।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
श्री प्रकाशानन्द जी का आत्मसमर्पण
भ्रातस्तिष्ठ तले तले विटपिनां ग्रामेषु भिक्षामट
स्वच्छन्दं पिब यामुनं जलमलं चीराणि कन्थां कुरु।
सम्मानं कलयातिघोरगरलं नीचापमानं सुधां
श्री राधामुरलीधरौ भज सखे वृन्दावनं मा त्यज।।
भक्त चित्तचोर श्री गौरांग ने अद्वैत वेदान्त के प्रकाण्ड पण्डित श्री प्रकाशानन्द जी का मन हठात अपनी ओर आकर्षित कर लिया। वे अनजान भोले मनुष्य की भाँति प्रभु के मन से चरण किंकर बन गये, क्योंकि वे प्रभु के अपने निजजन थे। प्रभु के चले जाने पर प्रकाशानन्द जी अपने मठ में पहुँचे। वहाँ उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगने लगा। वेदान्त के ग्रन्थ उन्हें काटने को दौड़ने लगे। उनका चित्त अब श्री चैतन्य चरणों के चिन्तन में ही सुख का अनुभव करने लगा। महाप्रभु की मनोहर मूर्ति उनके हृदय में गड़-सी गयी। वे उसकी अनुपम रुपमाधुरी का मन-ही-मन रसास्वादन करने लगा। उन्हें अपने पूर्वकृत अपराधों के लिये घोर सन्ताप होने लगा- ‘हाय, जो इतने सरल हैं, ऐसे विनम्र हैं, इतने सुन्दर हैं- उनके रोम-रोम से प्रेम का प्रवाह फूट-फूटकर निकलता रहता है। सरलता की तो साक्षात साकार सजीव मूर्ति ही हैं।’ श्रीमत्प्रकाशानन्द जी ऐसा सोच ही रहे थे कि उसी समय महाराष्ट्रीय सज्जन वहाँ आ उपस्थित हुए। वे स्वामी प्रकाशानन्द जी को प्रणाम करके बैठ गये और थोड़ी देर पश्चात धीरे-धीरे पूछने लगे- ‘भगवन! आपने उन बंगाली स्वामी जी के दर्शन किये। अब तो आपने प्रत्यक्ष ही देख लिया कि उनका शरीर ही प्रेममय है।’
इतना सुनते ही प्रकाशानन्द जी ने उनके पैर पकड़ लिये और रोते-रोते कहने लगे- ‘भैया! तुमने मेरा उद्धार करा दिया। अभिमान के वशीभूत होकर अपने को पण्डित समझने वाले मुझ पतित ने उन महापुरुष की न जाने कितनी बार निन्दा की। वे तो साक्षात ईश्वर हैं। शरीर धारी नारायण हैं। उन्होंने जो बातें कहीं सो सभी सत्य हैं।’
अपने पैरों को जल्दी खींचते हुए उन महाराष्ट्रीय सज्जन ने प्रकाशानन्द जी से कहा- भगवन! आप यह मुझ पर कैसा अपराध चढ़ा रहे हैं? मेरे लिये तो आप भी साक्षात शंकर हैं। आपको क्या ज्ञान और क्या अज्ञान? आप तो सर्वज्ञ हैं। लोक शिक्षण के लिये और भक्ति का माहात्म्य प्रकट करने के लिये ही आपने ऐसा किया। आपने जीवन में इस बात को प्रत्यक्ष करके दिखा दिया कि कितना भी भारी ज्ञानी क्यों न हो उसे उन अरविन्दाक्ष भगवान श्री हरि का आश्रय कभी न छोड़ना चाहिये। जो ज्ञान अभिमान में अच्युत का आश्रय त्याग देते हैं उनका अवश्य ही अध: पतन हो जाता है। आपने तो अपने जीवन से भक्ति का माहात्म्य प्रकट किया है। भगवन! आपके चरणों में मेरा कोटि-कोट प्रणाम है। मैं तो आपको बहुत ही श्रेष्ठ समझता हूँ।’
