[30]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।

[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम

दिग्विजयी का वैराग्य

भोगे रोगभयं कुले च्तुतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं

मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम्।

शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं

सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।।

जिसकी जिह्वा ने मिश्री का रसास्वादन नहीं किया है, वही लौटा अथवा सीरा में सुख का अनुभव करेगा। जिस स्थान में गुड़ से चीनी या शक्कर बनायी जाती है, उसके बाहर एक बड़ा-सा कुण्ड होता है, उसमें गुड़ का सम्पूर्ण काला-काला मैल छन-छनकर आता है। दूकानदार उस मैल को कारखाने में से सस्ते दामों में खरीद लाते हैं और उसे तंबाकू में कूटकर बेचते हैं। दूकानदार सीरे को काठ के बड़े-बड़े़ पीपों में भरकार और गाड़ी में लादकर ले जाते हैं। काठ के पीपे में छोटे-छोटे छिद्र हो जाते हैं, उनमें से सीरा रास्ते में टपकता जाता है, हमने अपनी आँखों से देखा है, कि गाँव के ग्वारिया उन बूँदों को उँगलियों से उठाकर चाटते हैं और मिठास की खुशी के कारण नाचने लगते हैं, जहाँ कहीं बड़ी-बड़ी दस-पाँच बूँदें मिल जाती हैं, वहाँ वे प्रसन्नता के कारण उछलने लगते हैं और खुशी में अपने को परम सुखी समझने लगते हैं। यदि उन्हें कहीं मिश्री खाने के लिये मिल जाय तो फिर वे उस बदबूदार सीरे की ओर आँख उठाकर भी न देखेंगे, क्योंकि असली मिठास तो मिश्री में ही है। सीरे में तो उसका मैल है। मिठास के संसर्ग के कारण ही मैल में भी मिठास-सा प्रतीत होता है।

अज्ञानी बालक उसे ही मिठास समझकर खुशी से कूदने लगते हैं। इसी प्रकार असली आनन्द तो वैराग्य में ही है, विषयों में जो आनन्द प्रतीत होता है, वह तो वैराग्य का मैलमात्र ही है, जिसने वैराग्य का रसास्वादन कर लिया, वह इन क्षणभंगुर अनित्य संसारी विषयों में क्यों राग करेगा? वैराग्य का पिता पश्चात्ताप है, पश्चात्ताप के बिना वैराग्य हो ही नहीं सकता। जब किसी महात्मा के संसर्ग में हृदय में अपने पुराने कृत्यों पर पश्चात्ताप होगा तभी वैराग्य की उत्पत्ति होगी। वैराग्य का पुत्र त्याग है, त्याग वैराग्य से ही उत्पन्न होता है, बिना वैराग्य के त्याग ठहर ही नहीं सकता। त्याग के सुख नाम का पुत्र है और शान्ति नाम की एक पुत्री। ‘त्यागान्नास्ति परं सुखम्’ त्याग से बढ़कर परम सुख कोई है ही नहीं। त्याग के बिना सुख हो ही नहीं सकता। भगवान भी कहते हैं- ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ त्याग के अनन्तर ही शान्ति की उत्पत्ति होती है। अतः इस पूरे परिवार के आदिपुरुष या पूर्वज जनक पश्चात्ताप ही हैं। पश्चात्ताप के बिना इस परिवार की वंशवृद्धि नहीं हो सकती। इसीलिये तो सत्संग की इतनी महिला वर्णन की गयी है।

महापुरुषों के संसर्ग में जाने से कुछ तो अपने व्यर्थ के कर्मों पर पश्चात्ताप होगा ही, इसीलिये भगवती श्रुति बार-बार कहती है ‘कृतं स्मर’ ‘कृतं स्मर’ किए हुए का स्मरण करो। असली पश्चात्ताप तो सर्वस्व के नष्ट हो जाने पर या अपनी अत्यन्त प्रिय वस्तु के न प्राप्त होने पर ही होता है। जिन्हें परम सुख की इच्छा है और संसारी पदार्थों में उसका अभाव पाते हैं, वे संसारी सुखों में लात मारकर असली सुख की खोज में पहाड़ों की कन्दराओं में तथा एकान्त स्थानों में रहकर उसकी खोज करने लगते हैं उन्हीं को विरागी कहते हैं। दिग्विजयी पण्डित कैशव काश्मीरी की हार्दिक इच्छा थी कि मैं संसार में सर्वोत्तम ख्याति लाभ करूँ, भारतवर्ष में मैं ही सर्वश्रेष्ठ कवि और पण्डित समझा जाऊँ। इसी के लिये उन्होंने देश-विदेशों में घूमकर इतनी इज्जत-प्रतिष्ठा और धूम-धाम की सामग्री एकत्रित की थी, आज एक छोटी उम्र के युवक अध्यापक ने उनकी सम्पूर्ण प्रतिष्ठा धूल में मिला दी। उनकी इतनी ऊँची आशा पर एकदम पानी फिर गया। उनकी इतनी जबरदस्त ख्याति अग्नि में जलकर खाक हो गयी, इससे उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ।

