[16]”श्रीचैतन्य–चरितावली

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। श्रीहरि:।।*                

[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम

*अद्वैताचार्य और उनकी पाठशाला*

गंगा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुस्तथा।

पापं तापं च दैन्यं च घ्नन्ति सन्तो महाशयाः।।

जो आचार्य अद्वैत गौर-धर्म के प्रधान स्तम्भ हैं, गौर-लीलाओं के जो प्रथम प्रवर्तक, प्रबन्धक और संयोजक समझे जाते हैं, जिन्होंने वयोवृद्ध, विद्यावृद्ध और बुद्धिवृद्ध होने पर भी बालक गौरांग की पद-रज को अपने मस्तक का सर्वोत्तम लेपन बनाया, जिन्होंने गौरांग से पहले अवतीर्ण होकर गौर-लीला के अनुकूल वायुमण्डल बनाया, उत्तम-से-उत्तम रंगमंच तैयार किया, उस पर गौरांग को प्रधान अभिनय-कर्ता बनाकर भक्तों के साथ भाँति-भाँति की लीलाएँ करायीं और गौरांग के तिरोभाव के अनन्तर अपनी सम्पूर्ण लीलाओं का संवरण करके आप भी तिरोहित हो गये। उन अद्वैताचार्य के पूर्वज श्रीहट्ट (सिलहट) जिले में लाउड़ परगने के अन्तर्गत नवग्राम नाम के एक छोटे-से ग्राम में रहते थे। हम पहले ही बता चुके हैं कि उस समय भारत में बहुत-से छोटे-छोटे राज्य थे, जिनमें प्रायः स्वतन्त्र ही नरपति शासन करते थे। लाउड़ भी एक छोटी-सी रियासत थी। उन दिनों उस रियासत के शासनकर्ता महाराज दिव्य सिंह जी थे। महाराज परम धार्मिक तथा गुणग्राही थे। उनकी सभा में पण्डितों का बहुत सम्मान होता था। आचार्य के पूज्य पिता पण्डित कुबेर तर्कपंचानन महाराज की सभा के राज-पण्डित थे।

तर्कपंचानन महाशय न्याय के अद्वितीय विद्वान थे। उनकी विद्वत्ता की चारों ओर ख्याति थी। विद्वान होने के साथ-ही-साथ वे धनवान भी थे, किन्तु एक ही दुःख था कि उनके कोई सन्तान नहीं थी। इसी कारण वे तथा उनकी धर्मपत्नी लाभादेवी सदा चिन्तित बनी रहती थीं। लाभादेवी के गर्भ से बहुत से बच्चे हुए और वे असमय में ही इस असार संसार को त्यागकर परलोकगामी हुए। इसी कारण तर्कपंचानन महाशय अपने पुराने गाँव को छोड़कर नवद्वीप के इस पार शान्तिपुर में आकर रहने लगे। यहीं पर लाभादेवी के गर्भ रहा और यथा समय पर पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र का नाम रखा गया कमलाक्ष। ये ही कमलाक्ष आगे चलकर महाप्रभु अद्वैस के नाम से प्रसिद्ध हुए।

बालक कमलाक्ष आरम्भ से ही विनयी, चतुर, मेधावी तथा भगवत-परायण थे। उन दिनों बंगाल में शाक्त-धर्म और वाम-मार्ग का बोलबाला थ। धर्म के नाम पर लाखों मूक प्राणियों का वध किया जाता था और उसे बड़े-बड़े भट्टाचार्य और विद्यावागीशपरम धर्म मानते और बताते थे। कमलाक्ष इन कृत्यों को देखते और मन-ही-मन दुःखी होते कि भगवान  कब इन लोगों को सुबुद्धि देंगे, कब इन लोगों का अज्ञान दूर होगा, जिससे कि धर्म के नाम से ये प्राणियों की हिंसा करना बंद कर दें। निर्भीक ये बालकपन से ही थे, जिस बात को सत्य समझ लेते उसे किसी के भी सामने कहने में नहीं चूकते फिर चाहे वह कितना ही बड़ा आदमी क्यों न हो।

