।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
प्रभु का पुरी में भक्तों से पुनर्मिलन
अद्यास्मांक सफलमभवज्जन्म नेत्रे कृतार्थे
सर्वस्ताप: सपदि वरितो निर्वृतिं प्राप चेत:।
किं वा ब्रूमो बहुलमपरं पश्य जन्मान्तरं नो
वृन्दारण्यात् पुनरूपगतो नीलशैलं यतीन्द्र:।।
‘संन्यासिचूडामणि श्रीचैतन्य वृन्दावन से लौटकर पुन: नीलाचल आ गये हैं- इस सुखद संवाद के श्रवणमात्र से ही गौर भक्तों में अपार आनन्द छा गया। वे परस्पर प्रसन्नता प्रकट करते हुए एक-दूसरे का आलिंगन करने लगे। कोई जल्दी से दौड़कर कानों में अमृत का सिंचन करने वाले इस प्रिय समाचार को दूसरे से कहता, वह तीसरे के पास दौड़ा जाता। इसी प्रकार क्षण भर में यह संवाद सम्पूर्ण जगन्नाथपुरी में फैल गया। महाप्रभु जब वृन्दावन को जा रहे थे, तभी सब भक्तों ने समझ लिया था कि प्रभु के अन्तिम दर्शन हैं। जो वृन्दावन का नाम सुनते ही मूर्च्छित हो जाते हैं, जिनकी दृष्टि में वृन्दावन से बढ़ाकर विश्व ब्रह्माण्ड में कोई उत्तम स्थान ही नहीं हैं, वे वृन्दावन पहुँचकर फिर वहाँ से क्यों लोटने लगे? अब तो प्रभु वृन्दावनवास करते हुए उस बाँकेविहारी के साथ निरन्तर आनन्दविहार में ही निमग्न रहेंगे, किन्तु जब भक्तों ने सुना, प्रभु वृन्दावन से लौट आये हैं, तब तो उनके आनन्द की सीमा नहीं रही और सभी प्रेमोन्मत्त होकर संकीर्तन करते हुए एक स्थान पर एकत्रित होने लगे। सभी मिलकर प्रभु को लेने चले। सार्वभौम भट्टाचार्य और राय रामानन्द जी उन सभी भक्तों के अग्रणी थे। उन्होंने दूर से देखा, काषायाम्बर धारण किये हुए प्रभु श्री हरि के मधुर नामों का उच्चारण करते-करते मत्त गजेन्द्र की भाँति आनन्द में विभोर हुए श्री मन्दिर की ओर चले आ रहे हैं, तब तो सभी ने भूमि में लोटकर प्रभु के पादपद्मों में प्रणाम किया। अपने पैरों के नीचे पड़े सभी भक्तों को प्रभु ने अपने कोमल करों से स्वयं उठाया और सभी को एक-एक करके छाती से लगाया। आज चिरकाल के अनन्तर प्रभु का प्रेमालिंगन प्राप्त करके सभी को परम प्रसन्नता हुई और सभी अपने सौभाग्य की सराहना करने लगे।
भक्तों को साथ लेकर प्रभु श्री जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिये गये। पुजारी ने प्रभु को देखते ही उनके चरणों में प्रणाम किया और उन्हें जगन्नाथ जी की प्रसादी माला पहनायी तथा उनके सम्पूर्ण शरीर पर प्रसादी चन्दन का दर्शन करके भक्त लेप किया। आज चिरकाल में जगन्नाथ जी के दर्शन करके भक्त-चूड़ामणि श्री गौरांग प्रेम में विह्वल होकर जोरों से रुदन करने लगे। भक्तों ने मन्दिर के श्री आँगन में ही संकीर्तन आरम्भ कर दिया। नर्तकों के अग्रणी श्री चैतन्य देव दोनों हाथों को ऊपर उठा-उठाकर नृत्य करने लगे।
महाप्रभु के नृत्य को देखने के लिये लोगो की अपार भीड़ वहाँ आकर एकत्रित हो गयी। सभी प्रभु के उद्दण्ड नृत्य को देखकर अपने आपेको भूल गये और भावावेश में आकर सभी-
हरिहरये नम: कृष्णयादवाय नम:।
गोपाल गोविन्द राम श्री मधुसूदन।।
-कह कहकर नृत्य करने लगे। कुछ काल के अनन्तर प्रभु ने संकीर्तन बंद कर दिया और आप श्री मन्दिर की प्रदक्षिणा करते हुए भक्तों के सहित काशी मिश्र के घर अपने पूर्व के निवास स्थान पर आये। मिश्र जी ने प्रभु के पादपद्मों में प्रणाम किया इतने में ही परमानन्दपुरी प्रभु का आगमन सुनकर भीतर से बाहर निकल आये। प्रभु ने श्रद्धा पूर्वक पुरी के चरणों में प्रणाम किया। पुरी महाराज ने प्रभु का आलिंगन किया और वे हाथ पकड़कर भीतर ले गये। सभी के बैठ जाने पर प्रभु अपनी यात्रा का वृत्तान्त बताने लगे। व्रजमण्डल की बातें करते-करते उनका गला भर आया, नेत्रों से अश्रु धारा बहने लगी। तब सार्वभौम ने प्रभु से अपने यहाँ भिक्षा करने की प्रार्थना की।
प्रभु ने कहा- ‘भट्टाचार्य महाशय! आज चिरकाल में तो मेरी भक्तों से भेंट हुई हैं, तिस पर भी मैं अकेला ही भिक्षा करूँ, यह मुझे अच्छा नहीं प्रतीत होता। आज तो मेरी इच्छा है कि अपने सभी भक्तों के सहित यहीं भगवान का प्रसाद पाऊं।’ इस बात से भट्टाचार्य बड़ी प्रसन्नता हुई। वे काशी मिश्र, वाणीनाथ तथा और भी दो-चार भक्तों को साथ लेकर महाप्रसाद लेने चले। सभी भक्तों के खाने योग्य बहुत बढ़िया-बढ़िया बहुत-सी प्रसादी-वस्तुएं भट्टाचार्य जी ने वहाँ लाकर उपस्थित कर दीं। प्रभु ने भक्तों को साथ लेकर बड़े ही स्नेह के सहित भगवान का प्रसाद पाया। प्रभु के पास प्रसाद पाने से सभी को परम प्रसन्नता प्राप्त हुई, सभी अपने-अपने भाग्य की प्रशंसा करने लगे। प्रसाद पाकर प्रभु विश्राम करने लगे और भक्त अपने-अपने घरों को चले गये।
