।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
लोकातीत दिव्योन्माद
स्वकीयस्य प्राणार्बुदसदृशगोष्ठस्य विरहात्
प्रलापानुन्मादात् सततमतिकुर्वन विकलधी:।
दधद्भित्तौ शश्वद्वदनविधुघर्षेण रुधिरं
क्षतोत्थं गौरांगो हृदय उदयन्मां मदयति।।
महाप्रभु की दिव्योन्माद की अवस्था का वर्णन करना कठिन तो है ही, साथ ही बड़ा ही हृदयविदारक है। हम वज्र-जैसे हृदय रखने वालों की बात छोड़ दीजिये, किन्तु जो सहृदय हैं, भावुक है, सरस हैं, परपीडानुभवी हैं, मधुर रति के उपासक हैं, कोमल हृदय के हैं, जिनका हृदय परपीड़ाश्रवण से ही भर आता है, जिनका अन्त:करण अत्यन्त लुजलुजा- शीघ्र ही द्रवित हो जाने वाला है, वे तो इन प्रकरणों को पढ़ भी नहीं सकते। सचमुच इन अपठनीय अध्यायों का लिखना हमारे ही भाग्य में बदा था। क्या करें, विवश हैं हमारे हाथ में बलपूर्वक यह लौह की लेखनी दे दी गयी है। इतना ग्रन्थ लिखने पर भी यह डाकिनी अभी ज्यों-की त्यों ही बनी है, घिसती भी नहीं। न जाने किस यंत्रालय में यह खास तौर से हमारे ही लिये बनायी गयी थी। हाय ! जिसके मुखकलम के संघर्षण की करुण कहानी इसे लिखनी पड़ेगी। जिस श्रीमुख की शोभा को स्मरण करके लेखनी अपने लौहपने को भूल जाती थी, वही अब अपने काले मुंह से उस रक्त रंजित मुख का वर्णन करेगी। इस लेखनी का मुख ही काला नहीं है। किन्तु इसके पेट में भी काली स्याही भर रही है और स्वयं भी काली ही है। इसे मोह कहाँ, ममता कैसी, रुकना तो सीखी ही नहीं। लेखनी ! तेरे इस क्रूर कर्म को बार-बार धिक्कार है।
महाप्रभु की विरह-वेदना अब अधिकाधिक बढ़ती ही जाती थी। सदा राधाभाव में स्थित होकर आप प्रलाप करते रहते थे। कृष्ण को कहाँ पाऊँ, श्याम कहाँ मिलेंगे, यही उनकी टेक थी। यही उनका अहर्निश का व्यापार था। एक दिन राधाभाव में ही आपको श्रीकृष्ण के मथुरागमन की स्फूर्ति हो आयी, आप उसी समय बड़े ही करुणस्वर में राधा जी के समान इस श्लोक को रोते-रोते गाने लगे–
क्व नन्दकुलचन्द्रमा: क्व शिखिचन्द्रिकालंकत:
क्व मन्दमुरलीरव: क्व नु सुरेन्द्रनीलद्युति:।
क्व रासरसताण्डवी क्व सखि जीवरक्षौषधि
र्निधिर्मम सुहृत्तम: क्व बत हन्त हा धिग्विधिम्।।[2]
इस प्रकार विधाता को बार-बार धिक्कार देते हुए प्रभु उसी भावावेश में श्रीमद्भागवत के श्लोकों को पढ़ने लगे। इस प्रकार आधी रात तक आप अश्रु बहाते हुए गोपियों के विरहसम्बन्धी श्लोकों की ही व्याख्या करते रहे।
अर्धरात्रि बीत जाने पर नियमानुसार स्वरूप गोस्वामी ने प्रभु को गम्भीरा के भीतर सुलाया और राय रामानन्द अपने घर को चले गये। महाप्रभु उसी प्रकार जोरों से चिल्ला-चिल्लाकर नाम-संकीर्तन करते रहे। आज प्रभु की वेदना पराकाष्ठा को पहुँच गयी। उनके प्राण छटपटाने लगे। अंग किसी प्यारे के आलिंगन के लिये छटपटाने लगे। मुख किसी के मुख को अपने ऊपर देखने के लिये हिलने लगा। ओष्ठ किसी के मधुमय, प्रेममय शीतलतापूर्ण अधरों के स्पर्श के लिये स्वत: ही कँपने लगे। प्रभु अपने आवेश को रोकने में एकदम असमर्थ हो गये। वे जोरों से अपने अति कोमल सुन्दर श्रीमुख को दीवार में घिसने लगे। दीवार की रगड़ के कारण उसमें से रक्त बह चला। प्रभु का गला रुँधा हुआ था, श्वास कष्ट से बाहर निकलता था। कण्ठ घर-घर शब्द कर रहा था। रक्त के बहने से वह स्थान रक्तवर्ण का हो गया। वे लम्बी–लम्बी सांस लेकर गों-गों ऐसा शब्द कर रहे थे। उस दिन स्वरूप गोस्वामी को भी रात्रिभर नींद नहीं आयी। उन्होंने प्रभु का दबा हुआ ‘गों-गों’ शब्द सुना। अब इस बात को कविराज गोस्वामी के शब्दों में सुनिये–
