।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
विवाह
न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते।
तया हि सहितः सर्वान् पुरुषार्थान् समश्नुते।।
वट के नन्हें से बीज के अन्तर्गत एक महान वृक्ष छिपा रहता है, अज्ञानी लोग उसे भी अन्य पौधों के बीज की भाँति छोटा-सा ही बीज समझते हैं। अजवाइन के बीजों के साथ ही वट के बीज को भी बोते हैं, पहले-पहले दोनों का अंकुर एक-सा ही निकलता है, किन्तु आगे चलके अजवाइन का वृक्ष तो थोड़ा ही बढ़कर साल छः महीनों में ही सूख जाता है, किन्तु वट-वृक्ष निरन्तर बढ़ता ही रहता है और कालान्तर में जाकर वह एक महान विशाल वृक्ष बन जाता है, जिसकी छाया में बैठकर असंख्यों पसीनों से भींगे हुए प्राणी शीतलता का सुखास्वादन करते हैं, उसकी पूर्ण आयु का अनुमान भी नहीं किया जाता है। वह शाश्वत वृक्ष बन जाता है। निमाई यद्यपि अपने विद्यार्थियों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान और विलक्षण थे, फिर भी साधारण लोग यही समझते थे कि कालान्तर में यह भी एक पाठशाला खोलकर नवद्वीप का अन्य पण्डितों की भाँति एक नामी पण्डित बन जायगा।
यह भी अन्य पण्डितों की भाँति स्त्री-पुत्रों में आसक्त होकर सुखपूर्वक संसारी सुखों का उपभोग करेगा। क्योंकि विद्वान हो अथवा मूर्ख संसारी विषयों में तो सब समानरूप से ही रत रहते हैं। बड़े लोगों की भोग-सामग्री बहुमूल्य ओर बड़ी होती है। छोटे लोग साधारण भोग-सामग्रियों से ही अपनी वासनाओं को पूर्ण करते हैं, किन्तु उनमें आसक्ति दोनों की समान ही है। बँधे दोनों ही हैं। फिर चाहे वह बन्धन रस्सी का हो अथवा रेशम का। सोने की हो या लोहे की, बेड़ी तो समान ही हैं। दोनों ही बन्धन से प्रभु की इच्छा के बिना नहीं निकल सकते। अन्यान्य पण्डितों को धन के ही लिये विद्योपार्जन करते देख लोगों का यही अनुमान हो गया था कि निमाई भी अपने विद्या-बल से खूब धन प्राप्त करेगा। उन्हें यह पता नहीं था, इसके उपदेश से असंख्यों मनुष्य स्त्री, धन, परिवार और समस्त उत्तमोत्तम भोग-सामग्रियों को तुच्छ समझकर महाधन की प्राप्ति में कटिबद्ध हो जायँगे और अपने मनुष्य जन्म को सार्थक बनावेंगे।
संसारी लोग बेचारे और अनुमान कर ही क्या सकते हैं? इनका आरम्भिक जीवन आदि में अन्य साधारण जीवनों की भाँति था ही, इससे लोगों का यही अनुमान लगाना ठीक था। निमाई की अवस्था अब सोलह वर्ष की है। व्याकरण, अलंकार और न्याय में इन्होंने प्रवीणता प्राप्त कर ली है। आगे पढ़ने की भी इच्छा थी, किन्तु कई कारणों से इन्होंने पाठशाला में जाकर पढ़ना बंद कर दिया। घर पर अकेली विधवा माता थी, निर्वाह का कोई दूसरा प्रबन्ध नहीं था।