इधर स्वरूप गोस्वामी ने दामोदर पण्डित के हाथों प्रभु के आगमन का सुखद संवाद नवद्वीप में शची माता, विष्णुप्रिया तथा अन्यान्य सभी भक्तों के समीप पठाया। प्रभु के आगमन का संवाद सुनकर गौर भक्त आनन्द के सहित नृत्य करने लगे। वे जल्दी-जल्दी रथयात्रा के समय की प्रतीक्षा करने लगे। श्री शिवानन्द सेन समाचार सुनते ही यात्रा की तैयारियाँ करने लगे। शान्तिपुराधीश श्री अद्वैताचार्य अपने सभी भक्तों के सहित नीलाचल के लिये तैयार हुए। श्रीखण्ड, कुलियाग्राम, कांचनापाड़ा, कुमारहट्ट, शान्तिपुर तथा नवद्वीप के सैकड़ो भक्त प्रभुदर्शनों की लालसा से चले। सदा की भाँति श्री शिवानन्द सेन जी ने ही सबकी यात्रा का प्रबन्ध किया। सभी भक्त तथा भक्तों की स्त्रियाँ प्रभु के निमित्त भाँति-भाँति के पदार्थ लेकर और विष्णुप्रिया तथा शचीमाता से आज्ञा आज्ञा माँगकर प्रभु के दर्शनों के निमित्त रथयात्रा को उपलक्ष्य बनाकर पैदल ही पुरी की ओर चल दिये।
अब के शिवानन्द जी के साथ उनका कुत्ता भी चला। उन्होंने उसे बहुत रोका, किन्तु वह किसी प्रकार भी न रुका, तब तो सेन महाशय उसे भोजन कराते हुए साथ-ही-साथ ले चले। रास्ते में घाट वालों ने कुत्ते को पार उतारने में कई जगह आपत्ति भी की, किन्तु सेन महाशय प्रचुर द्रव्य देकर उसे जिस किसी भाँति उसे पार करा ही ले गये। एक दिन उन्हें घाट वालों से उतराई का हिसाब करते-करते बहुत देर हो गयी। उनके नौकर कुत्ते को भात देना भूल ही गये। इससे कुत्ता क्रद्ध होकर और इन सबका साथ छोड़कर न जाने किधर चला गया। जब शिवानन्द जी ने कुत्ते की खोज करायी तो उसका कहीं भी पता नहीं चला, इससे उन्हें अपार दु:ख हुआ।
दूसरे दिन सभी भक्त प्रभु के समीप पहुँचे। भक्तों ने देखा कि वही कुत्ता प्रभु के समीप बैठा और प्रभु उसे अपने हाथ से खीर खिला रहे हैं, और हंसते-हंसते उससे कह रहे हैं-
कृष्ण कहो, राम कहो, हरि भजो बावरे।
हरिे के भजन बिनु खाओगे क्या पामरे।।
प्रभु की मधुर वाणी को सुनकर कुत्ता प्रेमपूर्वक पूँछ हिलाता हुआ अपनी भाषा में राम, कृष्ण, हरि आदि भगवान के सुमधुर नामों का कीर्तन कर रहा था। शिवानन्द सेन उस कुत्ते को प्रभु के पास बैठ देखकर परम आश्चर्य करे लगे। वह कुत्ता पहले सभी जगन्नाथपुरी में नहीं आया था और न उसने प्रभु का निवास स्थान देखा था, फिर यह अकेला ही यहाँ कैसे आ गया? सेन महाशय समझ गये कि यह कोई पूर्व जन्म का सिद्ध हैं, किसी कारणवश इसे कुत्ते की योनि प्राप्त हो गयी है। तभी तो प्रभु इसे इतना अधिक प्यार कर रहे हैं, यह सोचकर उन्होंने कुत्ते को साष्टांग प्रणाम किया। कुत्ता पूँछ हिलाता हुआ वहाँ से कही अन्यत्र चला गया। इसके अनन्तर फिर किसी ने उस कुत्ते को नहीं देखा।
महाप्रभु सभी भक्तों से मिले। भक्तों की पत्नियों ने प्रभु को दूरे से ही प्रणाम किया। प्रभु स्त्रियों की ओर न तो कभी देखते थे, न उनका स्पर्श करते थे और न स्त्रियों के सम्बन्ध की बातें ही सुनते थे। स्त्रियों का प्रसंग छिड़ते ही प्रभु अत्यन्त ही संकुचित हो जाते और प्रसंग को जल्दी-से-जल्दी समाप्त कर देते।
नवद्वीप में प्रभु के घर के समीप परमेश्वर नाम का एक भक्त रहता था। वह लड्डू बेचकर अपने परिवार का निर्वाह करता था। बाल्याकाल से ही वह प्रभु के प्रति अत्यन्त ही स्नेह रखता था। जब महाप्रभु बहुत ही छोटे थे, तभी परमेश्वर उन्हें गोद में बिठाकर उनसे ‘हरि’ ‘हरि’ बुलवाया करता था और खाने के लिये रोज लडडू देता था। प्रभु भी उससे बहुत स्नेह करते थे। अब वह बूढ़ा हो गया था, अब के वह भी अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के सहित प्रभु के दर्शनों को आया था। प्रभु के पास भीतर स्त्रियाँ नहीं जाती थीं, वे दूर से ही प्रभु का दर्शन करती थीं। भक्त परमेश्वर को इस बात का क्या पता था। उसने अपने कांपते हुए हाथों से भूमि में लोटकर प्रभु को प्रणाम किया और प्रेम के साथ कहने लगा- ‘प्रभो! अपने परमेश्वर को तो भूल ही गये होंगे। मुझे अब शायद न पहचान सकेंगे।’
प्रभु ने उसका आलिंगन करते हुए अत्यन्त ही स्नेह से कहा- ‘परमेश्वर! भला, तुम्हें मैं कभी भूल सकता हूँ? तुम्हारे लड्डू तो अभी तक मेरे गले में ही अटके हुए हैं, वे नीचे भी नही उतरे! तुम मुझे पुत्र की तरह प्यार करते थे।’
