[50]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
अद्वैताचार्य के ऊपर कृपा

सखि साहजिकं प्रेम दूरादपि विराजते। चकोरीनयनद्वनद्वमानन्दयति चन्द्रमाः।।

यदि प्रेम सचमुच में स्वाभाविक है, यदि वास्तव में उसमें किसी भी प्रकार का संसारी स्वार्थ नहीं है, तो दोनों ही ओर से हृदय में एक प्रकार की हिलोरें-सी उठा करती हैं। उर्दू के किसी कवि ने प्रेम की डरते-डरते और संशय के साथ बड़ी ही सुन्दर परिभाषा की है। वे कहतें-

‘इश्क’ इसको ही कहते होंगे शायद?
सीने में जैसे कोई दिल को मला करे।

सीने में दिल को खिंचता हुआ-सा देखकर ही वे अनुमान करते हैं कि हो न हो, यह प्रेम की ही बला है। तो भी निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते। निश्चयात्मक क्रिया देने में डरते हैं। धन्य हैं! यथार्थ में इससे बढि़या प्रेम की परिभाषा हो ही नहीं सकती।

शान्तिपुर में बैठे हुए अद्वैताचार्य गौरांग की सभी लीलाओं की खबर सुनते और मन-ही-मन प्रसन्न होते। अपने प्यारे की प्रशंसा सुनकर हृदय में स्वाभाविक ही एक प्रकार की गुदगुदी-सी होने लगती है। महाप्रभु का यशःसौरभ अब धीरे-धीरे सम्पूर्ण गौड़देश में व्याप्त हो चुका था।

आचार्य प्रभु के भक्तिभाव की बातें सुनकर आनन्द में विभोर होकर नृत्य करने लगते और अपने-आप ही कभी-कभी कह उठते- ‘गंगाजल और तुलसीदलों से जो मैंने चिरकाल तक भक्त भयभंजन भगवान का अर्चन-पूजन किया था, ऐसा प्रतीत होता है, मेरा वह पूजन अब सफल हो गया। गौरहरि भगवान विश्वम्भर के रूप में प्रकट होकर भक्तों के दुःखों को दूर करेंगे।’ उनका हृदय बार-बार कहता- ‘प्रभु की छत्रछाया में रहकर अनेकों भक्त पावन बन रहे हैं, वे अपने को गौरहरि के संसर्ग और संपर्क से कृतकृत्य बना रहे हैं, तू भी चलकर अपने इस नीरस जीवन को सार्थक क्यों नहीं बना लेता?’ किंतु प्रेम में भी एक प्रकार का मीठा-मीठा मान होता है। अपने प्रिय की कृपा की प्रतीक्षा में भी एक प्रकार का अनिर्वचनीय सुख मिलता है। इसलिये थोड़ी ही देर बाद वे फिर सोचते- ‘मैं स्वयं क्यों चलूँ, जब ये ही मेरे इष्टदेव होंगे, तो मुझे स्वयं ही बुलावेंगे, बिना बुलाये मैं क्यों जाऊँ?’ इन्हीं सब कारणों से इच्छा होने पर भी अद्वैताचार्य नवद्वीप नहीं आते थे।

इधर महाप्रभु को जब भावावेश होता तभी जोरों से चिल्ला उठते- ‘‘नाड़ा’’ कहाँ है! हमें बुलाकर ‘नाड़ा’ स्वयं शान्तिपुर में जा छिपा। उसी की हुंकार से तो हम आये हैं।’’ पहले-पहल तो भक्तगण समझ ही न सके कि ‘नाड़ा’ कहने से प्रभु का अभिप्राय किससे है? जब श्रीवास पण्डित ने दीनता के साथ जानना चाहा कि ‘नाड़ा’ कौन है, तब प्रभु ने स्वयं ही बताया कि ‘अद्वैताचार्य की प्रार्थना पर ही हम जगदुद्धार के निमित्त अवनितल पर अवतीर्ण हुए हैं। ‘नाड़ा’ कहने से हमारा अभिप्राय उन्हीं से है।’

अब तो नित्यानन्द प्रभु के नवद्वीप में आ जाने से गौरांग का आनन्द अत्यधिक बढ़ गया था। अब वे अद्वैत के बिना कैसे रह सकते थे? अद्वैत और नित्यानन्द ये तो इनके परिकर के प्रधान स्तम्भ थे। इसलिये एक दिन एकान्त में प्रभु ने श्रीवास पण्डित के छोटे भाई राम से शान्तिपुर जाने के लिये संकेत किया। प्रभु का इंगित पाकर रमाई पण्डित को परम प्रसन्नता हुई। वे उसी समय अद्वैताचार्य को लिवाने के लिये शान्तिपुर चल दिये।