आकाशी वृत्ति थी, ईश्वरेच्छा से जो भी आ जाता उसी पर निर्वाह होता। मिश्र जी कोई सम्पत्ति नहीं छोड़ गये थे, उनके सामने भी इसी प्रकार निर्वाह होता था। अब निमाई समझदार हो गये, विद्वान भी बन गये, इसीलिये अब जीवन-निर्वाह के लिये भी कुछ उद्योग करना चाहिये। वृद्धा माता को सुख पहुँचाने का यही अवसर है। यह सब सोच-समझकर इन्होंने सोलह वर्ष की छोटी ही अवस्था में अध्यापन का कार्य करना आरम्भ कर दिया। इनकी विलक्षण बुद्धि और पठन-पाठन को अद्वितीय सुन्दर शैली से सभी शास्त्रीय ज्ञान रखने वाले पुरुष परिचित थे। इसलिये इन्हें नवद्वीप-जैसे विद्या के भारी केन्द्रस्थान में अध्यापक बनने में कोई कठिनता न हुई। नवद्वीप में मुकुन्द संजय नाम के एक विद्यानुरागी धनी-मानी व्यक्ति थे। उनके एक पुरुषोत्तम संजय नाम का पुत्र था।
संजय महाशय अपने पुत्र के पढ़ाने के निमित्त किसी योग्य अध्यापक की तलाश में थे। निमाई की ऐसी इच्छा देख उन्होंने इनसे प्रार्थना की। निमाई स्वयं ही एक पाठशाला स्थापित करने की बात सोच रहे थे, किन्तु उनके छोटे-से मकान में पाठशाला स्थापित करने के योग्य स्थान ही न था। संजय भगवत-भक्त होने के साथ धनी भी थे। बंगाल में प्रायः सभी धार्मिक पुरुषों के यहाँ एक ‘चण्डी-मण्डप’ नाम से अलग स्थान होता है, उसे ‘देवी-गृह’ या ‘ठाकुर-दालान’ भी कहते हैं। नवदुर्गाओं में उक्त स्थान पर ही चण्डीपाठ और पूजा तथा उत्सव हुआ करते हैं। यह स्थान ऐसे ही शुभ कार्यों के लिये सुरक्षित होते हैं। योग्य और विद्वान अतिथि के आने पर इसी स्थान में उनका आतिथ्यादि भी किया जाता है। अपनी शक्ति के अनुसार धनिकों का चण्डी-मण्डप विस्तृत, सुन्दर और अधिक कीमती होता है।
संजय महाशय का चण्डीमण्डप खूब बड़ा था। निमाई पण्डित ने उसी मण्डप में अपनी पाठशाला स्थापित की। इधर-उधर से बहुत-से छात्र इनका नाम सुनकर पढ़ने आने लगे। पुत्र के साथ संजय भी निमाई से विद्याध्ययन करने लगे। इनकी पढ़ाने की शैली बड़ी ही सरस तथा चित्ताकर्षक थी, इसलिये थोड़े ही समय में इनकी पाठशाला चल निकली और सैकड़ों छात्र इनके पास पढ़ने आने लगे। ये विद्यार्थियों के साथ गुरु-शिष्य का व्यवहारन करके एक प्रेमी मित्र का-सा व्यवहार करते। उनसे खूब हँसी-दिल्लगी करते, घर का हाल-चाल पूछते ओर अपनी सब बातें बताते। इससे विद्यार्थी इनके ऊपर अत्यधिक अनुराग रखने लगे। बहुत-से विद्यार्थी तो इनसे अवस्था में बहुत बड़े-बड़े थे। वे सब भी इनके पास अध्ययन करने आते और इनका हृदय से बहुत अधिक आदर करते थे। इस प्रकार इनकी पाठशाला नवद्वीप में एक प्रसिद्ध पाठशाला मानी जाने लगी।