परमेश्वर ने बड़े ही उल्लास के साथ कहा- ‘प्रभो! आपका पुत्र, पुत्रवधू तथा घर से सभी आपके दर्शनों के लिये आये हैं। वे सभी आपके दर्शनों को उत्सुक हैं।’ यह कहकर भक्त ने सभी से प्रभु के पाद-स्पर्श कराये। भक्त वत्सल प्रभु संकोच के कारण कुछ भी न कह सके। वे लज्जित भाव से नीचा सिर किये हुए चुपचाप बैठे रहे। परमेश्वर के चले जाने पर भक्तों ने उसे समझाया कि प्रभु के समीप सपरिवार नहीं जाया जाता। बेचारा सरल भक्त इस बात को क्या समझे। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आया। तब भक्तों ने उसे समझा दिया। इस प्रकार सभी भक्त प्रभु के समीप रहकर पूर्व की भाँति सत्संग सुख का अनुभव करने लगे। भक्तों की पत्नियाँ बारी-बारी से रोज प्रभु का निमन्त्रण करतीं और उन्हें अपने निवास स्थान पर बुलाकर भिक्षा करातीं।
इधर प्रभु के दर्शनों की लालसा से श्री रूपजी अपने भाई अनूप सहित गौड़ देश होते हुए पुरी को आने लगे। रास्ते में अनूप जी को ज्वर आ गया, दैव की गति, ज्वर-ही-ज्वर में वे इस नश्वर शरीर को परित्याग करके परलोकवासी बन गये। श्री रूप ने अत्यन्त ही दु:ख के साथ अपने कनिष्ठ भाई का शरीर गंगा जी के पावन प्रवाह में कर दिया और वे संसार की अनित्यता का विचार करते हुए पुर में आये। श्री वृन्दावन में ही उन्होंने श्रीकृष्ण लीला विषयक एक नाटक लिखना आरम्भ कर दिया था। रास्ते में वे नाटक के विषय को सोचते जाते थे और रात्रि को जहाँ ठहरते थे, वहीं उस सोचे हुए विषय को लिख लेते थे। उनकी इच्छा थी कि एक ही नाटक को दो भागों में विभक्त करेंगे, पूर्व भाग में तो श्रीकृष्ण की वृन्दावन-लीलाओं का सम्मिलित रूप से ही लिख रहे थे। रास्ते में चलते-चलते जब वे उड़िया देश में ‘सत्यभामापुर’ नामक ग्राम में आये, तो वहाँ स्वप्न में श्री सत्यभामा जी ने प्रत्यक्ष होकर इन्हें आदेश दिया कि ‘तुम हमारी लीलाओं का पृथक ही वर्णन करो।
व्रज की लीलाओं के साथ हमारा वर्णन मत करो।’ श्री सत्यभामा जी का आदेश पाकर आपने उसी समय द्वारा की लीलाओं का पृथक वर्णन करने का निश्चय किया और उसका वर्णन उन्होंने ‘ललितमाधव’ नामक नाटक में किया। उसी समय ‘विदग्धमाधव’ और ललितमाधव’ इन दोनों नामों की उत्पत्ति हुई।
नीलाचल में पहुँचकर ये प्रभु के समीप नहीं गये। ये दोनों ही भाई नम्रता की तो सजीव मूर्ति ही थे, यवनों के संसर्ग में रहने के कारण ये अपने को अत्यन्त ही नीच समझते थे और यहाँ तक कि मन्दिर में घुसकर दर्शन भी नहीं करते थे, दूर से ही जगन्नाथ जी की ध्वजा को प्रणाम कर लेते थे। इसलिये रूप जी महात्मा हरिदास जी के स्थान पर जाकर ठहरे। हरिदास जी तो जाति के यवन थे, किन्तु गौर भक्त उनका चतुर्वेदी ब्राह्मणों से भी अधिक सम्मान करते थे, वे भी जगन्नाथ जी के मन्दिर में प्रवेश नहीं करते थे। यहाँ तक कि जिस रास्ते से मन्दिर के पुजारी और सेवक जाते थे, उस रास्ते से भी कभी नही निकलते थे। प्रभु नित्य प्रति समुद्रस्नान करके हरिदास जी के स्थान पर आते थे। दूसरे दिन जब प्रभु नित्य की भाँति हरिदास जी के आश्रम पर आये, तब श्री रूप जी ने भूमि पर लोटकर प्रभु के पादपद्मों में साष्टांग प्रणाम किया। प्रभु की दृष्टि ऊपर की ओर थी। हरिदास जी ने धीरे से कहा- ‘प्रभो! रूप जी प्रणाम कर रहे है।’
रूप का नाम सुनते ही चौंककर प्रभु ने कहा- ‘हैं! क्या कहा? रूप आये हैं क्या?’ यह कहते-कहते प्रभु ने उनका आलिंगन किया और उन्हें वहीं रहने की आज्ञा दी। इसके अनन्तर प्रभु ने सभी गौड़ीय तथा पुरी के भक्तों के साथ श्रीरूप का परिचय करा दिया। श्री रामानन्दराय और सार्वभौम महाशय दोनों ही कवि थे। रूप जी का परिचय पाकर ये दोनों ही परम सन्तुष्ट हुए और प्रभु से इनकी कविता सुनने के लिये प्रार्थना करने लगे।
एक दिन प्रभु राय रामानन्द जी, सार्वभौम भट्टाचार्य, स्वरूप दामोदर तथा अन्यान्य भक्तों को साथ लेकर हरिदास जी के निवास स्थान पर श्री रूप जी के नाटकों को सुनने के लिये आये। सबके बैठ जाने पर प्रभु ने रूप जी से कहा- ‘रूप! तुम अपने नाटकों को इन लोगों को सुनाओ। ये सभी काव्यमर्मज्ञ, रसज्ञ और कवि हैं।’
इतना सुनते ही रूप जी लज्जा के कारण पृथ्वी की ओर ताकने लगे। उनके मुख से एक भी शब्द नहीं निकला; तब प्रभु ने बड़े ही स्नेह के साथ कहा- ‘वाह जी, यह अच्छी रही! हम यहाँ तुम्हारी कविता सुनने आये हैं, तुम शरमाते हो!! शरम की कौन-सी बात है? कविता का तो फल ही यह है कि वह रसिको के सामने सुनायी जाय। हाँ, सुनाओं, संकोच मत करो। देखे, ये राय बड़े भारी रसमर्मज्ञ हैं। इन्हें तो हम पकड़ लाये हैं।
