लाहौर के एक ब्राह्मण दम्पप्ति दयाल राम और उनकी धर्म पत्नी निर्धन थे कोई संतान भी नही थी। एक बार पत्नी ने कहा कि किसी से पूछो तो सही हम कोई धर्म कर्म ऐसा करें कि जिससे कुछ तो यहां करके जाएँ इस मृत्युलोक में आकर हमने तो कुछ नही किया कुछ है भी नही करने को धन आदिक। और बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि यहां कुछ करोगे वही आगे मिलेगा कहते है न कुछ करके आया होता तो खा रहा होता कुछ करके नही आया इसलिए भूखो मर रहा है। पत्नी की बात मानकर दयाल राम एक वेद पाठी ब्राह्मण के पास गए अपनी दशा जैसी भी थी सब बताई पण्डित जी ने एक मन्त्र दिया और कहा जम्बू पर्वत पर जाकर इस मंत्र का जप तपस्या करते हुए करो तुम्हे अवश्य कुछ फल मिलेगा। दोनों दम्पत्ति गए जम्बू पर्वत पर कठोर तप किया मन्त्र का जप करते हुए जो भी उन पंडितजी ने दिया था। 12 वर्ष पश्चात जाम्बवन्त जी प्रकट हो गए उन्होंने एक पारसमणि दी कहा लो अर्थ के लिए तप कर रहे थे न… ये पारसमणि लो और खूब धन संपत्ति वैभव से भोग करो। लेकिन याद रखना कि 12 वर्ष के बाद यह पारसमणि अंतर्ध्यान हो जाएगी तभी तक जो करना हो इससे करना। दोनों दम्पति प्रसन्न हुए लौटे और 10 वर्ष तक खूब भोग भोगे उस पारसमणि से। लेकिन 11वे वर्ष में पत्नी के मन में विचार आया कि हम यदि भोग ही भोगते रहे तो हमारी दुर्गति होगी हमने कुछ दान पुण्य तो किया ही नहीं। सन्त जन कहते हैं पत्नी के आगे धर्म इसलिए लगता है क्योंकि वही धर्म के मार्ग पर पति को चलाती है पति का धर्म से कोई लेना देना होता नहीं है। क्योंकि पुरुष अहंकारी स्वभाव का होता है उसे केवल धन से मतलब होता है धर्म से उसका कुछ लेना देना नहीं होता। धर्म पत्नी ही रूठ कर मना कर ऐसे वैसे जैसे भी हो पति से धर्म कर्म करवा देती है इसलिए उसे धर्म पत्नी कहते हैं। दान धर्म कलिकाल में सर्वश्रेष्ठ बताया है एक ग्रहस्थ के लिए। नादिया यानी बैल को धर्म कहा है जिसके 4 पैर होते है चार पदार्थ धर्म के कलि महु एक प्रधान जिनमे से एक दान सबसे महत्वपूर्ण बताया है बाकी के तीन कलिकाल में तप , क्षमा , दया ये तीनो करने बहुत कठिन है। दान कोई भी कर सकता है यदि समझ है तो। वही उन दयाल राम की धर्म पत्नी ने उन्हें समझाया कि देखिए हमने 10 वर्ष खूब भोग भोग लिए अब 2 वर्ष शेष बचे हैं इन दो वर्षों में अब इस पारसमणि से जो भी मिले उसे दान धर्म में लगाते है तीर्थ यात्रा पर चलते हैं दोनों पति पत्नी 4 धाम की यात्रा पर चले रास्ते मे खूब दान धर्म करते हुए उत्तराखण्ड पहुँचे वहां से फिर पत्नी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा देवधर बिहार जाकर पत्नी का शरीर पत्नी का शरीर पूरा हो गया दयाल राम ने वहीं पत्नी की उत्तरक्रिया आदि सब कर दिया अकेले वहां से आगे चले आश्रमो में रुकते तो बता देते कि ऐसे ऐसे मेरे पास एक पारसमणि है बड़े बड़े साधु सन्यासी भी ललचा जाते पारसमणि का नाम सुनकर खूब