।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
अलौकिक बालक
स्वगर्भशुक्तिनिर्भिन्नं सुवृत्तं सुतमौक्तिकम्।
वंशश्रीतिलकीभूतं मन्दभाग्यस्य दुर्लभम्।।
शची-रूपी सीपी के भाग्य की सराहना कौन कर सकता है, जिसमें निमाई के समान संसार को सुख-शान्ति प्रदान करने वाला बहुमूल्य मोती पैदा हुआ? शची की समझ में स्वयं नहीं आता था कि यह बालक कैसा है? इसकी सभी बातें दिव्य हैं, सभी चेष्टाएँ अलौकिक हैं। देखने में तो यह बालक-सा प्रतीत होता है, किन्तु बातें ऐसी करता है कि अच्छे-अच्छे समझदार भी उन्हें सरलतापूर्वक नहीं समझ सकते। कभी तो उसे भ्रम होता और सोचने लगती यह कोई छद्म-वेष बनाये महापुरुष या देवता मेरे यहाँ क्रीड़ा कर रहे हैं और कभी-कभी मातृस्नेह के कारण सब कुछ भूल जातीं।
एक दिन माता ने देखा कि घर में बड़े जोरों का प्रकाश हो रहा है। बहुत-से तेजपूर्ण दिव्य-दिव्य पुरुष निमाई की पूजा और स्तुति कर रहे हैं। यह देखकर माता को बड़ा भय मालूम हुआ। वे जल्दी से घर के भीतर गयीं। वहाँ जाकर उन्होंने देखा निमाई सुखपूर्वक शयन कर रहे हैं। यह बात शची देवी ने अपने पति पण्डित जगन्नाथ मिश्र से कही। मिश्र जी ने कहा- ‘हम तो पहले से ही जानते थे, यह बालक कोई साधारण पुरुष नहीं है।’ इसी प्रकार एक दिन आँगन में ध्वजा, वज्र, कुश आदि शुभ चिह्नों से चिह्नित छोटे-छोटे पैरों को देखकर शची देवी विस्मित हो गयीं। उन्होंने वे चरणचिह्न मिश्र जी को भी दिखाये। भाग्यवान दम्पती ने उन चरणों की धूलि अपने मस्तक पर चढ़ायी।
मिश्र जी कहने लगे- ‘मालूम पड़ता है, घर के बालगोपाल ठाकुर सशरीर आँगन में घूमते हैं। यह हम लोगों का परम सौभाग्य है।’ इतने में ही उन्होंने निमाई के छोटे-छोटे पैरों में भी वे ही चिह्न देखे। मिश्र जी पण्डित नीलाम्बर चक्रवर्ती को बुलाकर लाये और निमाई के हाथ तथा पैरों की रेखा उन्हें दिखायी। सब देखकर चक्रवर्ती महाशय बोले- ‘हमने उसी दिन जन्मकुण्डली ही देखकर कह दिया था कि यह बालक कोई साधारण बालक नहीं है। भविष्य में इसके द्वारा संसार का बहुत कल्याण होगा।’ एक दिन मिश्र जी ने निमाई से कहा- ‘बेटा! भीतर से पुस्तक तो ले आ।’ निमाई हँसते हुए भीतर चले गये। मिश्र जी को ऐसा प्रतीत हुआ मानो नूपुर की सुमधुर ध्वनि निमाई के पैरों में से होती जा रही है। उन्होंने शची देवी जी से पूछा- ‘निमाई को नूपुर तुमने पहना दिये हैं क्या?’ शची देवी ने उत्तर दिया- ‘नहीं तो, नूपुर तो मैंने नहीं पहनाये। देखते नहीं हो। उसके पैरों में सिवाय कडूलों के और कुछ भी नहीं है।’ मिश्र जी सब समझकर चुप हो गये। निमाई पुस्तक रखकर चले गये।
एक दिन ये अपनी माता से किसी बात पर झगड़ बैठे। चंचल तो ये थे ही, किसी बात पर अड़ गये। माता ने बहुत मनाया, नहीं माने, तब माता रोष में भरकर बाहर जाने लगी। इन्होंने अपने कोमल करों से माता पर थोड़ा प्रहार किया। माता का हृदय भर आया। उन्हें निमाई की अलौकिक लीलाएँ और उनकी लोकोत्तर सभी बातें स्मरण होने लगीं। वे अपने भाग्य की सराहना करने लगीं। इसी बीच में उन्हें अपनी दरिद्रावस्था का भी स्मरण हो आया। दुःख के बीच में माता अधीर हो उठी और वहीं मूर्च्छित अलौकिक बालक होकर गिर पड़ी। पास-पड़ोस की स्त्रियाँ शचीमाता को पंखा आदि से वायु करने लगीं। निमाई घबड़ा गये। माता की ऐसी अवस्था देखकर उनके होश उड़ गये। वे स्त्रियों से पूछने लगे- ‘माता किस प्रकार अच्छी हो सकेंगी? उनमें से किसी स्त्री ने कह दिया- ‘यदि दो ताजी नारिकेल ला सको और उनका जल इन्हें पिलाया जाय तो ये अभी अच्छी हो जायँ।’
