।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
महाप्रभु वल्लभाचार्य
श्रीमदाचार्यचरणं पुष्टिमार्गप्रचारकम्।
वल्लभं गोपवंशाख्य भूयो भूयो नमाम्यहम्।।
हम पहले ही बता चुके हैं कि पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के प्रवर्तक भगवान श्रीवल्लभाचार्य महाप्रभु चैतन्यदेव के समकालीन ही थे। इन दोनों महापुरुषों के जीवन में बहुत अधिक साम्य है। दोनों ही भगवान के अनन्य भक्त थे। दोनों ही लोक-शिक्षक आचार्य थे, दोनों ही भक्तिमार्ग के प्रवर्तक थे और दोनों ही अपने-अपने सम्प्रदायों में भगवान के अवतार माने जाते हैं। दोनों ही महाप्रभु कहलाते थे। दोनों का ही जन्म केवल छः वर्ष के आगे-पीछे हुआ। भगवान वल्लभाचार्य महाप्रभु चैतन्यदेव से छः वर्ष पूर्व ही इस अवनि पर अवतरित हुए और दो-ढाई वर्ष पहले इस संसार से तिरोभाव को प्राप्त हुए। दोनों का ही जीवन में त्याग, वैराग्य और प्रेम के भाव पूर्णरीत्या विकसित हुए थे। दोनों ही अपने प्रचण्ड प्रेम के प्रभाव से प्रेमामृतरूपी भक्तिरस से पृथ्वी को परिप्लावित बना दिया। दोनों ही नम्र थे, दोनों ही रसिक थे, दोनों ही गुणग्राही, शान्त, अदोषदर्शी और प्रेमोपासक थे। इन दोनों महापुरुषों का दो बार परस्पर में समागम भी हुआ था। उसका निष्पक्ष विवरण प्राप्त नहीं होता। फिर भी इतना जाना जाता है कि ये एक-दूसरे से अत्यन्त ही स्नेह करते थे और दोनों में बहुत अधिक प्रगाढ़ता रही होगी। क्यों न रहे, जों संसार को अपने प्रेमामृत से अमर बना सकते हैं, ये आपस में संकुचित या विद्वेषपूर्ण भाव रख ही कैसे सकते है? इसलिये प्रसंगवश यहाँ बहुत ही संक्षेप में भगवान वल्लभाचार्य का परिचय करा देना आवश्यक प्रतीत होता है। जिसके जीवन में त्याग, वैराग्य और प्रेमरूपी चैतन्यता है, वही चैतन्य-चरितावली का पात्र है, इसलिये श्रीवल्लभाचार्य का चरित्र यहाँ अप्रासंगिक न होगा और उनके चरित्र से पाठकों को शान्ति तथा आनन्द की ही प्राप्ति होगी।
महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म भारद्वाजगोत्रीय तैत्तिरीय शाखा वाले यजुर्वेदीय शुद्ध और कुलीन ब्राह्मण-वंश में हुआ। इनके पूर्वज भट्ट उपाधिधारी दक्षिणी ब्राह्मण थे। उनका कुल बेलनाट नाम से प्रसिद्ध था। इनके पिता का नाम श्रीलक्ष्मण भट्ट और माता का नाम यल्लभागारू था ये लोग आन्ध्र प्रदेश में व्योमस्थम्भ-पर्वत के पास कृष्णा-नदी के दक्षिण तटपर काकरवाड ( काकुम्भकर) नामक नगर में रहते थे। पीछे से इनके पूज्य पिता अग्रहार नामक ग्राममें आकर रहने लगे।
श्रीलक्ष्मण भट्ट एक बार सपत्नीक तीर्थयात्रा के निमित्त काशी आये और वहीं हनुमान-घाट के ऊपर एक घर लेकर रहने लगे। उस समय काशी में बड़ी विद्रोह था, इसी कारण भट्ट महोदय अपनी पत्नी के सहित स्वदेश के लिये चले। इनकी पत्नी गर्भवती थी। रास्ते में चम्पारण के समीप चोडा नगर (चतुर्भद्रपुर)- में महाप्रभु का प्रादुर्भाव हुआ। पिता ने चम्पारण से सभी सामग्री लाकर पुत्र को यथोचित जातकर्म आदि संस्कार किये और फिर काशी में ही आकर रहने लगे।
महाप्रभु का जन्म वैशाख कृष्णपक्ष 11 संवत 1535 (शाके 1400)- में रात्रि के समय हुआ था। पाँच वर्ष की अवस्था में पिता ने इनका यज्ञोपवीत-संस्कार किया। तभी से वेद-शास्त्रों की शिक्षा पाने लगे। जब ये ग्यारह वर्ष के थे तभी इनके पूज्य पिता परलोकवासी हो गये। तब विद्यासागर की राजसभा में पण्डितों से शास्त्रार्थ करके विजय-लाभ किया और आचार्यपदवी प्राप्त की। विद्यानगरके महाराज की ओर से आपका अत्यधिक सम्मान किया गया। इससे इनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी। फिर आपने अपने बहुत-से अनुयायियों के साथ विद्यानगर से कन्याकुमारी, पण्ढरपुर आदि स्थानों की यात्रा की। पण्ढरपुर से आ नासिक, त्रयम्बक, नर्मदातट, ओंकारेश्वर, माहिष्मती, उज्जैनी, सिद्धवट, चैद्यपुर, दतिया, ग्वालियर, धौलपुर आदि स्थानों में अपने प्रतिपक्षियों को परास्त करते हुए और राज सभाओं में सम्मान प्राप्त करते हुए मथुरा होकर गोकुल पधारे। वहीं आपको भक्ति मार्ग को प्रकट करने के लिये भगवान की आज्ञा प्राप्त हुई और स्वप्न में भगवान ने इन्हें एक गद्यात्मक मंत्र का उपदेश किया, जिसके द्वारा जीवों का ब्रह्म के साथ सम्बन्ध किया जाता है। यहीं पर कुछ शिष्य आपके शरणा पन्न हुए और आप यहीं रहकर शास्त्रप्रणयन करते रहे। इसके अनन्तर आपने सम्पूर्ण व्रज के तीर्थोंकी यात्रा की। फिर आप भक्ति का प्रचार करने के निमित्त दक्षिण की ओर गये और वहाँ गुजरात, काठियावाड़ तथा सिन्ध के अनेक प्रसिद्ध-प्रसिद्ध नगरों में जाकर आपने पण्डितों से शास्त्रार्थ किया और भक्तिमार्ग का जोरों से प्रतिपादन किया। वहाँ इनके पाण्डित्य की सर्वत्र ख्याति हो गयी और, हजारों सुनार, भाटिया तथा धनी-मानी पुरुष इनके शिष्य हो गये। भेंट-पूजा भी यथेष्ट आने लगी और गुजरात तथा काठियावाड़ के भावुक लोगों ने इनका बड़ा ही भारी सत्कार किया। दक्षिण की यात्रा समाप्त करके आपने उत्तर और पूर्व दिशा के तीर्थों की यात्रा की।
कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, ऋषिकेश, टिहरी, गंगोत्री, केदारनाथ, बदरीनाथ आदि उत्तर के तीर्थों में होते हुए फिर लौटकर हरिद्वार आ गये आप नैमिषारण्य आदि तीर्थों में दर्शन करते हुए जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिये गये। जगन्नाथजी से दक्षिणके पथ से महेन्दीपर्वत पर परशुराम जी के दर्शन करते हुए फिर अपने ग्राम अग्रहार में आ गये। कुछ काल अग्रहार में रहकर आचार्य ने दूसरी बार भारत-यात्रा करने का विचार किया। इसलिये आप मंगलप्रस्थ विद्यासागर, लोहगढ़ होते हुए पण्ढपुर आये। पण्ढपुर में आकर इन्होंने भगवान विट्ठलनाथ जी के दर्शन किये। अब तक ये दण्ड, मेखला, जटा, कृष्णाजिन आदि सभी ब्रह्मचारियों के चिह्नों को धारण करते थे और ब्रह्मचारी वेश में रहते थे। यहीं पर भगवान ने इन्हें विवाह करने की आज्ञा दी। इन्होंने भगवान की आज्ञा को स्वीकार कर लिया। यहाँ से फिर आप गुजरात-काठियावाड़ की यात्रा करते हुए और अपने शिष्य-सेवकों को भक्तिमार्ग का उपदेश करते हुए पुष्कर होते हुए व्रज में पधारे। गोवर्धन में गोवर्धननाथ जी (गोपाल जी)-का प्राकट्य हुआ था। वहाँ उनकी सेवा-पूजा में इन्होंने योग दिया और श्री मन्माधवेन्द्रपुरी जी को ही वहाँ की सेवा का सम्पूर्ण भार सौंपा। श्री नाथ जी की प्रेरणा से ठाकुर पूरणमल ने 1556 श्री गोवर्धन नाथ जी का मन्दिर बनवाना आरम्भ किया। व्रजमण्डल से चलकर फिर आपने उत्तरके तीर्थों की यात्रा की और दूसरी बार फिर जगन्नाथ जी की यात्रा करके काशी जी में आकर रहने लगे।
यहाँ आपने भगवत-इच्छा समझकर अपने सजातीय देवभट्ट नामक एक दक्षिणी ब्राह्मण की सर्वगुणसम्पन्ना लक्ष्मीदेवी नाम की कन्या के साथ विवाह किया। कुछ काल काशी में निवास करके आप फिर उसी प्रकार भ्रमण करते हुए गोकुल में पधारे। तीसरी बार फिर आपने गुजरात-काठियावाड़ आदि देशों में भ्रमण किया और बदरीनारायण के तीसरी बार दर्शन करके गोकुल में आ गये। गोकुल से यमुना जी के किनारे-किनारे आगरा होते हुए आप प्रयागराज पहुँचे और संगम के उस पार यमुना जी के तट पर अरैल नामक ग्राम में घर बनाकर रहने लगे। थोड़े दिन अरैल में निवास करके आप काशी पधारे और वहाँ से आप चरणाद्रि (चुनार)- में जाकर कुछ काल रहे। आचार्य के पास अब द्रव्य की कमी नहीं रहती थी। हजारों धनी-मानी, सेठ-साहूकार इसके शिष्य हो गये। इसलिए ये धन को धार्मिक कार्यों मे खूब जी खोलकर खर्च करते थे। काशी में आपने अपनी माता की आज्ञा से तीस हजार ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक भोजन कराया था।