इस प्रकार बहुत देर तक बातें होती रहीं। महाराष्ट्रीय सज्जन स्वामी जी से विदा लेकर अपने घर चले गये। दूसरे दिन इस सुखद संवाद को सुनाने के लिये प्रभु के पास आ रहे थे कि उन्हें रास्तें में ही गंगा स्नान करके लौटते हुए प्रभु मिल गये। जल्दी में उन्होंने प्रणाम करके कहा- ‘प्रभो! ‘प्रभो! महान आश्चर्य की बात! आपकी माया अपार है ‘प्रभो! ओहो! जो आपकी इतनी भारी निन्दा किया करते थे; वे वेदान्त-शिरोमणि श्री मत्प्रकाशानन्द अब बालकों की भाँति रो रहे हैं। अब उन्हें वेदान्त चिन्तन, शास्त्रों का पठन-पाठन कुछ भी नहीं भाता है, अब वे निरन्तर श्री चैतन्यचरणों का ही चिन्तन करते हैं।’
इस संवाद को सुनते ही प्रभु उछलने लगे और परम प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहने लगे- ‘भगवान बड़े दयालु हैं, उन्होंने पूज्यपाद प्रकाशानन्द जी के ऊपर कृपा कर दी। उन्हें प्रेमदान देकर अपना लिया। अहा! उन महापुरुष के चरणों की धूलिको मैं अपने मस्तक पर चढ़ाकर अपने जीवन को कृतार्थ करूँगा। ‘इतना कहते-कहते प्रभु बिन्दुमाधव जी के मन्दिर में दर्शन करने गये। भगवान की मनोहर मूर्ति के दर्शनों से प्रभु भावावेश में आकर नृत्य करने लगे। श्री सनातन, चन्द्रशेखर वैद्य, तपन मिश्र आदि भक्त भी प्रभु के साथ ताली बजा-बजाकर नाचने और-
हरिहरये नम: कृष्णयादवाय नम:।
गोपाल गोविन्द राम श्रीमधुसूदन।।
-इस पद को बड़े ही स्वर के साथ गाने लगे। महाप्रभु ब्रह्मज्ञान शून्य होकर नृत्य कर रहे थे। बहुत-से दर्शनार्थी प्रभु का नृत्य देखनेके लिये एकत्रित हो गये। संकीर्तन की सुमधुर ध्वनि सुनकर शिष्यों के सहित श्री स्वामी प्रकाशानन्द जी भी वहाँ आ उपस्थित हुए और वे भी प्रभु के स्वर में स्वर मिलाकर-
हरिहरये नम: कृष्णयादवाय नम:।
गोपाल गोविन्द राम श्रीमधुसूदन।।
-इस पद गायन करने लगे। थोड़ी देर के अनन्तर प्रभु ने संकीर्तन बंद कर दिया। उन्हें अब कुछ बाह्य ज्ञान हुआ। सामने सशिष्य प्रकाशानन्द जी को देखकर प्रभु ने उनके चरणों में भक्तिभाव से प्रणाम किया। इस पर प्रकाशानन्द जी प्रभु के पैरों में पड़ गये। अपने पैरों को जोर से खींचते हुए प्रभु दीनभाव से कहने लगे- ‘भवगन! यह आप कैसा अनर्थ कर रहे हैं। गुरुजन होकर आप मेरे ऊपर पाप क्यों चढ़ा रहे हैं? मैं तो आपके शिष्यों के शिष्यों तक के बराबर नहीं हूँ, यद्यपि आपकी दृष्टि में सभी ब्रह्मस्वरूप हैं, फिर भी लोकमर्यादा के हिसाब से आपको ऐसा न करना चाहिेये। आप तो मेरे परम वन्दनीय हैं।’