व्याकरण-शास्त्र में गंगादास जी की पाठशाला को छोड़कर निमाई की पाठशाला सबसे श्रेष्ठ समझी जाती थी। निमाई विद्यार्थियों के साथ परिश्रम भी खूब करते थे। एक दिन निमाई पण्डित पाठशाला से पढ़ाकर अपने घर जा रहे थे। दैवात गंगा जी जाते हुए रास्ते में पं. बल्लभाचार्ज जी की तनया लक्ष्मीदेवी से उनका साक्षात्कार हो गया। बल्लभाचार्य निमाई के सजातीय ब्राह्मण थे। इन्होंने लक्ष्मीदेवी को पहले भी कई बार देखा था, किन्तु आज के दर्शन में विशेषता थी। लक्ष्मीदेवी को देखते ही परम सदाचारी निमाई के ‘भावस्थितानि जननान्तरसौहृदानि’ इस न्याय के अनुसार पूर्वजन्म के संस्कार जाग्रत हो उठे। स्वाभाविक सौहृद तो स्वतः ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है, इसमें चेष्टा करना या अनुराग करना तो कहा ही नहीं जा सकता। इन्होंने लक्ष्मीदेवी की ओर देखा। लक्ष्मीदेवी ने भी धीरे से इनकी ओर देखा और इनके पादपद्मों में भक्ति से मन-ही-मन प्रणाम करके वह गंगा की ओर चली गयी। ये अपने घर की ओर चले गये।
भावी की भवितव्यता तो देखिये उसी दिन बनवारी घटक नाम के जगन्नाथ मिश्र के स्नेही एक ब्राह्मण शचीदेवी के समीप आये और माता से कहने लगे- ‘निमाई अब सयाना हो गया है, अब उसके विवाह का शीघ्र ही उद्योग करना चाहिये। यदि तुम्हें पसंद हो तो पं. बल्लभाचार्य की एक कन्या है। तुम उसे चाहो तो देख सकती हो। लाखों में एक है, बड़ी ही सुशीला, सुन्दरी और बुद्धिमती लड़की है। निमाई के वह सर्वथा योग्य है। यदि तुम्हें यह सम्बन्ध मंजूर हो तो मैं पण्डित जी से इस सम्बन्ध में कहूँ।’
माता स्वयं पुत्र के विवाह की चिन्ता में थीं, किन्तु वे निमाई की इच्छा के बिना कोई सम्बन्ध निश्चित करना नहीं चाहती थीं। घर में कोई दूसरा आदमी सलाह करने के लिये था नहीं, पुत्र समझदार और सयाना था, उसकी अनुमति के बिना वे विवाह के सम्बन्ध में किसी को निश्चित वचन नहीं दे सकती थीं, अतः बात को टालते हुए माता ने कहा- ‘इस पितृ-हीन बालक का विवाह ही क्या है, अभी तो वह पढ़ ही रहा है। कुछ करने लगेगा तो देखा जायगा।’ घटक महाशय शचीमाता का ऐसा उदासीन भाव देखकर समझ गये कि माता को यह सम्बन्ध मंजूर नहीं। कारण कि पं. बल्लभाचार्य बहुत ही गरीब थे। ब्राह्मण ने समझा, माता अपने पण्डित पुत्र का निर्धन की लड़की के साथ विवाह करना नहीं चाहती। यह समझकर वे लौट आये। दैवात रास्ते में उन्हें निमाई मिल गये। इन्हें देखते ही निमाई खिल उठे ओर हँसते हुए बोले- ‘कहिये, घटक महाशय! किधर-किधर से आगमन हो रहा है।’
कुछ असन्तोष के भाव से घटक ने उत्तर दिया- ‘तुम्हारी माता के पास पं. बल्लभाचार्य की पुत्री के साथ तुम्हारे विवाह की बातचीत करने गया था, सो उन्होंने मंजूर ही नहीं किया। कहो तुम्हारी क्या सलाह है?’