काशी से फिर आपने प्रयाग होते हुए अरैल में कुछ काल रहकर व्रज की यात्रा की। इसी यात्रा में आगरा के समीप गौघाट पर इनकी सूरदास जी से भेंट हुई और वहीं वे इनके शरणापन्न हुए। सूरदास जी को साथ लेकर आप गोवर्धन पधारे और वहाँ गोवर्धननाथ जी के नये मन्दिर की प्रतिष्ठा करायी। उसमें बड़े-बड़े विद्वान और साधु-महात्मा एकत्रित हुए थे। वहाँ से फिर आप अरैल में ही आकर रहने लगे और वहीं इनके प्रथम पुत्र श्री गो. गोपीनाथ जी का जन्म हुआ। तभी आपने प्रयाग में अपने एक शिष्य पुरुषोत्तमदास को ज्योतिष्टोम-यज्ञ करने की आज्ञा की, जो बड़ी धूम-धामक के साथ निर्विध्न समाप्त हो गया।
इसके अनन्तर आप चुनार के राजा की प्रार्थना से वहाँ जाकर रहने लगे। वहीं इनके द्वितीय पुत्र गो. श्री विट्ठलनाथ जी महाराज का जन्म हुआ। अन्त में आपने काशी में भागवत की रीति से संन्यास धारण किया। घर-बार छोड़कर और शिखा, सूत्र, दण्ड, कमण्डलु के सहित काषायवस्त्र पहन कर ये भिक्षा के ऊपर निर्वाह करने लगे। उस समय इनका वैराग्य अपूर्व था। इतनी भारी सम्पत्ति, इतनी अधिक प्रतिष्ठा, स्त्री, बच्चे तथा शिष्य-सेवकों से एकदम पृथक होकर आप निरन्तर भगवत-अर्चा-पूजा और नाम-संकीर्तन में ही लगे रहते थे। इस प्रकार अपने परम त्यागमय जीवन के द्वारा अपने शिष्य-प्रशिष्य तथा वंशजों के लिये त्याग का आदर्श बताते हुए संवत 1587 के आषाढ़ मास की शुक्ला तृतीया के दिन आप इस असार संसार से विदा होकर वैकुण्ठवासी बन गये।
महाप्रभु वल्लभाचार्य, विशेषकर गोकुल, अरैल, चुनार और काशी में ही रहते थे। इन चारों ही स्थानों में इनकी बैठकें अभी तक बनी हुई हैं और वे ‘महाप्रभु बैठक’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनके वंशज गोकुलिया गोसाईं कहे जाते हैं। भारतवर्ष में इसी सम्प्रदाय के आचार्य सबसे अधिक धनी और वैभवशाली बताये जाते हैं। बड़े-बड़े महाजन धनी-सेठ इस कुल के सेवक तथा शिष्य हैं। आचार्य के द्वितीय पुत्र गो. श्री विट्ठलनाथ जी महाराज को इस सम्प्रदाय के लोग साक्षात श्रीकृष्ण का अवतार मानते हैं। उन्होंने इस सम्प्रदाय का खूब प्रचार किया। ये बड़े ही तेजस्वी, कर्मपरायण तथा धर्म में आस्था रखने वाले आचार्य थे। इनके गिरधरलाल जी, गोविन्दलाल जी, बालकृष्ण जी, गोकुलेश जी, रघुनाथ जी, यदुनाथ जी और घनश्यामलाल जी- ये सात पुत्र हुए। इनकी सात गद्दियाँ अभी तक विद्यमान हैं। पीछे इनके वंशज बहुत बढ़ गये जो बम्बई, काशी, मथुरा, गोकुल, नाथ द्वारा आदि भिन्न-भिन्न स्थानों में अभी तक विद्यमान हैं। इनके शिष्य-सेवक गोस्वामी-बालकों को अभी तक भगवत-बुद्धि से मानते तथा पूजते हैं।
वल्लभ-सम्प्रदाय विशेषकर खण्डन परक सम्प्रदाय नहीं है। दार्शनिक सिद्धान्तों की बात छोड़कर इस सम्प्रदाय में जहाँ तक हमें मालूम है, किसी सम्प्रदाय की पूजा-पद्धति का खण्डन नहीं किया गया है। वल्लभ-सम्प्रदाय में वैदिक कर्मों का अन्य सम्प्रदायों की तरह खण्डन नहीं हैं, किन्तु उसमें श्रीकृष्ण -सेवा को ही प्रधानता दी गयी है। ब्रह्मा-सम्बन्ध-संस्कार इनके यहाँ मुख्य माना जाता है। गुरु शिष्य के कान में मन्त्र देता है, उस मन्त्र का तात्पर्य यह है- ‘हमारे रक्षक श्रीकृष्ण हैं। उनसे हमारा हजारों वर्षों से वियोग हुआ है, इसी कारण त्रिविध तापों के वशीभूत होकर हमारा सम्पूर्ण आनन्द तिरोहित हो गया है, ऐसी स्थिति वाला मैं श्री गोपी जनवल्लभ भगवान श्रीकृष्ण के निमित्त देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरण और अन्तःकरण के धर्म, स्त्री, गृह, पुत्र, कुटुम्ब, वित्त और आत्मा सबको समर्पण करता हूँ, हे कृष्ण! मैं आपका दास हूँ।’ इस मन्त्र से जीवात्मा का ब्रह्म के साथ सम्बन्ध होना मानते हैं। ब्रह्मा-सम्बन्ध हो जाने पर कोई भी स्त्री-पुरुष भगवान को बिना अर्पण किये न तो अन्न-जल ग्रहण कर सकता है और न वस्त्र, आभूषण, वाहन, धन, स्त्री आदि का उपभोग कर सकता है। सबको कृष्णार्पणपूर्वक भगवत-प्रसादी समझकर उपभोग करो, यही इसका तात्पर्य है। कितना ऊँचा भाव है, वास्तव में पुरुष इस धर्म का सच्चे हृदय से पालन कर सके तो उसका घर में रहते हुए भी कल्याण हो सकता है।