धीरे-धीरे प्रकाशानन्द जी ने कहा- ‘प्रभो! मैं अपने पूर्वकृत पापों का प्रायश्चित कर रहा हूँ। मैंने आपकी लोंगों के सामने बहुत निन्दा की थी। ‘प्रभु ने कानों पर हाथ रखते हुए कहा- ‘श्री हरि श्री हरि! आप कैसी बातें कर रहे हैं? गुरुजन अपने शिष्य तथा सेवकों की कभी बुराई कर ही नहीं सकते। वे तो सदा उनके कल्याण की ही बातें सोचा करते हैं। आप भला मेरी कभी बुराई कर सकते हैं? ‘इस प्रकार बहुत देर तक दोनों महापुरुषों के बीच बातें होती रहीं। अन्त में दोनों ही एक-दूसरें से विदा हुए।
सांयकाल के समय एकान्त में श्री प्रकाशानन्द जी महाप्रभु के पास स्वयं आये। आते ही उन्होंने प्रभु के पादपद्मों में प्रणाम किया और एक साधारण शिष्य की भाँति नम्रता से एक ओर बैठ गये। प्रभु ने इनका जोरों से आलिंगन किया और खीचकर आपने समीप बैठ लिया।
तब प्रकाशानन्द जी ने दोनो हाथों की अंजलि बांधे हुए बड़ी ही नम्रता के साथ कहा- ‘प्रभो! मैंने अब तक अपना अमूल्य समय अभिमान और आत्मश्लाघा में ही बिता दिया। परमार्थपथ से मैं अब तक एक दम अनभिज्ञ ही रहा, इसलिये अब मुझे क्या करना चाहिये, मेरा मुख्य कर्तव्य क्या है, सो बता दीजिये।’
प्रभु ने कहा- ‘भगवन! आप साधारण जीव नहीं हैं। आप तो जीवन्मुक्त हैं। आप जो भी कुछ करना चाहते हैं और आप जो भी कुछ करेंगे उसका एक मात्र उद्देश्य लोक संग्रह और लोक शिक्षण ही होगा। इसलिये भगवन! मैं तो यही समझता हूँ कि प्राणि मात्र का परम पुरुषार्थ श्रीकृष्ण प्रेम की उपलब्धि करना ही है। प्रभु के पादपद्मों में प्रीति हो- यही सब साधनों का अन्तिम फल है और सभी कार्य इसी एक उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त करने चाहिये।’
प्रकाशानन्द जी ने पूछा- ‘प्रभो ! प्रभु पादपद्मों में प्रेम कैसे हो?’
प्रभु ने कहा- ‘सजातीय और विजातीय दो पदार्थ हैं। जीव भगवान का अंश है, यदि दसे सजातीय भगवान की ओर लगायेंगे तो आनन्द की उपलब्धि होगी और विजातीय संसारी कामों में फंसाये रखेंगे तो यह सदा दु:खी ही बना रहेगा। इसलिये अनन्य भाव से उन्हीं प्रभु की शरण जाने में कल्याण है, यही प्रेम प्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय है।’
प्रकाशानन्द जी ने कहा- ‘प्रभो! शास्त्रों का सिद्धान्त हैं, द्वितीयाद वै भयं भवति’ अर्थात दूसरे से तो सदा भय ही होता है, इसका क्या अभिप्राय है? जब तक सेव्य-सेवक-भाव है, तब तक द्वैत है और द्वैत भय का कारण है, फिर किस भाव से शरण में जाऊँ?’
