वनवास और पाशुपतास्त्र

सम्राट युधिष्ठिर का राजपाट दुर्योधन ने छलपूर्वक छीन लिया और हारने के दंड स्वरूप महाराज युधिष्ठिर को उनके भाईयों एवं पत्नी सहित 12 वर्षों का वनवास तथा 1 वर्ष का अज्ञातवास मिला।

जब वे जंगल की ओर प्रस्थान कर रहे थे, तभी भगवान श्री कृष्ण ने सभी पांडवों को अपनी अपनी शक्ति में वृद्धि करने हेतु, अलग–अलग मार्ग सुझाए।

भगवान श्री कृष्ण के मार्गदर्शन एवं अपने पूर्वज महर्षि वेदव्यास की सलाह पर अर्जुन भगवान शिव से पाशुपतास्त्र प्राप्त करने हिमालय की तराई में चले गए।

अर्जुन की तपस्या

वहां वह उस वन में रहते थे, जहां जगह–जगह पर ऋषि मुनि की कुटिया बनी थी। वही एक कुटिया अर्जुन की भी थी। उस वन में तरह–तरह के पशु पक्षी रहते थे। पहाड़ों से झरने गिरते थे। मानो वन नहीं बल्कि स्वर्ग का एक हिस्सा हो।

वही अर्जुन अपने अंगूठे के बल खड़े होकर तपस्या में लीन थे। उन्होंने खाना पीना भी छोड़ दिया था। वह केवल हवा पीकर रहते थे। उनका शरीर सूख गया था, बाल दाढ़ी मूछें बढ़ गई थीं। परंतु उनके चेहरे का तेज ऐसे बढ़ते जा रहा था मानो दूसरा सूर्य निकल रहा हो।

कुछ दिनों के पश्चात अर्जुन के शरीर से निकल रहा तेज उस जगह की रोशनी को अत्याधिक बढ़ा चुका था। इतना प्रकाश हो चुका था कि वहां आंखें खोलना मुश्किल था।

ऋषि मुनियों का त्राहिमाम

इतना ही नहीं वहां का तापमान भी बढ़ता जा रहा था और अब वहां ऋषि-मुनियों के लिए रहना मुश्किल हो गया था। पशु पक्षी भी उस प्रकाश एवं तापमान से परेशान थे।

कष्ट तो इस ऊर्जा से अर्जुन को भी हो रहा था, पर यह कष्ट अधर्म और अन्याय के कष्ट से कहीं कम था। वह अपनी तपस्या से हिलने को तैयार नहीं थे। परंतु, ऋषि मुनि सहित सभी जीवों का जीवन दूभर हो रहा था।

यह देख कर वहां के ऋषि मुनियों ने शिवजी की पूजा करनी शुरू कर दी, और उनसे कहने लगे कि इस तपस्वी से उनकी रक्षा की जाए। त्राहिमाम त्राहिमाम करने लगे।

तभी उन ऋषि–मुनियों के लिए भविष्यवाणी हुई कि, हे जन! घबराइए नहीं। अर्जुन के तप से आपका अनिष्ट नहीं होगा। पांडु पुत्र अर्जुन, मुझसे पाशुपतास्त्र प्राप्त करना चाहते हैं, इसलिए इतनी कठिन तपस्या कर रहे हैं और मैं उनकी तपस्या से प्रसन्न हूं।

यह सब अतिशीघ्र शांत हो जाएगा। तब ऋषि मुनियों को सब ठीक हो जाने की आस जगी।

जंगली सूअर का आक्रमण,

इसी के पश्चात मुनियों के आश्रम में एक बड़े से जंगली सूअर का हमला हुआ। ऋषि मुनि, कन्याएं, बालक, वृद्ध सब यहां वहां भागने लगे।

तभी अर्जुन को अपने क्षत्रिय धर्म का एहसास हुआ और उन्होंने अति शीघ्र उस जंगली सूअर की ओर अपने धनुष को खींचा और वह जंगली सूअर वहीं ढेर हो गया।

अर्जुन के बाण के साथ ही साथ जंगली सुअर की छाती में एक और भी बाण लगा था। वह बाण एक किरात का था, जो दूर से उस जंगली सुअर का पीछा करता हुआ आ रहा था।

जब किरात ने उस जंगली सुवर को मारने की बात कही, तब अर्जुन मुस्कुराते हुए बोले, इस जंगली सुअर को इतनी दूर से भेदना इतना भी आसान नही है किरात प्रभु। यह मेरे बाण द्वारा भेदा गया है।

किरात और अर्जुन का युद्ध

इसपर किरात ने कहा, क्षत्रिय प्रतीत होते हो , मेरे साथ युद्ध करो तो जानु वास्तव में क्षत्रिय हो या नहीं। अन्यथा बड़ी बड़ी बातें तो कोई भी कर सकता है। युद्ध कर सिद्ध करो कि इस जंगली सुअर को तुम्हारे बाणों ने भेदा है।

अर्जुन ने किरात से कहा, मैं अभी एक तपस्वी हूँ, ऋषि मुनियों के बीच ऐसे कार्य शोभा नही देता। परंतु, किरात ने अर्जुन पर बाण चलाने शुरू कर दिए।