गंगा जी से लौटकर वे चुपचाप आकर पलँग पर पड़ रहे। साथियों ने भोजन के लिये बहुत आग्रह किया किन्तु तबीयत खराब होने का बहाना बताकर उन्होंने उन लोगों से अपना पीछा छुड़ाया। वे बार-बार सोचते थे- ‘आज मुझे हो क्या गया? बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान मेरे सामने बोल नहीं सकते थे, अच्छे-अच्छे शास्त्री और आचार्य मेरे प्रश्नों का उत्तर देना तो अलग रहा, यथावत प्रश्न को समझ भी नहीं सकते थे, पर आज गंगा-किनारे उस युवक अध्यापक के सामने मेरी एक भी न चली। मेरी बुद्धि पर पत्थर पड़ गये, उसकी एक बात का भी मुझसे उत्तर देते नहीं बना। मेरी समझ में नहीं आता यह बात क्या है?’ उन्हें बार-बार सरस्वती देवी के ऊपर क्रोध आने लगा।

वे सोचने लगे- ‘मैंने कितने परिश्रम से सरस्वती मन्त्र का जाप किया था, सरस्वती ने भी प्रत्यक्ष प्रकट होकर मुझे वरदान दिया था, कि मैं शास्त्रार्थ में सदा तुम्हारी जिह्वा पर निवास किया करूँगी, आज उसने अपना वचन कैसे झूठा कर दिया, आज वह मेरी जिह्वा पर से कहाँ चली गयी?’ इसी अधेड़-बुन में वे उसी देवी के मन्त्र का जप करने लगे और जप करते-करते ही सो गये। स्वप्न में मानो सरस्वती देवी उनके समीप आयी हैं और कह रही हैं- ‘सदा एक-सी दशा किसी की नहीं रही है। जो सदा सबको विजय ही करता रहा है, उसे एक दिन पराजित भी होना पड़ेगा। तुम्हारा यह पराभव तुम्हारे कल्याण के ही निमित्त हुआ है।

इसे तुम्हें इस दिग्विजय का और मेरे दर्शनों का फल ही समझना चाहिये। यदि आज तुम्हारी पराजय न होती तो तुम्हारा अभिमान और भी अधिक बढ़ता। अभिमान ही नाश का मुख्य हेतु है। तुम निमाई पण्डित को साधारण पण्डित ही न समझो। वे साक्षात नारायणस्वरूप हैं, वे नररूपधारी श्रीहरि ही हैं, उन्हीं की शरण में जाओ, तभी तुम्हारा कल्याण होगा और तुम इस मोहरूपी अज्ञान से मुक्त हो सकोगे।’ इतने में ही दिग्विजयी की आँखें खुल गयीं। देखते क्या हैं भगवान भुवनभास्कर प्राचीदिशि में उदित होकर अपनी जगन्मोहिनी हँसी के द्वारा सम्पूर्ण संसार को आलोक प्रदान कर रहे हैं। पण्डित केशव काश्मीरी को प्रतीत हुआ मानो मरीचिमाली भगवान मेरे पराभव के ही ऊपर हँस रहे हैं। वे जल्दी से कुर्ता पहनकर नंगे सिर और नंगे पैरों अकेले ही निमाई के घर की ओर चले। रास्ते में जो भी इन्हें इस वेश में जाते देखता, वही आश्चर्य करने लगता।