एक बार की बात है कि राज्य की ओर से काली देवी की विशेष पूजा के उपलक्ष्य में एक बड़ा भारी उत्सव मनाया गया। इस समारोह में बालक कमलाक्ष भी गये। उन्होंने देखा काली माई की भेंट के लिये सैकड़ों बकरे तथा भैंसों का बलिदान किया गया है। दूर-दूर से काली माई के कीर्तन के लिये सुप्रसिद्ध कीर्तनकार बुलाये गये हैं। कमलाक्ष भी काली-मण्डप में बिना कालीमाई को प्रणाम किये जा बैठे। उनके इस व्यवहार से महाराज दिव्यसिंह को बड़ा आश्चर्य हुआ। अपनी राजसभा के एक सुप्रतिष्ठित पण्डित के पुत्र के इस अधार्मिक व्यवहार से वे क्षुब्ध-से हो गये और कहने लगे- ‘कमलाक्ष! तुम देवी को बिना ही प्रणाम किये कैसे बैठ गये?’ इस पर बालक कमलाक्ष ने कुछ रोष के साथ कड़ककर कहा- ‘देवी तो जगज्जननी है। सभी प्राणी उसकी सन्तान हैं। जो माता  अपने पुत्रों को खाती है, वह माता नहीं राक्षसी है। पुत्र चाहे कैसा भी कुपुत्र हो किन्तु माता कुमाता कभी नहीं होती ‘कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।’ एक सच्चिदानन्दभगवान ही पूजनीय और वन्दनीय हैं। उनके प्रणाम करने से ही सबको प्रणाम हो जाता हे। आप लोग देवी-देवताओं के नाम से अपनी वासनाओं को पूर्ण करते हैं।’

बालक के मुख से ऐसी बात सुनकर राजा दिव्य सिंह अवाक् रहे गये। कमलाक्ष के पिता कुबेर तर्कपंचानन भी वहाँ बैठे थे, उन्होंने महाराज का पक्ष लेकर कहा- ’देवी-देवता सभी उस नारायण के ही रूप हैं।

इसलिये देवी की प्रतिमा के सम्मुख प्रणाम न करना महापाप है। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये।’ पिता की बात सुनकर कमलाक्ष निर्भीक होकर कहने लगे- ‘एक जनार्दन भगवान ही की पूजा  से सबकी पूजा हो सकती है, जहाँ प्राणियों की हिंसा होती हो, वह न तो देवस्थान है और न वह देवपूजा ही है।’ छोटे बालक के मुख से ऐसी बातें सुनकर सभी दर्शक आश्चर्य चकित हो गये। महाराज ने इनकी बुद्धि की बड़ी प्रशंसा की। इस प्रकार अल्पावस्था में ही इन्होंने अपनी निर्भीकता, दयालुता और वैष्णव-परायणता का परिचय दिया। धीरे-धीरे इनकी अवस्था 12-13 वर्ष की हुई। पिता के समीप पढ़ने से इनकी तृप्ति नहीं हुई। उन दिनों इनके पिता लाउड़ में ही रहते थे, ये विद्याध्ययन के निमित्त शान्तिपुर चले गये, समाचार मिलने पर इनके माता-पिता भी इनके समीप शान्तिपुर ही आ गये। यहाँ पर रहकर इन्होंने वेद-वेदांग तथा नव्य-न्याय की विशेष शिक्षा प्राप्त की। थोड़े ही दिनों में ये एक नामी पण्डित गिने जाने लगे। कालान्तर में इनके माता-पिता परलोकवासी हुए। मरते समय इनके पिता आदेश दे गये थे कि- ’हमारा गया जी में जाकर श्राद्ध अवश्य करना।’

