।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
ठाकुर नरोत्तमदास जी
लोकनाथप्रियं धीरं लोकातीतं च प्रेमदम्।
श्रीनरोत्तमनामाख्यं तं विरक्तं नमाम्यहम्।।
पद्मा नदी के किनारे पर खेतरी नाम की एक छोटी सी राजधानी है। उसी राज्य में स्वामी श्री कृष्ण नन्ददत्त मजूमदार के यहाँ नारायणी देवी के गर्भ से ठाकुर नरोत्तमदास जी का जन्म हुआ। ये बाल्यकाल से ही विरक्त थे। घर में अतुल ऐश्वर्य था, सभी प्रकार के संसारी सुख थे, किन्तु इन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। ये वैष्णवों के द्वारा श्रीगौरांग की लीलाओं का श्रवण किया करते थे। श्रीरूप तथा सनातन और श्री रघुनाथदास जी के त्याग और वैराग्य की कथाएँ सुन-सुनकर इनका मन राज्य, परिवार तथा धन-सम्पत्ति से एकदम फिर गया। ये दिन-रात श्री गौरांग की मनोहर मूर्ति का ही ध्यान करते रहे। सोते-जागते, उठते-बैठते इन्हें चैतन्यलीलाएँ ही स्मरण होने लगीं। घर में इनका चित्त एकदम नहीं लगता था। इसलिये ये घर को छोड़कर कहीं भाग जाने की बात सोच रहे थे।
गौरांग महाप्रभु तथा उनके बहुत-से प्रिय पार्षद इस संसार को त्यागकर वैकुण्ठवासी बन चुके थे। बालक नरोत्तमदास कुछ निश्चित न कर सके कि किसके पास जाऊँ। पण्डित गोस्वामी, स्वरूपदामोदर, नित्यानन्द जी, अद्वैताचार्य तथा सनातन आदि बहुत से प्रभुपार्षद इस संसार को छोड़ गये थे। अब किसकी शरण में जाने से गौरप्रेम की उपलब्धि हो सकेगी– इसी चिन्ता में ये सदा निमग्न रहते। एक दिन स्वप्न में इन्हें श्रीगौरांग ने दर्शन दिये और आदेश दिया कि– ‘तुम वृन्दावन में जाकर लोकनाथ गोस्वामी के शिष्य बन जाओ’। बस, फिर क्या था, ये एक दिन घर से छिपकर वृन्दावन के लिये भाग गये और वहाँ श्री जीवगोस्वामी के शरणापन्न हुए। इन्होंने अपने स्वप्न का वृत्तान्त जीवगोस्वामी को सुनाया। इसे सुनकर उन्हें प्रसन्नता भी हुई और कुछ खेद भी। प्रसन्नता तो इनके राज-पाट, धन-धान्य तथा कुटुम्ब-परिवार के परित्याग और वैराग्य के कारण हुई। खेद इस बात का हुआ कि लोकनाथ गोस्वामी किसी को शिष्य बनाते ही नहीं। शिष्य न बनाने का उनका कठोर नियम है।
श्री लोकनाथ गोस्वामी और भूगर्भ गोस्वामी दोनों ही महाप्रभु के संन्यास लेने से पूर्व ही उनकी आज्ञा से वृन्दावन में आकर चीरघाट पर एक कुंजकुटीर बनाकर साधन-भजन करते थे। लोकनाथ गोस्वामी का वैराग्य बड़ा ही अलौकिक था। वे कभी किसी से व्यर्थ की बातें नहीं करते। प्राय: वे सदा मौन से ही बने रहते। शान्त एकान्त स्थान में वे चुपचाप भजन करते रहते, स्वत: ही कुछ थोड़ा-बहुत प्राप्त हो गया, उसे पा लिया, नहीं तो भूखे ही पड़े रहते। शिष्य न बनाने का इन्होंने कठोर नियम कर रखा था, इसलिये आज तक इन्होंने किसी को भी मंत्र दीक्षा नहीं दी थी।
श्री जीवगोस्वामी इन्हें लोकनाथ गोस्वामी के आश्रम में ले गये और वहाँ जाकर इनका उनसे परिचय कराया। राजा कृष्णानन्ददत्त के सुकुमार राजकुमार नरोत्तमदास के ऐसे वैराग्य को देखकर गोस्वामी लोकनाथ जी अत्यन्त ही संतुष्ट हुए। जब इन्होंने अपनी दीक्षा की बात की तब उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि ‘हमें तो गौर ने आज्ञा नहीं दी। हमारा तो शिष्य न करने का नियम है। तुम किसी और गुरु की शरण में जाओ।’ इस उत्तर से राजकुमार नरोत्तमदास जी हताश या निराश नहीं हुए, उन्होंने मन ही मन कहा– ‘मुझ में शिष्य बनने की सच्ची श्रद्धा होगी तो आपको ही दीक्षा देनी होगी।’ यह सोचकर ये छिपकर वहीं रहने लगे।
