[164]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
महाप्रभु का दिव्‍योन्‍माद

सिंचन् सिंचन् नयनपयसा पाण्डुगण्डस्थलान्तं
मुंचन मुंचन प्रतिमुहुरहो दीर्घनि:श्वासजातम
उच्‍चै: क्रन्‍दन् करुणकरुणोद्गीर्णहाहेतिरावो
गौर: कोअपि व्रजविरहिणीभावमगन्‍श्‍चकास्ति।।

पाठकों को सम्‍भवतया स्‍मरण होगा, इस बात को हम पहले ही बता चुके हैं कि श्रीचैतन्‍यदेव के शरीर में प्रेम के सभी भाव क्रमश: धीरे-धीरे ही प्रस्‍फुटित हुए। यदि सच‍मुच प्रेम के ये उच्‍च भाव एक साथ ही उनके शरीर में उदित हो जाते तो उनका हृदय फट जाता। उनका क्‍या किसी भी प्राणी का शरीर इन भावों के वेग को एक साथ सहन नहीं कर सकता। गया में आपको छोटे-से मुरली बजाते हुए श्‍याम दीखे, उन्‍हीं के फिर दर्शन पाने की लालसा से वे रुदन करने लगे। तभी से धीरे-धीरे उनके भावों में वृद्धि होने लगी। शान्‍त, दास्‍य, सख्‍य, वात्‍सल्‍य और मधुर इन भावों में मधुर ही सर्वश्रेष्‍ठ बताया गया है। पुरी में प्रभु इसी भाव में विभोर रहते थे। मधुरभाव में राधाभाव सर्वोत्‍कृष्‍ट है। सम्‍पूर्ण रस, सम्‍पूर्ण भाव और अनुभाव राधाभाव में ही जाकर परिसमाप्‍त हो जाते हैं, इसलिये अन्‍त के बारह वर्षों में प्रभु अपने को राधा मानकर ही श्रीकृष्‍ण के विरह में तडपते रहे। कविराज गोस्‍वामी कहते हैं–

राधिकार भावे प्रभुर सदा अभिमान।
सेइ भावे आपनाके हय ‘राधा’ ज्ञान।
दिव्‍योन्‍माद ऐछे हय, कि इहा विस्‍मय ?
अधिरूढ भावे दिव्‍योन्‍माद-प्रलाप हय।।

अर्थात ‘महाप्रभु राधाभाव में भावान्वित होकर उसी भाव से सदा अपने को ‘राधा’ ही समझते थे। यदि फिर उनके शरीर में ‘दिव्‍योन्‍माद’ प्रकट होता था तो इसमें विस्‍मय करने की कौन सी बात है। अधिरूढ भाव में दिव्‍योन्‍माद प्रलाप होता ही है’। इसलिये अब आपकी सभी क्रियाएँ उसी विरहिणी की भाँति होती थीं।

एक दिन स्‍वप्‍न में आप रासलीला देखने लगे। अहा ! प्‍यारे को बहुत दिनों के पश्‍चात आज वृन्दावन में देखा है। वही सुन्‍दर अलकावली, वही माधुरी मुसकान, वे ही हाव-भाव-कटाक्ष, उसी प्रकार रास में थिरकना, सखियों को गले लगाना, कैसा सुख है ! कितना आनन्‍द है ! ! ताथेई-ताथेई करके सखियों के बीच में श्‍याम नाच रहे हैं और सैनों को चलाते हुए वंशी बजा रहे हैं। महाप्रभु भूल गये कि यह स्‍वप्‍न है या जागृति है। वे तो उस रस में सराबोर थे। गोविन्‍द को आश्‍चर्य हुआ कि–‘प्रभु आज इतनी देर तक क्‍यों सो रहे हैं, रोज तो अरुणोदय में ही उठ जाते थे, आज तो बहुत दिन भी चढ़ गया है। सम्‍भव है, नाराज हों, इसलिये जगा दूँ।’ यह सोचकर गोविन्‍द धीरे-धीरे प्रभु के तलवों को दबाने लगा। प्रभु चौंककर उठ पड़े और ‘कृष्‍ण कहाँ गये?’ कहकर जोरों से रुदन करने लगे।

गोविन्‍द ने कहा– ‘प्रभो ! दर्शनों का समय हो गया है, नित्‍यकर्म से निवृत्त होकर दर्शनों के लिये चलिये।’ इतना सुनते ही उसी भाव में यंत्र की तरह शरीर के स्‍वभावानुसार नित्‍यकर्मों से निवृत्त होकर श्रीजगन्‍नाथ जी के दर्शनों को गये।