पिता की अन्तिम आज्ञा को पालन करने के निमित्त और उनकी परलोकगत आत्मा की शान्ति के निमित्त इन्होंने श्रीगया धाम की यात्रा की और वहाँ पर श्रीगदाधर भगवान के चरण चिह्नों का दर्शन करके शास्त्रोक्त विधि के अनुसार पितृ श्राद्ध आदि सभी कृत्य बड़ी श्रद्धा के साथ कराये। अद्वैताचार्य अब युवा हो गये थे, भक्ति का अंकुर उनके हृदय में जन्म से ही था। विद्या ने उनके भक्तिभाव तथा प्रेम को और भी अधिक विकसित कर दिया। वे सदा जीवों के कल्याण की ही बात सोचा करते थे। संसार से उन्हें कुछ उपरामता-सी हो गयी। चित्त में वैराग्य तो पहले ही से था। अब माता-पिता के परलोक-गमन से ये निश्चिन्त हो गये। इसलिये इन्होंने भारत के प्रायः सभी मुख्य-मुख्य पुण्य-तीर्थों की यात्रा की। सेतुबन्ध रामेश्वर, शिवकांची, मदुरा आदि तीर्थों  में भ्रमण करते हुए ये भगवान मध्वाचार्य के आश्रम पर पहुँचे। वहीं पर श्रीमाधवेन्द्रपुरी महाराज भी उपस्थित थे।

इन श्रीमाधवेन्द्रपुरी ने ही पहले-पहल संन्यासियों में भक्तिभाव तथा मधुर उपासना का प्रसार किया। इनके प्रसिद्ध शिष्यों में श्रीईश्वरपुरी, श्रीपरमानन्दपुरी, श्रीब्रह्मानन्दपुरी, श्रीरंगपुरी, श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि तथा श्रीरघुपति उपाध्याय विशेष उल्लेखनीय हैं। श्रीईश्वरपुरी इनके अन्तरंग तथा प्रधान शिष्य थे। इन्हें ही श्रीगौरांग के दीक्षागुरु होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्रीमाधवेन्द्रपुरी अद्वैताचार्य को देखकर बड़े ही प्रसन्न हुए। उनकी शीलता, नम्रता, विद्या, भक्ति और देश के उद्धार की सच्ची लगन को देखकर पुरी महाशय गद्गद हो उठे। उन्होंने अद्वैत को छाती से लगाया और श्रीकृष्ण-मन्त्र की दीक्षा देकर इनमें नवशक्ति का संचार किया। अपने गुरुदेव के सामने भी इन्होंने अपनी मनोव्यथा कही। तब पुरी महाशय ने इन्हें आश्वासन देते हुए कहा- ‘संसार की रचना उन्होंने ही की है। इस बढ़ते हुए कदाचार को वे ही भक्तभयहारी भगवान मेट सकेंगे, तुम घबड़ाओ मत।

भगवान शीघ्र ही अपने किसी विशेष रूप से अवतीर्ण होकर भक्ति का उद्धार करेंगे।’ गुरुदेव के आश्वासन से इन्हें विश्वास हो गया कि भगवान भक्तों के भय को भंजन करने के निमित्त अवश्य ही इस धराधाम पर अवतीर्ण होंगे। इसलिये ये अपने गुरुदेव की चरणरज मस्तक पर चढ़ार व्रज की यात्रा करते हुए शान्तिपुर लौट आये। श्रीअद्वैत की कुशाग्र बुद्धि और भगवत-भक्ति का श्रीमाधवेन्द्रपुरी पर प्रभाव पड़ा। जब उन्होंने गौड़देश की यत्रा की तो वे शान्तिपुर भी पधारे और कुछ काल अद्वैताचार्य के ही घर में रहे। अद्वैताचार्य नामी पण्डित होने के साथ ही धनवान भी थे। शान्तिपुर के वैष्णवों के वे ही एकमात्र आधार थे। उन दिनों शास्त्रार्थ करना ही पाण्डित्य का प्रधान गुण समझा जाता था।