प्रभु ने कहा- ‘भगवन! आप ध्यान पूर्वक इस बात पर विचार करें। वास्तव में यह बात ठीक है कि द्वैत में सदा भय ही होता है। बिना अद्वैतभावना के शान्ति नहीं, किन्तु आप सोचिये- आंश में और अंशी में, सेव्य में और सेवक में, सखा और सखा में, पिता में और पुत्र में तथा पतिे में और पत्नी में क्या द्वैधीभाव रहता है? जहाँ द्वैत है वहाँ प्रेम कहाँ? प्रेम तो एक होने पर ही होता है। जिसे हम अपना कहकर स्वीकार कर चुके है। दूसरा रह ही नहीं जाता। व्यवहार में भी देखा जाता है, जब कोई गुप्त बात कहनी होती है, तो कहने वाला पास में बैठे हुए आदमियों की ओर शंकित दृष्टि देखता है। तब सुनने वाला कहता है- ‘तुम निश्चिन्त होकर कहो, यहाँ कोई ‘दूसरा’ नहीं हैं। अर्थात सभी अपने हैं।’ इसलिये अपनापन स्थापित हो जाने पर फिर भय का क्या काम? फिर तो दिन दूना आनन्द ही बढ़ता जाता है। सम्बन्ध पाँच ही प्रकार से हो सकता है- अशं-अंशी-सम्बन्ध, स्वामी-सेवक-सम्बन्ध, सख्त-सम्बन्ध, पिता-पुत्र का सम्बन्ध और पति-पत्नी का सम्बन्ध। इन्हें ही क्रम से शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और कान्ताभाव कहते हैं। इनमें से भगवान के साथ कोई भी सम्बन्ध स्थापित हो जाने पर फिर वे दूसरे नहीं रहते। अपने ही हो जाते हैं, द्वैत न रहकर अद्वैत बन जाते हैं। शान्तभाव में ऐश्वर्य की भावना रहने से कुछ अद्वैत का अंश शेष रह जाता है। दास्यभाव में निरन्तर सेवक की भावना रखने से शांत की अपेक्षा कुछ द्वैतभाव कम हो जाता है, शख्य दास की अपेक्षा कुछ कम हो जाता है, किन्तु कुछ द्वैत तो सख्य में भी बना ही रहता है। सखा अपने सखा से यह इच्छा तो रखता ही है कि यह भी हमसे स्नहे करें। सख्य की अपेक्षा वात्सल्य भाव में द्वैत बहुत ही कम हो जाता है। क्योंकि असली पिता अपने में और पुत्र में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं समझता। पुत्र पिता का आत्मा ही है। किन्तु फिर भी द्वैधी भाव समूल नष्ट नहीं होता।
लालन-पालन जन्य कुछ सूक्ष्म द्वैतांश शेष रह ही जाता है। हाँ, कान्ता भाव में द्वैत का नाम नहीं। पत्नी अपने मन को ही पति के मन में नहीं मिला देती है, किन्तु वह हृदय से हृदय को मिलकर उसकी सभी चेष्टाएं, सभी क्रियाएँ केवल पति के ही सुख के निमित्त होती हैं। उसके लिये अपना अस्तित्व रहता ही नहीं। वहाँ न स्वामी-सेवक-भाव है, न अंशांशी-भाव। वहाँ तो अद्वैत-भाव है। पत्नी अपने लिये सुख नहीं चाहती। उसे अपने सुख में प्रसन्नता नहीं होती। उसकी प्रसन्नता तो प्रियतम की प्रसन्नता में है। प्यारा प्रसन्न है, इसलिये उसे भी प्रसन्न रहना चाहिये, क्योंकि प्यारे से पृथक उसका अस्तित्व ही नहीं। तब प्यारे से विरुद्ध उसकी कोई चेष्टा हो ही कैसे सकती है? इसी का नाम मधुर भाव है, यही सर्वश्रेष्ठ भाव है, इसमें भावान्वित हुए पुरुष की सभी क्रियाएँ बंद हो जाती हैं। उसका अपनापन एकदम नष्ट हो जाता है। उसका शरीर यन्त्र की तरह अपने-आप ही थोड़ी -बहुत चेष्टा करता रहता है। ऐसा भाव किसी भाग्यवान पुरुष को ही प्राप्त हो सकता है। लाखों में क्या करोड़ो में कोई एक इस भाग वाले पुरुष होते हैं, फिर उनके दर्शन तो किसी परम सौभाग्याशाली पुरुष को ही प्राप्त हो सकते हैं। आप तो श्रीकृष्ण के निजजन हैं। आपके लिये कौन-सा भाव दुर्लभ है? भगवान ने आपको तो अपना कहकर वरण कर लिया है। जिसे वे अपना कहकर स्वीकार कर लेते हैं वही इस भाव में दीक्षित हो सकता है। योग- यज्ञ और जप-तप करके ही कोई अपने को इस भाव में दीक्षित होने का अधिकारी समझ बैठे तो यह उसकी अनधिकार चेष्टा ही कही जा सकती है।’
अत्यन्त ही दीन भाव से प्रकाशानन्द जी ने कहा- ‘प्रभो! आज मेरा पुनर्जन्म हुआ। मैं अपना परम सौभाग्य समझता हूँ कि भगवान ने मुझे अपनी शरण में ले लिया। अब मेरे पुनर्जन्म का नाम रख दीजिये और मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं कहाँ रहूँ और क्या करूँ?’