राय ने कहा- ‘हाँ जी, सुनाइये। इस प्रकार शरमा ने से का न चलेगा। पहले तो अपने नाटक का नाम बातइये, फिर विषय बातइये, तब उसके कहीं-कहीं के स्थलों को पढ़कर सुनाइये।’ इस पर भी रूप ही रहे। तब प्रभु स्वयं कहने लगे- ‘इन्होंने ‘ललितमाधव’ और विदग्धमाधव’ -ये दो नाटक लिखे हैं। ‘विदग्धमाधव’ में तो भगवान की व्रज की लीलाओं का वर्णन है और ‘ललितमाधव’ में द्वारकापुरी की लीलाओं का। इनसे ही सुनिये। इन्होंने रथ के सम्मुख नृत्य करते समय जो मेरे भावों को समझकर श्लोक बनाया था, उसे तो मैंने आप लोगों को सुना ही दिया, अब इनके नाटक में से कुछ सुनिये।’
राय ने कुछ प्रेम पूर्वक भर्त्सना के स्वर में कहा- ‘क्यों जी, सुनाते क्यों नहीं? देखे प्रभु भी कह रहे हैं। प्रभु की आज्ञा नहीं मानते? हाँ, पहले विदग्धमाधव का मंगलाचरण सुनाइये।’ नान्दी के मुख से भगवान की धीरे ‘विदग्धमाधव’ का मंगलाचरण पढ़ने लगे-
सुधानां चान्द्रीनामपि मधुरिमोन्माददमनी
दधाना राधादिप्रणयघनसारै: सुरभिताम् ।
समन्तात् सन्तापोदगमविषमसंसारसरणी-
प्रणीतां ते तृष्णां हरतु हरिलीलाशिखरिणी।।[1]
श्लोको सुनते ही सभी एक स्वर में ‘वाह! वाह! करने लगे। श्री रूपजी का लज्जा के कारण मुख लाल पड़ गया, वे नीचें की ओर देख रहे थे। इस पर राय ने कहा- ‘रूप जी! आप तो बहुत ही अधिक संकोच करते हैं। इसीलिये, लीजिये मैं आपके काव्य की प्रशंसा ही नहीं करता। अच्छा, तो यह तो भगवान की वन्दना हुई। अब भगवत-स्वरूप जो गुरुदेव हैं, जो कि प्राणियों के एकमात्र भजनीय और इष्ट हैं, भगवत-वन्दा के अनन्तर उनकी वन्दा में जो कुछ कहा हो, उसे और सुनाइये।’
यह सुनकर श्री रूप जी और भी अकिध सिकुड़ गये। महाप्रभु के सम्मुख उन्हीं के सम्बन्ध का श्लोक पढ़ने में उन्हें बड़ी घबड़ाहट-सी होने लगी। किन्तु, फिर भी राय महाशय के आग्रह से रुक-रूककर ये लजाते हुए पढ़ने लगे-
अनर्पितचरीं चिरात करुणयावतीर्ण: कलौ
समर्पयितुमुन्नतोज्जवलरसां स्वभक्तिश्रियम्।
हरि: पुरटसुन्दरद्युतिकदम्बसंदीपित:
सदा हृदयकन्दरें स्फुरतु व: शीचनन्दन:।।
इसे सुनते ही प्रभु कहने लगे- ‘भगवान जाने इन कवियों को राजा लोग दण्ड क्यों नहीं देते। किसी की प्रशंसा करने लगते हैं, तो आकाश-पाताल एक कर देते हैं। इनसे बढ़कर झूठा और कौन होगा? इस श्लोक में तो अतिशयोक्ति की हद कर डाली है।’
राय ने कहा- ‘प्रभो! इसे तो हम ही समझ सकते हैं, यथार्थ वर्णन तो इसी श्लोंक में किया गया है। ऐसे स्वाभाविक गुणपूर्ण श्लोक की रचना सभी कवि नहीं कर सकते।’ इतना कहर राय ने ‘विदग्धमाधव’- के अन्य भी बहुत-से स्थलों को सुना और सुनकर उनके काव्य की हृदय से भूरि-भूरि प्रशंसा की। ‘विदग्धमाधव’ को सुन लेने पर राय रामानन्द जी कहने लगे- ‘अपने दूसरे नाटक ‘ललितमाधव’ की माधुरी की बानगी भी इन सभी उपस्थित भक्तों को चखा दीजिये। हाँ, उसका भी पहले मंगलाचरण का श्लोक सुनाइये। यह सुनकर श्री रूपजी फिर उसी लहज के साथ श्लोक पढ़ने लगे-
सुररिपुसुदृशमुरोजकोकान्
मुखकमलानि च खेदयन्नखण्ड:।
चिरमखिलसुहृच्चकोनन्दी
दिशतु मुकुन्दयश:शशी मुदं व:।।[1]
धन्य है, धन्य है और साधु-साधु की ध्वनि समाप्त होने पर राय महाशय ने कहा- ‘श्री भगवान की स्तुति के अनन्तर इष्टस्वरूप श्री गुरुदेव की स्तुति में जो श्लोक हो उसे भी सुनाइये। उसके श्रवण से यहाँ सभी उपस्थित भक्तों को अत्यन्त ही आह्लाद होगा। हाँ सुनाइये। प्रभु की ओर न देखते हुए धीरे-धीरे श्री रूप जी पढ़ने लगे-
निजप्रणयितां सुधामुदयमाप्नुवन् य: क्षितौ
किरत्यलमुरीकृतद्विजकुलाधिराजस्थिति: ।
स लुंचिततमस्ततिर्मम शचीसुतासख्य: शशी
वशीकृतजगन्मना: किमपि शर्म विन्यस्यतु।।[2]
इस श्लोक को सुनते ही प्रभु कुछ बनावटी क्रोध के स्वर में कहने लगे- ‘रूप ने और सम्पूर्ण काव्य तो बहुत ही सुन्दर बनाया। इनका एक-एक श्लोक अमूल्य रत्न के समान है, किन्तु जाने क्या समझकर इन्होंने ये दो-एक अतिशयोक्ति पूर्ण श्लोक मणियों में काँच के टुकड़ो के समान मिला दिये हैं?
इस पर भक्तों ने एक स्वर से कहा-‘ हमें तो यही श्लोक सर्वश्रेष्ठ प्रतीत हुआ है।’ बात को यहीं समाप्त करने के लिये राय महाशय ने कहा-‘ अच्छा, छोड़िये इस प्रसंग को। आगे काव्य की मधुरिमा का पान कीजिये। हाँ, रूप जी! इस नाटक के भी भाव पूर्ण अच्छे-अच्छे स्थल पढ़कर सुनाइये।’