निमाई यह सुनकर हँस पड़े। उन्होंने कुछ भी उत्तर नहीं दिया, वे हँसते हुए घर चले गये। घर पहुँचकर इन्होंने कुछ मुसकराते हुए कहा- ‘घटक उदास होकर जा रहे थे, बल्लभाचार्य जी का सम्बन्ध मंजूर क्यों नहीं किया?’ माता समझ गयी कि निमाई को इस सम्बन्ध में कोई आपत्ति नहीं है, इसलिये उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। दूसरे दिन घटक को बुलाकर उन्होंने कहा- ‘आचार्य महाशय, कल आप जो बात कहते थे, वह मुझे स्वीकार है, आप पं. बल्लभाचार्य से कहकर सब ठीक करा दीजिये। आप ही अब हमारे हितैषी हैं और घर में दूसरा है ही कौन? आपका ही लड़का है जैसे चाहें कीजिये।’ बनवारी घटक को यह सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उसी समय बल्लभाचार्य के घर पहुँचे।
आचार्य ने इनका सत्कार किया और आने का कारण जानना चाहा। इन्होंने सब वृत्तान्त बता दिया। इस संवाद को सुनकर पं. बल्लभाचार्य को तथा उनके समस्त घरवालों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे घटक से कहने लगे- ‘मेरा सौभाग्य है कि शची देवी ने इस सम्बन्ध को स्वीकार कर लिया है। निमाई पण्डित-जेसे विद्वान को अपना जामाता बनाने में मैं अपना अहोभाग्य समझता हूँ। लड़की के पूर्वजन्म के शुभ संस्कारों के उदय होने पर ही ऐसा वर मिल सकता है, किन्तु आप मेरी परिस्थिति से तो परिचित ही हैं। मेरे पास देने-लेने के लिये कुछ नहीं है। केवल पाँच हरीति की के साथ कन्या को ही समर्पित कर सकूँगा। यदि यह बात उन्हें मंजूर हो तो आप जब भी कहें मैं विवाह करने को तैयार हूँ।’
घटक ने कहा- ‘आप इस बात की कुछ चिन्ता न कीजिये। शची देवी को रूपये-पैसे का लोभ नहीं है। वे तो सुशीला सुन्दरी लड़की ही चाहती हैं, आप प्रसन्नता के साथ विवाह की तैयारियाँ कीजिये।’ यह कहकर घटक महाशय बल्लभाचार्य जी से विदा होकर शची देवी के पास आये और सम्पूर्ण वृत्तान्त सुना दिया। दोनों ओर से विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। नियत तिथि के दिन अपने स्नेही बन्धु-बान्धव तथा विद्यार्थियों के साथ बरात लेकर निमाई बल्लभाचार्य जी के घर गये। आचार्य ने सभी का यथोचित सम्मान किया। गोधूलि की शुभ लग्न में निमाई पण्डित ने लक्ष्मी देवी का पाणिग्रहण किया।
लक्ष्मी देवी ने काँपते हुए हाथों से इनके चरणों में माला अर्पण की और भक्तिभाव के साथ प्रणाम किया। इन्होंने उन्हें वामांग किया। हवन, प्रदक्षिणा, कन्यादान आदि सभी वैदिक कृत्य होने पर विवाह का कार्य सकुशल समाप्त हुआ। दूसरे दिन आचार्य से विदा होकर लक्ष्मी देवी के साथ पालकी में चढ़कर निमाई घर आये। माता ने सती स्त्रियों के साथ पुत्र और पुत्रवधू का स्वागत किया। ब्राह्मणों को तथा अन्य आश्रित जनों को यथायोग्य द्रव्य-दान किया गया। लक्ष्मी देवी का रंग-रूप निमाई के अनुरूप ही था। इस जुगल जोड़ी को देखकर पास-पड़ोस की स्त्रियाँ परम प्रसन्न हुईं। कोई तो इन्हें रति-कामदेव की उपमा देने लगी, कोइई-कोई शची-पुरन्दर कहकर परिहास करने लगी, कोई-कोई गौर-लक्ष्मी कहकर निमाई की ओर हँसने लगी। सुन्दरी पुत्रवधू के साथ पुत्र को देखकर माता को जो आनन्द प्राप्त हुआ उसका वर्णन करना इस लोह की लेखनी के बाहर की बात है।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:.
[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram
marriage
They say that a house is not a house but a housewife is called a house
For with her he attains all the purposes of man.