विरहे व्याकुल प्रभुर उद्वेग उठिला।
गम्भीरा-भितरे मुख घर्षिते लागिला।।
मुखे, गण्डे, नाके, क्षत हइल अपार।
भावावेश ना जानेन प्रभु पड़े रक्तधार।।
सर्वरात्रि करने भावे मुखसंघर्षण।
गों-गों शब्द करने, स्वरूप सुनिल तखन।।[1]
गों-गों शब्द सुनकर स्वरूप गोस्वामी उसी क्षण उठकर प्रभु के पास आये। उन्होंने दीपक जलाकर जो देखा उसे देखकर वे आश्चर्यचकित हो गये। महाप्रभु अपने मुख को दीवार में घिस रहे हैं। दीवार लाल हो गयी है, नीचे रुधिर पड़ा है। गेरुए रंग के वस्त्र रक्त में सराबोर हो रहे हैं। प्रभु की दोनों आँखें चढ़ी हुई हैं। वे बार-बार जोरों से मुख को उसी प्रकार रगड़ रहे हैं। नाक छिल गयी है। उनकी दशा विचित्र थी–
रोमकूपे रक्तोद्गम दंत सब हाले।
क्षणे अंग क्षीण हाय क्षणे अंग फूले।।
जिस प्रकार सेही नाम के जानवर के शरीर पर लम्बे-लम्बे काँटे होते हैं और क्रोध में वे एकदम खड़े हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रभु के अंग के सम्पूर्ण रोम सीधे खड़े हुए थे, उनमें रक्त की धारा बह रही थी। दाँत हिल रहे थे और कड़-कड़ शब्द कर रहे थे। अंग कभी तो फूल जाता था और कभी क्षीण हो जाता था। स्वरूप गोस्वामी ने इन्हें पकड़कर उस कर्म से रोका। तब प्रभु को कुछ बाह्य ज्ञान हुआ। स्वरूप गोस्वामी ने दु:खित चित्त से पूछा– ‘प्रभो ! यह आप क्या कर रहे हैं? मुँह को क्यों घिस रहे हैं?’
महाप्रभु उनके प्रश्न को सुनकर स्वस्थ हुए और कहने लगे– ‘स्वरूप ! मैं तो एकदम पागल हो गया हूँ। न जाने क्यों रात्रि मेरे लिये अत्यन्त ही दु:खदायी हो जाती है। मेरी वेदना रात्रि में अत्यधिक बढ़ जाती है। मैं विकल होकर बाहर निकलना चाहता था। अँधेरे में दरवाजा नहीं मिला। इसीलिये दीवार में दरवाजा करने के निमित्त मुँह घिसने लगा। यह रक्त निकला या घाव हो गया, इसका मुझे कुछ पता नहीं।’
इस बात से स्वरूप दामोदर को बडी चिन्ता हुई। उन्होंने अपनी चिन्ता भक्तों पर प्रकट की, उनमें से शंकर जी ने कहा– ‘यदि प्रभु को आपत्ति न हो, तो में उनके चरणों को हृदय पर रखकर सदा शयन किया करूँगा, इससे वे कभी ऐसा काम करेंगे भी तो मैं रोक दूँगा।’ उन्होंने प्रभु से प्रार्थना की, प्रभु ने कोई आपत्ति नहीं की।
इसलिये उस दिन से शंकर जी सदा प्रभु के पादपद्मों को अपने वक्ष:स्थल पर धारण करके सोया करते थे। प्रभु इधर से उधर करवट भी लेते, तभी उनकी आँखें खुल जातीं और वे सचेष्ट हो जाते। रात्रि-रात्रिभर जाकर प्रभु के चरणों को दबाते रहते थे। इस भये से प्रभु अब बाहर नहीं भाग सकते थे। उसी दिन से शंकर जी का नाम पड़ गया ‘प्रभुपादोपाधान’। सचमुच वे प्रभु के पैरों के तकिया ही थे। उन तकिया लगाने वाले महाराज के और तकिया बने हुए सेवक के चरणों में हमारा बार-बार प्रणाम हैं।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
।। Srihari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Jap] Hare Krishna Hare Ram Transcendental divine madness
From the separation of his own flock like a tumor of life He was constantly distracted by the madness of babbling They were always rubbing their faces with blood on the walls The wounded cow-like heart rising makes me mad.
