।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
व्यासपूजा
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
प्रेम का पथ कितना व्यापक है, उसमें संदेह, छल, वंचना, बनावट के लिये तो स्थान ही नहीं। प्रेम में पात्रापात्र का भेदभाव नहीं। उसमें जाति, वर्ण, कुल, गोत्र तथा सजीव-निर्जीव का विचार नहीं किया जाता, इसीलिये प्रायः लोगों के मुखों से सुना जाता है कि ‘प्रेम अन्धा होता है।’ ऐसा कहने वाले स्वयं भ्रम में हैं। प्रेम अन्धा नहीं है, असल में प्रेम के अतिरिक्त अन्य सभी अन्धे हैं। प्रेम ही एक ऐसा अमोघ बाण है कि जिसका लक्ष्य कभी व्यर्थ नहीं होता, उसका निशान सदा ही ठीक ही लक्ष्य पर बैठता है। ‘अपना’ कहीं भी छिपा हो, प्रेम उसे वहीं से खोज निकालेगा। इसीलिये तो कहा है-
‘तिनका तिनके से मिला, तिनका तिनके पास।’
विशाल हिंदू-धर्म ने प्रेम की सर्वव्यापकता को ही लक्ष्य करके तो उपासना की कोई एक ही पद्धति निश्चय नहीं की है। तुम्हें जिससे प्रेम हो, तुम्हारा अन्तःकरण जिसे स्वीकार करता हो, उसी की भक्तिभाव से पूजा-अर्चा करो और उसी का निरन्तर ध्यान करते रहो, तुम अन्त में प्रेम तक पहुँच जाओगे। अपना उपास्य कोई एक निश्चय कर लो। अपने हृदय में किसी भी एक प्रिय को बैठा लो। बस, तुम्हारा बेड़ा पार है। पत्नी पति में ही भगवत-भावना करके उसका ध्यान करे, शिष्य गुरु को ही साक्षात परब्रह्म का साकार स्वरूप मानकर उसकी वन्दना करे, इन सभी का फल अन्त में एक ही होगा, सभी अपने अन्तिम अभीष्ट तक पहुँच सकेंगे। सभी को अपनी-अपनी भावना के अनुसार प्रभु-पद-प्राप्ति अथवा मुक्ति मिलेगी। सभी के दुःखों का अत्यन्ताभाव हो जायगा। यह तो सचेतन साकार वस्तु के प्रति प्रेम करने की पद्धति है, हिंदू-धर्म में तो यहाँ तक माना गया है कि पत्थर, मिट्टी, धातु अथवा किसी भी प्रकार की मूर्ति बनाकर उसी में ईश्वर-बुद्धि से पूजन करोगे तो तुम्हें शुद्ध-विशुद्ध प्रेम की ही प्राप्ति होगी। किंतु इसमें दम्भ या बनावट न होनी चाहिये। अपने हृदय को टटोल लो कि इसके प्रति हमारा पूर्ण अनुराग है या नहीं, यदि किसी के भी प्रति तुम्हारा पूर्ण प्रेम हो चुका तो बस, तुम्हारा कल्याण ही है, तुम्हारा सर्वस्व तो वही है।
नित्यानन्द प्रभु बारह-तेरह वर्ष की अल्पवयस में ही घर छोड़कर चले आये थे। लगभग बीस वर्षों तक ये तीर्थों में भ्रमण करते रहे, इनके साथी संन्यासीजी इन्हें छोड़कर कहाँ चले गये, इसका कुछ भी पता नहीं चलता, किंतु इतना अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है कि उन महात्मा के लिये इनके हृदय में कोई विशेष स्थान न बन सका। उनमें इनका गुरुभाव नहीं हुआ। बीस वर्षों तक इधर-उधर घूमते रहे, किंतु जिस प्रेमी के लिये इनका हृदय छटपटा रहा था, वह प्रेमी इन्हें कहीं नहीं मिला।
महाप्रभु गौरांग का नाम सुनते ही इनके हृदय-सागर में हिलोरें-सी उठने लगीं। गौर के दर्शनों के लिये मन व्याकुल हो उठा। इसीलिये ये नवद्वीप की ओर चल पड़े। आज नन्दनाचार्य के घर गौर ने स्वयं आकर इन्हें दर्शन दिये। इनके दर्शनमात्र से ही इनकी चिरकाल की मनःकामना पूर्ण हो गयी। जिसके लिये ये व्याकुल होकर देश-विदेशों में मारे-मारे फिर रहे थे, वह वस्तु आज स्वयं ही इन्हें प्राप्त हो गयी। ये स्वयं संन्यासी थे, गौरांग अभी तक गृहस्थी में ही थे। गौरांग से ये अवस्था में भी दस-ग्यारह वर्ष बड़े थे, किंतु प्रेम में तो छोटे-बड़े या उच्च-नीच का विचार होता ही नहीं, इन्होंने सर्वतोभावेन गौरांग को आत्मसमर्पण कर दिया। गौरांग ने भी इन्हें अपना बड़ा भाई समझकर स्वीकार किया।