श्री लोकनाथ गोस्वामी प्रात:काल उठकर यमुना जी में स्नान करने जाते और दिन भर अपनी कुंजकुटी में बैठे-बैठे हरिनाम-जप किया करते। नरोत्तमदास छिपकर उनकी सेवा करने लगे। वे जहाँ शौच जाते, उस शौच को उठाकर दूर फेंक आते। जिस कंकरीले, पथरीले और कण्टकाकीर्ण रास्ते से वे यमुना स्नान करने जाते उस रास्ते को खूब साफ करते। उसके कांटेदार वृक्षों को काटकर दूसर ओर फेंक देते, वहाँ सुन्दर बालुका बिदा देते। कुंज को बांध देते। उनके हाथ धोने को नरम-सी मिट्टी लाकर रख देते। दोपहर को उनके लिये भिक्षा लाकर चुपके से रख जाते। सारांश यह कि जितनी वे कर सकते थे और जो भी उनके सुख का उपाय सूझता उसे ही सदा करते रहते। इस प्रकार उन्हें गुप्त रीति से सेवा करते हुए बारह-तेरह महीने बीत गये। जब सब बातें गोस्वामी जी को विदित हो गयीं तो उनका हृदय भर आया। अब वे अपनी प्रतिज्ञा को एकदम भूल गये, उन्होंने राजकुमार नरोत्तम को हृदय से लगा लिया और उन्हें मंत्र दीक्षा देने के लिये उद्यत हो गये। बात की बात में यह समाचार सम्पूर्ण वैष्णव समाज में फैल गया। सभी आकर नरोत्तमदास जी के भाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।
दीक्षा तिथि श्रावण की पूर्णिमा निश्चित हुई, उस दिन सैकड़ों विरक्त भक्त श्रीलोकनाथ गोस्वामी के आश्रम पर एकत्रित हो गये। जीवगोस्वामी ने माला पहनाकर नरोत्तमदास जी को गुरु के चरणों में भेजा। गुरु ने पहले उनसे कहा– ‘जीवनभर अविवाहित रहना होगा। सांसारिक सुखों को एकदम तिलांजलि देनी होगी। मांस-मछली जीवन में कभी न खानी होगी’। नतमस्तक होकर नरोत्तमदास जी ने सभी बातें स्वीकार कीं। तब गोस्वामी जी ने इन्हें विधिवत् दीक्षा दी। नरोत्तम ठाकुर का अब पुनर्जन्म हो गया। उन्होंने श्रद्धा-भक्ति के सहित सभी उपस्थित वैष्णवों की चरणवन्दना की। गुरु देव की पदधूलि मस्तक पर चढ़ायी और वे उन्हीं की आज्ञा से श्री जीवगोस्वामी के समीप रहकर भक्तिशास्त्र की शिखा प्राप्त करते रहे।
कालान्तर में श्री जीवगोस्वामी ने इन्हें और श्यामानन्द तथा श्री निवासाचार्य को भक्ति मार्ग पर प्रचार करने के निमित्त गौड़देश को भेजा। श्री श्यामानन्द जी ने तो अपनी प्रखर प्रतिभा और प्रबल पाण्डित्य तथा अलौकिक प्रभाव के कारण सम्पूर्ण उड़ीसा देश को भक्तिसामृत में प्लावित बना दिया। श्री निवासाचार्य ने वैष्णव समाज में नवीन जागृति पैदा की और नरोत्तम ठाकुर ने शिथिल होते हुए वैष्णव धर्म को फिर से प्रभावान्वित बना दिया। बडे पण्डित और भट्टाचार्य अपने ब्राह्मणपने के अभिमान को छोड़कर कायस्थकुलोद्भूत श्री नरोत्तम ठाकुर के मंत्रशिष्य बन गये। इनका प्रभाव सभी श्रेणी के लागों पर पड़ता था। इनके पिता भी इन्हें पूज्य दृष्टि से देखते थे। उन्होंने इन्हीं के आदेशानुसार श्री गौरांग महाप्रभु का एक बड़ा भारी मन्दिर बनवाया और उसमें श्री गौरांग और श्री विष्णुप्रिया जी की युगल मूर्तियों की स्थापना की गयी। इसके उपलक्ष्य में एक बड़ा भारी महामहोत्सव किया और बहुत दिनों तक निरन्तर कीर्तन-सत्संग होता रहा।
नरोत्तम ठाकुर का प्रभाव उन दिनों बहुत ही अधिक था, बड़े-बड़े राजे-महाराजे इनके मंत्र-शिष्य थे। बड़े पण्डित इन्हें नि:संकोच भाव से साष्टांग प्रणाम करते। ये बँगला भाषा के सुकवि भी थे। इन्होंने गौरप्रेम में उन्मत्त होकर हजारों पदों की रचना की है। इनकी पदावलियों का वैष्णवसमाज में बड़ा आदर है। इन्होंने परमायु प्राप्त की थी। अन्त समय ये गंगा जी के किनारे गम्भीरा नामक ग्राम में अपने एक शिष्य गंगा नारायण पण्डित के यहाँ चले गये।