राजा-महाराजाओं की भाँति जो हाथी पर सवार होकर निकलते थे, जिनके हाथी के आगे-आगे चोबदार नगाड़े बजा-बजाकर आवाज देते जाते थे, वे ही दिग्विजयी पण्डित आज नंगे पैरों साधारण आदमियों की भाँति नगर की ओर कहाँ जा रहे हैं? इस प्रकार सभी उन्हें कुतूहल की दृष्टि से देखने लगे। कोई-कोई तो उनके पीछे भी हो लिये। नगर में जाकर उन्होंने बच्चों से निमाई पण्डित के घर का पता पूछा। झुंड-के-झुंड लड़के उनके साथ हो लिये और उन्होंने निमाई पण्डित का घर बता दिया।

उस समय गौर गंगा-स्नान करके तुलसी में जल दे रहे थे। सहसा दिग्विजयी पण्डित को सादे वेश में अकेले ही अपने घर की ओर आते देख उन्होंने दौड़कर उनका स्वागत किया। दिग्विजयी आते ही प्रभु के चरणों में गिर गये। प्रभु ने जल्दी से उन्हें उठाकर छाती से लगाते हुए कहा- ‘हैं हैं, महाराज! यह आप कर क्या रहे हैं? मैं तो आपके पुत्र के समान हूँ। आप जगत-पूज्य हैं, आप ऐसा करे मुझ पर पाप क्यों चढ़ा रहे हैं? आप मुझे आशीर्वाद दीजिये, आप ही मेरे पूजनीय और परम माननीय हैं।’

गद्गद-कण्ठ से दिग्विजयी ने कहा- ‘प्रभो! मान-प्रतिष्ठा की भयंकर अग्नि में दग्ध हुए इस पापी को और अधिक सन्ताप न पहुँचाइये। इस प्रतिष्ठारूपी सूकरी-विष्ठा को खाते-खाते पतित हुए इस नारकीय को और अधिक पतित न बनाइये। अब मेरा उद्धार कीजिये।’ प्रभु उनका हाथ पकड़कर भीतर ले गये और बड़े सत्कार से उन्हें बिठाकर कहने लगे- ‘आपने यह क्या किया, पैदल ही यहाँ तक कष्ट किया, मुझे आज्ञा भेज देते तो मैं स्वयं ही आपके डेरे पर उपस्थित होता।

मालूम होता है, आप मुझे सम्मान प्रदान करने और मेरी टूटी-फूटी कुटिया को पवित्र करने के ही निमित्त यहाँ पधारे हैं। इसे मैं अपना परम सौभाग्य समझता हूँ। आज यह घर पवित्र हुआ। मेरी विद्या सफल हुई जो आप ऐसे महापुरुषों के चरण यहाँ पधारे।’

दिग्विजयी पण्डित नीचे सिर किये चुपचाप प्रभु की बातें सुन रहे थे। वे कुछ भी नहीं बोलते थे। इसलिये प्रभु ने धीरे-धीरे फिर कहना प्रारम्भ किया- ‘कल मुझे पीछे से बड़ी लज्जा आयी। मैंने व्यर्थ में ही कुछ कहकर आपके सामने धृष्टता की, आप कुछ और न समझें। आपने सुना ही होगा, मेरा स्वभाव बड़ा ही चंचल है। जब मैं कुछ कहने लगता हूँ तो आगे-पीछे की सब बातें भूल जाता हूँ। बस, फिर बकने ही लगता हूँ! छोटे-बड़े का ध्यान ही नहीं रहता। इसी कारण कल कुछ अनुचित बातें मेरे मुख से निकल गयी हों तो उनके लिये मै। आपसे क्षमा चाहता हूँ।’

दिग्विजयी ने अधीर होकर कहा- ‘प्रभो! अब मुझे अधिक वंचित न कीजिये। मुझे सरस्वती देवी ने रात्रि में सब बातें बता दी हैं, अब मेरे उद्धार का उपाय बताइये।’ प्रभु ने कहा- ‘आप कैसी बातें कह रहे हैं? आप शास्त्रों के मर्म को भलीभाँति जानते हैं, फिर भी मुझे सम्मान देने की दृष्टि से आप पूछते ही हैं, तो मैं निवेदन करता हूँ। असल में मनुष्य का एकमात्र कर्तव्य तो उसी को समझना चाहिये जिसके द्वारा प्रभु के पाद-पद्मों में प्रगाढ़ प्रीति उत्पन्न हो। यह जो आप हाथी-घोड़ों को साथ लिये घूम रहे हैं, यह भी ठीक ही है, किन्तु इनसे संसारी भोगों की ही प्राप्ति हो सकती है। भगवत-प्राप्ति में ये बातें कारण नहीं बन सकतीं। आप तो सब जानते ही हैं-

वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम्।

विदुषामिह वैदुष्यं भुक्तये न तु मुक्तये।।

अर्थात् सुन्दर सुललित सौष्ठवयुक्त धाराप्रवाह वाणी और बढ़िया व्याख्यान देने की युक्ति ये सब मनुष्य को संसारी भोगों की ही प्राप्ति करा सकती हैं। इनके द्वारा मुक्ति अर्थात प्रभु के पाद-पद्मों की प्राप्ति नहीं हो सकती।

संसारी प्रतिष्ठा का महत्त्व ही क्या है? जो चीज आज है और कल नहीं है, उसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना व्यर्थ है। महाराज भर्तृहरि ने इस बात को भलीभाँति समझा था। वे स्वयं राजा थे, सब प्रकार के मान-सम्मान और संसारी भोग-पदार्थ उन्हें प्राप्त थे। उनकी राजसभा में बड़े-बड़े धुरन्धर विद्वान दूर-दूर से नित्यप्रति आया ही करते थे। इसीलिये उन्हें इन सब बातों का खूब अनुभव था, वे सब जानते थे कि इतने भारी-भारी विद्वान इज्जत-प्रतिष्ठा और अनित्य तथा दुःख का मुख्य हेतु बताने वाले धन के किस प्रकार कुत्ते की तरह पूँछ हिलाते रहते हैं।

इन्हीं सब कारणों से उन्हें परम वैराग्य हुआ। और उन्होंने अपने परम अनुभव की बात इस एक ही श्लोक में बता दी है-

किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रैर्महाविस्तरैः

स्वर्गग्रामकुटीनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।

मुक्त्वैकं भवबन्धदुःखरचनाविध्वंसकालानलं

स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषा वणिग्वृत्तयः।।[1]

इन श्रुति, स्मृति, पुराण और बड़े विस्तार के साथ शास्त्रों के ही पठन-पाठन में जिन्दगी को लगाये रहने से क्या होता है। बस इनसे स्वर्गरूपी ग्राम में एक कुटी बनाकर भोगों को भोगने का ही अवसर मिल जाता है।

इस कर्मकाण्ड के क्रिया-कलापों में कालयापन करने से क्या लाभ? जो इस दुःखरचना से युक्त संसार-बन्धन को विध्वंस करने में प्रलयाग्नि के समान तेजोमय हैं ऐसे प्रभु के पाद-पद्मों को नैरन्तर्य भाव से सेवन करते रहने के अतिरिक्त ये सभी कार्य वैश्यों के-से व्यापार हैं। एक चीज को देकर उसके बदले में दूसरी चीज लेना है। असली वस्तु तो प्रभु की प्राप्ति ही है। उसी के लिये उद्योग करना चाहिये।’

दिग्विजयी ने कहा- ‘अब आप हमें हमारा कर्तव्य बता दीजिये। ऐसी हालत में हमें क्या करना चाहिये। अब इन वणिक-व्यापार से तो एकदम घृणा हो गयी है।’

प्रभु ने हँसते हुए कहा- ‘आप शास्त्रज्ञ हैं, सब कुछ जानते हैं। शास्त्र में सभी विषय भरे पड़े हैं, आपसे कोई विषय छिपा थोड़े ही है, किन्तु हाँ, इसे मैं आपका परम सौभाग्य ही समझता हूँ कि इतनी बड़ी भारी प्रतिष्ठा से आपको एकदम वैराग्य हो गया है, लोग पुत्रैषणा और वित्तैषणा को तो छोड़ भी सकते हैं, किन्तु लोकैषणा इतनी प्रबल होती है कि बड़े-बड़े महापुरुष भी इसे छोड़ने में पूर्ण रीति से समर्थ नहीं होते। श्रीहरि भगवान की आपके ऊपर यह परम असीम कृपा ही समझनी चाहिये कि आपको इसकी ओर से भी वैराग्य हो गया। मैं तो परमसुखस्वरूप प्रभु की प्राप्ति में इसे ही मुख्य समझता हूँ। मैंने तो इस श्लोक को ही कर्तव्यता का मूलमन्त्र समझ रखा है-