प्रभु ने प्रेमपूर्वक कहा- ‘प्रबोधानन्द जी! आपको बोध तो पहले से ही था, अब प्रभु की परम कृपा होने से आपको प्रकर्ष बोध हुआ है। इसलिये आज से प्रकाशानन्द जी के स्थान में आपका नाम प्रबोधानन्द जी हुआ रहने का एक ही ठाम है, ‘श्री वृन्दावन धाम, ‘और करने का एक ही काम है’ श्री वृन्दावन विहारी का अहर्निश नाम-संकीर्तन। ‘श्रीकृष्ण-कृष्ण रटिये और श्री वृन्दावन में बसिये। इसी में परम कल्याण है! प्राणि मात्र के उद्धार का यही सर्वश्रेष्ठ उपाय है।’
प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके श्री प्रकाशानन्द जी उसी समय प्रभु की चरणधूलि मस्तक पर मठ, मन्दिर, शिष्य, सम्पत्ति सभी को छोड़कर श्री वृन्दावन के लिये चल दिये और वहाँ पहुँचकर कालियदमन घाट के समीप रहने लगे। अन्तिम जीवन इन्होंने अत्यन्त ही मधुर भाव से व्यतीत किया। ये पागलों की तरह ऊपर हाथ उठा-उठाकर नृत्य किया करते थे। ये हृदय से अपने को श्रीकृष्ण की सहचरी गोपी समझते। इनका मधुर भाव का गुप्त नाम था ‘गुणचूड़ा सखी’। कालियदमन के समीप ये एक कुटिया में रहकर अहर्निश कृष्ण कीर्तन किया करते थे। प्रकाण्ड पण्डित होने के साथ ये संस्कृत के अच्छे कवि भी थे। इनकी कविता बड़ी ही सुन्दर, सुललित तथा भाव पूर्ण होती थी। इन्होंने वृन्दावन की पवित्र भूमि में ही अपने इस पांच भौतिक शरीर का त्याग किया। कालियदमन के समीप अभी तक इनकी समाधि बनी है।
इनके बनाये हुए ‘श्री चैतन्यचन्द्रामृत’, ‘श्री वृन्दावनरसामृत’, श्री वृन्दावनशतक’ और ‘श्री राधरससुधानिधि’- ये चार ग्रन्थ पाये जाते हैं, जिनमें हजारों श्लोक हैं। ‘श्री चैतन्यचन्द्रामृत’ बड़ा ही मधुर काव्य है। उसके बहुत-से छन्द तो इतने भावूपर्ण हैं कि पढ़ते-पढ़ते चित्त नाचने लगता है। इनके एक-एक पद से महाप्रभु के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा प्रकट होती है। इनकी चैतन्य चरणों में बड़ी ही अनोखी और अहैतु की भक्ति थी। श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण चैतन्य के गुणगान करने में ही इन्होंने अपनी कमनीय कविता का सदुपयोग किया है। स्थानाभाव से यहाँ हम इनकी सुन्दर कविताओं को उदधृत नहीं कर सकते। ‘ चैतन्यचन्द्रामृत’ में एक स्थल पर श्री चैतन्य चरणें से अपनी प्रगाढ़ प्रीति प्रदर्शित करते हुए ये कहते हैं-
निष्ठां प्राप्ता व्यवह्रतिततिर्लौंकिकी वैदिकी वा
या वा लज्जा प्रहसनसमुदगाननाटयोत्सवेषु।
ये वाभूवन्नहह सहजप्राणदेहार्थधर्मा
गौरश्चौर: सकलमहरत् कोऽपि में तीव्रवीर्य:।।
‘अत्यन्त ही बलवान किसी गौरवर्ण के चोर ने आकर हमारी लौकिकी और वैदिकी व्यवहार निष्ठा को (संकीर्तन करते समय) जोर-जोर से हंसने, आने तथा नृत्योत्सव में होने वाली लज्जा को और प्राण तथा देह के कारण-स्वरूप जो स्वाभाविक धर्म हैं, उन सभी को जबरदस्ती छीन लिया। अर्थात उस गौरांग चोर ने हमें इन सभी वस्तुओं से रहित बना दिया।’ अहा, धन्य है, ऐसे लुटे हुए यात्री को और लूटने वाले चोर को। हम लूटने वाले चोर के और लुटने वाले महाभाग यात्री के चरणों में बार-बार प्रणाम करते हैं।
क्रमशः अगला पोस्ट [145]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Surrender of Mr. Prakashanand
My brother stay begging in the villages of the branches on the ground Drink the Yamuna water at your own pace and cut your neck with dirty water. Honor is the most terrible throat of the age, lowly insult is the nectar Worship Sri Radha and Muralidhara, my friend, and do not leave Vrindavan.