आवभगत करते दयाल राम की दयाल राम समझ गए ये आवभगत मेरी नहीं पारसमणि की हो रही है चल देते वहां से बहुत रोकते साधु बाबा रुक जाओ ये आश्रम तुम्हारे नाम कर देंगे आदि आदि लेकिन दया राम नही रुके। नैमिषारण्य में भी बड़े बड़े विरक्त सन्यासी भी लोभ से उन्हें रोकना चाहते दयाल राम ने सोचा इससे अच्छा तो जो समय बचा है इस पारसमणि का ऐसे ही काट लूँ ये अपने आप अंतर्ध्यान हो जाएगी लालचियों को तो नही ही दूंगा। नैमिषारण्य में उन्हें किसी ने बताया कि श्री धाम वृन्दावन में एक परम् विरक्त महात्मा निवास करते हैं स्वामी श्री हरिदास जी महाराज उनके पास चले जाओ वो इस पारसमणि का सदुपुयोग बता देंगे स्वामी जी की महिमा कितनी दूर दूर तक फैली हुई थी चलते चलते दयाल राम पहुँच गए वृन्दावन निधिवन पहुँचे स्वामी जी का पता पूँछते पूँछते दण्डवत की कहा हे प्रभु मुझ पर कृपा कीजिये मैं बहुत घूमा अब थक गया अब मुझे विश्राम मिल जाये मेरी आत्मा को ऐसा कोई मन्त्र कोई उपासना बता दीजिए स्वामी जी को परख रहे थे दयाल राम स्वामी जी बोले मन्त्र उपासना तो सब हम तुमको बता देंगे लेकिन पहले जो तुम्हारे पास पारसमणि है उसे यमुना जी में बिल्कुल गहराई में फेंक आओ सुनते ही दयाल राम समझ गए मेरी मंजिल आ गयी अब यहां से मुझे कहीं नहीं जाना। रोते हुए कुछ नही बोले सीधे यमुना जी गए और पारसमणि यमुना जी में फेंक आये। आकर मन्त्र दीक्षा हुई उनकी सोहनी सेवा स्वामी जी ने उन्हें दी कृपा करके नाम रख दिया दयाल दास। निधिवन में दयाल दास सेवा करते सोहनी की लेकिन कभी कभी मन में आता कि पारसमणि रख ही लेते स्वामी जी इतने साधु है यहां सबकी सेवा हो जाती उससे स्वामी जी तो तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा
विश्व बदर जिमि तुम्हरे ही हाथा
अन्तर्यामी थे सारे विश्व के सुख तो बेर के समान ऐसे सन्तो के हाथों में रहा करते है एक दिन बुलाया दयाल दास को कहा दयाल दास जाओ ये कमण्डल ले जाओ यमुना जी की रेती इसमे भर लाना दयाल दास चले सोचा कुछ करना होगा रेती का भर लाये रेती कहा लीजिये महाराज स्वामी जी बोले ले आये…. उलट दो यहाँ जैसे ही रेती उलटी उसमे से हजारों पारसमणी गिर पड़ी दयाल दास तो हक्के बक्के रह गए मैं तो रेती लाया था ये इतनी पारसमणि कहा महाराज ये क्या लीला स्वामी जी बोले तुम्हारे मन मेंं जो प्रश्न था उसका उत्तर है ये यहां यमुना की रेत के कण कण में हजारो पारसमणियां हैं तुम उस एक पारसमणि को भूल नही पा रहे थे। ये वृंदावन है गोलोक सँयुंक्त भूमि है दयाल दास यहां पग पग पर प्रयाग राज है यहां की स्वामिनी तीन लोक की मालकिन है यहां कोई भूखा नही सोता। दयाल दास तो चरणों मे गिर पड़े क्षमा करें प्रभु क्षमा करें। ऐसी ऐसी दिव्य अलौकिक महिमा स्वामी जी महाराज की इस वृन्दावन धाम की इसलिए उन्हें वृन्दावन के अनन्य नृपति कहा जाता है। जय हो बिहारी जी की
जय हो अनन्य नृपति स्वामी श्री हरिदास जी महाराज की