धर्म भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान्

सेवस्व साधुपुरुषाञ्जहि कामतृष्णाम्।

अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु त्यक्त्वा

सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम्।।[2]

धर्म का आचरण करो और विषयवासनारूपी जो लोकधर्म हैं उन्हें छोड़ दो। सत्पुरुषों का निरन्तर संग करो और हृदय से भोगों की इच्छा को निकालकर बाहर फेंक दो।

दूसरों के गुण-दोषों का चिन्तन करना एकदम त्याग दो। श्रीहरि की सेवा-कथारूपी जो रसायन है उसका निरन्तर पान करते रहो। बस, इसी को मैंने तो मनुष्यमात्र का कर्तव्य समझा है। इसके अतिरिक्त आपने जो समझा हो, उसे कृपा करके मुझे बताइये।’ श्रीमद्भागवत के माहात्म्य का यह श्लोक केशव पण्डित ने अनेक बार पढ़ा होगा और उसका प्रयोग भी हजारों बार अपने व्याख्यानों में किया होगा, किन्तु वे इसका असली अर्थ तो आज ही समझे। उनके कानों में यह पद-

अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु त्यक्त्वा।

सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम्।।

-बार-बार गूँजने लगा। प्रभु की आज्ञा लेकर और उनके उपदेश को ग्रहण करके दिग्विजयी पण्डित अपने डेरे पर आये। उनके पास जितने हाथी, घोड़े तथा अन्य साज-बाज के सामान थे, वे सभी उन्होंने उसी समय लोगों को बाँट दिये और अपने सभी साथियों को विदा करके वे भगवत-चिन्तन के निमित्त कहीं चले गये। इनका फिर पीछे किसी को पता नहीं चला। दिग्विजयी के पराभव से सभी लोग निमाई पण्डित की बड़ी प्रशंसा करने लगे और सभी पण्डितों ने मिलकर उन्हें ‘वादिसिंह’ की उपाधि प्रदान करना चाहा। इस प्रकार निमाई पण्डित की ख्याति और भी अधिक फैल गयी और उनकी पाठशाला में अब पहले से बहुत अधिक छात्र पढ़ने के लिये आने लगे।

क्रमशः अगला पोस्ट [31]

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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:.

[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram

Digvijayi’s dispassion

Fear of disease in pleasure, fear of praise in family, fear of king in wealth

Fear of misery in silence, fear of enemies in strength, fear of old age in form.

Fear of argument in the scriptures, fear of evil in virtue, fear of fate in the body

Everything on earth is fearful but detachment is the only fear for men.

Whose tongue has not tasted sugar candy, he will experience happiness in returned or syrup. The place where sugar is made from jaggery, there is a big tank outside it, in which all the black scum of jaggery comes out after filtering. The shopkeepers buy that dross from the factory at cheap prices and sell it after pounding it into tobacco. The shopkeepers carry the syrup by filling it in large wooden casks and loading it into carts. Small holes are made in the wooden casks, syrup drips out of them on the way, we have seen with our own eyes, that the Gwariyas of the village lick those drops with their fingers and start dancing because of the joy of sweetness, Wherever five or ten big drops are found, there they start jumping because of happiness and in happiness they start thinking themselves as supremely happy. If they find sugar candy somewhere to eat, then they will not even look at that stinking head, because the real sweetness is in the sugar candy itself. He has filth in his head. It is because of the association of sweetness that even dirt appears to be sweet.

Ignorant children start jumping with joy considering it as sweetness. In the same way, the real joy is in quietness only, the joy that seems to be in the subjects, it is just the filth of quietness, the one who has tasted the taste of quietness, why would he be attached to these transitory impermanent worldly subjects? Repentance is the father of disinterest, without repentance there can be no disinterest. When in the company of a Mahatma, there will be repentance in the heart for its past actions, only then will disinterest arise. Renunciation is the son of renunciation, renunciation is born out of renunciation, renunciation cannot be sustained without renunciation. Tyag has a son named Sukh and a daughter named Shanti. ‘Tyagaannasti param sukham’ There is no greater happiness than renunciation. There can be no happiness without renunciation. God also says- ‘Tyagachhantirnantram’ Peace is born only after renunciation. Therefore, the Adipurush or the progenitor of this entire family is repentance. Without repentance this family cannot grow. That is why so many women have been described in the satsang.