महाप्रभु गरुडस्‍तम्‍भ के सहारे घंटों खड़े-खड़े दर्शन करते रहते थे। उनके दोनों नेत्रों में से जितनी देर तक वे दर्शन करते रहते थे उतनी देर तक जल की दो धाराएँ बहती रहती थीं। आज प्रभु ने जगन्‍नाथ जी के सिंहासन पर उसी मुरली मनोहर के दर्शन किये। वे उसी प्रकार मुरली बजा-बजाकर प्रभु की ओर मन्‍द-मन्‍द मुस्कान कर रहे थे, प्रभु अनिमेषभाव से उनकी रूपमाधुरी का पान कर रहे थे। इतने में ही एक उड़ीसा प्रान्‍त की वृद्धा माई जगन्‍नाथ जी के दर्शन न पाने से गरुडस्‍तम्‍भ पर चढ़कर और प्रभु के कन्‍धे पर पैर रखकर दर्शन करने लगी। पीछे खड़े हुए गोविन्‍द ने उसे ऐसा करने से निषेध किया। इस पर प्रभु ने कहा– ‘यह आदिशक्ति महामाया है, इसके दर्शनसुख में विघ्‍न मत डालो, इसे यथेष्‍ट दर्शन करने दो।’

गोविन्‍द के कहने पर वह वृद्धा माता जल्‍दी से उतरकर प्रभु के पादपद्मों में पड़कर पुन:-पुन: प्रणाम करती हुई अपने अपराध के लिये क्षमा-याचना करने लगी। प्रभु ने गद्गद कण्‍ठ से कहा– मातेश्‍वरी ! जगन्‍नाथ जी के दर्शनों के लिये तुम्‍हें जैसी विकलता है ऐसी विकलता जगन्‍नाथ जी ने मुझे नहीं दी। हा ! मेरे जीवन को धिक्‍कार है। जननी ! तुम्‍हारी ऐसी एकाग्रता को कोटि-कोटि धन्‍यवाद है। तुमने मेरे कन्‍धे पर पैर रखा और तुम्‍हें इसका पता भी नहीं।’ इतना कहते-कहते प्रभु फिर रुदन करने लगे। ‘भावसन्धि’ हो जाने से स्‍वप्‍न का भाव जाता रहा और अब जगन्‍नाथ जी के सिंहासन पर उन्‍हें सुभद्रा-बलरामसहित जगन्‍नाथ जी के दर्शन होने लगे। इससे महाप्रभु को कुरुक्षेत्र का भाव उदित हुआ, जब ग्रहण के स्‍नान के समय श्रीकृष्‍ण जी अपने परिवार के सहित गोपिकाओं को मिले थे। इससे खिन्‍न होकर प्रभु अपने वासस्‍थान पर लौट आये। अब उनकी दशा परम कातर विरहिणी की सी हो गयी। वे उदास मन से नखों से भूमि को कुरेदते हुए विषण्‍णवदन होकर अश्रु बहाने लगे और अपने को बार-बार धिक्‍कारने लगे। इसी प्रकार दिन बीता, शाम हुई, अँधेरा छा गया और रात्रि हो गयी। प्रभु के भाव में कोई परिवर्तन नहीं। वही उन्‍माद, वही बेकली, वही विरह-वेदना उन्हें रह-रहकर व्‍यथित करने लगी। राय रामानन्‍द आये, स्‍वरूप गोस्‍वामी ने सुन्‍दर-सुन्‍दर पद सुनाये, राय महाशय ने कथा की। कुछ भी धीरज न बँधा। ‘हाय ! श्‍याम ! तुम किधर गये ? मुझ दु:खिनी अबला को मँझधार में ही छोड गये।

हाय ! मेरे भाग्‍य को धिक्‍कार है, जो अपने प्राणवल्‍लभ को पाकर भी मैंने फिर गँवा दिया। अब कहाँ जाऊँ ? कैसे करूँ ? किससे कहूँ, कोई सुनने वाला भी तो नहीं। हाय! ललिते ! तू ही कुछ उपाय बता। ओ बहिन विशाखे ! अरी, तू ही मुझे धीरज बँधा। मैना ! मर जाऊँगी। प्‍यारे के बिना मैं प्राण धारण नहीं कर सकती। जोगिन बन जाऊँगी। घर-घर अलख जगाऊँगी, नरसिंहा लेकर बजाऊँगी, तन में भभूत रमाऊँगी, मैं मारी-मारी फिरूँगी, किसी की भी न सुनूँगी। या तो प्‍यारे के साथ जीऊँगी या आत्‍मघात करके मरूँगी ! हाय ! निर्दयी ! ओ निष्‍ठुर श्‍याम ! तुम कहाँ चले गये?’ बस, इसी प्रकार प्रलाप करने लगे। रामानन्‍द जी आधी रात्रि होने पर गम्‍भीरा मन्दिर में प्रभु को सुलाकर चले गये। स्‍वरूप गोस्‍वामी वहीं गोविन्‍द के समीप ही पडे रहे। महाप्रभु जोरों से बड़े ही करुणस्‍वर में भगवान के इन नामों का उच्‍चारण कर रहे थे–

