परमेश्वर से मिलन मनुष्य-जन्म में ही संभव है परमात्मा ने सिर्फ इन्सान को ही यह हक़ दिया है यह मनुष्य-शरीर सृष्टिरूपी सीढ़ी का सबसे ऊपरी डंडा है यहाँ से या तो हम फिसलकर निचली योनियों में जा सकते हैं या फिर इससे ऊपर उठकर परमात्मा से साक्षात्कार करके जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पा सकते हैं हम परमात्मा के रूप है और सृष्टि के सरताज है जो भी गुण परमात्मा में है वे ही गुण इस शरीर में हमारी आत्मा में भी है। हम परमात्मा का चिन्तन मनन ध्यान करते रहें। हमे परम तत्व परमात्मा का ध्यान धरते हुए आत्म विश्वास जागृत करना चाहिए कि मैं एक शुद्ध चेतन आत्मा हूं ।मैं शरीर नहीं हू शरीर मेरा नहीं है ।आत्मा अजर-अमर है आत्मा ईश्वर है आत्म शक्ति से यह शरीर चल रहा है। मै इस शरीर का कर्ता नहीं हूँ। मुझमें जितने शुभ गुण दिखाई देते हैं वह आत्म शक्ति के गुण हैं। यह पंच भौतिक शरीर की एक दिन मृत्यु हो जाती है।
आत्मा मरती नहीं है यह परम पिता परमात्मा का स्वरूप है। परमात्मा की कृपा से ही मै भगवान का सिमरण करती हूँ। परमात्मा की कृपा मुझ पर बनी रहें। एक भक्त जब भगवान को चिन्तन करता है तब उसके मन में प्रथम चरण में कुछ इच्छाए रहती है। भक्त की धीरे धीरे चाहत भगवान के दर्शन की हो जाती है। वह दिन रात भगवान को भजता है कैसे परम पिता परमात्मा का बन जाऊं। दिल मे तङफ की लहर उठने लगती है। हर क्षण भगवान को भजते हुए वह बहुत से नियम बनाता है।
एक दिन वह देखता है। भगवान से पुरण साक्षात्कार नहीं हुआ है। वह उन सब नियम और नियंत्रण को ढीला छोड़ देता है। डोर ढीली छोड़ कर कहता है अब परमेश्वर की मर्जी हैं वह जैसे रखना चाहता है वैसे ही ठीक है। अन्दर झांकता है। अन्दर की तरफ़ मुङ जाता है। अन्दर का मार्ग नियमों से ऊपर का मार्ग है अन्दर आत्म तत्व की शांति है। आत्म तत्व अपने आप में पुरण हैं। आत्म तत्व आनंद सागर है।
आत्म विश्वासी के जीवन जीने का अलग ही अन्दाज़ है। वह कुछ भी पकङ कर नहीं रखता है। वह कल के आश्रय नहीं ढुढता है। वह आज के आनंद मे ढुबता है। आत्म तत्व का चिन्तन करते हुए हम पुरणत की ओर अग्रसर होते हैं। जीवन आनन्द में साधक गहरी ढुबकी लगाता है।आत्मा तत्व के चिन्तन में शरीर नहीं है ।साधक को ऐसे लगता है यह सब ईश्वर का स्वरूप है ईश्वर चल रहा है ईश्वर बोल रहा है ईश्वर का अदभुत प्रकाश रोम रोम को प्रदीप्त कर रहा है। ईश्वर का आनंद अन्तर्मन मे समा गया है। जीवन की हर किरया में भगवान श्री हरि का प्रेम है एक ऐसा प्रेम जो कभी घटता बढता नहीं है आनंद ही आनंद है आत्म तत्व के चिन्तन में शान्ति की धारा बह रही है। यह सौभाग्य केवल मनुष्य-जन्म में ही मिलता है। भक्त में निश्चल आनंद लहराता है तब कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता है शरीर से ऊपर उठना ही निश्चल आनंद है।जय श्री राम अनीता गर्ग