भक्ति केवल एक साधना नहीं, बल्कि आत्मा का सबसे कोमल और गहन स्पंदन है। यह कोई रूढ़ि नहीं, बल्कि जीवन का वह अमृत स्रोत है, जहाँ मनुष्य अहंकार से मुक्त होकर अपने ईश्वर में विलीन हो जाता है। भक्ति का अर्थ केवल देवताओं के आगे सिर झुकाना नहीं, स्वयं को प्रेम और श्रद्धा की उस ऊँचाई तक ले जाना है, जहाँ हृदय निर्मल होकर ब्रह्मांड की दिव्यता को अपने भीतर अनुभव कर सके। यह प्रेम का चरम उत्कर्ष है, जहाँ न तो कोई शर्त होती है, न ही कोई अपेक्षा सिर्फ समर्पण होता है, बस एक अनवरत प्रवाह, जैसे गंगा अपने स्रोत से बहकर सागर में समा जाती है।
दार्शनिक दृष्टि से देखा जाए तो भक्ति द्वैत और अद्वैत के बीच की सबसे कोमल सेतु है। जब तक भक्ति में उपासक और उपास्य का भेद बना रहता है, तब तक वह द्वैत की अवस्था में होती है, जहाँ साधक अपने आराध्य को अलग मानकर उसकी उपासना करता है। लेकिन जैसे जैसे प्रेम गहराता है, साधक और आराध्य का भेद मिटने लगता है, और वह स्वयं उसी चेतना में विलीन हो जाता है, जिसे वह पूज रहा होता है। यही अद्वैत का रहस्य है सोऽहम अर्थात् मैं वही हूँ। यही कृष्ण का गीता में प्रेमपूर्वक दिया गया संदेश है जो प्रेमपूर्वक मेरी भक्ति करता है, मैं सदा उसके साथ रहता हूँ।
भक्ति की यह भावना केवल मंदिरों और प्रार्थनाओं तक सीमित नहीं होती। यह तो एक वृत्ति है, एक अवस्था है, जहाँ मनुष्य का हर कर्म ईश्वर को अर्पित होने लगता है।कर्म मे प्रभु के स्पर्श का अहसास होने लगता है। चारों ओर प्रकाश दिखाई देता है। चकले से प्रकाश की किरणें निकल रही है जैसे प्रभु भगवान बाहर और भीतर है जंहा मन ईश्वर मे लीन हो जाता है। प्रभु भगवान के साथ
तुलसीदास ने इसे सहज रूप में व्यक्त किया रामहि केवल प्रेमु पियारा। जानि लेहु जो जाननिहारा।। अर्थात् भगवान को केवल प्रेम ही प्रिय है।
यह प्रेम जब संकीर्ण स्वार्थों से मुक्त होकर समष्टि की सेवा में परिवर्तित हो जाता है, तो भक्ति कर्मयोग बन जाती है। मीरा का प्रेम, सूरदास की तन्मयता, कबीर की निर्भीकता और चैतन्य महाप्रभु की संपूर्ण समर्पण भावना, सभी भक्ति के विभिन्न रूप हैं, परंतु मूल तत्व एक ही है पूर्ण समर्पण और परम प्रेम।
इस दृष्टि से भक्ति केवल आध्यात्मिक मार्ग नहीं, बल्कि जीवन जीने की सबसे सहज और सुंदर कला भी है। जब हम भक्ति के तत्व को अपने जीवन में आत्मसात कर लेते हैं, तो संसार की नश्वरता हमें विचलित नहीं करती। यह हमें एक ऐसी आंतरिक शक्ति से जोड़ देती है, जहाँ दुख भी आनंदमय प्रतीत होने लगते हैं और हर परिस्थिति में दिव्यता का आभास होता है। यही कारण है कि भक्तों के चेहरे पर एक अद्भुत शांति और आनंद झलकता है, क्योंकि वे जीवन के हर क्षण को ईश्वर की लीला मानकर उसमें समर्पित रहते हैं।
भक्ति जीवन को सुंदर, सहज और अर्थपूर्ण बनाने की दिव्य कला है। यह मन को विशाल बनाती है, अहंकार को गलाकर प्रेम का निर्मल प्रवाह बहाती है और अंत में साधक को उसी ब्रह्म में विलीन कर देती है, जहाँ से वह आया था। यही भक्ति का सर्वोच्च सौंदर्य है जहाँ प्रेम ही पूजा है, समर्पण ही साधना है, और ईश्वर केवल प्रेम की उस अंतिम अनुभूति में प्रकट होते हैं, जहाँ मैं और तू का भेद मिट जाता है, और शेष रह जाता है केवल प्रेम अनंत, अपरिमेय, और दिव्य।जय श्री राम अनीता गर्ग