वाद-विवाद में विपक्षी को पराजित करके अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करना ही उन दिनों भारी पण्डित होने का प्रमाण पत्र था। इसलिये बहुत से पण्डित अपने को दिग्विजयी बताते थे और जिसके भी पाण्डित्य की प्रशंसा सुनते उसी से शास्त्रार्थ करने को उद्यत हो जाते थे। आचार्य की ख्याति सुनकर भी एक दिग्विजयी तर्कपंचानन महाशय इनसे शास्त्रार्थ करने आये और अन्त में इनसे परास्त होकर वे इनके शिष्य बन गये। इसलिये इनकी ख्याति अब पहले से और भी अधिक हो गयी। इनके पिता के आश्रयदाता महाराज दिव्यसिंह जी भी इनकी प्रशंसा सुनकर इनके दर्शनों के लिये आये। उन्होंने इनका भक्तिभावपूर्ण पाण्डित्य देखकर अपने सफेद बालों वाला सिर इनके चरणों पर रख दिया और गद्गद कण्ठ से कहा- ‘आपने अपने सम्पूर्ण कुल का उद्धार कर दिया। कृपा करके मुझे भी अपने चरणों की शरण दीजिये।’ बूढे़ राजा शाक्त होने पर भी इनके शिष्य बन गये। वे इनमें बड़ी श्रद्धा रखते थे। अन्त में उन्होंने राज-काज छोड़कर एकान्त में अपना निवास स्थान बना लिया और कृष्ण-कीर्तन करते-करते ही शेष आयु का अन्त किया। अद्वैत की बाल-लीलाओं का वे सदा गुणगान करते रहते थे। उन्होंने संस्कृत में अद्वैत की बाल लीलाओं को लिखा भी था।

श्रीमाधवेन्द्रपुरी ने इन्हें गृहस्थी बनने की आज्ञा दी। गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य करके इन्होंने नारायणपुर निवासी पण्डित नृसिंह भादुड़ी की सीता और ठकुरानी नाम की दो पुत्रियों के साथ विवाह किया और उनके साथ सुखपूर्वक समय बिताने लगे। ये बड़े ही उदार, कोमलहृदय तथा कृष्ण-कथा-प्रिय थे। भेदभाव या संकीर्णता को ये कृष्ण-भक्ति में बाधक समझते थे। उन्हीं दिनों परम भक्त हरिदास भी इनके पास आये। ये यवन-बालक थे, किन्तु थे बड़े होनहार तथा कृष्ण-भक्त, इसलिये आचार्य ने इन्हें अपने पास ही रखकर व्याकरण, गीता, भागवत आदि को पढ़ाया। ये बड़े ही समझदार थे, आचार्य के चरणों में इनकी परम श्रद्धा थी, आचार्य भी इन्हें पुत्र की तरह मानते तथा प्यार करते थे।

हरिदास आचार्य के घर में ही भोजन आदि करते थे। एक नामी पण्डित होकर अद्वैताचार्य मुसलमान-बालक को अपने घर में रखते हैं, इस बात से सभी पण्डित तथा ब्राह्मण इनका विरोध करने लगे, किन्तु इन्होंने उनकी कुछ भी परवा न की। एक दिन किसी ब्राह्मण के यहाँ श्राद्ध के समय सबसे प्रथम आचार्य ने श्राद्धान्न हरिदास के ही हाथों में दे दिया। इससे कुपित होकर पण्डितों ने इनसे कुछ बुरा-भला कहा। इन्होंने निर्भय होकर कह दिया- ’हरिदास को भोजन कराने से मैं करोड़ों ब्राह्मणों के भोजनों का माहात्म्य समझता हूँ।’ इनकी इस बात से सभी भौचक्के-से रह गये। ये कोरे पण्डित ही न थे, किन्तु क्रियावान भक्त और विचारवान भी थे।

ये शास्त्रों का पठन-पाठन करते हुए भी सदा हरि-कीर्तन और भगवत-भक्ति में परायण रहते थे। उन दिनों अधिकांश पण्डित पुस



, Srihari:..*

[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram

Advaitacharya and his school

Ganga is sin, the moon is heat, misery and the Kalpa tree.

The great saints destroy sin, suffering and misery.

Acharya who is the main pillar of Advaita Gaur-Dharma, who is considered to be the first originator, manager and organizer of Gaur-Leelas, who even after being old, learned and wise, made the pad-raj of the child Gauranga the best coating of his head, who By incarnating before Gauranga, he created an atmosphere conducive to Gaur-leela, prepared the best-of-the-best theatre, made Gauranga the main actor on it, performed various pastimes with the devotees, and after the disappearance of Gauranga, performed all his pastimes. By covering you also disappeared. The ancestors of Advaitacharya lived in a small village named Navagram under Laud pargana in Srihatt (Sylhet) district. We have already told that at that time there were many small states in India, in which Narapati used to rule independently. Laud was also a small princely state. In those days the ruler of that princely state was Maharaj Divya Singh. Maharaj was extremely religious and virtuous. The pundits were highly respected in his assembly. Acharya’s respected father Pandit Kuber was a Raj-Pandit in the assembly of Tarkpanchanan Maharaj.