उत्तर स्वरूप, अर्जुन ने भी किरात पर कई बाण चलाए, पर उसके सभी बाण किरात के शरीर से लग–लग कर नीचे गिर पड़े।

अर्जुन समझ चुके थे कि किरात मायावी है, अन्यथा उसके बाण उसे छूकर गिर क्यों जाते। अर्जुन के पास युद्ध की जितनी कलाएं थीं, जितने अस्त्र शस्त्र थे, सबका उसने उपयोग किया, पर किरात पर कोई असर नही हुआ। उसे तनिक हानि नहीं हुई।

भगवान शिव के द्वारा पाशुपतास्त्र प्रदान करना।

जब दैविक अस्त्र भी किरात का कुछ बिगाड़ ना पाए। तब अर्जुन हाथ जोड़ कर, अपने घुटनों पर बैठ कर, भाव विभोर हो बोले, हे महादेव! आपके सामने क्या शौर्य, क्या धनुर्विद्या, क्या दैविक अस्त्र शस्त्र और क्या मेरा कुल और वर्ण। मुझसे भूल हुई, मुझे क्षमा करें करुणाकर। मैं आपको समझ नही पाया।

भगवान भोलेनाथ ने प्रसन्नता भरे स्वर में कहा, अर्जुन, मैं तुम्हारी वीरता की परीक्षा लेकर परम संतुष्ट हुआ हूं। मैं तुम्हारी इच्छा के अनुसार ही तुम्हें पाशुपतास्त्र दे रहा हूं। इससे तुम तीनों लोकों को जीत सकोगे।

अर्जुन का उद्देश्य पूर्ण हुआ। सृष्टि के इतिहास में, शौर्य की नैवेद्य से शिवजी को संतुष्ट करने वाला अकेला अर्जुन ही है।