यह सुनकर ये दौड़े-दौड़े बाहर गये और थोड़ी ही देर में दो बडे़-बड़े ताजा नारिकेल लेकर घर में वापिस आये। नारिकेल फोड़कर उसका जल शचीमाता के मुँह में डाला गया। धीरे-धीरे वे होश में आने लगीं। जब वे खूब होश में आ गयीं तब ये उनसे लिपटकर खूब रोये और रोते-रोते बोले- ‘माँ! न जाने मुझे क्या हो जाता है जो तुम्हें इतना तंग करता हूँ। मेरी माँ! अब कभी ऐसा काम न करूँगा।’ एक दिन ये वैसे ही रोने लगे और खूब जोर-जोर से रोने लगे।
माता-पिता ने इन्हें बार-बार समझाया, पुचकारा, बहलाया किन्तु ये मानते ही न थे। बराबर रोते ही जाते थे। अन्त में माता ने पूछा- ‘तू चाहता क्या है? क्यों इतना रोता है? मुझे सब बात बता दे। तू जो कहेगा वही चीज तुझे ला दूँ’। आपने रोते-ही-रोते कहा- ‘जगदीश और हिरण्य पण्डित के घर जो आज ठाकुर जी के लिये नैवेद्य बना है उसे ही लेकर हम चुप होंगे।’ यह सुनकर सभी चकित हो गये। किसी का भी साहस नहीं पड़ता था कि उनके घर जाकर बिना पूजा किये नैवेद्य को लाकर बालक को दे दे। सभी चुप होकर एक-दूसरे के मुख की ओर देखने लगे। निमाई फूट-फूटकर रो रहे थे। माता ने बहुत समझाया- ‘बेटा! पूजा माई की चीज है, जब तक भगवान का भोग नहीं लगता तब तक नहीं खाते। पूजा हो जाने दे, मैं जाकर उनके घर से ला दूँगी।
बिना पूजा किये जो बच्चे मिठाई को खा लेते हैं, उनके कान पक जाते हैं। रोवे मत। ये तेरे सब साथी तेरी हँसी करेंगे कि निमाई कैसा रोने वाला है?’ माता की इन बातों का निमाई पर कुछ भी असर नहीं हुआ। वे बराबर रोते ही रहे। किसी ने जाकर उन ब्राह्मणों से ये बातें कह दीं। ये दोनों वैष्णव ब्राह्मण पण्डित जगन्नाथ मिश्र के पड़ोसी थे और मिश्र जी से बड़ा प्रेम मानते थे। निमाई उनके घर बहुत जाया-आया करते थे। इस बात को सुनकर उनके घर के सभी लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि निमाई को यह कैसे पता चला कि हमारे घर आज भगवान के लिये नैवेद्य तैयार हो गया है। कुछ भी हो, वे बड़ी प्रसन्नता से नैवेद्य लेकर निमाई के पास आये। निमाई ने सभी सामग्रियों में से थोड़ा-थोड़ा लेकर खा लिया, तब ये शान्त हुए। माता को इनकी ऐसी बातों पर बड़ा दुःख हुआ। वे सोचने लगीं- इस पर जरूर कोई भूत-पिशाच आता है, इसलिये उन्होंने देवताओं के नाम से द्रव्य उठाकर रख दिया, देवियों की पूजा की और बहुत-सी मनौतियाँ भी मानीं। वे निमाई की ऐसी दशा देखकर मन में किसी अशुभ बात की शंका करके डर जातीं और बच्चे की मंगल-कामना के निमित्त भाँति-भाँति के उपाय सोचतीं।
धीरे-धीरे इनकी अवस्था पाँच साल के लगभग हुई। पिता ने इनका अक्षरारम्भ कराया। लिखने के लिये हाथ में पट्टी और खड़िया दी। भला इन्हें क्या पढ़ना था, ये तो सभी कुछ पढे़-पढ़ाये ही आये थे। पिता को दिखाने के लिये तो कभी ये पट्टी पर कुछ उलटी-सीधे लकीरें करने लगते किन्तु वैसे पढ़ते कुछ भी नहीं थे। खड़िया को लेकर शरीर से मल लेते, लम्बे-लम्बे माथे पर उसके तिलक लगा लेते और माता से कहते- ‘अम्मा! तेरे घर में एक परम वैष्णव आया है, कुछ भिक्षा देगी?’ माता इनके तिलकों को देखती और हँस पड़ती। गोद में बिठाकर मुख चूमती और कहती- ‘बेटा इतना उपद्रव नहीं किया करते हैं। कुछ पढ़ना-लिखना भी चाहिये। अब तो निरा बालक ही नहीं है। तेरी बराबरी के ब्राह्मण के बालक पोथी पढ़ लेते हैं, तू वैसे ही दिनभर इधर-उधर खेला करता है।’ ये माता की बातों को सुन लेते और मुसकरा देते। खा-पीकर जल्दी बालकों में खेलने के लिये भाग जाते। सभी बालकों को लेकर ये उन्हें नाचना सिखाते।