श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे ! हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !

इन नामों की सुमधुर गूँज गोविन्‍द और स्‍वरूप गोस्‍वामी के कानों में भर गयी। वे इन नामों को सुनते-सुनते ही सो गये। किन्‍तु प्रभु की आँखों में नींद कहाँ, उनकी तो प्राय: सभी रातें हा नाथ ! हा प्‍यारे ! करते-करते ही बीतती थीं। थोड़ी देर में स्‍वरूप गोस्‍वामी की आँखें खुलीं तो उन्‍हें प्रभु का शब्‍द सुनायी नहीं दिया। सन्‍देह होने से वे उठे, गम्‍भीरा में जाकर देखा, प्रभु नहीं हैं। मानो उनके हृदय में किसी ने वज्र मार दिया हो। अस्‍त-व्‍यस्‍तीभाव से उन्‍होंने दीपक जलाया। गोविन्‍द को जगाया। दोनों ही उस विशाल भवन के कोने-कोने में खोज करने लगे, किन्‍तु प्रभु का कही पता ही नहीं। सभी घबडाये-से इधर-उधर भागने लगे। गोविन्‍द के साथ वे सीधे मन्दिर की ओर गये वहाँ जाकर क्‍या देखते हैं, सिंहद्वार के समीप एक मैंले स्‍थान में प्रभु पड़े हैं। उनकी आकृति विचित्र हो गयी थी। उनका शरीर खूब लम्‍बा पडा था। हाथ-पैर तथा सभी स्‍थानों की सन्धियाँ बिलकुल खुल गयी थीं।

मानो किसी ने टूटी हड्डियां लेकर चर्म के खोल में भर दी हो। शरीर अस्‍त-व्‍यस्‍त पड़ा था। श्‍वास-प्रश्‍वास की गति एकदम बंद थी। कविराज गोस्‍वामी ने वर्णन किया है–

प्रभु पड़ि आछेन दीर्घ हात पांच छय।
अचेतन देह नाशाय श्‍वास नाहि बय।।
एक-एक हस्‍त-पाद-दीर्घ तिन हात।
अस्थि ग्रंथिभिन्‍न, चर्मे आछे मात्र तात।।
हस्‍त, पाद, ग्रीवा, कटि, अस्थि-संधि यत।
एक-एक वितस्ति भिन्‍न हय्या छे तत।।
चर्ममात्र उपरे, संधि आछे दीर्घ हय्या।
दु:खित हेला सबे प्रभुरे देखिया।।
मुख लाला-फेन प्रभुर उत्‍तान-नयन।
देखिया सकल भक्तेर देह छाडे प्रान।।[1]

अर्थ स्‍पष्‍ट है, भक्‍तों ने समझा प्रभु के प्राण शरीर छोड़कर चले गये। तब स्‍वरूप गोस्‍वामी जी जोरों से प्रभु के कानों में कृष्‍ण नाम की ध्‍वनि की। उस सुमधुर और कर्णप्रिय ध्‍वनि को सुनकर प्रभु को कुछ-कुछ बाह्य-ज्ञान सा होने लगा। वे एक साथ ही चौंककर ‘हरि बोल’, ‘हरि बोल’ कहते हुए उठ बैठे। प्रभु के उठने पर धीरे-धीरे अस्थियों की संन्धियाँ अपने-आप जुडने लगीं। श्री गोस्‍वामी रघुनाथदास जी वहीं थे, उन्‍होंने अपनी आँखों से प्रभु की यह दशा देखी होगी। उन्‍होंने अपने ‘चैतन्‍यस्‍वतकल्‍पवृक्ष’ नामक ग्रन्‍थ में इस घटना का यों वर्णन किया है–