भगवान वल्लभाचार्य ने अपने सिद्धान्त को समझाने के लिये स्वयं अनेक ग्रन्थ लिखे हैं तथा पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा और श्रीमद्भागवत पर सुन्दर भाष्य लिखे हैं। श्रीमद आचार्य-चरणों ने अनेक ग्रन्थों में बड़ी ही युक्ति के साथ भक्ति-तत्त्व समझाया है। अपने सभी ग्रन्थों का सार पाँच श्लोकों में वर्णन किया है। ये पाँच श्लोक ही उनके यथार्थ सिद्धान्त को स्पष्ट करते हैं। इन पाँच श्लोकों से पाठकों को पता चल जायगा कि जो लोग पुष्टि-सम्प्रदाय को प्रवृत्ति मार्ग बताते हैं और कहते हैं कि पुष्टि-सम्प्रदाय में सर्व कर्म त्याग निषिद्ध बताया गया है, यह उनकी भारी भूल है। भगवान वल्लभाचार्य दो मार्ग बताते हैं- एक निवृत्तिमार्ग, दूसरा प्रवृत्तिमार्ग। निवृत्तिमार्ग को वे सर्वश्रेष्ठ बताते हैं; किन्तु निवृत्तिमार्ग के अधिकारी विरले ही होते हैं, इसलिये जब कोई उसका अनुसरण न कर सके तो वह कृष्णार्पण बुद्धि से अपने वर्णाश्रम के अनुसार श्रीकृष्णप्रीत्यर्थ ही कर्म करता रहे। ब्रह्मचारी से गृहस्थी होना, गृहस्थी से वानप्रस्थ और वानप्रस्थ से संन्यास धारण करना-इसी का नाम प्रवृतिमार्ग है। लोग भूल से सभी संन्यासियों को वानप्रस्थ और वानप्रस्थ से संन्यास धारण करना- इसी का नाम प्रवृत्ति मार्ग है। लोग भूल से सभी संन्यासियों को निवृत्ति मार्ग का ही समझ बैठते हैं। निवृत्ति मार्ग संन्यासी तो वह है कि ज्ञान होते ही चाहे वह कहीं भी कैसी भी दशा में हो, वहीं से सर्वस्व त्याग करके और विधि-निषेध की झंझटों को छोड़कर अवधूत परमहंस बन जाये। उसकी चेष्टा बालक की-सी, जडकी-सी अथवा पागल की-सी हो। क्रमशः ज्ञान पूर्वक एक के बाद एक आश्रम में प्रवेश करते हुए संन्यास धारण करना यह प्रवृत्ति मार्ग है। भगवान वल्लभाचार्य ने इसी प्रवृत्ति मार्ग को अपने जीवन में प्रत्यक्ष दिखाकर लोगों को शिक्षा दी थी। वे निवृत्ति मार्ग की सर्वश्रेष्ठता को अस्वीकार नहीं करते, किन्तु उसके अधिकारी बहुत कम बताते हैं। लीजिये उनके ही शब्दों में सुनिये। नीचे हम उनके सारभूत सिद्धान्त के पाँच श्लोकों को ही उद्धृत किये देते हैं। पुष्टि सम्प्रदाय वाले इन्हीं पाँच श्लोकों को भक्ति प्रकरण का सन्दोहनरूप समझते हैं। आचार्य आज्ञा करते हैं-
गृहं सर्वात्मना त्याज्यं तच्चेत्त्यक्तुं न शक्यते।
कृष्णार्थं तत्प्रयुंजीत कृष्णोऽनर्थस्य मोचकः।।
(सर्वोत्तम सिद्धान्त तो यह है कि) घर का पूर्ण रीति से परित्याग ही कर देना चाहिये। (किन्तु पूर्व जन्म के संस्कारों से सभी गृह त्याग ने में समर्थ नहीं हो सकते इसलिये) यदि घर को पूर्णरीत्या त्याग करने की सामर्थ्य न हो तो घर में रहकर सब कार्य श्रीकृष्ण के निमित्त-उनके प्रीत्यर्थ ही करे। (ऐसा करने पर कर्म करने से जो पाप होता है। वह पाप न होगा) क्योंकि श्रीकृष्ण सभी प्रकार के अनर्थों को मोचन करने वाले हैं।
संगः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत्तयक्तुं न शक्यते।
स सद्भिः सह कर्तव्यः सन्तः संगस्य भेषजम्।।
(सर्वोत्तम सिद्धान्त तो यह है कि) संग किसी का करना ही नहीं चाहिये। सभी प्रकार के संगों का एकदम परित्याग कर देना चाहिये। (किन्तु अनेक जन्मों से जीव का समाज में मिलकर रहते आने का स्वभाव पड़ गया है, इसलिये) सब प्रकार के संगों का परित्याग करने में समर्थ न हो सके तो सज्जन तथा सन्त-महात्माओं का ही संग करना चाहिये। क्योंकि संग से जो काम उत्पन्न हो जाता है उसकी ओषधि सन्त ही हैं।
