ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।।
अर्थात् उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, तेजस्वी, पापनाशक, परमात्मा को हम अंतःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
हिन्दू धर्म के ग्रंथ वेद में ईश्वर को ‘ब्रह्म’ कहा गया है। ब्रह्म को प्रणव, सच्चिदानंद, परब्रह्म, ईश्वर, परमेश्वर और परमात्मा भी कहा जाता है। इसी कारण हिन्दू धर्म को ‘ब्रह्मवादी’ धर्म भी कहा जाता है। इस ब्रह्म के बारे में उपनिषद (वेदांत) और गीता में सारतत्व समझाया गया है। उपनिषद और गीता के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को ‘ब्रह्मसूत्र’ का अध्ययन करना चाहिए।
हिन्दू धर्म में ईश्वर की धारणा, जो कि बिलकुल भी सतही नहीं है। यह ऋषियों का अनुभूत सत्य है। जांचा-परखा मार्ग है। ऋषियों ने ईश्वर की कल्पना नहीं की बल्कि उसका अनुभव किया और जाना। जो जाना वही कहा। अतः प्रस्तुत है कि हिन्दू धर्म ईश्वर के बारे में क्या कहता है-
ब्रह्म ही सत्य है, जो न तो पुरुष है, न ही स्त्री। वह सिर्फ ब्रह्म है।
ईश्वर न तो भगवान है, न देवी है, न देवता और न ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश।
ईश्वर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश भी नहीं।
ईश्वर दुर्गा, राम, कृष्ण और बुद्ध भी नहीं हैं।
ईश्वर न पिता है, न माता और न ही गुरु।
उनका न कोई पिता है और न कोई स्वामी और न ही वह किसी का स्वामी है।
ईश्वर वह है जो समय और स्थान से प्रभावित नहीं होता है।
ईश्वर न धरती पर है और न आकाश में लेकिन वह सर्वत्र होकर भी अकेला है।
सृष्टि से पहले भी वही था और सृष्टि के बाद भी वही एकमात्र होगा।
ईश्वर सभी की आत्मा में है और सभी की आत्मा ही ईश्वर है, लेकिन वह कभी किसी को महसूस नहीं होता। उसके लिए आत्मवान होना जरूरी है।
वह दूर से दूर और पास से भी पास है।
परमात्मा सर्वव्यापक है लेकिन माया के आवरण से परमात्मा की प्रतीति नहीं होती।
जो भूत, भविष्य और सबमें व्यापक है, जो दिव्यलोक का भी अधिष्ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है।
(ऋग्वेद)
ईश्वर शुद्ध प्रकाश स्वरूप है, लेकिन वह प्रकाश नहीं है।
ईश्वर केवल एक है, उसके जैसा कोई दूसरा नहीं।
क्लेश, कर्म, विपाक और आशय- इन चारों से अपरामष्ट- जो संबंधित नहीं है वही पुरुष विशेष ईश्वर है। अर्थात जो बंधन में है और जो मुक्त हो गया है वह ईश्वर नहीं है, बल्कि ईश्वर न कभी बंधन में था, न है और न रहेगा।
ईश्वर निराकार, निर्विकार और निर्विकल्प है। उसकी कोई मूर्ति नहीं बनाई जा सकती।
ईश्वर अजन्मा है। जिन्होंने जन्म लिया है और जो मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं या फिर अजर-अमर हो गए हैं वे सभी ईश्वर नहीं हैं।
ईश्वर दयालु, प्रेमपूर्ण और जगत का रखवाला है।
वह सच्चिदानंद है। अर्थात सत, चित्त और आनंद स्वरूप है। सत् का अर्थ है- सनातन, शाश्वत, जिसका कोई प्रारंभ नहीं और अंत भी नहीं, न बदलने वाला- न समाप्त होने वाला। चित् का अर्थ है- चेतना, विचारणा, मन और बुद्धि आदि। चेतना से ही संसार का उद्भव हुआ है। तीसरा इस संसार का सबसे बड़ा आकर्षण ‘आनंद’ है। संसार की उत्पत्ति आनंद के लिए ही हुई है। शुद्ध आनंद की अनुभूति होना दुर्लभ है।
‘वह परब्रह्म (ईश्वर) एकात्म भाव से और एक मन से तीव्र गति वाले हैं। वे सबके आदि (प्रारंभ) तथा सबके जानने वाले हैं। इन परमात्मा को देवगण भी नहीं जान सके। वे अन्य गतिवानों को स्वयं स्थिर रखते हुए भी अतिक्रमण करते हैं। उनकी शक्ति से ही वायु, जल वर्षण आदि क्रियाएं होती हैं। वे चलते हैं, स्थिर भी हैं; वे दूर से दूर और निकट से निकट हैं। वे इस संपूर्ण विश्व के भीतर परिपूर्ण हैं तथा इस विश्व के बाहर भी हैं।’
(ईशावास्योपनिषद- ४,५)