नन्दनाचार्य के घर से नित्यानन्द जी को साथ लेकर गौरांग भक्तों सहित श्रीवास पण्डित के घर पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही संकीर्तन आरम्भ हो गया। सभी भक्त नित्यानन्द जी के आगमन के उल्लास में नूतन उत्साह के साथ भावावेश में आकर जोरों से कीर्तन करने लगे। भक्त प्रेम में विह्वल होकर कभी तो नाचते, कभी गाते और कभी जोरों से ‘हरि बोल’, ‘हरि बोल’ की तुमुल ध्वनि करते। आज के कीर्तन में बड़ा ही आनन्द आने लगा, मानो सभी भक्त प्रेम में बेसुध होकर अपने-आपे को बिलकुल भूल गये हों। अब तक गौरांग शान्त थे, अब उनसे भी न रहा गया। वे भी भक्तों के साथ मिलकर शरीर की सुधि भुलाकर जोरों से हरि-ध्वनि करने लगे। महाप्रभु नित्यानन्द जी के दोनों हाथों को पकड़कर आनन्द से नृत्य कर रहे थे।
नित्यानन्दजी भी काठ की पुतली की भाँति महाप्रभु के इशारे के साथ नाच रहे थे। अहा! उस समय की छबि का वर्णन कौन कर सकता है? भक्तवृन्द मन्त्रमुग्ध की भाँति इन दोनों महापुरुषों का नृत्य देख रहे थे। पखावजवाला पखावज न बजा सका। जो भक्त मजीरे बजा रहे थे, उनके हाथों से स्वतः ही मजीरे गिर पड़े। सभी वाद्यों का बजना बंद हो गया। भक्त जड-मूर्ति की भाँति चुपचाप खड़े निमाई और निताई के नृत्य के माधुर्य का निरन्तर भाव से पान कर रहे थे। नृत्य करते-करते निमाई ने निताई का आलिंगन किया। आलिंगन पाते ही निताई बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़े, साथ ही निमाई भी चेतना शून्य-से बन गये।
क्षणभर के पश्चात् महाप्रभु जोरों के साथ उठकर खड़े हो गये और जल्दी से भगवान के आसन पर जा बैठे। अब उनके शरीर में बलराम जी का-सा आवेश प्रतीत होने लगा। उसी भावावेश में वे ‘वारुणी’, ‘वारुणी’ कहकर जोरों से चिल्लाने लगे। हाथ जोड़े हुए श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘प्रभो! जिस ‘वारुणी’ की आप जिज्ञासा कर रहे हैं, वह तो आपके ही पास है। आप जिसके ऊपर कृपा करेंगे, वही उस वारुणी का पान करके पागल बन सकेगा।’
प्रभु के भावावेश को कम करने के निमित्त एक भक्त ने शीशी में गंगाजल भरकर प्रभु को दिया। गंगाजल पान करके प्रभु कुछ-कुछ प्रकृतिस्थ हुए और फिर नित्यानन्द जी को भी अपने हाथों से उठाया।
इस प्रकार सभी भक्तों ने उस दिन संकीर्तन में बड़े ही आनन्द का अनुभव किया। इन दोनों भाइयों के नृत्य का सुख सभी भक्तों ने खूब ही लूटा। श्रीवास पण्डित के घर ही नित्यानन्दप्रभु का निवास-स्थान स्थिर किया गया। प्रभु अपने साथ ही निताई को अपने घर लिवा ले गये ओर शचीमाता से जाकर कहा- ‘अम्मा! देख, यह तेरा विश्वरूप लौट आया। तू उनके लिये बहुत रोया करती थी।’ माता ने उस दिन सचमुच ही नित्यानन्दप्रभु में विश्वरूप के ही रूप का अनुभव किया और उन्हें अन्त तक उसी भाव से प्यार करती रहीं। वे निताई और निमाई दोनों को ही समान रूप से पुत्र की भाँति प्यार करती थीं।
एक दिन महाप्रभु ने नित्यानन्द जी का प्रेम से हाथ पकड़े हुए पूछा- ‘श्रीपाद! कल गुरुपूर्णिमा है, व्यासपूजन के निमित्त कौन-सा स्थान उपयुक्त होगा?’