इतना सुनते ही श्री रूपजी नाटक के अन्यान्य स्थलों को बड़े स्वर के साथ सुनाने लगे। सभी रसमर्मज्ञ भक्त उनके भक्तिभाव पूर्ण काव्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। अन्त में प्रभु रूपजी का प्रेम से आलिंगन करके भक्तों को साथ लेकर अपने स्थान पर चले गये।
इस प्रकार भक्तों के साथ रथ यात्रा और चातुर्मास के सभी त्यौहारों तथा पर्वो को पहले की भाँति धूमधाम से मनाकर, क्वार के दशहरे के बाद भक्तों को गौड़ के लिये विदा किया। नित्यानन्द जी से प्रभु ने प्रतिवर्ष पुरी न आने का पुन: आग्रह किया; किन्तु उन्होंने प्रभु-प्रेम के कारण इसे स्वीकार नहीं किया। सभी भक्त गौड़ देश को लौट गये। श्री रूप कुछ दिनों प्रभु के पास और रहे। अन्त में कुछ समय के पश्चात प्रभु ने उन्हें वृन्दावन में ही जाकर निवास करने की आज्ञा दी। प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके वे गौड़ देख होते हुए वृन्दावन जाने के लिये उद्यत हुए। यही इनकी प्रभु से अन्तिम भेंट थी। यहाँ से जाकर ये अन्तिम समय तक श्री वृन्दावन की पवित्र भूमि में ही श्री कृष्ण-कीर्तन करते हुए निवास करते रहे। व्रज की परम पावन भूमि को छोड़कर ये एक रात्रि के लिए भी व्रज से बाहर नहीं गये। प्रभु ने जाते समय इनका प्रेम पूर्वक आलिंगन किया और भक्ति विषयक ग्रन्थों के प्रणयन की आज्ञा प्रदान की। इन्होंने प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके श्री कृष्ण के गुणगान में ही अपना सम्पूर्ण समय बिताया। गौड़ में इनकी कुछ धन-सम्पत्ति थी, उसका परिवार वालों में यथारीति विभाग करने के निमित्त इन्हें गौड़ भी जाना था, इसलिये ये प्रभु से विदा होकर गौड़ देश को गये और वहाँ इन्हें लगभग एक वर्ष धन-सत्पत्ति की व्यवस्था करने के निमित्त ठहरना पड़ा।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Prabhu reunites with devotees in Puri
Today our birth was successful for the sake of our eyes All his sufferings were instantly relieved and his mind attained relief What shall we say, look at the many others, after our births? From Vrindavan the ascetic Indra reappeared on the blue mountain
‘Sanyasichudamani Sri Chaitanya has returned from Vrindavan and has come again to Neelachal – just by hearing this pleasant conversation, there was immense joy in the devotees of Gaur. Expressing mutual happiness, they started hugging each other. Someone ran quickly to tell this dear news that irrigates nectar in the ears to another, he would have run to the third. In the same way, in a moment, this dialogue spread throughout Jagannathpuri. When Mahaprabhu was going to Vrindavan, then all the devotees understood that it was the last darshan of the Lord. Those who faint on hearing the name of Vrindavan, in whose view there is no better place in the universe than Vrindavan, why did they reach Vrindavan and then return from there? Now Prabhu will remain engrossed in Anand Vihar with that Banke Vihari while staying in Vrindavan, but when the devotees heard that Prabhu has returned from Vrindavan, then there was no limit to their joy and all gathered at one place doing sankirtan in ecstasy. Engaged. Everyone together went to take the Lord. Sarvabhaum Bhattacharya and Rai Ramanand ji were the pioneers of all those devotees. He saw from afar, chanting the melodious names of Sri Hari, Lord Sri Hari wearing Kashyambar is coming towards the Sri temple, full of joy like Gajendra, then everyone returned to the ground and bowed down at the lotus feet of the Lord. . The Lord himself lifted all the devotees lying under his feet with his soft arms and hugged them one by one. Today everyone felt extremely happy after receiving the everlasting love of the Lord and everyone started appreciating their good fortune.
