भक्त और भगवान् की परस्पर लीला
( पोस्ट 9 अन्तिम)

boy river monk


गत पोस्ट से आगे ………….
प्रेमी, प्रेम और प्रेमास्पद तीन हैं, किंतु वस्तु से तो एक ही हैं | जैसे ज्ञान के मार्ग में एक ब्रह्म ही है दूसरी वस्तु नहीं है, ऐसे प्रेम के मार्ग में एक प्रेम ही है, दूसरी वस्तु नहीं है | यहाँ प्रेम, प्रेमास्पद और प्रेमी – ये तीनों चेतन हैं | साधनकाल में जो प्रेम होता है वह जड होता है | यह प्रेम चेतन है, परमात्मा की प्राप्ति के बाद प्रेम की जो अवस्था है वह तीनों की एक ही अवस्था है | तीनों ही चेतन हैं और साधानकाल का प्रेम असली प्रेम का प्रतिबिम्ब है | जैसे असली चन्द्रमा बिम्ब है और उसका चिल्का जो पड़ता है वह प्रतिबिम्ब है | संसार में स्त्री-पुरुष का जो परस्पर प्रेम है वह तो प्रेम ही नहीं है, काम है, मोह है, किंतु भगवदविषयक प्रेम उस असली प्रेम का प्रतिबिम्बमात्र है | ज्ञानी महात्माओं के ह्रदय में निर्गुण-निराकार ब्रहम के स्वरूप का प्रतिबिम्ब ही आता है | वह तो समा नही सकता और अन्त:करण बुद्धि अल्प है | उस बुद्धि के अन्तर्गत वह निर्गुण-निराकार ब्रहम आ ही कैसे सकता है ? इसी प्रकार साधनकाल में साधक के ह्रदय में अनन्त, अनन्य और असीम प्रेम समा ही कैसे सकता है ? फिर भी भगवान् के ह्रदय में जो बस्ता है, भगवान् उसके ह्रदय में बसते हैं |
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते |
प्रियो हि ज्ञानिनोअत्यर्थमहं स च मम प्रिय: ||
(गीता ७/१७)
उनमें नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेम भक्तिवाला ज्ञानी भक्त अति उतम है, क्योंकि मुझको तत्व से जानने वाले ज्ञानीको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है |
समोअहं सर्वभुतेषु न में दवेष्योअस्ति न प्रिय: |
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम ||
(गीता ९/२९)
मैं सारे भूतों में समभाव से स्थित हूँ, किन्तु जो मुझे प्रेम से भजता है उसके ह्रदय में मैं और मेरे ह्रदय में वह नित्य है |
जो चार प्रकार के भक्त गीता के सातवें अध्याय के १६ वें श्लोक में बताये हैं, आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी – उन सबमे श्रेष्ठ ज्ञानी निष्कामी भक्त है, जो अनन्य भक्ति से युक्त है | भगवान् कहते हैं – ‘उस ज्ञानी को मैं अतिशय प्यारा हूँ, इसलिये ज्ञानी मुझे अतिशय प्यारा है |’ भगवान् अपने प्रेमियों के ह्रदय में नित्य वास करते करते हैं और प्रेमी भगवान् के ह्रदय में वास करते हैं | भगवान् की सारी चेष्टा भक्त के लिये हैं और भक्त की सारी चेष्टा भगवान् को खुश करने के लिये है | इसलिये वह दोनों लीला ही है, एक भगवान् की लीला है और दूसरी भक्त की लीला है |
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
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गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका जी की पुस्तक *अपात्र को भी भगवत्प्राप्ति* पुस्तक कोड ५८८ से |
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|| श्री हरि: ||
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