कार्तिक की कृष्णा पंचमी का दिन था। प्रात:काल ठाकुर महाशय अपने प्रिय शिष्य गंगानारायण पण्डित तथा रामकृष्ण के साथ गंगा-स्नान के निमित्त गये। वे कमर तक जल में चले गये और अपने शिष्यों से कहा– ‘हमारे शरीर को तो थोड़ा मलो।’ शिष्यों ने गुरुदेव की आज्ञा का पालन किया। देखते ही देखते ठाकुर महाशय का निर्जीव शरीर गंगामाता के सुशीतल जल में गिरकर अठखेलियां करने लगा। नरोत्तम ठाकुर इस असार संसार को त्यागकर अपने सत्य और नित्य लोक को चले गये। वैष्णवों के हाहाकार से गंगा का किनारा गूँजने लगा। गंगामाता का हृदय भी अपने लाडले पुत्र के शोक में उमड़ने लगा और वह भी अपनी मर्यादा को छोड़कर बढ़ने लगीं।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Thakur Narottamdas ji
He is dear to the Lord of the worlds, steadfast, and transcendental to the worlds, and gives love. I offer my obeisances to that detached one named Sri Narottama.
There is a small capital named Khetri on the banks of the Padma river. Thakur Narottamdas ji was born from the womb of Narayani Devi at Swami Shri Krishna Nandadatta Majumdar’s place in the same state. He was disinterested since childhood. There was immense wealth in the house, there were all kinds of worldly pleasures, but he did not like anything. He used to listen to Shri Gaurang’s pastimes through Vaishnavas. After listening to the stories of Shrirup and Sanatan and Shri Raghunathdas ji’s renunciation and disinterest, his mind completely turned away from the state, family and wealth. He kept meditating on the beautiful idol of Shri Gauranga day and night. While sleeping, waking up, getting up and sitting, he started remembering Chaitanya Leelas. He did not feel at home at all. That’s why they were thinking of leaving home and running away.
Gauranga Mahaprabhu and many of his dear councilors had renounced this world and become residents of Vaikuntha. Child Narottamdas could not decide whom to go to. Pandit Goswami, Swarupadamodar, Nityanand ji, Advaitacharya and Sanatan etc. many Prabhuparshads had left this world. Now by taking refuge in whom will one attain Gaurprem – he was always engrossed in this worry. One day Shri Gaurang appeared to him in a dream and ordered that- ‘You go to Vrindavan and become a disciple of Loknath Goswami’. What was it then, one day he hid from home and fled to Vrindavan and took refuge in Shri Jivagoswami there. He told the story of his dream to Jiva Goswami. Hearing this, he was happy and also a little sorry. The happiness was due to the renunciation and renunciation of his kingdom, wealth and grains and his family. It is a matter of regret that Loknath Goswami does not make anyone his disciple. He has a strict rule not to make disciples.
Both Shri Loknath Goswami and Bhugarbha Goswami used to come to Vrindavan by Mahaprabhu’s order and perform Sadhana-Bhajan by building a Kunjkutir at Chirghat before he retired. Loknath Goswami’s quietness was very supernatural. He never talks unnecessarily with anyone. Often they always remained silent. He used to do bhajan silently in a quiet secluded place, automatically got a little bit, got it, otherwise he would have remained hungry. He had made a strict rule not to make disciples, that’s why till date he had not given mantra diksha to anyone.