A great tree is hidden under the smallest seed of a banyan tree, ignorant people consider it as a small seed like the seeds of other plants. Along with celery seeds, banyan seeds are also sown, at first the sprouts of both grow the same, but later on, the celery tree grows a little and dries up within a year and six months, but the banyan tree It continues to grow and in due course of time it becomes a great huge tree, under whose shade innumerable creatures drenched in sweat enjoy the coolness, its full age is not even estimated. It becomes an eternal tree. Although Nimai was more intelligent and unique than his students, yet common people used to think that in due course of time he would also become a renowned scholar like other scholars of Navadvipa by opening a school.
He will also enjoy worldly pleasures happily by being attached to women and sons like other scholars. Because be it a scholar or a fool, all are equally engrossed in worldly matters. The enjoyment of big people is valuable and big. Small people fulfill their desires with simple enjoyments, but the attachment in them is the same for both. Both are bound. Then whether that binding is of rope or silk. Whether it is gold or iron, the fetters are the same. Both cannot come out of bondage without the will of the Lord. Seeing other pundits earning their education only for money, people had guessed that Nimai would also get a lot of money from his education. He didn’t know that, by his teachings, innumerable people would become determined to attain great wealth by considering women, money, family and all the best enjoyments as trivial and would make their human birth meaningful.
What can the poor worldly people guess? His early life was like other ordinary lives in the beginning, it was right for people to infer from this. Nimai is now sixteen years old. He has attained proficiency in grammar, ornamentation and justice. There was also a desire to study further, but due to many reasons, he stopped studying after going to school. There was a single widowed mother at home, there was no other arrangement for subsistence.
It was a celestial instinct, whoever came by the will of God would have survived on him. Mishra ji had not left any property, the same way of living in front of him. Now Nimai has become sensible, has also become a scholar, that is why now some industry should be done for livelihood. This is the opportunity to bring happiness to the old mother. Considering all this, he started teaching at the tender age of sixteen. All the men having classical knowledge were familiar with his unique intelligence and unique beautiful style of reading. That’s why he did not have any difficulty in becoming a teacher in a heavy center of learning like Navadweep. In Navadvipa, there was a scholarly person named Mukunda Sanjay. He had a son named Purushottam Sanjay.
Sanjay sir was looking for a suitable teacher for his son. Seeing such a wish of Nimai, he prayed to him. Nimai himself was thinking of setting up a school, but there was no place in his small house to set up a school. Sanjay was rich as well as being a devotee of God. In Bengal, almost all religious men have a separate place called ‘Chandi-Mandap’, it is also called ‘Devi-Griha’ or ‘Thakur-Dalan’. In Navadurga, Chandipath, worship and festivals take place at that place only. These places are safe for such auspicious works. On the arrival of a qualified and learned guest, they are also hosted in this place. According to their power, the Chandi-Mandap of the rich is elaborate, beautiful and more expensive.
The Chandimandap of Sanjay Mahasaya was huge. Nimai Pandit established his school in the same pavilion. Many students from here and there started coming to study after hearing his name. Along with his son, Sanjay also started studying from Nimai. His teaching style was very sweet and attractive, so in a short time his school started and hundreds of students started coming to study with him. By behaving like a teacher-disciple with the students, he used to behave like a loving friend. He used to joke a lot with them, inquire about the condition of the house and used to tell all his things. Due to this, the students started having a lot of affection on him. Many students were much older than him in their stage. All of them also used to come to him to study and respected him very much from their heart. In this way his school came to be considered a famous school in Nabadwip.
Nimai’s school was considered the best in grammar except Gangadas’s school. Nimai used to do a lot of hard work with the students. One day Nimai Pandit was going to his home after teaching from the school. On the way to Dewat Ganga ji, he had an interview with Tanaya Lakshmidevi of Pt. Vallabhacharj ji. Vallabhacharya was an ethnic Brahmin of Nimai. He had seen Lakshmidevi many times before, but there was a specialty in today’s darshan. On seeing Lakshmidevi, the sanskars of the previous birth were awakened according to the law of ‘Bhavstithani Janantar Sauhridani’ of the most virtuous Nimai. Natural cordiality automatically attracts towards itself, it cannot be said to try or have affection in it. He looked at Lakshmidevi. Lakshmidevi also slowly looked at him and bowing down to his lotus feet with devotion in her heart, she went towards the Ganges. They went towards their home.