भार्यादिरनुकूलश्चेत्कारयेद्भगवत्क्रियाः।
उदासी ने स्वयं कुर्यात् प्रतिकूले गृहं त्येजत्।।
तत्त्यागे दूषणं नास्ति यतो विष्णुपरांगमुखः।
(अब बताते हैं जो गृहस्थी बन चुका है उसे कैसा व्यवहार करना चाहिये। उस के लिये बताते हैं) यदि स्त्री आदि परिवार अपने मन को माफिक भगवत्भक्तिपरायणादि हो तो उससे भी भगवान की सेवा-पूजा आदि करवावे। यदि वह इस ओर से उदासीन हो (और आज्ञा करने पर ही सेवा करने को राजी हो तो) उससे न कराकर स्वयं करे। यदि वह भगवत- सेवा के विरुद्ध हो, तो एकदम घर को त्यागकर एकान्त में ही जाकर भगवत-पूजा-अर्चा करनी चाहिये। (जाके प्रिय न राम बैदेही। तजिये ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही।।) जो विष्णुपरागमुख हों उनके त्याग ने में किसी भी प्रकार का दूषण नहीं है। (संसारी भोगों की इच्छा से तो किसी से किसी प्रकार का सम्बन्ध रखना ही नहीं चाहिए।)
अनुकूलस्य संकल्पः प्रतिकूलविसर्जनम्।
रक्षिष्यतीति विश्वासो भर्तृत्वे वरणे यथा।।
आत्मनैवेद्यकार्पण्ये षड्विधा शरणागतिः।
भगवत-सेवा में जो अनुकूल पड़े उसी का चिन्तन करना और जो भगवत-सेवा में विघा तक हो उनका सर्वथा त्याग करना। जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री को इस बात का पूर्ण विश्वास होता है कि जिसने मेरा एक बार अग्नि के सम्मुख पाणिग्रहण किया है वह मेरी अवश्य ही रक्षा करेगा, उसी प्रकार श्रीकृष्ण पर भरोसा रखना कि वे हमारी अवश्य ही रक्षा करेंगे। भगवान को आत्म निवेदन करने पर उनके प्रति भारी दीनता रखना यही छः प्रकार की शरणागति है। फिर से स्पष्ट समझिये- 1 (सर्वोत्तम) गृहत्याग, असमर्थावस्था में कृष्णप्रीत्यर्थ घर में ही रहकर भगवत-सेवारूपी कर्मों का करना।
2 सर्वसंगपरित्याग, असमर्थ होने पर साधु-संग करना।
3 भगवत-सेवा के अनुकूल भाव और पदार्थों का ग्रहण, प्रतिकूलों का परित्याग।
4 यदि परिवार अनुकूल हो तो उसमें रहकर, नही तो उसका परित्याग करके एकान्तभाव से भगवत-सेवा-पूजा करना।
5 प्रभु में दृढ़ विश्वास।
6 आत्मनिवेदनपूर्वक गुण और दीनता धारण करना।
कितने उच्च और सर्वसम्मत सिद्धान्त हैं। इतना स्पष्ट करने पर भी कोई शंका करे और अपनी बात को ही पुष्ट करके त्याग की आड़ में उम्र भर विषयों को भोगने का समर्थन करे तो उसके लिये क्या उपाय है। बस, भगवान के शब्दों में हम यही कह सकते हैं ‘मम माया दुरत्यया’ मेरी माया बड़ी कठिन है।
इस प्रकार श्री चैतन्य के समकालीन ही होकर गोकुल में रहकर भगवान वल्लभाचार्य ने बालकृष्ण भगवान की पूजा-पद्धति का प्रचार किया। इनके बालकृष्ण भगवान के प्रति बड़े ही अलौकिक व्यवहार होते हैं। इनकी मूर्तियाँ बहुत ही छोटी होती हैं और दिन में अनेकों बार भोग लगता है। जिस प्रकार उजाड़ वृन्दावन को नगर बनाने का श्रेय गौर-भक्तों को प्राप्त है उसी प्रकार उजाड़ हुई गोकुल-भूमि को फिर से बसाने का श्रेय गोकुलिया गोसाँइयों को है। महाप्रभु वल्लभाचार्य ने अरैल में रहकर कई ग्रन्थ बनाये थे। जिन दिनों महाप्रभु गौरांग देव रूप-अनूप आदि के सहित प्रयाग में ठहरे हुए थे तब भगवान वल्लभाचार्य अरैल में ही विराजमान थे। महाप्रभु के भक्ति-भाव की प्रशंसा सुनकर वे उनसे मिलने स्वयं आये थे, इसका वर्णन पाठक अगले अध्याय में पढ़ेंगे।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
।। Srihari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Jap] Hare Krishna Hare Ram Mahaprabhu Vallabhacharya
The feet of Srimad Acharya are the preachers of the path of confirmation. I bow down to you again and again, my beloved, O descendant of the cowherd men.