क्‍वचिन्मिश्रावासे व्रजपतिसुतस्‍योरुविरहा-
च्‍छलथत्‍सत्‍सन्धित्‍वाद्दधदधिकदैर्घ्‍यं भुजपदो:।
लुठन् भूमौ काक्‍वा विकलविकल गद्गदवचा
रुदंञ्चछ्रीगौरांगो हृदय उदयन्‍मां मदयति।।

किसी समय काशी मिश्र के भवन में श्रीकृष्‍ण विरह उत्‍पन्‍न होने पर प्रभु की सन्धियाँ ढीली पड़ जाने से हाथ-पैर लंबे हो गये थे। पृथ्वी पर काकुस्‍वर से, गद्गद वचनों से जोरों के साथ रुदन करते-करते लोट-पोट होने लगे, वे ही श्री गौरांग हमारे हृदय में उदित होकर हमें मद में मतवाला बना रहे हैं। उन हृदय में उदित होकर मतवाले बनाने वाले श्री गौरांग के और मदमत्त बने श्री रघुनाथदास जी के चरणों में हमारा साष्‍टांग प्रणाम है!

क्रमशः अगला पोस्ट [165]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



।। Srihari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Jap] Hare Krishna Hare Ram The divine madness of the Lord

Irrigating the end of the white cheeks with the milk of his eyes Munchan Munchan every moment oh long-breathed They cried out loudly, mercifully, mercifully, swallowed up, and roared Gaura: Someone seems to be feeling separated from Vraja.

Readers will probably remember that we have already told that all the feelings of love in Sri Chaitanyadev’s body gradually blossomed gradually. If these high feelings of true love had arisen in his body at the same time, then his heart would have burst. Can’t the body of any creature tolerate the speed of these feelings together. In Gaya, you saw Shyam playing the small murli, he started crying longing to see him again. Since then, gradually his expressions started increasing. Madhur is said to be the best of these feelings, calm, slave, friendly, affectionate and sweet. In Puri, Prabhu used to remain engrossed in this spirit. Radha Bhav is the best in Madhur Bhav. All rasa, all feelings and experiences get destroyed in Radha-Bhav, that’s why in the last twelve years, the Lord continued to suffer in the separation of Shri Krishna considering himself as Radha. Kaviraj Goswami says-

Radhikar Bhave Prabhur always proud. Sei bhave aapnake hi ‘Radha’ knowledge. Divyonmad achhe hai, ki iha vismayam? Adhirudh bhave divyonmad-pralap hai.

That is, ‘Mahaprabhu always used to consider himself as ‘Radha’ in the same sense, being in the spirit of Radha. If then ‘divyonmad’ was manifested in his body, then what is there to be surprised in it. There is bound to be ecstatic delirium in the dominant sense. That’s why now all your actions were like that of Virahini.

One day you started seeing Rasleela in your dreams. Aha! Saw Pyare in Vrindavan today after a long time. The same beautiful Alkavali, the same sweet smile, the same gestures and sarcasm, dancing in the same way, hugging friends, what a pleasure! What a joy! , Shyam is dancing in the midst of his friends by doing Tathei-Tathei and playing Vanshi while driving the soldiers. Mahaprabhu forgot whether it was a dream or an awakening. They were drenched in that juice. Govind was surprised that – ‘Why is the Lord sleeping for so long today, everyday he used to get up at dawn, today it has been a long day. It is possible that he may be angry, so let me wake him up.’ Thinking this, Govind slowly started pressing the soles of the Lord. Prabhu got up startled and started crying loudly saying ‘Where has Krishna gone?’

Govind said – ‘ Lord! Time has come for darshan, retire from daily work and go for darshan.’ On hearing this, in the same spirit, like a machine, after retiring from daily work according to the nature of the body, went to Shri Jagannath ji’s darshan.

Mahaprabhu used to have darshan standing for hours with the support of Garudastambha. Two streams of water used to flow from both of his eyes as long as he looked at them. Today the Lord had darshan of the same Murli Manohar on the throne of Jagannath ji. In the same way, while playing the murli, he was slowly smiling towards the Lord, the Lord was drinking his form in animeshbhav. In the meantime, an old woman from Orissa province, unable to see Lord Jagannath, started seeing Lord Jagannath by climbing on the Garudastambha and placing her feet on the Lord’s shoulder. Govind, standing behind, prohibited him from doing so. On this the Lord said- ‘This Adishakti is Mahamaya, don’t disturb the pleasure of seeing her, let her have enough darshan.’