Mahaprabhu’s state of ecstasy is not only difficult to describe, but also very heart-wrenching. Leave aside the talk of those who have hearts like thunderbolts, but those who are kind-hearted, sentimental, juicy, painful, worshipers of sweet night, soft hearted, whose heart is filled with sorrowful hearing, whose conscience Very lujluja – going to liquefy soon, they can’t even read these episodes. Really it was our destiny to write these unreadable chapters. What to do, we are helpless, this iron pen has been forcefully given in our hands. Even after writing such a book, this dakini has remained as it is, it does not even get worn out. Don’t know in which machine it was specially made for us. Oh ! He will have to write the sad story of the struggle of whose mouth. Remembering the beauty of Shrimukh, the pen used to forget its ironness, now she will describe that blood-stained face with her black mouth. The face of this pen itself is not black. But his stomach is also filled with black ink and he himself is also black. Where is this fascination, what kind of affection, she has not learned to stop. Pen! This cruel act of yours is cursed again and again.
The pain of separation from Mahaprabhu used to increase more and more. You used to raving while always being situated in Radha Bhav. Where would I find Krishna, where would I find Shyam, this was his main concern. This was his business of earning. One day you got the inspiration of Shri Krishna’s visit to Mathura in Radha Bhav, at the same time you started crying and crying this verse like Radha ji.
Where is Nandakulachandrama: Where is Shikhichandrikalankata? Where is the soft mural sound? Where is the blue effulgence of the gods? Where is the Rasarasatandavi, where is the herb of life and demons, my friend? Where is the treasure of my best friend?
In this way, cursing the creator again and again, the Lord started reciting the verses of Shrimad Bhagwat in the same spirit. In this way, shedding tears till midnight, you kept on explaining the verses related to the separation of the gopis.
After midnight, according to the rules, Svarupa Goswami put Prabhu to sleep inside Gambhira and Rai Ramananda went to his home. In the same way, Mahaprabhu kept chanting his name loudly. Today the pain of the Lord reached its peak. His life started fluttering. The organs started fluttering for the embrace of a loved one. The face started moving to see someone’s face above him. Lips started trembling automatically for the touch of someone’s sweet, loving cool lips. Prabhu was completely unable to control his passion. He started rubbing his very soft beautiful Shrimukh on the wall. Due to the rubbing of the wall, blood flowed from it. Prabhu’s throat was choked, breathing came out of pain. Kanth was saying the word from house to house. Due to the flow of blood, that place became bloody. He was reciting such words with long breaths. Swaroop Goswami also could not sleep the whole night that day. He heard the suppressed ‘gon-gon’ sound of the Lord. Now listen to this in the words of Kaviraj Goswami-
The Lord was anxious for separation. She began to rub her face deeply inside. Face, cheeks, nose, wounds were immense. They don’t know the emotions, Lord, they fall bloodthirsty. Rubbing your mouth all night. Gong-gong sound to, form Sunil then.
Hearing the sound of gong-gong, Swaroop Goswami got up at the same moment and came to the Lord. They were surprised to see what they saw after lighting the lamp. Mahaprabhu is rubbing his face against the wall. The wall has turned red, blood is lying below. Ocher colored clothes are getting drenched in blood. Both the eyes of the Lord are raised. He is repeatedly rubbing his face vigorously in the same way. The nose is peeled off. His condition was strange.
The teeth all shake with blood in the hair follicles. In a moment the limbs are weakened, and in a moment the limbs are blossoming.
Just as an animal named Sehi has long thorns on its body and becomes erect in anger, in the same way all the hairs of the Lord’s limbs stood erect, with a stream of blood flowing through them. The teeth were chattering and chattering. Sometimes the organ used to swell and sometimes it used to get emaciated. Swarup Goswami caught hold of him and stopped him from doing that deed. Then the Lord had some external knowledge. Swaroop Goswami asked with a sad heart – ‘ Lord! What are you doing this? Why are you rubbing your face?’
Mahaprabhu got well after listening to his question and started saying – ‘ Swarup! I have gone completely mad. Don’t know why the night becomes very sad for me. My pain gets worse at night. I desperately wanted to get out. Couldn’t find the door in the dark. That’s why the mouth started rubbing to make a door in the wall. I don’t know whether this blood came out or there was a wound.’ Swaroop Damodar was very worried about this. He expressed his concern to the devotees, among them Shankar ji said- ‘If the Lord doesn’t mind, I will always sleep keeping his feet on my heart, even if they ever do such a thing, I will stop them.’ Prayed to the Lord, the Lord did not object. That’s why from that day Shankar ji always used to sleep by holding the lotus feet of the Lord on his chest. Prabhu would even turn from here to there, only then his eyes would open and he would become alert. He used to press the feet of the Lord by going night and night. Due to this fear, Prabhu could not run out now. From that day Shankarji’s name was ‘Prabhupadopadhan’. Truly they were the pillow of the Lord’s feet. We offer our obeisances again and again at the feet of the king who put the pillow and the servant who became the pillow.
respectively next post [169] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]