Tarkapanchanan Mahasaya was a unique scholar of justice. His scholarship was famous all around. Along with being a scholar, he was also rich, but there was only one sorrow that he had no children. That’s why he and his wife Labhadevi were always worried. Many children were born from Labhadevi’s womb and they left this Asar world in untimely and went to the other world. That’s why Tarkapanchanan Mahasaya left his old village and started living in Shantipur on the other side of Navadvipa. It was here that Labhadevi’s womb remained and a son was born at the right time. The son was named Kamalaksh. This Kamalaksha later became famous as Mahaprabhu Advais.

Child Kamalaksh was modest, clever, intelligent and Bhagwat-parayan from the beginning. In those days Shakta-Dharma and Vam-Marg were dominant in Bengal. Lakhs of dumb creatures were killed in the name of religion and big Bhattacharyas and Vidyavagish used to consider and tell it as Param Dharma. Seeing these acts, Kamalaksh would be sad in his heart that when will God give wisdom to these people, when will the ignorance of these people go away, so that they stop doing violence to animals in the name of religion. He was fearless since childhood, he does not hesitate to say what he considers to be true in front of anyone, no matter how big a person he is.

Once upon a time, a huge festival was celebrated by the state on the occasion of special worship of Goddess Kali. Child Kamalaksh also went to this ceremony. He saw that hundreds of goats and buffaloes have been sacrificed to offer Kali Mai. Renowned kirtankars have been called from far and wide for the kirtan of Kali Mai. Kamalaksh also sat in the Kali-Mandap without saluting Kalimai. Maharaj Divyasingh was very surprised by this behavior of his. He got angry with this irreligious behavior of the son of a well-respected scholar of his Raj Sabha and started saying – ‘ Kamalaksh! How did you sit down without paying obeisance to the goddess?’ On this, the child Kamalaksh said with some anger – ‘The goddess is the mother of the world. All beings are his children. The mother who eats her sons is not a mother but a demon. No matter how bad the son is, but the mother is never a kumata. ‘Kuputro jayet kwachidapi kumata na bhavati’. Everyone gets salute only by saluting him. You people fulfill your desires in the name of deities.

King Divya Singh was speechless after hearing such words from the mouth of the child. Kamalaksh’s father Kuber Tarkpanchanan was also sitting there, he took the side of Maharaj and said – ‘All the gods and goddesses are the forms of that Narayan.

That’s why it is a great sin not to bow before the idol of the Goddess. You should not do this.’ After listening to his father, Kamalaksh said fearlessly – ‘Everyone can be worshiped by worshiping only one Janardan God, where there is violence of living beings, it is neither a place of worship nor is it worship of gods. ‘ All the onlookers were surprised to hear such words from the mouth of a small child. Maharaj praised his intelligence a lot. In this way, at a very young age, he showed his fearlessness, kindness and devotion to Vaishnavism. Gradually their condition became 12-13 years. He was not satisfied by studying near his father. In those days his father used to live in Laud, he went to Shantipur for his studies, on getting the news his parents also came near him to Shantipur. Staying here, he got special education of Veda-Vedang and Navya-Nyaya. Within a few days, he started being counted as a well-known pundit. Later on, his parents passed away. At the time of his death, his father had ordered that- ‘We must go to Gaya ji and perform Shradh.’

In order to obey his father’s last order and for the peace of his soul in the hereafter, he traveled to Shri Gaya Dham and after seeing the footprints of Shri Gadadhar Bhagwan there, according to the scriptural method, Pitra Shradh etc. were performed with great devotion. Advaitacharya was now young, the seed of devotion was in his heart since birth. Vidya developed his devotion and love even more. He always thought about the welfare of the living beings. He has become somewhat detached from the world. There was already disinterest in the mind. Now he is relieved of the death of his parents. That’s why he traveled to almost all the main holy places of India. While traveling in pilgrimages like Setubandha Rameshwar, Sivakanchi, Madura etc., he reached the hermitage of Lord Madhwacharya. Shrimadhavendrapuri Maharaj was also present there.