Look at the fate of the future, on the same day, a Brahmin who was fond of Jagannath Mishra named Banwari Ghatak came near Sachidevi and said to the mother – ‘Nimai has now grown up, now his marriage should be arranged soon. Pt. Vallabhacharya has a daughter, if you like. You can see her if you want. She is one in a million, very sweet, beautiful and intelligent girl. He is absolutely worthy of Nimai. If you approve of this relationship, then I should tell Pandit ji in this regard.
The mother herself was worried about her son’s marriage, but she did not want to settle any relationship without Nimai’s consent. There was no other man in the house to consult, the son was sensible and mature, without his permission, she could not give a definite promise to anyone regarding marriage, so avoiding the matter, the mother said- ‘This fatherless What is the child’s marriage, he is still studying. If he tries to do something, we will see.’ Ghatak, seeing such an indifferent attitude of Sachimata, understood that the mother did not approve of this relationship. The reason is that Pt. Vallabhacharya was very poor. The Brahmin understood that the mother does not want her scholar son to marry a poor girl. Understanding this, they returned. They met Nimai on the way to the deity. On seeing them, Nimai blossomed and said laughing – ‘Say, Mr. Ghatak! It is coming from somewhere.
Ghatak replied with some dissatisfaction – ‘ I had gone to your mother to discuss your marriage with the daughter of Pt. Vallabhacharya, so she did not approve at all. Say what is your advice?
Nimai laughed hearing this. He didn’t answer anything, he went home laughing. After reaching home, he said with a smile – ‘The constituents were leaving sad, why didn’t they approve of Vallabhacharya ji’s relationship?’ Mother understood that Nimai had no objection in this relationship, so she was very happy. The next day he called Ghatak and said- ‘Acharya sir, I accept what you used to say yesterday, you should ask Pt. Vallabhacharya to get everything right. You are our well wisher now and who else is there in the house? Do whatever you want with him. Banwari Ghatak was overjoyed to hear this. He reached Vallabhacharya’s house at the same time.
Acharya felicitated him and wanted to know the reason for his arrival. He told all the stories. Pt. Vallabhacharya and all his family members were very happy after listening to this conversation. He started saying to Ghatak- ‘It is my good fortune that Shachi Devi has accepted this relationship. I consider myself unlucky to have a scholar like Nimai Pandit as my son-in-law. Such a groom can be found only when the auspicious rituals of the previous birth of the girl arise, but you are already familiar with my situation. I have nothing to give or take. I will be able to dedicate only five green keys to the girl. If this thing is acceptable to them, then whenever you say, I am ready to marry.
Ghatak said- ‘You should not worry about this. Shachi Devi has no greed for money. She only wants a beautiful girl, Sushila, you make preparations for marriage happily. ‘ After saying this, Ghatak left Vallabhacharya ji and came to Shachi Devi and narrated the whole story. Preparations for marriage started from both the sides. On the appointed day Nimai went to Vallabhacharya ji’s house with a procession along with his dear friends and students. Acharya respected everyone properly. In the auspicious time of twilight, Nimai Pandit took the water of Goddess Lakshmi.
Lakshmi Devi offered garland at his feet with trembling hands and bowed down with devotion. He asked them. After all the Vedic rituals like Havan, Pradakshina, Kanyadaan etc. are done, the work of marriage ended safely. On the second day, leaving Acharya, came to Nimai’s house with Lakshmi Devi in a palanquin. The mother welcomed the son and daughter-in-law along with the Sati women. Appropriate donations were made to Brahmins and other dependent people. Lakshmi Devi’s complexion was similar to that of Nimai. The women of the neighborhood were overjoyed to see this jugal pair. Some started giving them the likeness of Rati-Kamdev, some started making fun of them by calling them Shachi-Purandar, some started laughing at Nimai by calling them Gaur-Lakshmi. It is beyond the scope of this iron pen to describe the joy that the mother got on seeing the son with the beautiful daughter-in-law.
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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]