शान्तिपुर में पहुँचने पर रमाई पण्डित आचार्य के घर गये। उस समय आचार्य अपने घर के सामने बैठे हुए थे, दूर से ही श्रीवास पण्डित के अनुज को आते देखकर वे गद्गद हो उठे, उनकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। आचार्य समझ गये कि ‘अब हमारे शुभ दिन आ गये। कृपा करके प्रभु ने हमें स्वयं बुलाने के लिये रमाई पण्डित को भेजा है, भगवान भक्त की प्रतिज्ञा की इतनी अधिक परवा करते हैं कि उसके सामने वे अपना सब ऐश्वर्य भूल जाते हैं।’ इसी बीच रमाई ने आकर आचार्य को प्रणाम किया। आचार्य ने भी उनका प्रेमालिंगन किया।

आचार्य से प्रेमालिंगन पाकर रमाई पण्डित एक ओर खड़े हो गये और आचार्य की ओर देखकर कुछ मुसकराने लगे। उन्हें मुसकराते देखकर आचार्य कहने लगे- ‘मालूम होता है, प्रभु ने मुझे स्मरण किया है, किंतु मुझे कैसे पता चले कि यथार्थ में वे ही मेरे प्रभु हैं? जिन प्रभु को पृथ्वी पर संकीर्तन का प्रचार करने के निमित्त मैं प्रकट करना चाहता था, वे मेरे आराध्यदेव प्रभु ये ही हैं, इसका तुम लोगों के पास कुछ प्रमाण है?’ कुछ मुसकराते हुए रमाई पण्डित ने कहा- ‘आचार्य महाशय! हम लोग तो उतने पण्डित तो नहीं हैं। प्रमाण और हेतु तो आप-जैसे विद्वान ही समझ सकते हैं। किंतु हम इतना अवश्य समझते हैं कि प्रभु बार-बार आपका स्मरण करते हुए कहते हैं- ‘अद्वैताचार्य ने ही हमें बुलाया है, उसी के हुंकार के वशीभूत होकर हम भूतल पर आये हैं। लोकोद्धार की सबसे अधिक चिन्ता अद्वैताचार्य को ही थी, इसीलिये उसकी चिन्ता को दूर करने के निमित्त श्रीकृष्ण-संकीर्तन द्वारा लोकोद्धार करने के निमित्त ही हम अवतीर्ण हुए हैं।’ अद्वैताचार्य मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे, प्रभु की दयालुता, भक्तवत्सलता और कृपालुता का स्मरण करके उनका हृदय द्रवीभूत हो रहा था, प्रेम के कारण उनका कण्ठ अवरुद्ध हो गया। इच्छा करने पर भी वे कोई बात मुख से नहीं कह सकते थे, प्रेम में गद्गद होकर वे रुदन करने लगे। पास में ही बैठी हुई उनकी धर्मपत्नी सीता देवी भी आचार्य की ऐसी दशा देखकर प्रेम के कारण अश्रु बहाने लगी।

कुछ काल के अनन्तर अद्वैताचार्य के प्रेम का वेग कुछ कम हुआ। उन्होंने जल्दी से सभी पूजा की सामग्री इकट्ठी की और अपनी स्त्री तथा बच्चे को साथ लेकर वे रमाई के साथ नवद्वीप की ओर चल पड़े। नवद्वीप में पहुँचने पर आचार्य ने रमाई पण्डित से कहा- ‘देखो, हम इस प्रकार प्रभु के पास नहीं जायँगे, हम यहीं नन्दनाचार्य के घर में ठहरते हैं, तुम सीधे घर चले जाओ। यदि प्रभु हमारे आने के सम्बन्ध में कुछ पूछें तो तुम कह देना, ‘वे नहीं आये।’ यदि उनकी हमारे प्रति यथार्थ प्रीति होगी, तो वे हमें यहाँ से स्वयं ही बुला लेंगे। वे हमारे मस्तक के ऊपर अपना चरण रखेंगे, तभी हम समझेंगे कि उनकी हमारे ऊपर कृपा है और हमारी ही प्रार्थना पर वे जगत-उद्धार के निमित्त अवतीर्ण हुए हैं।’