नित्यानन्दप्रभु ने श्रीवास पण्डित के पूजा-गृह की ओर संकेत करते हुए कहा- ‘क्या इस स्थान में व्यासपूजन नहीं हो सकता?’
हँसते हुए गौरांग ने कहा- ‘हाँ, ठीक तो है, आचार्य तो श्रीवास पण्डित ही हैं, इन्हीं का तो पूजन करना है। बस ठीक रहा, अब पण्डित जी ही सब सामग्री जुटावेंगे। इन्हीं पर पूजा के उत्सव का सम्पूर्ण भार रहा।’ प्रसन्नता प्रकट करते हुए पण्डित श्रीवास जी ने कहा- ‘भार की क्या बात है, पूजन की सामग्री घर में उपस्थित है। केला, आम्र, पल्लव, पुष्प, फल और समिधादि आवश्यकीय वस्तुएँ आज ही मँगवा ली जायँगी। इनके अतिरिक्त और जिन वस्तुओं की आवश्यकता हो उन्हें आप बता दें।
प्रभु ने कहा- ‘अब हम क्या बतावें, आप स्वयं आचार्य हैं, सब समझ-बूझकर जुटा लीजियेगा। चलिये, बहुत समय व्यतीत हो गया, अब गंगास्नान कर आवें।’
इतना सुनते ही श्रीवास, मुरारी, गदाधर आदि सभी भक्त निमाई और निताई के सहित गंगास्नान के निमित्त चल दिये। नित्यानन्द जी का स्वभाव बिलकुल छोटे बालकों का-सा था, वे कुदक-कुदककर रास्ते में चलते। गंगा जी में घुस गये तो फिर निकलना सीखे ही नहीं, घंटों जल में ही गोते लगाते रहते। कभी उलटे होकर बहुत दूर तक प्रवाह में ही बहते चले जाते। सब भक्तों के सहित वे भी स्नान करने लगे। सहसा उसी समय एक नाग इन्हें जल में दिखायी दिया। जल्दी से आप उसे ही पकड़ने के लिये दौड़े। यह देखकर श्रीवास पण्डित ‘हाय, हाय’ करके चिल्लाने लगे, किंतु ये किसी की कब सुनने वाले थे, आगे बढ़े ही चले जाते थे। जब श्रीवास के कहने से स्वयं गौरांग ने इन्हें आवाज दी, तब कहीं जाकर ये लौटे। इनके सभी काम अजीब ही होते थे, इससे पहली ही रात्रि में इन्होंने न जाने क्या सोचकर अपने दण्ड-कमण्डलु आदि सभी को तोड़-फोड़ डाला। प्रभु ने इसका कारण पूछा तो ये चुप हो गये। तब प्रभु ने उन्हें बड़े आदर से बीन-बीनकर गंगाजी में प्रवाहित कर दिया।
व्यासपूर्णिमा के दिन सभी भक्त स्नान, सन्ध्या-वन्दन करके श्रीवास पण्डित के घर आये। पण्डित जी ने आज अपने पूजा-गृह को खूब सजा रखा था। स्थान-स्थान पर बन्दनबार बँधे हुए थे। द्वार पर कदली-स्तम्भ बड़े ही भले मालूम पड़ते थे। सम्पूर्ण घर गौ के गोबर से लिपा हुआ था, उस पर एक सुन्दर बिछौना बिछा था, सभी भक्त आकर व्यासपीठ के सम्मुख बैठ गये। एक ऊँचे स्थान पर छोटी-सी चौकी रखकर उस पर व्यासपीठ बनायी हुई थी, व्यासजी की सुन्दर मूर्ति उस पर विराजमान थी। सामने पूजा की सभी सामग्री रखी थी, कई थालों में सुन्दर अमनिया किये हुए फल रखे थे, एक ओर घर की बनी हुई मिठाइयाँ रखी थीं। एक थाली में अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, पूगीफल, पुष्पमाला तथा अन्य सभी पूजन की सामग्री सुशोभित हो रही थी। पीठ के दायीं ओर आचार्य का आसन बिछा हुआ था। भक्तों के आग्रह करने पर पूजा की पद्धति को हाथ में लिये हुए श्रीवास पण्डित आचार्य के आसन पर विराजमान हुए। भक्तों ने विधिवत व्यासजी का पूजन किया। अब नित्यानन्दप्रभु की बारी आयी। वे श्रीवासजी के कहने से पूजा करने लगे।