ईश्वर का कोई संदेशवाहक नहीं। संदेशवाहक देवी और देवताओं के होते हैं। ऋषियों ने ईश्वर के वचनों को सुना और उसकी स्तुति की जिसे वेद कहा गया। वे ईश्वरीय वचन है जिनमें आदेश, संदेश या आज्ञा नहीं है।
ब्रह्म या ईश्वर न न्याय करता है और न अन्याय करता है, लेकिन जो उसका ध्यान करते हैं उनके साथ कभी अन्याय नहीं होता।
ईश्वर किसी को भयभीत करने वाला और न ही प्रेम करने वाला है। जो उससे प्रेम करते हैं वे स्वत: ही उसके सान्निध्य में होकर सुरक्षित हो जाते हैं। जो उससे भयभीत रहते हैं, वे अपने पापों के कारण ही भयभीत रहते हैं।
ईश्वर न आज्ञा देने वाला है और न ही उपदेश देने वाला। उपदेश और आज्ञा देने वाले ईश्वर या सत्य के मार्ग पर नहीं हैं।
ईश्वर न सजा देता है और न ही पुरस्कार। वह न स्वर्ग में भेजता है और न नर्क में। जो लोग उसका ध्यान करते हैं और सभी को ईश्वरमय समझते हैं, वे हर तरह की सजा-पुरस्कार और स्वर्ग-नर्क से परे होकर शांति पाते हैं।
ईश्वर न सृष्टि रचयिता है और न सृष्टि का रखवाला। उसके होने से ही सृष्टि हुई और उसके होने से ही सूर्य, तारे, पृथ्वी तथा दूसरे ग्रह-नक्षत्र काबू में रहते हैं। उनके काबू में रहने से ही प्राणियों का अस्तित्व विद्यमान है, तो वह ऐसा होने पर भी ऐसा नहीं है। अर्थात उसकी उपस्थिति से ही सबकुछ है और उसकी इच्छा से ही सभी की सुरक्षा है और उसकी इच्छा से ही विध्वंस है।
जड़ से बढ़कर प्राण है, प्राण से बढ़कर मन। मन से बढ़कर बुद्धि है और बुद्धि से बढ़कर विवेक। विवेक से बढ़कर चेतना है और चेतना से बढ़कर आत्मा। आत्मा ही सभी को धारण करने वाली है और इस आत्मा को धारण करने वाला परमात्मा है।
धरती से बढ़कर जल है, जल से बढ़कर अग्नि। अग्नि से बढ़कर वायु है और वायु से बढ़कर आकाश। आकाश से बढ़कर महत् है और महत् से बढ़कर आत्मा। आत्मा से बढ़कर वह एकमात्र परमात्मा ही सभी को धारण करने वाला है।
‘उस ब्रह्म से प्रकट यह संपूर्ण विश्व है जो उसी प्राण रूप में गतिमान है। उद्यत वज्र के समान विकराल शक्ति ब्रह्म को जो मानते हैं, अमरत्व को प्राप्त होते हैं। इसी ब्रह्म के भय से अग्नि व सूर्य तपते हैं और इसी ब्रह्म के भय से इंद्र, वायु और यमराज अपने-अपने कामों में लगे रहते हैं। शरीर के नष्ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।’
(तैत्तिरीयोपनिषद- २/८/१)
यह आत्मा ही ब्रह्म है। ब्रह्मस्वरूप होने और ब्रह्म में से ही प्रस्फुटित होने के कारण आत्मा को भी ब्रह्म (ईश्वर) तुल्य माना गया है।
संसार प्राकृतिक शक्तियों का खेल है और प्राकृतिक शक्तियां चित्त शक्तियों का खेल है और चित्त की शक्तियां आत्मा का खेल है और आत्माएं ईश्वर के होने से ही विद्यमान हैं।
स्वयं को जानने वाला ही ईश्वर को जान सकता है।
ईश्वर तक पहुंचने के दो ही रास्ते हैं- शरणागति और ध्यान। ये दो मार्ग अभ्यास और जाग्रति से हासिल किए जा सकते हैं।
‘अहम् ब्रह्मास्मि’ अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं, ‘तत्वस्मी’ अर्थात तू ही ब्रह्म है और ‘एकमेव ब्रह्म सत्य’ अर्थात वह ब्रह्म ही सत्य है। इसका मतलब वह ब्रह्म मुझ में, तुझ में और सर्वत्र होकर भी अकेला है।
शरीर में रहकर आत्मा जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति का अनुभव करती है। इस दौरान वह मस्तिष्क की क्षमता से अनावश्यक और निरंतर चलने वाले विचारों से प्रभावित होती रहती है। मन के भावों और गति से सुख और दुख का अनुभव करती रहती है, लेकिन वह कभी खुद को देखने और समझने का प्रयास नहीं करती। जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति। उक्त तीन अवस्थाओं से बाहर निकलने की विधि का नाम ही है हिन्दू धर्म है।
यह आत्मा ही सब कुछ है अर्थात समस्त वस्तु, विचार, भाव और सिद्धांतों से बढ़कर आत्मा है। आत्मा को जानने से ही परमात्मा को जाना जा सकता है। यही सनातन धर्म का सत्य है। ।। ऐषु धर्म: सनातनः ।।