तीन-तीन, चार-चार बालक मिलकर हाथ पकड़-पकड़ नाचते और घूमते-घूमते कभी चक्कर आने से धूलि में गिर भी पड़ते। कभी ऊपर हाथ उठा-उठाकर ‘हरि बोल, हरि बोल’ कहकर खूब नाचते। इनके साथ-साथ और बालक भी ‘हरि बोल, हरि बोल’ की उच्च-ध्वनि करने लगते। रास्ता चलने वाले लोग इनके खेलों को देखकर खडे़ हो जाते और घंटों इनकी लीलाओं को देखा करते। बहुत-से विद्वान पण्डित भी उधर से निकलते, बच्चों के साथ निमाई को नाचते देखकर उन्हें अपनी पुस्तकी-विद्या पर बड़ी लज्जा आती। उनका जी चाहता था कि सब कुछ छोड़-छाड़कर इन बच्चों के ही साथ नृत्य करने लगें, किन्तु लोक-लज्जा उन्हें ऐसा न करने के लिये विवश करती। इस प्रकार ये खेल में भी बालकों को कुछ-न-कुछ शिक्षा देते रहते। पिता इन्हें जितना ही पढ़ाना चाहते थे ये उतने ही पढ़ने से भागते थे। ज्यों-ज्यों इनकी अवस्था बड़ी होती जाती थी, त्यों-त्यों चंचलता भी पहले से अधिक बढ़ती जाती थी।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:.
[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram
supernatural child
A pearly son of good character who was separated from the purity of his own womb
It is rare for the slowly fortunate to become the tilaka of the beauty of the dynasty
Who can appreciate the fortune of Shachi-like conch shell, in which like Nimai, a precious pearl that gives happiness and peace to the world was born? Shachi himself could not understand what this child is like. All its words are divine, all its efforts are supernatural. He looks like a child, but he talks in such a way that even well-versed people cannot understand them easily. Sometimes she gets confused and starts thinking that some disguised great man or deity is playing at my place and sometimes she forgets everything because of maternal affection.
One day the mother saw that there was a lot of light in the house. Many resplendent divine-divine men are worshiping and praising Nimai. Seeing this, the mother felt great fear. She quickly went inside the house. Going there, he saw Nimai sleeping happily. Shachi Devi said this to her husband Pandit Jagannath Mishra. Mishra ji said- ‘We already knew, this child is not an ordinary man.’ Similarly, one day Shachi Devi was amazed to see small feet marked with auspicious symbols like Dhwaja, Vajra, Kush etc. in the courtyard. . He also showed those footprints to Mishra ji. The fortunate couple put the dust of those feet on their heads.
Mishra ji started saying- ‘It seems that Balgopal Thakur of the house roams in the courtyard with his body. This is our great fortune.’ Meanwhile, he saw the same marks on Nimai’s tiny feet as well. Mishra ji called Pandit Nilambar Chakraborty and showed him the lines of hands and feet of Nimai. Seeing everything, Mr. Chakraborty said – ‘ We had said on the same day by looking at the horoscope that this child is not an ordinary child. The world will be greatly benefited through this in future.’ One day Mishra ji said to Nimai – ‘Son! At least bring the book from inside.’ Nimai went inside laughing. It appeared to Mishra ji as if the melodious sound of Nupur was passing through Nimai’s feet. He asked Shachi Devi ji- ‘Have you made Nimai wear Nupur?’ Shachi Devi replied- ‘No, I did not wear Nupur. Do not see There is nothing on his feet except the buds.’ Mishra ji understood everything and became silent. Nimai went away keeping the book.