लाहौर के एक ब्राह्मण दम्पप्ति दयाल राम और उनकी धर्म पत्नी निर्धन थे कोई संतान भी नही थी। एक बार पत्नी ने कहा कि किसी से पूछो तो सही हम कोई धर्म कर्म ऐसा करें कि जिससे कुछ तो यहां करके जाएँ इस मृत्युलोक में आकर हमने तो कुछ नही किया कुछ है भी नही करने को धन आदिक। और बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि यहां कुछ करोगे वही आगे मिलेगा कहते है न कुछ करके आया होता तो खा रहा होता कुछ करके नही आया इसलिए भूखो मर रहा है। पत्नी की बात मानकर दयाल राम एक वेद पाठी ब्राह्मण के पास गए अपनी दशा जैसी भी थी सब बताई पण्डित जी ने एक मन्त्र दिया और कहा जम्बू पर्वत पर जाकर इस मंत्र का जप तपस्या करते हुए करो तुम्हे अवश्य कुछ फल मिलेगा। दोनों दम्पत्ति गए जम्बू पर्वत पर कठोर तप किया मन्त्र का जप करते हुए जो भी उन पंडितजी ने दिया था। 12 वर्ष पश्चात जाम्बवन्त जी प्रकट हो गए उन्होंने एक पारसमणि दी कहा लो अर्थ के लिए तप कर रहे थे न… ये पारसमणि लो और खूब धन संपत्ति वैभव से भोग करो। लेकिन याद रखना कि 12 वर्ष के बाद यह पारसमणि अंतर्ध्यान हो जाएगी तभी तक जो करना हो इससे करना। दोनों दम्पति प्रसन्न हुए लौटे और 10 वर्ष तक खूब भोग भोगे उस पारसमणि से। लेकिन 11वे वर्ष में पत्नी के मन में विचार आया कि हम यदि भोग ही भोगते रहे तो हमारी दुर्गति होगी हमने कुछ दान पुण्य तो किया ही नहीं। सन्त जन कहते हैं पत्नी के आगे धर्म इसलिए लगता है क्योंकि वही धर्म के मार्ग पर पति को चलाती है पति का धर्म से कोई लेना देना होता नहीं है। क्योंकि पुरुष अहंकारी स्वभाव का होता है उसे केवल धन से मतलब होता है धर्म से उसका कुछ लेना देना नहीं होता। धर्म पत्नी ही रूठ कर मना कर ऐसे वैसे जैसे भी हो पति से धर्म कर्म करवा देती है इसलिए उसे धर्म पत्नी कहते हैं। दान धर्म कलिकाल में सर्वश्रेष्ठ बताया है एक ग्रहस्थ के लिए। नादिया यानी बैल को धर्म कहा है जिसके 4 पैर होते है चार पदार्थ धर्म के कलि महु एक प्रधान जिनमे से एक दान सबसे महत्वपूर्ण बताया है बाकी के तीन कलिकाल में तप , क्षमा , दया ये तीनो करने बहुत कठिन है। दान कोई भी कर सकता है यदि समझ है तो। वही उन दयाल राम की धर्म पत्नी ने उन्हें समझाया कि देखिए हमने 10 वर्ष खूब भोग भोग लिए अब 2 वर्ष शेष बचे हैं इन दो वर्षों में अब इस पारसमणि से जो भी मिले उसे दान धर्म में लगाते है तीर्थ यात्रा पर चलते हैं दोनों पति पत्नी 4 धाम की यात्रा पर चले रास्ते मे खूब दान धर्म करते हुए उत्तराखण्ड पहुँचे वहां से फिर पत्नी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा देवधर बिहार जाकर पत्नी का शरीर पत्नी का शरीर पूरा हो गया दयाल राम ने वहीं पत्नी की उत्तरक्रिया आदि सब कर दिया अकेले वहां से आगे चले आश्रमो में रुकते तो बता देते कि ऐसे ऐसे मेरे पास एक पारसमणि है बड़े बड़े साधु सन्यासी भी ललचा जाते पारसमणि का नाम सुनकर खूब