श्रीवास पण्डित ने एक सुन्दर-सी माला नित्यानन्द जी के हाथ में देते हुए कहा- ‘श्रीपाद! इसे व्यास जी को पहनाइये।’ श्रीवासजी के इतना कहने पर भी नित्यानन्दजी ने माला व्यासदेव जी को नहीं पहनायी, वे उसे हाथ में ही लिये हुए चुपचाप खड़े रहे। इस पर फिर श्रीवास पण्डित ने जरा जोर से कहा- ‘श्रीपाद आप खड़े क्यों हैं, माला पहनाते क्यों नहीं?’ जिस प्रकार कोई पत्थर की मूर्ति खड़ी रहती है उसी प्रकार माला हाथ में लिये नित्यानन्द जी ज्यों-के-त्यों ही खड़े रहे, मानो उन्होंने कुछ सुना ही नहीं। तब तो श्रीवास पण्डित घबड़ाये, उन्होंने समझा नित्यानन्द जी हमारी बात तो मानेंगे नहीं, यदि प्रभु आकर इन्हें समझावेंगे तो जरूर मान जायँगे। प्रभु उस समय दूसरी ओर बैठे हुए थे, श्रीवास जी ने प्रभु को बुलाकर कहा- ‘प्रभो! नित्यानन्द जी व्यासदेव को माला नहीं पहनाते, आप इनसे कह दीजिये माला पहना दें, देरी हो रही है।’ यह सुनकर प्रभु ने कुछ आज्ञा के-से स्वर में नित्यानन्द जी से कहा- ‘श्रीपाद! व्यासदेव जी को माला पहनाते क्यों नहीं? देखो, देर हो रही है, सभी भक्त तुम्हारी ही प्रतीक्षा में बैठे हैं, जल्दी से पूजन समाप्त करो, फिर संकीर्तन होगा।’
प्रभु की इस बात को सुनकर निताई नींद से जागे हुए पुरुष की भाँति अपने चारों ओर देखने लगे। मानो वे किसी विशेष वस्तु का अन्वेषण कर रहे हों। इधर-उधर देखकर उन्होंने अपने हाथ की माला व्यासदेव जी को तो पहनायी नहीं, जल्दी से गौरांग के सिर पर चढ़ा दी। प्रभु के लम्बे-लम्बे घुँघराले बालों में उलझकर वह माला बड़ी ही भली मालूम पड़ने लगी। सभी भक्त आनन्द में बेसुध-से हो गये। प्रभु कुछ लज्जित-से हो गये। नित्यानन्द जी प्रेम में विभोर होने के कारण मूर्च्छित होकर गिर पड़े। अहा, प्रेम हो तो ऐसा हो, अपने प्रिय पात्र में ही सभी देवी-देवता और विश्व का दर्शन हो जाय। गौरांग को ही सर्वस्व समझने वाले निताई का उनके प्रति ऐसा ही भाव था। उनका मनोगत भाव था-
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव।।
गौरांग ही उनके सर्वस्व थे। उनकी भावना के अनुसार उन्हें प्रत्यक्ष फल भी प्राप्त हो गया। उनके सामने गौरांग की यह नित्य की मानुषिक मूर्ति विलुप्त हो गयी। अब उन्हें गौरांग की षड्भुजी मूर्ति का दर्शन होने लगा। उन्होंने देखा, गौरांग के मुख की कान्ति कोटि सूर्यों की प्रभा से भी बढ़कर है। उनके चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म विराजमान हैं, शेष दो हाथों में वे हल-मूसल को धारण किये हुए हैं। नित्यानन्द जी प्रभु के इस अद्भुत रूप के दर्शनों से अपने को कृतकृत्य मानने लगे। उनके नेत्र उन दर्शनों से तृप्त ही नहीं होते थे। उनके दोनों नेत्र बिलकुल फटे-के-फटे ही रह गये, पलक गिरना एकदम बंद हो गया। नेत्रों की दोनों कोरों से अश्रुओं की धारा बह रही थी। शरीर चेतनाशून्य था। भक्तों ने देखा उनकी साँस चल नहीं रही है, उनका शरीर मृतक पुरुष की भाँति अकड़ा हुआ पड़ा था, केवल मुख की अपूर्व ज्योति को देखकर और नेत्रों से निकलते हुए अश्रुओं से ही यह अनुमान लगाया जा सकता था कि वे जीवित हैं। भक्तों को इनकी ऐसी दशा देखकर बड़ा भय हुआ।
श्रीवास आदि सभी भक्तों ने भाँति-भाँति की चेष्टाओं द्वारा उन्हें सचेत करना चाहा, किंतु उन्हें बिलकुल भी होश नहीं हुआ। प्रभु ने जब देखा कि नित्यानन्द जी किसी भी प्रकार नहीं उठते, तब उनके शरीर पर अपना कोमल कर फेरते हुए प्रभु अत्यन्त ही प्रेम के साथ कहने लगे- ‘श्रीपाद! अब उठिये। जिस कार्य के निमित्त आपने इस शरीर को धारण किया है, अब उस कार्य के प्रचार का समय सन्निकट आ गया है। उठिये और अपनी अहैतु की कृपा के द्वारा जीवों का उद्धार कीजिये। सभी लोग आपकी कृपा के भिखारी बने बैठे हैं, जिसका आप उद्धार करना चाहें उसका उद्धार कीजिये। श्रीहरि के सुमधुर नामों का वितरण कीजिये। यदि आप ही जीवों के ऊपर कृपा करके भगवन्नाम का वितरण न करेंगे तो पापियों का उद्धार कैसे होगा?’