By going in the company of great men, there will be some remorse for your useless deeds, that is why Bhagwati Shruti repeatedly says ‘Kritam Smar’ ‘Kritam Smar’ remember the one who has done. Real repentance happens only when everything is destroyed or when one’s very dear thing is not received. Those who have a desire for ultimate happiness and find it lacking in worldly things, kicking worldly pleasures, they start searching for real happiness by staying in mountain caves and secluded places, they are called recluses. Digvijay Pandit Kaishav Kashmiri had a heartfelt desire that I should gain the best fame in the world, I should be considered the best poet and pundit in India. For this reason, he had collected so much respect and fame by roaming around the country and abroad, today a young teacher has reduced his entire reputation to dust. His high hopes were completely dashed. Such a great fame of his was burnt to ashes in the fire, due to which he repented a lot.

After returning from Ganga ji, he came quietly and lay down on the bed. The companions urged a lot for food, but by giving the excuse of ill health, they got rid of those people. He used to think again and again- ‘What has happened to me today? Great eminent scholars could not speak in front of me, let alone answer my questions, good Shastris and Acharyas could not even understand the question as it was, but today in front of that young teacher on the banks of the Ganges, I did not even have a single question. Chali. Stones fell on my intellect, I could not answer even a single thing about it. I don’t understand what is this thing?’ He started getting angry on Goddess Saraswati again and again.

They started thinking- ‘I chanted the Saraswati mantra with so much effort, Saraswati also appeared directly and gave me a boon, that I will always reside on your tongue in scriptures, today how she made her promise false, today she Where has my tongue gone?’ In the middle of the night, he started chanting the mantra of the same goddess and fell asleep while chanting. It is as if Goddess Saraswati has come near him in his dream and is saying- ‘Nobody has always had the same condition. The one who has always been making everyone victorious, will have to be defeated one day. This defeat of yours has happened only for your welfare.

You should understand this as the result of this Digvijaya and my visions. If you had not been defeated today, your pride would have increased even more. Pride is the main cause of destruction. You should not consider Nimai Pandit as an ordinary Pandit. He is Narayan Swarup, he is Sri Hari in male form, go to his refuge, only then you will be well and you will be free from this ignorance of ignorance.’ Digvijayi’s eyes opened. Let’s see what Lord Bhuvanbhaskar is giving light to the whole world by rising in Prachidishi with his Jaganmohini laughter. Pandit Keshav Kashmiri felt as if the God of Marichimali was laughing at his defeat. He hurriedly dressed in a kurta, bare headed and barefoot and walked alone towards Nimai’s house. Whoever saw him going in this dress on the way, used to wonder.

Like kings and emperors who used to ride on elephants, in front of whose elephants used to make noise by playing drums, where are the same Digvijayi Pandits going towards the city today barefoot like ordinary men? In this way everyone started looking at him with curiosity. Some even followed him. After going to the city, he asked the children the address of Nimai Pandit’s house. Bunch of boys joined them and they told Nimai Pandit’s house.

At that time Gaur was giving water to Tulsi after bathing in the Ganges. Suddenly seeing Digvijayi Pandit coming towards his house alone in plain clothes, he ran and welcomed him. Digvijayi fell at the feet of the Lord as soon as he came. The Lord quickly picked him up and hugged him and said – ‘ Yes, sir! What are you doing? I am like your son. You are world-worshipped, why are you accusing me of doing this? You bless me, you are my worshiper and most respected.

Digvijayi said in a loud voice – ‘Lord! Don’t hurt this sinner who is burnt in the fierce fire of honor and prestige. Don’t make this hellish person more degenerate by eating this prestigious pig excrement. Now save me.’ The Lord took him inside by holding his hand and made him sit with great hospitality and said- ‘What have you done, you have suffered till here on foot, if you had sent me orders, I would have been present at your camp myself.

It seems that you have come here only to honor me and to sanctify my dilapidated cottage. I consider this my ultimate fortune. Today this house became sacred. My education was successful that you come here at the feet of such great men.

Digvijayi Pandit was silently listening to the words of the Lord with his head down. They didn’t speak anything. That’s why the Lord slowly started saying again – ‘Yesterday I felt very ashamed from behind. I had the audacity in front of you by saying something in vain, you should not understand anything else. You must have heard that my nature is very fickle. When I start saying something, I forget everything about back and forth. That’s it, I start talking again! There is no attention of big or small. That’s why yesterday some inappropriate things came out of my mouth, so I am for them. I apologize to you.