Taking the devotees along, he went for the darshan of Lord Shri Jagannath. The priest bowed down at his feet as soon as he saw the Lord and garlanded him with Prasadi garland of Jagannathji and smeared his whole body with Prasadi sandalwood. Today, after seeing Jagannath ji in the past, the devotee-Chudamani Shri Gaurang started crying loudly in love. The devotees started the sankirtan in the courtyard of the temple itself. Sri Chaitanya Dev, the leader of the dancers, started dancing by raising both his hands.
A huge crowd of people gathered there to see the dance of Mahaprabhu. Everyone forgot themselves after seeing the fierce dance of the Lord and everyone got emotional.
O Hariharaya, O Krishna Yadava, I offer my obeisances to you. Gopal Govind Rama Sri Madhusoodana.
Saying this, they started dancing. After some time, the Lord stopped the Sankirtan and you came to your former abode at Kashi Mishra’s house along with the devotees while going around the temple. Mishra ji bowed down at the lotus feet of the Lord, and in the meantime hearing the arrival of the Supreme Lord, Parmanandapuri came out from within. The Lord bowed down at the feet of Puri with devotion. Puri Maharaj embraced the Lord and took him inside holding his hand. After everyone sat down, the Lord started telling the story of his journey. While talking about Vrajmandal, his throat got choked, tears started flowing from his eyes. Then the sovereign prayed to the Lord to do alms at his place.
The Lord said – ‘ Mr. Bhattacharya! Today I have met many devotees in the past, yet I do not like begging alone. Today I wish to get God’s prasad here along with all my devotees.’ Bhattacharya was very happy with this. They took Kashi Mishra, Vaninath and two or four other devotees along with them to take Mahaprasad. Bhattacharya ji brought and presented many wonderful Prasadi-items for all the devotees to eat there. The Lord took the devotees along with him and received the Prasad of the Lord with great affection. On receiving Prasad from the Lord, everyone felt supremely happy, everyone started praising their fortune. After getting the Prasad, the Lord started resting and the devotees went to their respective homes.
Here Svarupa Goswami sent the pleasant news of the arrival of the Lord to Sachi Mata, Vishnupriya and all other devotees in Navadvipa through the hands of Damodar Pandita. Hearing the dialogue of the Lord’s arrival, the Gaur devotees started dancing with joy. They hurriedly started waiting for the time of Rath Yatra. Shri Sivananda Sen started making preparations for the journey as soon as he heard the news. Shantipuradhish Shri Advaitacharya along with all his devotees got ready for Neelachal. Hundreds of devotees from Shrikhand, Kuliagram, Kanchanapada, Kumarhatt, Shantipur and Navadweep walked with the longing of Lord Darshan. As always, Mr. Sivanand Sen ji made arrangements for everyone’s journey. All the devotees and the women of the devotees took various things for the sake of the Lord and after seeking permission from Vishnu Priya and Sachimata, made the Rath Yatra an occasion for the darshan of the Lord and went towards Puri on foot.
Now his dog also went with Sivanand ji. They stopped him a lot, but he did not stop in any way, then Sen Mahasaya took him along while feeding him. On the way the wharf people objected at several places to help the dog cross, but Sen Mahashay managed to get it across by giving him a lot of money. One day it was too late for him to calculate the unloading from the ghat people. His servants forgot to give rice to the dog. Due to this, the dog got angry and left everyone’s company and did not know where he went. When Sivanand ji got the dog searched, it could not be found anywhere, it made him very sad.