Devotee Chittachor Shri Gaurang instantly attracted the heart of Advaita Vedanta’s Prakand Pandit Shri Prakashanand ji. Like an ignorant innocent man, he became a stone-breaker in the mind of the Lord, because he was the Lord’s own person. After Prabhu’s departure, Prakashanand ji reached his monastery. He didn’t like anything there. The books of Vedanta started running to bite them. His mind now started experiencing happiness in thinking about the feet of Sri Chaitanya. The beautiful idol of Mahaprabhu got buried in his heart. They started relishing her unique beauty. He started feeling remorse for his past crimes – ‘Woe to those who are so simple, so humble, so beautiful – the flow of love keeps on bursting from their every pore. Simplicity is a living embodiment of simplicity.’ Shrimat Prakashanand ji was thinking like this that at that very moment a Maharashtrian gentleman came and appeared there. He sat down after saluting Swami Prakashanand ji and after a while slowly started asking – ‘ God! You had darshan of that Bengali Swamiji. Now you have seen firsthand that his body itself is full of love.’
On hearing this, Prakashanand ji caught hold of his feet and started crying – ‘Brother! You saved me Under the control of pride, I, the fallen, who considered himself a scholar, criticized that great man many times. He is God in reality. The body bearer is Narayan. Everything he said is true.
Quickly pulling his feet, that Maharashtrian gentleman said to Prakashanand ji – God! What kind of crime are you putting this on me? You are also Shankar for me. What knowledge and what ignorance do you have? You are omniscient. You did this only for public education and to reveal the greatness of devotion. You have directly shown this thing in life that no matter how heavy the scholar is, he should never leave the shelter of that Arvindaksh Lord Shri Hari. Those who leave the refuge of the infallible in the pride of knowledge, they definitely fall down. You have shown the greatness of devotion through your life. God! I offer my obeisances at your feet. I consider you the best.’
Things went on like this for a long time. The Maharashtrian gentleman took leave of Swamiji and went to his home. The next day they were coming to the Lord to narrate this pleasant conversation that they found the Lord returning after bathing in the Ganges on the way. In a hurry, he bowed down and said – ‘Lord! ‘Lord! Great surprise! Your illusion is immense ‘Lord! Ooh! who used to criticize you so heavily; That Vedanta-Shiromani Shri Matprakashanand is now crying like a child. Now he doesn’t like Vedanta thinking, reading and reading of scriptures, now he constantly thinks of Shri Chaitanya’s feet.’ As soon as he heard this dialogue, the Lord started jumping and expressing great happiness said- ‘God is very kind, He has blessed Pujyapad Prakashanand ji. Adopted them by giving them love. Aha! I will make my life fruitful by offering the dust of the feet of that great man on my head. Saying so much, Prabhu went to visit the temple of Bindumadhav ji. Seeing the beautiful idol of God, the Lord started dancing in ecstasy. Devotees like Shri Sanatan, Chandrashekhar Vaidya, Tapan Mishra etc. also started clapping and dancing with the Lord.
O Hariharaya, O Krishna Yadava, I offer my obeisances to you. Gopal Govinda Rama Srimadhusoodana.