Shri Jivagoswami took him to Lokanatha Goswami’s ashram and introduced him there. Goswami Loknath ji was extremely satisfied to see such disinterestedness of King Krishnanandadat’s Sukumar prince Narottamdas. When he talked about his initiation, he clearly said that ‘ Gaur didn’t give us permission. We have a rule not to make disciples. You go to the shelter of some other guru.’ Rajkumar Narottamdas ji did not get frustrated or disappointed by this answer, he said in his mind – ‘If I have true faith to become a disciple, then only you will have to give me initiation.’ Thinking this, he secretly went there. Started living
Shri Loknath Goswami got up early in the morning to take bath in Yamuna ji and used to chant Harinam while sitting in his Kunjkuti throughout the day. Narottamdas started serving him secretly. Wherever he used to defecate, he used to pick up that defecation and throw it away. He used to clean the pebble, rocky and thorny path by which he used to go to bathe in the Yamuna. Cut its thorny trees and throw them on the other side, leaving beautiful sand there. Would have tied the bow. Would have brought soft soil to wash their hands. Bring alms for them in the afternoon and keep it secretly. The summary is that they always used to do as much as they could and whatever solution they could think of for their happiness. Thus twelve-thirteen months passed by serving him secretly. When all the things became known to Goswami ji, his heart was filled with joy. Now he completely forgot his vow, he embraced Prince Narottama and got ready to give him mantra diksha. Word of mouth, this news spread in the entire Vaishnava society. Everyone came and started praising Narottamdas ji’s fortune.
The initiation date was fixed on the full moon day of Shravan, on that day hundreds of disillusioned devotees gathered at Sri Lokanatha Goswami’s ashram. Jivagoswami garlanded Narottam Das and sent him to the feet of the Guru. The Guru first said to him- ‘You will have to remain unmarried for the rest of your life. Worldly pleasures have to be given up completely. Meat-fish will never have to be eaten in life. Bowing down, Narottamdas ji accepted everything. Then Goswami ji duly initiated him. Narottam Thakur has now taken rebirth. He worshiped the feet of all the Vaishnavas present with reverence and devotion. The dust of Guru Dev’s feet covered his head and by his permission, he continued to receive the teachings of Bhakti Shastra by staying close to Sri Jiva Goswami.
Later, Sri Jivagoswami sent him along with Shyamananda and Sri Nivasacharya to Gaudesh to preach the path of devotion. Shri Shyamanand ji, due to his intense talent and strong erudition and supernatural influence, made the entire Odisha country immersed in Bhaktisamrit. Sri Nivasacharya created a new awakening in the Vaishnava society and Narottama Thakur made the Vaishnava religion influential again after being relaxed. Bade Pandit and Bhattacharya left the pride of being a Brahmin and became the mantrashishya of Kayasthakulodbhuta Shri Narottama Thakur. They had an impact on all categories of people. His father also looked at him with reverence. As per his orders, he got a big heavy temple of Shri Gauranga Mahaprabhu built and the couple idols of Shri Gauranga and Shri Vishnupriya ji were installed in it. On this occasion, a huge grand festival was organized and Kirtan-Satsang continued for many days.
The influence of Narottam Thakur was very high in those days, big kings and emperors were his mantra-disciples. Big pundits used to bow down to him without any hesitation. He was also a poet of Bengali language. He has created thousands of posts by being mad in Gaurprem. His postulates have great respect in the Vaishnava community. He had attained Paramayu. At last, he went to one of his disciple Ganga Narayan Pandit in a village named Gambhira on the banks of river Ganga.
It was the day of Karthik’s Krishna Panchami. Early in the morning, Thakur Mahasaya along with his dear disciples Ganganarayan Pandit and Ramakrishna went to bathe in the Ganges. He went into waist-deep water and said to his disciples- ‘Please touch our body a little.’ The disciples obeyed Gurudev’s orders. In no time, the lifeless body of Thakur Mahasaya fell into the cool water of Ganga Mata and started frolicking. Narottam Thakur left this Asar world and went to his true and eternal world. The banks of the Ganges started echoing with the cries of the Vaishnavas. Mother Ganga’s heart also started overflowing in mourning for her beloved son and she also started growing leaving her dignity.
respectively next post [176] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]