On the second day all the devotees reached near the Lord. The devotees saw that the same dog was sitting near the Lord and the Lord was feeding him kheer from his own hand, and laughingly saying to him- Say Krishna, say Ram, Hari Bhajo Bawre. Will you eat without singing the hymns of the hare?
After listening to the sweet voice of the Lord, the dog was chanting the melodious names of Lord Rama, Krishna, Hari etc. in its own language, wagging its tail lovingly. Sivanand Sen was very surprised to see that dog sitting near the Lord. That dog had not come to Jagannathpuri before and had not seen the Lord’s abode, then how did it come here alone? Sen Mahasaya understood that he is a Siddha of some previous birth, for some reason he has got the vagina of a dog. That’s why the Lord is loving it so much, thinking that he prostrated to the dog. The dog went somewhere else wagging its tail. After this no one saw that dog again.
Mahaprabhu met all the devotees. The wives of the devotees bowed down to the Lord from a distance. The Lord never looked at women, nor touched them, nor did he listen to the things related to women. As soon as the women’s affair broke out, the Lord would have become very narrow and would have ended the affair as soon as possible.
A devotee named Parameshwara lived near the house of the Lord in Navadvipa. He used to support his family by selling laddoos. From childhood, he had great affection for the Lord. When Mahaprabhu was very young, then God used to make him sit on his lap and used to call him ‘Hari’ ‘Hari’ and used to give laddoos to eat everyday. The Lord also loved him very much. Now he had become old, now he also came to see the Lord along with his wife, son and daughter-in-law. Women did not go inside to the Lord, they used to see the Lord from a distance. How did the devotee God know about this? Returning to the ground with his trembling hands, he bowed down to the Lord and said with love – ‘Lord! You must have forgotten your God. You might not be able to recognize me now.’
The Lord hugged him and said with great affection – ‘ God! Can I ever forget you? Your laddus are still stuck in my throat, they haven’t even come down! You loved me like a son.
God said with great joy – ‘ Lord! Your son, daughter-in-law and everyone from home have come to see you. They are all eager to see you.’ By saying this, the devotee made everyone touch the feet of the Lord. Devotee Vatsal Prabhu could not say anything due to hesitation. He sat silently with his head down in shame. After the departure of the Lord, the devotees explained to him that the family does not go near the Lord. What should the poor simple devotee understand about this? He didn’t understand anything. Then the devotees made him understand. In this way all the devotees stayed close to the Lord and started experiencing the happiness of satsang like before. The wives of the devotees used to invite the Lord every day in turn and call him to their residence and make him do alms.
Here, due to the longing to see the Lord, Shri Roopji along with his brother Anoop started coming to Puri via Gaur country. On the way, Anoop ji got fever, the speed of God, in fever, he left this mortal body and became a resident of the other world. Shri Roop with great sorrow put the body of his junior brother in the holy flow of Ganga ji and he came to Pur considering the impermanence of the world. In Sri Vrindavan itself, he started writing a play on Sri Krishna Leela. On the way, he used to think about the subject of the play and where he stayed for the night, he used to write that thought subject. His wish was to divide the same play into two parts, in the first part he was writing the Vrindavan pastimes of Shri Krishna collectively. While walking on the way, when he came to a village named ‘Satybhamapur’ in Odia country, Shri Satyabhama ji directly ordered him in a dream to ‘describe our pastimes separately’.
Don’t describe us with the pastimes of Vraj.’ After getting the order of Shri Satyabhama ji, you decided to describe separately the pastimes performed by him at the same time and he described them in the play ‘Lalitmadhav’. At the same time both the names ‘Vidagdhamadhav’ and ‘Lalitmadhav’ originated.
After reaching Neelachal, he did not go near the Lord. Both these brothers were living idols of humility, because of being in contact with youths, they used to consider themselves to be very mean and did not even enter the temple and have darshan, saluting the flag of Jagannath ji from a distance. Used to take That’s why Roop ji went and stayed at the place of Mahatma Haridas ji. Haridas ji was Yavan by caste, but Gaur devotees respected him more than Chaturvedi Brahmins, they also did not enter the temple of Jagannath ji. Even the way through which the priests and servants of the temple used to go, they never came out of that way. Prabhu used to come to Haridas ji’s place every day after taking bath in the sea. On the second day, when Prabhu came to Haridas ji’s ashram as usual, Shri Roop ji returned to the ground and prostrated at the lotus feet of Prabhu. The Lord’s vision was upwards. Haridas ji said slowly – ‘ Lord! Roop ji is saluting.
Shocked on hearing the name of Roop, the Lord said – ‘ Yes! What did you say? Have you come in form?’ Saying this, the Lord embraced him and ordered him to stay there. After this, the Lord introduced Srirupa to all the devotees of Gaudiya and Puri. Both Sri Ramanandrai and Sarvabhaum Mahasaya were poets. After getting the introduction of Roop ji, both of them were extremely satisfied and started praying to the Lord to listen to his poetry.
One day Prabhu Rai Ramanand ji, along with Sarvabhaum Bhattacharya, Swaroop Damodar and other devotees came to Haridas ji’s residence to listen to Shri Roop ji’s plays. When everyone sat down, the Lord said to Roop ji – ‘ Roop! You narrate your plays to these people. All of them are poets, alchemists and poets.