प्रभु के कोमल कर स्पर्श से निताई की मूर्च्छा भंग हुई, वे अब कुछ-कुछ प्रकृतिस्थ हुए। नित्यानन्द जी को होश में देखकर प्रभु भक्तों से कहने लगे- ‘व्यासपूजा तो हो चुकी, अब सभी मिलकर एक बार सुमधुर स्वर से श्रीकृष्ण-संकीर्तन और कर लो।’ प्रभु की आज्ञा पाते ही पखावज बजने लगी, सभी भक्त हाथों में मजीरा लेकर बड़े ही प्रेम से कीर्तन करने लगे। सभी प्रेम में विह्वल होकर एक साथ-
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
- इस सुमधुर संकीर्तन को करने लगे। संकीर्तन की सुमधुर ध्वनि से श्रीवास पण्डित का घर गूँजने लगा। संकीर्तन की आवाज सुनकर बहुत-से दर्शनार्थी द्वार पर आकर एकत्रित हो गये, किंतु घर का दरवाजा तो बंद था, वे बाहर खड़े-ही खड़े संकीर्तन का आनन्द लूटने लगे। इस प्रकार संकीर्तन के आनन्द में किसी को समय का ज्ञान ही न रहा। दिन डूब गया। तब प्रभु ने संकीर्तन बंद कर देने की आज्ञा दी और श्रीवास पण्डित से कहा- ‘प्रसाद के सम्पूर्ण सामान को यहाँ ले आओ।’ प्रभु की आज्ञा पाकर श्रीवास पण्डित प्रसाद के सम्पूर्ण थालों को प्रभु के समीप उठा लाये। प्रभु ने अपने हाथों से सभी उपस्थित भक्तों को प्रसाद वितरण किया। उस महाप्रसाद को पाते हुए सभी भक्त अपने-अपने घरों को चले गये।
इस प्रकार नित्यानन्द जी श्रीवास पण्डित के ही घर में रहने लगे। श्रीवास पण्डित और उनकी धर्मपत्नी मालिनी देवी उन्हें अपने सगे पुत्र की भाँति प्यार करते थे। नित्यानन्द जी को अपने माता-पिता को छोड़े आज लगभग बीस वर्ष हो गये। बीस वर्षों से ये इसी प्रकार देश-विदेशों में घूमते रहे। बीस वर्षों के बाद अब फिर से मातृ-पितृ-सुख को पाकर ये परम प्रसन्न हुए। गौरांग भी इनका हृदय से बड़ा आदर करते थे, वे इन्हें अपने बड़े भाई से भी बढ़कर मानते थे, तभी तो यथार्थ में प्रेम होता है। दोनों ही ओर से सत्कार के भाव हो तभी अभिन्नता होती है। शिष्य अपने गुरु को सर्वस्व समझे और गुरु शिष्य को चाकर न समझकर अपना अन्तरंग सखा समझे, तभी दृढ़ प्रेम हो सकता है। गुरु अपने गुरुपने में ही बने रहें और शिष्य को अपना सेवक अथवा दास ही समझते रहें, इधर शिष्य अनिच्छापूर्वक कर्तव्य-सा समझकर उनकी सेवा-शुश्रूषा करता रहे, तो उन दोनों में यथार्थ प्रेम नहीं होता। गुरु-शिष्य का बर्ताव तो ऐसा ही होना चाहिये जैसा भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का था अथवा जनक और शुकदेव जी का जैसा शास्त्रों में सुना जाता है। नित्यानन्द जी गौरांग को अपना सर्वस्व ही समझते थे, किंतु गौरांग उनका सदा पूज्य की ही भाँति आदर-सत्कार करते थे, यही तो इन महापुरुषों की विशेषता थी। नित्यानन्द जी का स्वभाव बड़ा चंचल था। वे कभी-कभी स्वयं अपने हाथों से भोजन ही नहीं करते, तब मालिनी देवी उन्हें अपने हाथों से छोटे बच्चों की तरह खिलातीं। कभी-कभी ये उनके सूखे स्तनों को अपने मुख में देकर उन्हें बालकों की भाँति पीने लगते। कभी उनकी गोद में शिशुओं की तरह क्रीड़ा करते। इस प्रकार ये श्रीवास और उनकी पत्नी मालिनी देवी को वात्सल्य-सुख का आनन्द देते हुए उनके घर में सुखपूर्वक रहने लगे।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram vyasapuja
I worship those who come to me in the same way. Men follow My path in all respects, O Arjuna.