We have already told that Lord Sri Vallabhacharya, the originator of the Pushtimargiya sect, was a contemporary of Mahaprabhu Chaitanyadeva. There is a lot of similarity in the lives of these two great men. Both were exclusive devotees of God. Both were public teachers, both were promoters of the path of devotion and both are considered incarnations of God in their respective sects. Both were called Mahaprabhu. Both of them were born only six years apart. Lord Vallabhacharya incarnated on this Avni only six years before Mahaprabhu Chaitanyadev and attained Tirobhav from this world two-and-a-half years ago. The feelings of sacrifice, disinterest and love were fully developed in both of them. With the effect of their intense love, both of them made the earth overflowing with devotion in the form of Premamrit. Both were humble, both were passionate, both were virtuous, peaceful, faultless and loving. Both these great men had a meeting with each other twice. Its unbiased description is not available. Nevertheless, it is known that they were very fond of each other and there must have been a lot of intensity between them. Why not stay, who can make the world immortal with his nectar, how can they keep narrow or malicious feelings among themselves? That’s why it seems necessary to introduce Lord Vallabhacharya in a very brief context here. One who has renunciation, quietness and love-like consciousness in his life, he is the character of Chaitanya-Charitavali, therefore the character of Shrivallabhacharya will not be irrelevant here and the readers will get peace and joy from his character.
Mahaprabhu Vallabhacharya was born in a Yajurvedic pure and noble Brahmin-lineage belonging to the Bhardwaj gotriya Taittiriya branch. His ancestors were Southern Brahmins with the title of Bhatt. His clan was famous by the name Belnat. His father’s name was Shrilakshman Bhatt and mother’s name was Yallabhagaru. These people lived in a town called Kakarwad (Kakumbhkar) on the south bank of the Krishna-river near the Vyomasthamba-mountain in Andhra Pradesh. Later, his respected father came and started living in a village named Agrahar.
Srilakshman Bhatt once came to Kashi for pilgrimage with his wife and started living there with a house above Hanuman Ghat. At that time there was a big rebellion in Kashi, that’s why Mr. Bhatt left for the country along with his wife. His wife was pregnant. On the way, Mahaprabhu appeared in Choda Nagar (Chaturbhadrapur) near Champaran. The father brought all the materials from Champaran and performed the proper rites of passage etc. to the son and then came back to live in Kashi.
Mahaprabhu was born in the night of Vaishakh Krishna Paksha 11 Samvat 1535 (Shake 1400)-. At the age of five, his father performed the sacrificial ceremony. Since then, he started getting the education of Vedas and Shastras. When he was eleven years old, his revered father passed away. Then in Vidyasagar’s Raj Sabha, after debating the scriptures with the pundits, he won and got the title of Acharya. You were highly respected by the Maharaja of Vidyanagar. Due to this his fame spread far and wide. Then you traveled from Vidyanagar to Kanyakumari, Pandharpur etc. with many of your followers. Coming from Pandharpur, defeating his opponents in places like Nasik, Trimbak, Narmadat, Omkareshwar, Mahishmati, Ujjaini, Siddhavat, Chaidyapur, Datia, Gwalior, Dhaulpur etc. and getting respect in Raj Sabhas, came to Gokul via Mathura. There he received the permission of the Lord to reveal the path of devotion and in a dream the Lord preached a prose mantra to him, by which the living beings are related to the Brahman. It was here that some disciples took refuge in you and you continued to recite the scriptures by staying here. After this you traveled to all the pilgrimages of Vraj. Then you went to the south to propagate Bhakti and there you went to many famous cities of Gujarat, Kathiawar and Sindh and discussed with the pundits and preached the path of Bhakti loudly. There his scholarship became famous everywhere and thousands of goldsmiths, bhatias and wealthy men became his disciples. Gifts and worship also started coming in abundance and the sentimental people of Gujarat and Kathiawar gave them a huge hospitality. After completing the journey to the south, you traveled to the pilgrimages in the north and east.