One day he quarreled with his mother over something. They were fickle, they got stuck on something. Mother persuaded a lot, but did not agree, then mother started going out in anger. He hit the mother a little with his soft hands. Mother’s heart was filled. He remembered Nimai’s supernatural pastimes and all his otherworldly things. She started appreciating her fortune. Meanwhile, he also remembered his poverty. In the midst of grief, the mother became impatient and fell unconscious as a supernatural child. The women of the neighborhood started fanning Sachimata with fans etc. Nimai got scared. Seeing such a condition of the mother, his senses flew away. They started asking the women – ‘How can mother be good? One of the women said- ‘If you can bring two fresh coconuts and their water is given to them, then they will be fine now.’
Hearing this, he ran out and in no time returned to the house with two huge fresh coconuts. By bursting a coconut, its water was poured into Sachimata’s mouth. Slowly she started coming to her senses. When she regained her senses, she cried hugging her and said while crying- ‘Mother! Don’t know what happens to me that I trouble you so much. My mother! I will never do such a thing again.’ One day he started crying like that and started crying very loudly.
The parents explained to them again and again, called upon them, persuaded them, but they did not agree. Used to cry all the time. At last the mother asked – ‘What do you want? Why does he cry so much? Tell me everything I will bring you whatever you say. You said while crying- ‘We will be silent only about the Naivedya that has been made for Thakur ji at the house of Jagdish and Hiranya Pandit.’ Everyone was surprised to hear this. No one had the courage to go to their house and bring the offerings without worshiping them and give them to the child. Everyone kept silent and started looking at each other’s face. Nimai was crying bitterly. Mother explained a lot – ‘ Son! Worship is mother’s thing, don’t eat until God’s enjoyment is felt. Let the worship happen, I will go and bring it from his house.
Those children who eat sweets without worshiping, their ears get burnt. Don’t cry All your friends will laugh at you, how Nimai is going to cry?’ Mother’s words had no effect on Nimai. They kept on crying. Someone went and told these things to those Brahmins. Both these Vaishnav Brahmins were neighbors of Pandit Jagannath Mishra and had great love for Mishra ji. Nimai used to visit his house a lot. Hearing this, all the people of his house were very surprised that how did Nimai come to know that the offering for God has been prepared in our house today. In any case, they happily came to Nimai with the Naivedya. Nimai ate little by little of all the ingredients, then he became calm. Mother felt very sad on such things. They started thinking – some ghost-vampire definitely comes on this, that’s why they kept the liquid in the name of the gods, worshiped the goddesses and obeyed many wishes. Seeing such a condition of Nimai, she used to get scared by suspecting some inauspicious thing in her mind and would think of different ways for the good wishes of the child.
Gradually, his condition became about five years. His father started his alphabet. Gave a strip and chalk in hand to write. Well, what did they have to study, they all had come here after being educated. To show it to his father, sometimes he used to make some wrong lines on the strip, but he did not read anything. Taking a piece of chalk, we would rub it on the body, apply tilak on his long forehead and say to the mother – ‘Amma! A Param Vaishnav has come to your house, will he give some alms?’ Mother used to look at his tilaks and laugh. Sitting on her lap, she would kiss his face and say- ‘Son, you don’t create so much nuisance. Some reading and writing should also be done. He is no longer an innocent child. Brahmin children of your equal can read pothi, you play here and there all day long.’ He would have listened to his mother’s words and would have smiled. After eating and drinking, they used to run away to play with the children. Taking all the boys, he would teach them to dance.
Three-three, four-four children would dance together holding hands and while roaming around would sometimes fall in the dust due to dizziness. Sometimes, by raising their hands up, they used to dance a lot by saying ‘Hari Bol, Hari Bol’. Along with them, other children also started making loud noises of ‘Hari Bol, Hari Bol’. People walking on the road used to stand watching their games and used to watch their pastimes for hours. Many learned pundits also came out from there, seeing Nimai dancing with the children, they felt very ashamed of their bookishness. His heart wanted to leave everything and start dancing with these children only, but public shame forced him not to do so. In this way, he used to give some education to the children even in the game. He used to run away from studying as much as his father wanted to teach him. As their condition increased, their fickleness also increased more than before.
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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]