The path of love is so wide, there is no place for doubt, deceit, deprivation, fabrication in it. There is no discrimination between the characters in love. It does not consider caste, varna, clan, gotra and living-non-living, that is why it is often heard from the mouths of people that ‘love is blind’. Those who say this are themselves in delusion. Love is not blind, in fact everything else is blind except love. Love is such an infallible arrow that its target never goes in vain, its target always hits the target. Wherever ‘own’ is hidden, love will find it from there itself. That’s why it is said-
‘Straw meets straw, straw near straw.’
The vast Hindu religion, aiming at the universality of love, has not decided on any single method of worship. Whoever you love, whom your conscience accepts, worship him with devotion and keep meditating on him continuously, you will reach love in the end. Make up your mind to worship any one. Sit any one dear in your heart. That’s it, your fleet is over. The wife should meditate on the husband by feeling God in him, the disciple should worship the Guru considering him as the real form of Parabrahma, the result of all these will be the same in the end, all will be able to reach their final destination. Everyone will get the status of God or liberation according to their own feelings. There will be an extreme absence of everyone’s sorrows. This is the method of conscious love towards a real thing, in Hinduism it is believed that if you make an idol of stone, clay, metal or any kind of idol and worship it with God-intelligence, then you will get pure love. Only that will be attained. But there should not be arrogance or fabrication in it. Feel your heart whether we have full affection for it or not, if you have full love for anyone, then it is only your welfare, your everything is the same.
Nityananda Prabhu had left home at the tender age of twelve-thirteen years. For about twenty years, he kept on traveling in pilgrimages, nothing is known about where his fellow monks left him, but it can be inferred that no special place could be made for that Mahatma in his heart. He did not have any guru in him. He wandered here and there for twenty years, but he could not find the lover for whom his heart yearned.
As soon as he heard the name of Mahaprabhu Gaurang, his heart-ocean began to swell. The mind became distraught for the darshan of Gaur. That’s why they started towards Navadweep. Today Gaur himself came to Nandacharya’s house and gave him darshan. His eternal wish was fulfilled only by his darshan. The thing for which he was wandering in the country and abroad in distraught, today he himself got that thing. He himself was a sannyasin, while Gauranga was still at home. He was ten-eleven years older than Gaurang, but in love there is no idea of big or small or high-low, he completely surrendered to Gaurang. Gauranga also accepted him as his elder brother.
Taking Nityanand ji from Nandacharya’s house, Gauranga along with the devotees reached Srivasa Pandita’s house. Sankirtan started as soon as he reached there. All the devotees started chanting loudly with renewed enthusiasm in the ecstasy of Nityanand ji’s arrival. Devotees would sometimes dance, sometimes sing and sometimes make a loud sound of ‘Hari Bol’, ‘Hari Bol’ being overwhelmed with love. There was a lot of joy in today’s kirtan, as if all the devotees had completely forgotten themselves in love. Till now Gauranga was calm, now even he could not keep it. They also along with the devotees started chanting Hari loudly, forgetting about the body. Mahaprabhu was dancing with joy holding both the hands of Nityanand ji.
Nityanandji was also dancing like a wooden puppet with Mahaprabhu’s gesture. Aha! Who can describe the image of that time? The devotees were mesmerized watching the dance of these two great men. The Pakhawajwala could not play the Pakhawaj. The devotees who were playing the music, automatically fell from their hands. All the instruments stopped playing. The devotees, standing silently like idols, were continuously drinking the melody of Nimai and Nitai’s dance. Nimai embraced Nitai while dancing. On receiving the embrace, Nitai fainted and fell on the earth, along with Nimai also became unconscious.
After a moment, Mahaprabhu stood up with great vigor and quickly went to the Lord’s seat. Now the passion of Balram ji started appearing in his body. In the same mood, they started shouting loudly saying ‘Varuni’, ‘Varuni’. Shrivas Pandit said with folded hands – ‘ Lord! The ‘Varuni’ you are inquiring about is with you only. The one on whom you will be kind, he will be able to become mad by drinking that Varuni.