Having visited the pilgrimages of Kurukshetra, Haridwar, Rishikesh, Tehri, Gangotri, Kedarnath, Badrinath etc. in the north, then returned to Haridwar and went to Naimisharanya etc. to visit Jagannathji. From Jagannathji on the path to the south, after seeing Parshuram ji on Mahendi Parvat, then came to his village Agrahar. After staying in Agrahara for some time, Acharya thought of traveling to India for the second time. That’s why you came to Pandpur via Mangalprastha Vidyasagar, Lohgarh. After coming to Pandpur, he visited Lord Vitthalnath. Till now these Danda, Mekhla, Jata, Krishnajin etc. used to wear the symbols of all celibates and used to live in celibate clothes. It was here that God ordered them to get married. He accepted the order of God. From here again you traveled to Gujarat-Kathiawad and preached the path of devotion to your disciples and servants and came to Vraj via Pushkar. Govardhannath ji (Gopal ji) – had appeared in Govardhan. There he gave yoga in his service-worship and handed over the entire burden of service there to Shri Manmadhavendrapuri ji. With the inspiration of Shri Nathji, Thakur Puranmal started building the temple of Shri Govardhan Nathji in 1556. Walking from Vrajmandal, you again traveled to the pilgrimages of the north and after visiting Jagannath ji for the second time, came to live in Kashi ji.
Here you married a daughter named Sarvagunasampanna Lakshmidevi of a Southern Brahmin named Devbhatt, your cousin, thinking of God’s wish. After living in Kashi for some time, you again came to Gokul while traveling in the same way. For the third time again you toured Gujarat-Kathiawad etc. countries and after seeing Badrinarayan for the third time came to Gokul. From Gokul, passing through Agra on the banks of the Yamuna, you reached Prayagraj and on the other side of the Sangam, on the banks of the Yamuna, built a house in a village named Arail. Staying in Arail for a few days, you came to Kashi and from there you went to Charanadri (Chunar) and stayed for some time. Now there was no shortage of money with Acharya. Thousands of wealthy, Seth-Sahukars became his disciples. That’s why they used to spend the money in religious works very freely. In Kashi, by the order of your mother, you fed food to thirty thousand Brahmins with devotion.
From Kashi, you then traveled to Vraj via Prayag, staying for some time in Arail. In this journey, he met Surdas ji at Gaughat near Agra and there he took refuge in him. You came to Govardhan taking Surdas ji along with you and got the new temple of Govardhannath ji established there. Big scholars and sages had gathered in it. From there again he started living in Arail and there his first son Mr. Go. Gopinath ji was born. That’s why you ordered one of your disciple Purushottamdas to perform Jyotishtom-Yagya in Prayag, which ended smoothly with great fanfare.
After this you started living there with the request of the king of Chunar. And his second son Go. Shri Vitthalnath Ji Maharaj was born. In the end, you took sannyas in the manner of Bhagwat in Kashi. Leaving home and wearing a kashayavastra with shikha, sutra, danda, kamandalu, they started living on alms. At that time, his quietness was unique. Being completely separated from such huge wealth, such high prestige, women, children and disciples-servants, you were constantly engaged in Bhagwat-Archa-Pooja and Naam-Sankirtan. In this way, setting the ideal of renunciation for his disciple-student and descendants through his most renunciation life, on the day of Shukla Tritiya of Ashadh month of Samvat 1587, you left this Asar world and became a Vaikuntha resident.
Mahaprabhu Vallabhacharya mainly lived in Gokul, Arail, Chunar and Kashi. His meetings are still there in all these four places and they are famous as ‘Mahaprabhu meeting’. His descendants are called Gokulia Gosai. In India, the Acharyas of this sect are said to be the richest and most prosperous. Big Mahajan Dhani-Seth are the servants and disciples of this clan. Acharya’s second son Go. The people of this community consider Shri Vitthalnath Ji Maharaj to be an incarnation of Shri Krishna. He propagated this sect a lot. He was a very bright, hard working teacher and had faith in religion. He had seven sons, Girdharlal ji, Govindlal ji, Balakrishna ji, Gokulesh ji, Raghunath ji, Yadunath ji and Ghanshyamlal ji. Seven of his thrones are still present. Later their descendants increased a lot who are still present in different places like Bombay, Kashi, Mathura, Gokul, Nathdwar etc. His disciples-servants still believe and worship Goswami-boys with Bhagwat-intelligence.
The Vallabh sect is not particularly a refutation sect. As far as we know, in this sect, apart from the matter of philosophical principles, the method of worship of any sect has not been denied. In the Vallabh sect, there is no denial of Vedic deeds like in other sects, but in it the importance has been given to the service of Shri Krishna. Brahma-relationship-rites are considered main here. Guru gives a mantra in the ear of the disciple, the meaning of that mantra is- ‘Our protector is Shri Krishna. We have been separated from Him for thousands of years, that is why all our joy has disappeared by being subjected to triple heat, in such a condition I, Shri Gopi Janvallabh, for the sake of Lord Shri Krishna, body, senses, life, conscience and the religion of the conscience, woman, home Surrender to son, family, finance and soul, O Krishna! I am your servant.’ With this mantra, it is believed that the soul has a relationship with Brahma. After Brahma-relationship, any man or woman can neither take food-water nor consume clothes, ornaments, vehicles, money, women etc. without offering them to God. Consume everyone considering it as Bhagavat-Prasadi, offering it to Krishna, this is its meaning. What a lofty sentiment, in fact if a man can follow this religion with a true heart, then he can be well-being even while living at home.