आवभगत करते दयाल राम की दयाल राम समझ गए ये आवभगत मेरी नहीं पारसमणि की हो रही है चल देते वहां से बहुत रोकते साधु बाबा रुक जाओ ये आश्रम तुम्हारे नाम कर देंगे आदि आदि लेकिन दया राम नही रुके। नैमिषारण्य में भी बड़े बड़े विरक्त सन्यासी भी लोभ से उन्हें रोकना चाहते दयाल राम ने सोचा इससे अच्छा तो जो समय बचा है इस पारसमणि का ऐसे ही काट लूँ ये अपने आप अंतर्ध्यान हो जाएगी लालचियों को तो नही ही दूंगा। नैमिषारण्य में उन्हें किसी ने बताया कि श्री धाम वृन्दावन में एक परम् विरक्त महात्मा निवास करते हैं स्वामी श्री हरिदास जी महाराज उनके पास चले जाओ वो इस पारसमणि का सदुपुयोग बता देंगे स्वामी जी की महिमा कितनी दूर दूर तक फैली हुई थी चलते चलते दयाल राम पहुँच गए वृन्दावन निधिवन पहुँचे स्वामी जी का पता पूँछते पूँछते दण्डवत की कहा हे प्रभु मुझ पर कृपा कीजिये मैं बहुत घूमा अब थक गया अब मुझे विश्राम मिल जाये मेरी आत्मा को ऐसा कोई मन्त्र कोई उपासना बता दीजिए स्वामी जी को परख रहे थे दयाल राम स्वामी जी बोले मन्त्र उपासना तो सब हम तुमको बता देंगे लेकिन पहले जो तुम्हारे पास पारसमणि है उसे यमुना जी में बिल्कुल गहराई में फेंक आओ सुनते ही दयाल राम समझ गए मेरी मंजिल आ गयी अब यहां से मुझे कहीं नहीं जाना। रोते हुए कुछ नही बोले सीधे यमुना जी गए और पारसमणि यमुना जी में फेंक आये। आकर मन्त्र दीक्षा हुई उनकी सोहनी सेवा स्वामी जी ने उन्हें दी कृपा करके नाम रख दिया दयाल दास। निधिवन में दयाल दास सेवा करते सोहनी की लेकिन कभी कभी मन में आता कि पारसमणि रख ही लेते स्वामी जी इतने साधु है यहां सबकी सेवा हो जाती उससे स्वामी जी तो तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा विश्व बदर जिमि तुम्हरे ही हाथा अन्तर्यामी थे सारे विश्व के सुख तो बेर के समान ऐसे सन्तो के हाथों में रहा करते है एक दिन बुलाया दयाल दास को कहा दयाल दास जाओ ये कमण्डल ले जाओ यमुना जी की रेती इसमे भर लाना दयाल दास चले सोचा कुछ करना होगा रेती का भर लाये रेती कहा लीजिये महाराज स्वामी जी बोले ले आये…. उलट दो यहाँ जैसे ही रेती उलटी उसमे से हजारों पारसमणी गिर पड़ी दयाल दास तो हक्के बक्के रह गए मैं तो रेती लाया था ये इतनी पारसमणि कहा महाराज ये क्या लीला स्वामी जी बोले तुम्हारे मन मेंं जो प्रश्न था उसका उत्तर है ये यहां यमुना की रेत के कण कण में हजारो पारसमणियां हैं तुम उस एक पारसमणि को भूल नही पा रहे थे। ये वृंदावन है गोलोक सँयुंक्त भूमि है दयाल दास यहां पग पग पर प्रयाग राज है यहां की स्वामिनी तीन लोक की मालकिन है यहां कोई भूखा नही सोता। दयाल दास तो चरणों मे गिर पड़े क्षमा करें प्रभु क्षमा करें। ऐसी ऐसी दिव्य अलौकिक महिमा स्वामी जी महाराज की इस वृन्दावन धाम की इसलिए उन्हें वृन्दावन के अनन्य नृपति कहा जाता है। जय हो बिहारी जी की जय हो अनन्य नृपति स्वामी श्री हरिदास जी महाराज की