In order to reduce the passion of the Lord, a devotee filled a bottle of Ganges water and gave it to the Lord. After drinking the water of the Ganges, the Lord became a little natural and then lifted Nityanand ji with his own hands.
Thus all the devotees experienced great joy in the sankirtan that day. All the devotees enjoyed the dance of these two brothers to a great extent. The residence of Nityananda Prabhu was fixed at the house of Srivas Pandit. The Lord took Nitai along with him to his home and went to Sachimata and said – ‘ Amma! See, this your universal form has returned. You used to cry a lot for him.’ Mother truly experienced the form of Vishwaroop in Nityananda Prabhu that day and loved him with the same feeling till the end. She loved both Nitai and Nimai equally as a son.
One day Mahaprabhu holding Nityanand ji’s hand with love asked – ‘Shripad! Tomorrow is Gurupurnima, which place would be suitable for Vyas Pujan?’
Nityananda Prabhu pointed to the place of worship of Srivas Pandita and said- ‘Can’t Vyas worship be done at this place?’
Laughing, Gaurang said- ‘Yes, it is okay, Acharya is Shrivas Pandit only, he has to be worshipped. It’s okay, now Pandit ji will collect all the materials. The entire burden of the festival of worship rested on them. Expressing happiness, Pandit Shrivas ji said- ‘What is the matter of the burden, the material of worship is present in the house. Banana, mango, pallav, flowers, fruits and essential items will be ordered today itself. Apart from these, you tell the other things which are needed.
The Lord said – ‘ Now what should we tell, you yourself are the Acharya, you will gather everything wisely. Come on, a lot of time has passed, now let’s take a bath in the Ganges.’
On hearing this, Shrivas, Murari, Gadadhar etc. all the devotees along with Nimai and Nitai left for Ganga bath. Nityanand ji’s nature was just like that of small children, he used to jump and walk on the road. When he entered Ganga ji, then he did not learn to come out, he used to keep diving in the water for hours. Sometimes, turning upside down, they go on flowing in the current for a long distance. Along with all the devotees, they also started taking bath. Suddenly at the same time a snake appeared to him in the water. Quickly you ran to catch him. Seeing this, Shrivas Pandit started shouting ‘Hi, Hi’, but when was he going to listen to anyone, he used to move ahead. When Gaurang himself gave him a call on the advice of Srivas, then he returned after going somewhere. All his works were strange, before this, in the very first night, he did not know what he was thinking and destroyed his Danda-Kamandalu etc. When the Lord asked the reason for this, he became silent. Then the Lord flowed them into Gangaji with great respect.
On the day of Vyaspurnima, all the devotees came to Shrivas Pandit’s house after taking bath, evening-prayer. Pandit ji had decorated his worship house very well today. Bandanas were tied at various places. The cast iron pillars at the door looked very nice. The whole house was smeared with cow dung, a beautiful bed was spread on it, all the devotees came and sat in front of the Vyaspeeth. Vyaspeeth was made on a high place by keeping a small post on it, the beautiful idol of Vyasji was sitting on it. All the ingredients of the puja were kept in front, beautifully pickled fruits were kept in several plates, and on one side, homemade sweets were kept. Akshat, Dhoop, Deep, Naivedya, Tambul, Pugifal, Pushpamala and all other worship materials were being decorated in a plate. Acharya’s seat was spread on the right side of the bench. On the request of the devotees, Shrivasa Pandit sat on the Acharya’s seat, taking the method of worship in his hand. Devotees duly worshiped Vyasji. Now Nityananda Prabhu’s turn has come. They started worshiping at the behest of Shrivasji.
Shrivas Pandit gave a beautiful garland in the hands of Nityanand ji and said- ‘Shripad! Wear it to Vyas ji.’ Nityanand ji did not wear the garland to Vyas ji even after Shrivas ji said this, he stood silently holding it in his hand. On this, Shrivas Pandit said loudly – ‘Shripad, why are you standing, why don’t you garland?’ As if he didn’t hear anything. Then Shrivas Pandit got worried, he thought that Nityanand ji would not listen to us, if the Lord comes and makes him understand, he would definitely agree. Prabhu was sitting on the other side at that time, Shrivas ji called Prabhu and said – ‘ Prabhu! Nityanand ji does not garland Vyasdev, you tell him to garland him, there is a delay.’ Hearing this, the Lord said to Nityanand ji in a commanding voice – ‘Shripad! Why don’t you garland Vyasdev ji? Look, it is getting late, all the devotees are waiting for you, finish the worship quickly, then there will be sankirtan.’