Started singing this verse with a loud voice. Mahaprabhu was dancing without knowing Brahman. Many visitors gathered to see the dance of the Lord. Hearing the melodious sound of Sankirtan, Shri Swami Prakashanand ji also came there along with the disciples and they also joined the voice of the Lord-
O Hariharaya, O Krishna Yadava, I offer my obeisances to you. Gopal Govinda Rama Srimadhusoodana.
Started singing this verse. After some time the Lord stopped the chanting. He now has some external knowledge. Seeing disciple Prakashanand ji in front of him, the Lord prostrated at his feet with devotion. On this Prakashanand ji fell at the feet of the Lord. Pulling his feet hard, the Lord started humbly saying – ‘ Bhagwan! What a disaster you are doing. Why are you accusing me of being a teacher? I am not even equal to the disciples of your disciples, although in your eyes all are Brahmaswaroops, still you should not do this according to public norms. You are my most worshipable.
Slowly Prakashanand ji said – ‘ Lord! I am atonement for my past sins. I had blasphemed a lot in front of your people. ‘ The Lord said keeping his hands on the ears – ‘Shri Hari Shri Hari! how are you talking Gurus can never harm their disciples and servants. They always think about their welfare only. Can you ever harm me? ‘ In this way, talks continued between the two great men for a long time. In the end both of them left each other. Shri Prakashanand ji himself came to Mahaprabhu in solitude in the evening. As soon as he came, he bowed down at the lotus feet of the Lord and humbly sat aside like an ordinary disciple. The Lord hugged him tightly and pulled him and sat near him.
Then Prakashanand ji tying both the hands with great humility said – ‘Lord! Till now I have spent my precious time in pride and self-praise. Till now I remained totally ignorant of the path of God, so what should I do now, what is my main duty, so tell me.’
The Lord said – ‘ God! You are not an ordinary creature. You are free from life. Whatever you want to do and whatever you do, the only purpose of this will be public gathering and public education. That’s why God! I only understand that the ultimate effort of a living being is to achieve the love of Shri Krishna. There should be love in the lotus feet of the Lord – this is the ultimate fruit of all means and all work should be done for the fulfillment of this one purpose.’
Prakashanand ji asked – ‘ Lord! How can there be love in Lord Padpadma? The Lord said- ‘Homogeneous and heterogeneous are two substances. The creature is a part of God, if it is applied towards God, it will achieve happiness and if it is kept trapped in foreign worldly works, then it will always remain sad. That’s why it is good to take refuge in that Lord with a unique feeling, this is the best way to get love.’ Prakashanand ji said – ‘ Lord! The principle of the scriptures is ‘Dwitiyad Vai Bhayam Bhavati’ which means there is always fear from others, what is the meaning of this? As long as there is service-servant-feeling, there is duality and duality is the cause of fear, then in what sense should I take refuge?’
The Lord said – ‘ God! You should consider this matter carefully. In fact, it is true that there is always fear in duality. There is no peace without non-dualism, but you think – what duality exists between the part and the part, the servant and the servant, friend and friend, father and son and husband and wife? Where is the love where there is duality? Love happens only when there is one. Which we have accepted as our own. The second one does not remain. It is also seen in practice, when something secret has to be said, the person who is telling it looks suspiciously towards the men sitting nearby. Then the listener says- ‘You say it with confidence, there is no ‘other’ here. That means all are ours. That’s why when affinity is established then what is the use of fear? Then the joy keeps on doubling day by day. There can be only five types of relation – partial-partial-relation, master-servant-relation, strict-relation, father-son relation and husband-wife relation. These are called Shanta, Dasya, Sakhya, Vatsalya and Kantabhava respectively. Once a relationship is established with any of these, they are no more. They become their own, they become advaita instead of duality. Due to the sense of grandeur in calmness, some part of Advaita remains. By keeping the spirit of servant continuously in Dasya Bhaav, some duality is reduced in comparison to Shanta, in comparison to Sakhya Das it is somewhat less, but some duality remains in Sakhya as well. A friend keeps this desire from his friend that he should also love us. Compared to Sakhya, duality is very less in Vatsalya Bhava. Because the real father does not understand any kind of discrimination between himself and the son. The son is the soul of the father. But even then the dualism is not completely destroyed.