भगवान शिव का पाशुपतास्त्र एक अमोघ अस्त्र माना जाता है। बात उस समय की जब हस्तिनापुर के कार्यकारी महाराज धृतराष्ट्र ने, सम्राट युधिष्ठिर को सभी भाइयों एवं पत्नी साम्राज्ञी द्रौपदी के साथ निमंत्रित किया था। परंतु कौरवों कि नियत गलत थी, जिसने जघन्य अपराध का रूप लिया। सम्राट युधिष्ठिर द्यूत में हार रहे थे, क्योंकि मामा शकुनि मायावी पासों से खेल रहे थे। ये पासे, मामा शकुनि के अनुरूप अंक लाते थे। कौरव, हारते युधिष्ठिर के शब्दों के साथ खेल कर उन्हें धर्म संकट में डाल रहे थे। युधिष्ठिर अपने कहे हुए शब्दों में रहने को ही धर्म समझ रहे थे। यही उनसे भूल हुई और उनके चारों भाई बंदी बन गए और उनकी धर्मपत्नी साम्राज्ञी द्रौपदी का अपमान हुआ। कौरवों ने साम्राज्ञी द्रौपदी के वस्त्र हरण करने की चेष्टा की, परंतु श्री हरि नारायण ने उनकी रक्षा की। हालांकि, चेष्टा मात्र ने पर्याप्त अपमान किया और इस अधर्म के भागीदार हस्तिनापुर की राज्यसभा में बैठे हर एक सभा जन हुए। पांडवों को वनवास और पाशुपतास्त्र सम्राट युधिष्ठिर का राजपाट दुर्योधन ने छलपूर्वक छीन लिया और हारने के दंड स्वरूप महाराज युधिष्ठिर को उनके भाईयों एवं पत्नी सहित 12 वर्षों का वनवास तथा 1 वर्ष का अज्ञातवास मिला। जब वे जंगल की ओर प्रस्थान कर रहे थे, तभी भगवान श्री कृष्ण ने सभी पांडवों को अपनी अपनी शक्ति में वृद्धि करने हेतु, अलग-अलग मार्ग सुझाए। भगवान श्री कृष्ण के मार्गदर्शन एवं अपने पूर्वज महर्षि वेदव्यास की सलाह पर अर्जुन भगवान शिव से पाशुपतास्त्र प्राप्त करने हिमालय की तराई में चले गए। अर्जुन की तपस्या वहां वह उस वन में रहते थे, जहां जगह-जगह पर ऋषि मुनि की कुटिया बनी थी। वही एक कुटिया अर्जुन की भी थी। उस वन में तरह-तरह के पशु पक्षी रहते थे। पहाड़ों से झरने गिरते थे। मानो वन नहीं बल्कि स्वर्ग का एक हिस्सा हो। वही अर्जुन अपने अंगूठे के बल खड़े होकर तपस्या में लीन थे। उन्होंने खाना पीना भी छोड़ दिया था। वह केवल हवा पीकर रहते थे। उनका शरीर सूख गया था, बाल दाढ़ी मूछें बढ़ गई थीं। परंतु उनके चेहरे का तेज ऐसे बढ़ते जा रहा था मानो दूसरा सूर्य निकल रहा हो। कुछ दिनों के पश्चात अर्जुन के शरीर से निकल रहा तेज उस जगह की रोशनी को अत्याधिक बढ़ा चुका था। इतना प्रकाश हो चुका था कि वहां आंखें खोलना मुश्किल था। ऋषि मुनियों का त्राहिमाम इतना ही नहीं वहां का तापमान भी बढ़ता जा रहा था और अब वहां ऋषि-मुनियों के लिए रहना मुश्किल हो गया था। पशु पक्षी भी उस प्रकाश एवं तापमान से परेशान थे। कष्ट तो इस ऊर्जा से अर्जुन को भी हो रहा था, पर यह कष्ट अधर्म और अन्याय के कष्ट से कहीं कम था। वह अपनी तपस्या से हिलने को तैयार नहीं थे। परंतु, ऋषि मुनि सहित सभी जीवों का जीवन दूभर हो रहा था। यह देख कर वहां के ऋषि मुनियों ने शिवजी की पूजा करनी शुरू कर दी, और उनसे कहने लगे कि इस तपस्वी से उनकी रक्षा की जाए। त्राहिमाम त्राहिमाम करने लगे। तभी उन ऋषि-मुनियों के लिए भविष्यवाणी हुई कि, हे जन! घबराइए नहीं। अर्जुन के तप से आपका अनिष्ट नहीं होगा। पांडु पुत्र अर्जुन, मुझसे पाशुपतास्त्र प्राप्त करना चाहते हैं, इसलिए इतनी कठिन तपस्या कर रहे हैं और मैं उनकी तपस्या से प्रसन्न हूं। यह सब अतिशीघ्र शांत हो जाएगा। तब ऋषि मुनियों को सब ठीक हो जाने की आस जगी। जंगली सूअर का आक्रमण, इसी के पश्चात मुनियों के आश्रम में एक बड़े से जंगली सूअर का हमला हुआ। ऋषि मुनि, कन्याएं, बालक, वृद्ध सब यहां वहां भागने लगे। तभी अर्जुन को अपने क्षत्रिय धर्म का एहसास हुआ और उन्होंने अति शीघ्र उस जंगली सूअर की ओर अपने धनुष को खींचा और वह जंगली सूअर वहीं ढेर हो गया। अर्जुन के बाण के साथ ही साथ जंगली सुअर की छाती में एक और भी बाण लगा था। वह बाण एक किरात का था, जो दूर से उस जंगली सुअर का पीछा करता हुआ आ रहा था। जब किरात ने उस जंगली सुवर को मारने की बात कही, तब अर्जुन मुस्कुराते हुए बोले, इस जंगली सुअर को इतनी दूर से भेदना इतना भी आसान नही है किरात प्रभु। यह मेरे बाण द्वारा भेदा गया है। किरात और अर्जुन का युद्ध इसपर किरात ने कहा, क्षत्रिय प्रतीत होते हो , मेरे साथ युद्ध करो तो जानु वास्तव में क्षत्रिय हो या नहीं। अन्यथा बड़ी बड़ी बातें तो कोई भी कर सकता है। युद्ध कर सिद्ध करो कि इस जंगली सुअर को तुम्हारे बाणों ने भेदा है। अर्जुन ने किरात से कहा, मैं अभी एक तपस्वी हूँ, ऋषि मुनियों के बीच ऐसे कार्य शोभा नही देता। परंतु, किरात ने अर्जुन पर बाण चलाने शुरू कर दिए। उत्तर स्वरूप, अर्जुन ने भी किरात पर कई बाण चलाए, पर उसके सभी बाण किरात के शरीर से लग-लग कर नीचे गिर पड़े। अर्जुन समझ चुके थे कि किरात मायावी है, अन्यथा उसके बाण उसे छूकर गिर क्यों जाते। अर्जुन के पास युद्ध की जितनी कलाएं थीं, जितने अस्त्र शस्त्र थे, सबका उसने उपयोग किया, पर किरात पर कोई असर नही हुआ। उसे तनिक हानि नहीं हुई। भगवान शिव के द्वारा पाशुपतास्त्र प्रदान करना। जब दैविक अस्त्र भी किरात का कुछ बिगाड़ ना पाए। तब अर्जुन हाथ जोड़ कर, अपने घुटनों पर बैठ कर, भाव विभोर हो बोले, हे महादेव! आपके सामने क्या शौर्य, क्या धनुर्विद्या, क्या दैविक अस्त्र शस्त्र और क्या मेरा कुल और वर्ण। मुझसे भूल हुई, मुझे क्षमा करें करुणाकर। मैं आपको समझ नही पाया। भगवान भोलेनाथ ने प्रसन्नता भरे स्वर में कहा, अर्जुन, मैं तुम्हारी वीरता की परीक्षा लेकर परम संतुष्ट हुआ हूं। मैं तुम्हारी इच्छा के अनुसार ही तुम्हें पाशुपतास्त्र दे रहा हूं। इससे तुम तीनों लोकों को जीत सकोगे। अर्जुन का उद्देश्य पूर्ण हुआ। सृष्टि के इतिहास में, शौर्य की नैवेद्य से शिवजी को संतुष्ट करने वाला अकेला अर्जुन ही है।

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