At the behest of Govind, the old mother quickly got down and fell at the lotus feet of the Lord and started saluting again and again and apologizing for her crime. The Lord said to Gadgad Kanth – Mateshwari! Jagannath ji did not give me the kind of anxiety you feel for seeing Jagannath ji. Ha! Shame on my life. Mother! Many many thanks for your such concentration. You stepped on my shoulder and you don’t even know about it.’ Saying this, the Lord started crying again. Due to the ‘Bhavsandhi’, the sense of dream kept disappearing and now on the throne of Jagannath ji, he started having darshan of Jagannath ji along with Subhadra-Balram. Due to this, the sense of Kurukshetra arose in Mahaprabhu, when Shri Krishna ji met the Gopikas along with his family at the time of eclipse bath. Saddened by this, the Lord returned to his abode. Now her condition has become like that of Param Katar Virhini. With a sad heart, while scratching the ground with his nails, he started shedding tears and started cursing himself again and again. In the same way the day passed, it was evening, it was dark and it was night. There is no change in the attitude of the Lord. The same frenzy, the same despondency, the same separation pain kept troubling him. Rai Ramanand came, Swarup Goswami recited beautiful verses, Rai Mahasaya narrated the story. Do not be patient. ‘Oh ! Shyam! where did you go They left me in the middle of nowhere.

Oh ! Woe to my fate, that even after getting my Pranvallabh, I lost it again. where to go now how to do To whom should I tell, there is no one to listen. Oh! Lalite! You tell me some solution. O sister Vishakha! Ari, you are the one who gave me patience. Myna ! I will die I cannot live without love. I will become a jogin. I will light up every house, I will play with Narasimha, I will make my body happy, I will roam around, I will not listen to anyone. Either I will live with my beloved or I will die by suicide! Oh ! cruel ! O ruthless Shyam! Where have you gone?’ Ramanand ji went to Gambhira temple after putting the Lord to sleep at midnight. Swarup Goswami kept lying there near Govind. Mahaprabhu was loudly pronouncing these names of God in a very compassionate voice-

Sri Krishna! Govind! Hare! Murare! O Lord! Narayana! Vasudeva!

The melodious echoes of these names filled the ears of Govind and Swaroop Goswami. He fell asleep listening to these names. But where is the sleep in the eyes of the Lord, almost all his nights Ha Nath! Hey dear! Used to pass while doing. When Swaroop Goswami’s eyes opened in a short while, he could not hear the word of the Lord. Due to doubt, he got up, went to Gambhira and saw that the Lord was not there. As if someone had struck a thunderbolt in his heart. Confusedly he lit the lamp. Woke up Govind. Both started searching in every corner of that huge building, but there was no trace of the Lord anywhere. Everyone started running here and there in panic. He went straight to the temple with Govind and what he saw there, the Lord was lying in a muddy place near the lion gate. His shape had become strange. His body was very long. The joints of hands, legs and all other places were completely opened.

As if someone had taken broken bones and stuffed them in a skin shell. The body was lying in disarray. The speed of breathing was completely stopped. Kaviraj Goswami has described-

The Lord is lying with five long hands. There is no breath for the destruction of the unconscious body. Each hand and foot was three cubits long. Bones are not knotted, skin is good only father. Hands, feet, neck, waist, bones and joints. Each one is scattered and different horses are there. Only on the skin, the joint is long. They are all suffering, Lord, see. Face red-foam Lord’s raised eyes. Dekhiya sakal bhakter deh chhade praan।।[1]

The meaning is clear, the devotees understood that the soul of the Lord had left the body. Then Swaroop Goswami ji loudly chanted the name of Krishna in the ears of the Lord. After listening to that melodious and ear-pleasing sound, the Lord started getting some kind of external knowledge. They got up at the same time startled saying ‘Hari Bol’, ‘Hari Bol’. After the rise of the Lord, slowly the joints of the bones started connecting automatically. Shri Goswami Raghunathdas ji was there, he must have seen this condition of the Lord with his own eyes. He has described this incident in his book called ‘Chaitanyasvatkalpavriksha’.

Kvachinmishravase Vrajapatisutasyoruviraha- The length of the arms and legs was increased by the joint of the chhalath. The crow rolled on the ground and his skin was shaking The crying Sri Gauranga rising in my heart makes me happy.

At some point of time, due to the separation of Lord Krishna in the house of Kashi Mishra, the arms and legs became long due to loosening of the Lord’s ties. Weeping loudly on the earth, crying loudly with gadgad words, that same Shri Gauranga rising in our hearts is making us inebriated. We prostrate at the feet of Shri Gaurang who rises in those hearts and makes us intoxicated and Shri Raghunathdas ji who becomes intoxicated!

respectively next post [165] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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