This Shrimadhavendrapuri was the first to spread devotion and sweet worship among the sannyasins. Among his famous disciples, Shree Ishwarpuri, Shree Parmanandpuri, Shree Brahmanandpuri, Shreerangpuri, Shree Pundarika Vidyanidhi and Shreeraghupati Upadhyaya are particularly noteworthy. Shri Ishwarpuri was his intimate and main disciple. He had the good fortune of being the Deekshaguru of Shri Gaurang. Shrimadhavendrapuri was very pleased to see Advaitacharya. Seeing his modesty, humility, learning, devotion and true passion for the salvation of the country, Puri Mahasaya was very happy. He hugged Advaita and infused new power in him by giving initiation of Shri Krishna-mantra. He expressed his anguish in front of his Gurudev as well. Then Puri Mahasaya assured him and said – ‘ He has created the world. Only those devotee-fearing Gods will be able to eradicate this increasing malpractice, don’t panic.

God will soon incarnate in a special form to save the devotees.’ He was convinced by Gurudev’s assurance that God would definitely incarnate on this earth to dispel the fear of the devotees. That’s why he returned to Shantipur while traveling to Vraj by climbing on the feet of his Gurudev. Shri Advaita’s sharp intellect and Bhagwat-devotion had an impact on Shrimadhavendrapuri. When he traveled to Gaudesh, he also came to Shantipur and stayed in Advaitacharya’s house for some time. Advaitacharya was a well-known pundit as well as rich. He was the only support of the Vaishnavas of Shantipur. In those days, debate was considered to be the main quality of scholarship.

Demonstrating one’s erudition by defeating one’s opponent in a debate was the certificate of one’s great scholar in those days. That’s why many pundits used to call themselves Digvijay and used to get ready to debate with whomever they heard praise of erudition. Even after hearing the fame of Acharya, a Digvijay Tarkpanchanan gentleman came to debate with him and in the end, being defeated by him, he became his disciple. That’s why his fame has become even more than before. His father’s patron Maharaj Divyasingh ji also came to visit him after hearing his praise. Seeing his devotional scholarship, he placed his white haired head at his feet and said in a gleeful voice – ‘You have saved your entire clan. Kindly give me the shelter of your feet too.’ Even though the old king was weak, he became his disciple. He had great faith in them. In the end, he left the royal work and made his abode in solitude and ended the rest of his life while doing Krishna-Kirtan. He always used to praise Advaita’s childhood pastimes. He also wrote Advaita’s Bal Leelas in Sanskrit.

Shrimadhavendrapuri ordered him to become a householder. Following Gurudev’s orders, he married two daughters named Sita and Thakurani of Narayanpur resident Pandit Nrusingh Bhaduri and started spending time happily with them. He was very generous, soft-hearted and Krishna-Katha-loving. They considered discrimination or narrow-mindedness as an obstacle in Krishna-devotion. In those days the supreme devotee Haridas also came to him. He was a young child, but he was very promising and a devotee of Krishna, so Acharya kept him with him and taught him grammar, Gita, Bhagwat etc. He was very intelligent, he had utmost devotion at the feet of Acharya, Acharya also considered and loved him like a son.

Haridas used to eat food etc. in Acharya’s house. Being a renowned scholar, Advaitacharya kept a Muslim boy in his house, all the pundits and Brahmins started opposing him, but he did not care about them. One day at a Brahmin’s place, at the time of Shradh, the first Acharya gave the Shradhhan in the hands of Haridas. Enraged by this, the pundits said something bad to him. He fearlessly said- ‘By feeding Haridas, I understand the greatness of the food of crores of Brahmins.’ Everyone was stunned by his words. He was not only a pundit, but also an active devotee and a thinker.

Even while studying the scriptures, he was always devoted to Hari-Kirtan and Bhagwat-Bhakti. Most of the pundits in those days

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