After hearing these words of the Lord, Nitai started looking around him like a man awake from sleep. As if they are investigating something special. Looking here and there, he did not put the garland of his hand on Vyasdev ji, but quickly put it on Gaurang’s head. Tangled in the long curly hair of the Lord, that garland seemed very beautiful. All the devotees fainted in joy. Prabhu became somewhat ashamed. Nityanand ji fell unconscious due to being engrossed in love. Aha, if there is love then it should be like this, all the gods and goddesses and the world can be seen in your beloved vessel. Nitai, who considered Gauranga to be everything, had similar sentiments towards him. His vision was-
You are the mother and father, You are the friend and friend. You alone are knowledge, wealth, You alone are everything to me, O God of the gods.
Gauranga was his everything. According to his feelings, he also got the visible fruit. This eternal human form of Gauranga disappeared in front of him. Now he started seeing the six-armed idol of Gauranga. He saw that the radiance of Gauranga’s face was greater than the effulgence of crores of suns. In his four hands conch, chakra, mace and lotus are sitting, in the remaining two hands he is holding the plow and pestle. Nityanand ji started considering himself to be grateful by having darshan of this wonderful form of the Lord. His eyes were never satisfied with those visions. Both his eyes were completely torn apart, the falling of the eyelids completely stopped. Tears were flowing from both the corners of the eyes. The body was unconscious. The devotees saw that he was not breathing, his body was lying motionless like a dead man, it could be inferred that he was alive only by seeing the unique light of the face and tears coming out of the eyes. The devotees were horrified to see his condition like this.
All the devotees like Shrivas etc. tried to alert him with various efforts, but he did not regain consciousness at all. When Prabhu saw that Nityanand ji did not get up in any way, then while moving His body gently on his body, Prabhu started saying with great love- ‘Shripad! Get up now The work for which you have assumed this body, now the time has come for the promotion of that work. Get up and save the living beings by your causeless grace. Everyone is sitting like a beggar of your grace, save the one whom you want to save. Distribute the melodious names of Sri Hari. If you don’t distribute the name of God by showing mercy on the living beings, then how will the sinners be saved?’
Nitai’s unconsciousness was dissolved by the gentle touch of the Lord, now he became somewhat natural. Seeing Nityanand ji in his senses, the Lord said to the devotees – ‘Vyas Puja has been done, now everyone together do Shri Krishna-Sankirtan once more in a melodious voice.’ As soon as the Lord’s order was given, the pakhawaj started ringing, all the devotees came out with ‘Majira’ in their hands. He started doing kirtan with love. Together, all overwhelmed with love
Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare. Started doing this melodious sankirtan. Srivas Pandit’s house started resounding with the melodious sound of Sankirtan. Hearing the sound of Sankirtan, many visitors came and gathered at the door, but the door of the house was closed, they started enjoying the Sankirtan while standing outside. In this way, in the joy of Sankirtan, no one had any knowledge of time. The day has sunk. Then the Lord ordered to stop the Sankirtan and said to Srivasa Pandit – ‘Bring all the items of Prasad here.’ After getting the permission of the Lord, Srivasa Pandit brought all the plates of Prasad near the Lord. The Lord with His own hands distributed Prasad to all the devotees present. After getting that Mahaprasad, all the devotees went to their respective homes.
In this way, Nityanand ji started living in Shrivas Pandit’s house. Shrivas Pandit and his wife Malini Devi loved him like their own son. It has been almost twenty years since Nityanand ji left his parents. For twenty years, he kept roaming in the country and abroad like this. After twenty years, he was very happy to get the happiness of mother and father again. Gaurang also used to respect him a lot from his heart, he used to consider him more than his elder brother, only then there is real love. There is a sense of hospitality from both the sides only then there is integration. If the disciple considers his Guru as everything and instead of considering the Guru and disciple as a servant, he should consider him as his intimate friend, only then there can be strong love. If the Guru remains in his Guruship and considers the disciple as his servant or slave, while the disciple reluctantly serves and cares for him considering it as a duty, then there is no real love between them. The behavior of Guru-disciple should be the same as that of Lord Shri Krishna and Arjuna or that of Janak and Shukdev ji as is heard in the scriptures. Nityanand ji used to consider Gaurang as his everything, but Gaurang used to always respect him like a worshiper, this was the specialty of these great men. Nityanand ji’s nature was very fickle. Sometimes they themselves would not eat food with their own hands, then Malini Devi would feed them like small children with her own hands. Sometimes he used to give their dry breasts in his mouth and make them drink like children. Sometimes used to play like babies in his lap. In this way, he started living happily in the house of Shrivas and his wife Malini Devi giving them the pleasure of affection.
respectively next post [50] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]