Digvijay said impatiently – ‘ Lord! Don’t deprive me anymore. Saraswati Devi has told me everything in the night, now tell me the solution for my salvation.’ The Lord said-‘ What kind of things are you saying? You know the meaning of the scriptures very well, yet you ask with a view to honor me, so I request you. In fact, the only duty of a man should be understood as the one through which intense love is generated in the feet of the Lord. It is also right that you are roaming around with elephants and horses, but only worldly pleasures can be attained from them. These things cannot become the reason for God-attainment. You all know-

Vagvaikhari Shabdajhari Scripture explanation skills.

The knowledge of the learned in this world is for enjoyment, not for liberation.

That is, beautiful, graceful, fluent speech and the tactic of giving good lectures, all these can only make a man get worldly pleasures. Salvation means the lotus feet of the Lord cannot be attained through them.

What is the importance of worldly prestige? It is futile to try to get what is today and not tomorrow. Maharaj Bhartrihari had understood this very well. He himself was the king, he received all kinds of respect and worldly pleasures. In his royal assembly, great scholars used to come from far and wide on a daily basis. That’s why they had a lot of experience in all these things, they all knew that how such heavy scholars keep wagging their tail like a dog, telling the main reason for respect-prestige and impermanence and sorrow.

Due to all these reasons, he got ultimate disinterest. And he has told about his ultimate experience in this one verse-

What about the Vedas, the Smritis, the reading of the Puranas, the scriptures in great detail?

By the fruits of heaven, village, hut, dwelling, and the illusion of action and action.

Releasing one from the fire of time of destruction of the creation of bondage and suffering

The rest of the merchant’s occupations are the calculation of entering the stage of self-bliss.

What happens if life is engaged in the study of these Shruti, Smriti, Purana and scriptures in great detail. Just by making a cottage in the village like heaven, you get the opportunity to enjoy the pleasures.

What is the benefit of doing Kalayapan in the activities of this ritual? Apart from eternally consuming the lotus feet of the Lord, who is as bright as the deluge in destroying the bondage of the world, which is full of sorrows, all these works are the business of Vaishyas. To give one thing is to get another thing in return. The real thing is the attainment of God. Industry should be done for that only.

Digvijay said- ‘Now you tell us our duty. What should we do in such a situation? Now I have become completely disgusted with these merchants and business.

The Lord said laughing- ‘You are a scientist, you know everything. All the subjects are full in the scriptures, no subject is hidden from you, but yes, I consider it your ultimate good luck that you have become completely disinterested with such a huge reputation, people can even leave the sonship and finance. But the attraction is so strong that even great men are not able to leave it completely. It should be understood that Lord Shri Hari’s supreme grace is upon you that you have become disinterested on his behalf as well. I consider this to be the main thing in attaining God in the form of supreme happiness. I have understood this verse as the basic mantra of duty-

Follow righteousness and always abandon the righteousness of the world

Serve the saintly men and give up lust and craving.

Quickly giving up thinking about the faults and virtues of another

Oh, drink the taste of service stories constantly.

Practice religion and leave the folk religion in the form of lust. Constantly associate with good men and throw out the desire for pleasures from the heart.

Completely give up thinking about the merits and demerits of others. Keep drinking the chemical which is in the form of service-story of Sri Hari. That’s all, I have considered this as the duty of human beings. Apart from this, please tell me what you have understood. Keshav Pandit must have read this verse of the greatness of Shrimad Bhagwat many times and used it thousands of times in his lectures, but he understood its real meaning only today. This verse in his ears

Quickly giving up thinking about the faults and virtues of another.

Oh, drink the taste of service stories constantly.

– started echoing again and again. Digvijayi Pandit came to his camp after taking the permission of the Lord and accepting his advice. He distributed all the elephants, horses and other decorations that he had to the people at the same time and leaving all his companions, he went somewhere for the sake of Bhagwat-chintan. No one came to know about him later. After the defeat of Digvijayi, everyone started praising Nimai Pandit a lot and all the pundits together wanted to give him the title of ‘Vadi Singh’. In this way, the fame of Nimai Pandit spread even more and now more and more students started coming to his school to study.

respectively next post [31]

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[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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