Some subtle dichotomy due to parenting remains. Yes, there is no mention of duality in Kanta Bhava. The wife does not mix her mind with the husband’s mind, but she meets heart to heart and all her efforts, all her actions are only for the happiness of the husband. For him there is no existence of his own. There is neither master-servant-feeling, nor sharer-feeling. There, there is non duality. The wife does not want happiness for herself. He is not happy in his happiness. His happiness lies in the happiness of the Beloved. Beloved is happy, therefore he should also be happy, because he does not exist apart from the beloved. Then how can he have any attempt against the beloved? This is called Madhur Bhava, this is the best Bhava, all the actions of a person who is emotional in this stop. His sense of belonging is completely destroyed. His body, like a machine, keeps on making little efforts on its own. Only a lucky man can get such a feeling. In lakhs or in crores, there are only one person with this part, then only a very fortunate person can get his darshan. You are the personal of Shri Krishna. Which emotion is rare for you? God has chosen you by calling you his own. The one whom they accept as their own can be initiated in this spirit. If someone considers himself entitled to be initiated in this spirit only after doing yoga-sacrifice and chanting-penance, then it can only be called his unauthorized attempt.
Prakashanand ji said with a very humble spirit – ‘ Lord! Today I am reborn. I consider it my great fortune that God has taken me under his shelter. Now name my reincarnation and order me where to live and what to do?’
The Lord said lovingly – ‘ Prabodhanand ji! You already had understanding, now due to the supreme grace of the Lord, you have got a strong understanding. That’s why from today onwards, in place of Prakashanand ji, your name is Prabodhanand ji, there is only one place to stay, ‘Shri Vrindavan Dham,’ and there is only one work to do ‘Shri Vrindavan Vihari’s Aharnish Naam-Sankirtan. ‘Shri Krishna-Krishna Ratiye and settle in Shri Vrindavan. Therein lies the ultimate welfare! This is the best way for the salvation of mere living beings.’
Following the Lord’s order, Shri Prakashanand ji at the same time went to Shri Vrindavan, leaving the monastery, temple, disciples, property on the dusty head of the Lord and after reaching there started living near the Kaliyadaman Ghat. He spent his last life very sweetly. They used to dance like madmen by raising their hands up. From the heart, he considered himself to be the companion of Shri Krishna. The secret name of his sweet gesture was ‘Gunchuda Sakhi’. He used to perform Arnish Krishna Kirtan while staying in a hut near Kaliyadaman. Apart from being a great scholar, he was also a good Sanskrit poet. His poetry was very beautiful, melodious and full of emotion. He left his five physical bodies in the holy land of Vrindavan. His mausoleum is still built near Kaliyadaman.
‘Sri Chaitanyachandramrita’, ‘Sri Vrindavanarasamrit’, ‘Sri Vrindavanshatak’ and ‘Sri Radharassudhanidhi’ – these four books are found, which have thousands of verses. ‘Sri Chaitanyachandramrit’ is a very sweet poem. Many of his verses are so emotional that while reading them, the mind starts dancing. Each and every post of his shows deep devotion towards Mahaprabhu. His divine feet had a very unique and causeless devotion. He has put his rare poetry to good use only in praising Shri Krishna and Shri Krishna Chaitanya. Due to lack of space, we cannot quote his beautiful poems here. At one place in ‘Chaitanyachandramrit’, showing his deep love for the feet of Sri Chaitanya, he says-
The behavior that has attained fidelity is secular or Vedic Or the shame of laughter, singing, drama and festivals. Ye vabhuvan nahaha sahajapranadehaarthadharma A cow is a thief and someone of great strength has stolen everything from me
‘The thief of a very strong glory has come and destroyed our worldly and Vedic behavior, our loyalty (while doing sankirtan), the shame in laughing loudly, coming and dancing and the natural religion which is the cause of life and body. Everyone was forcibly taken away. That means that Gaurang Chor made us devoid of all these things.’ Oh, blessed is the traveler who is robbed and the thief who robs. We prostrate again and again at the feet of the thief who loots and the great traveler who loots.
respectively next post [145] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]