Lord Vallabhacharya himself has written many texts to explain his principles and has written beautiful commentaries on Poorvmimansa, Uttarmimansa and Shrimad Bhagwat. Shrimad Acharya-Charan has explained the principle of devotion with great tact in many texts. The essence of all his books has been described in five verses. These five verses only explain his true principle. Readers will come to know from these five verses that those who tell Pushti-Sampradaya as the path of practice and say that in Pushti-Sampradaya renunciation of all work has been prohibited, it is their grave mistake. Lord Vallabhacharya shows two paths – one is Nivrittimarg and the other is Pravrittimarg. They call retirement the best; But the officers of the path of retirement are rare, so when no one can follow it, then he should continue to work for the love of Shri Krishna according to his varnashram with Krishna’s dedication. To become a householder from a celibate, to retire from a householder and to retire from a vanprastha – this is called the path of nature. People mistakenly make all the sannyasins go into retirement and retire from retirement – this is called the path of pravritti. People mistakenly consider all sannyasins to be of the path of retirement. The sannyasin on the path of retirement is such that as soon as he attains knowledge, wherever he may be, in whatever condition he may be, from there he becomes an Avadhoot Paramhans by renouncing everything and abandoning the hassles of rules and prohibitions. His effort should be like that of a child, like a fool or like a madman. This is the path of practice, gradually entering the hermitage one by one with knowledge and adopting sannyas. Lord Vallabhacharya had taught this path by showing it directly in his life. They do not deny the superiority of Nivritti Marga, but its authorities tell very little. Take it in his own words. Below we quote only five verses of his essence. The followers of the Pushti sect consider these five verses to be an exploit of the devotional episode. Acharya orders-
A house should be abandoned with all one’s soul and it cannot be abandoned Let him use it for the sake of Krishna, for Krishna is the deliverer of evil.
(The best principle is that) the house should be completely abandoned. (But due to the sanskars of the previous birth, not everyone is able to leave the house, that’s why) If you do not have the ability to leave the house completely, then stay at home and do all the work for the sake of Shri Krishna. (By doing this, the sin that is committed by doing work will not be a sin) Because Shri Krishna is the redeemer of all kinds of misfortunes.
If association is to be abandoned by the whole soul, it cannot be said. That should be done with the saintly association with the saintly is the remedy.
(The best principle is that) one should not associate with anyone. All kinds of associations should be completely abandoned. (But since many births, the creature has developed the habit of coming and living together in the society, therefore) If you are not able to leave all kinds of company, then you should keep company of gentlemen and saints. Because saints are the medicine for the lust that arises from company.
If his wife and others are unfavourable, he should perform the rituals of the Lord. The indifferent should not do it himself and leave the house in the opposite direction. There is no contamination in that renunciation, for Vishnu is the face of Paranga.
(Now let’s tell how the person who has become a householder should behave. Let’s tell for him.) If the woman etc. family is forgiving in their mind, devotional devotion etc., then get them to serve and worship God. If he is indifferent from this side (and is ready to serve only after being ordered), then do it yourself without getting him to do it. If it is against Bhagwat-service, then leaving the house completely, one should go in solitude and worship Bhagwat-Archa. (Jaake priya na Ram Baidehi. Tajiye tahi koti bari sam abhi param sanehi..) There is no contamination of any kind in the renunciation of those who are Vishnuparagamukh. (With the desire of worldly pleasures, one should not have any kind of relationship with anyone.)
The resolution of the favorable is the dismissal of the unfavorable. Confidence that he will protect her is like choosing a husband There are six kinds of refuge in self-sacrifice and self-sacrifice.
To think about that which is favorable in the service of Bhagwat and to give up completely those who are in trouble in the service of Bhagwat. Just as a married woman has full faith that the one who once took water in front of the fire will definitely protect me, in the same way, have faith in Shri Krishna that he will definitely protect us. Keeping great humility towards God on self-request is the six types of surrender. Understand again clearly – 1 (best) renunciation of home, in the state of inability, Krishna’s love by staying at home and doing God-service-like deeds.
2 Renunciation of all company, being unable to do company of saints.
3 Bhagwat-Acceptance of feelings and substances favorable to service, abandonment of unfavorable ones.
4 If the family is friendly, stay in it, if not, leave it and do God-service-worship in solitude.
Strong faith in the Lord.
6 Adopting virtues and humility through self-request.
What a lofty and unanimous principle. Even after clarifying so much, if someone doubts and by confirming his point, supports to enjoy the subjects for the whole life under the guise of renunciation, then what is the solution for him. That’s all we can say in the words of God, ‘mum maya duratyaya’ my maya is very difficult.
In this way, living in Gokul, being a contemporary of Sri Chaitanya, Lord Vallabhacharya propagated the worship of Lord Balakrishna. They have very supernatural behavior towards Lord Krishna. Their idols are very small and are offered many times a day. Just as Gaur-devotees get the credit of making the desolate Vrindavan a city, in the same way, the Gokulia Gosains get the credit of rebuilding the desolate Gokul-Bhoomi. Mahaprabhu Vallabhacharya had made many books while staying in Arail. The days when Mahaprabhu Gaurang Dev was staying in Prayag along with Roop-Anoop etc., then Lord Vallabhacharya was sitting in Arail. After hearing the praise of Mahaprabhu’s devotion, he himself came to meet him, the reader will read about it in the next chapter.
respectively next post [138] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]