As soon as he heard this, Roop ji started staring at the earth due to shame. Not a single word came out of his mouth; Then the Lord said with great affection – ‘Wow, it was good! We have come here to listen to your poetry, you are shy!! What is the matter of shame? The fruit of the poem is that it should be recited in front of the lovers. Yes, listen, don’t hesitate. Look, this opinion is very interesting. We have caught them.
Rai said- ‘Yes, tell me. Shyness like this will not work. First tell the name of your play, then tell the subject, then read out some places of it.’ Even on this the form should remain the same. Then Prabhu himself started saying – ‘He has written ‘Lalitmadhav’ and ‘Vidagdhamadhav’ – these two plays. In ‘Vidagdhamadhav’ there is a description of Lord’s pastimes in Vraj and in ‘Lalitmadhav’ the pastimes of Dwarkapuri. Listen to him only. While dancing in front of the chariot, I have already told you the shlokas that he had made by understanding my feelings, now listen to some of his plays.’
Rai said in a voice of some loving condemnation – ‘Why don’t you tell? See the Lord is also saying. Do not obey the command of the Lord? Yes, first narrate the invocation of Viddhamadhav.’ From the mouth of Nandi, slowly started reciting the invocation of God ‘Vidgadhamadhav’-
It is sweeter than the sweetness of the moon and suppresses intoxication She carried the fragrance of the dense essences of love for Radha and others. There is a series of uneven worlds of suffering all around- May the peak of Hari’s pastimes quench your thirst brought about.
As soon as they heard the verses, everyone in one voice said ‘Wah! Wow! started doing. Shri Roopji’s face turned red due to shame, he was looking down. On this Rai said- ‘Roop ji! You hesitate too much. That’s why, take it, I do not praise your poetry. Ok, so this is worship of God. Now narrate more what you have said in the worship of God, who is the Gurudev in the form of Bhagwat, who is the only worshiper and favorite of the living beings.
Hearing this, Mr. Roop ji shrank even more. He started getting very nervous while reading the verses related to him in front of Mahaprabhu. But still, on the insistence of Mr. Rai, he started reciting shyly –
He descended in the Age of Kali with compassion for the unsacrificed wanderer for a long time To offer the elevated bright taste of the beauty of His devotion. Hari: Puratasundardyutikadambasandipita: May the delight of the seas always shine in the cave of your heart.
On hearing this, the Lord said – ‘God knows why the kings don’t punish these poets. When you start praising someone, then heaven and hell unite. Who else would be more liar than him? In this verse, the limit of exaggeration has been crossed.
Rai said – ‘Lord! Only we can understand this, the exact description has been given in this verse. Not all poets can compose such naturally virtuous verses. So much havoc, Rai listened to many other places of ‘Vidagdhamadhav’ and praised his poetry from the bottom of his heart. On listening to ‘Vidagdhamadhav’, Rai Ramanand ji said – ‘Make all these present devotees taste the melody of your second play ‘Lalitmadhav’. Yes, recite the shloka of his invocation first. Hearing this, Shri Roopji again started reciting the verses with the same tone-
Murojakokan, like the enemy of the gods The nails were grieving the lotuses of his face Chiramkhilasuhrichchakonandi May the moon bestow upon you fame and happiness.[1]
Blessed, blessed and on the end of the sound of sage-sage, Rai Mahashay said- ‘Apart from the praise of Shri Bhagwan, also recite the verses which are in praise of Shri Gurudev. Hearing him, all the devotees present here will be very happy. Yes tell me Without looking at the Lord, Shri Roop ji started reciting slowly-
He who attained the rise of the nectar of his beloved on earth He was the chief of the brāhmaṇas’ families, and he was known as Kiratyala. That Moon is the most robbed of my daughter Sachi’s friend Let the mind of the subdued world lay down some shame.
As soon as he heard this verse, the Lord started saying in the voice of some artificial anger – ‘ Roop made the whole poem very beautiful. Each and every verse of his is like a priceless gem, but knowing what, he has mixed these two verses full of exaggeration like pieces of glass in gems?
On this, the devotees said in one voice – ‘We have found this verse to be the best.’ To end the matter here, Rai Mahashay said – ‘Okay, leave this incident. Next, drink the sweetness of poetry. Yes Roop ji! Recite good places full of emotion of this play.’
On hearing this, Shri Roopji started narrating other places of the play with a loud voice. All the passionate devotees started praising his poetry full of devotion. At last, embracing Roopji with love, the Lord took the devotees along with him and went to his place.
In this way, after celebrating the Rath Yatra with the devotees and all the festivals and festivals of Chaturmas as before, sent the devotees to Gaur after Dussehra of Kwar. Lord again requested Nityanand ji not to come to Puri every year; But he did not accept it because of his love for God. All the devotees returned to Gaur country. Shri Roop stayed with the Lord for a few more days. Finally, after some time, the Lord ordered him to go and reside in Vrindavan. Obeying the Lord’s orders, they set out to go to Vrindavan while seeing Gaur. This was his last meeting with the Lord. After leaving here, he continued to live in the holy land of Shri Vrindavan, doing Shri Krishna-Kirtan till the last time. Leaving the most holy land of Vraj, he did not go out of Vraj even for a night. The Lord embraced him lovingly while leaving and ordered the worship of devotional texts. He obeyed the command of the Lord and spent all his time in praise of Shri Krishna. He had some wealth in Gaur, he had to go to Gaur to distribute it among his family members as usual, so he left God and went to Gaur country and had to stay there for about a year to arrange his wealth. .
respectively next post [147] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]