आचार्य की ऐसी बात सुनकर रमाई पण्डित अपने घर चले गये। शाम के समय सभी भक्त आ-आकर श्रीवास पण्डित के घर एकत्रित होने लगे। कुछ काल के अनन्तर प्रभु भी पधारे। आज प्रभु घर में प्रवेश करते ही भावावेश में आ गये। भगवदावेश में वे जल्दी से भगवान के आसन पर विराजमान हो गये और जोरों के साथ कहने लगे- ‘नाड़ा शान्तिपुर से तो आ गया है, किंतु हमारी परीक्षा के निमित्त नन्दनाचार्य के घर छिपा बैठा है। वह अब भी हमारी परीक्षा करना चाहता है। उसी ने तो हमें बुलाया है और अब वही परीक्षा करना चाहता है।’ प्रभु की इस बात को सुनकर भक्त आपस में एक-दूसरे का मुख देखने लगे।

नित्यानन्द मन-ही-मन मुसकराने लगे। मुरारी गुप्त ने उसी समय प्रभु की पूजा की। धूप, दीप, नैवेद्य चढ़ाकर सुगन्धित पुष्पों की माला प्रभु के गले में पहनायी और खाने के लिये सुन्दर सुवासित ताम्बूल दिया। इसी समय रमाई पण्डित ने सभी वृत्तान्त जाकर अद्वैताचार्य से कहा। सब वृत्तान्त सुनकर आचार्य चकित-से हो गये और प्रेम में बेसुध-से हुए गिरते-पड़ते श्रीवास पण्डित के घर आये। जिस घर में प्रभु विराजमान थे, उस घर में प्रवेश करते ही अद्वैताचार्य को प्रतीत हुआ कि सम्पूर्ण घर आलोकमय हो रहा है। कोटि सूर्यों के सदृश प्रकाश उस घर में विराजमान है, उन्हें प्रभु की तेजोमय मूर्ति के स्पष्ट दर्शन न हो सके। उस असह्या तेज के प्रभाव को आचार्य सहन न कर सके। उनकी आँखों के सामने चकाचौंध-सी छा गयी, वे मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े और देहली से आगे पैर न बढ़ा सके। भक्तो ने वृद्ध आचार्य को उठाकर प्रभु के सम्मुख किया।

प्रभु के सम्मुख पहुँचने पर भी वे संज्ञाशून्य ही पड़े रहे और बेहोशी की ही हालत में लम्बी-लम्बी साँसें भरकर जोरों के साथ रुदन करने लगे। उन वृद्ध तपस्वी विद्वान पण्डित की ऐसी अवस्था देखकर सभी उपस्थित भक्त आनन्दसागर में गोते खाने लगे और अपनी भक्ति को तुच्छ समझकर रुदन करने लगे।

थोड़ी देर के अनन्तर प्रभु ने कहा- ‘आचार्य! उठो, अब देर करने का क्या काम है, तुम्हारी मनःकामना पूर्ण हुई। चिरकाल की तुम्हारी अभिलाषा के सफल होने का समय अब सन्निकट आ गया। अब उठकर हमारी विधिवत पूजा करो’

प्रभु की प्रेममय वाणी सुनकर वे कुछ प्रकृतिस्थ हुए। भोले बालक के समान सत्तर वर्ष के श्वेत केशवाले विद्वान ब्राह्मण सरलता के साथ प्रभु का पूजन करने के लिये उद्यत हुए।

जगन्नाथ मिश्र जिन्हें पूज्य और श्रेष्ठ मानते थे, विश्वरूप के जो विद्यागुरु थे और निमाई को जिन्होंने गोद में खिलाया था, वे ही भक्तों के मुकुटमणि महामान्य अद्वैताचार्य एक तेईस वर्ष के युवक के आदेश से सेवक की भाँति अपने भाग्य की सराहना करते हुए उसकी पूजा करने को तैयार हो गये। इसे ही तो विभूतिमत्ता कहते हैं, यही तो भगवत्ता है, जिसके सामने सभी प्राणी छोटे हैं। जिसके प्रभाव से जाति, कुल, रूप तथा अवस्था में छोटा होने पर भी पुरुष सर्वपूज्य समझा जाता है।

अद्वैताचार्य ने सुवासित जल से पहले तो प्रभु के पादपद्मों को पखारा, फिर पाद्य, अर्ध्य देकर सुगन्धित चन्दन प्रभु के श्रीअंगों में लेपन किया, अनन्तर अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्यादि चढ़ाकर सुन्दर माला प्रभु के गले में पहनायी और ताम्बूल देकर वे हाथ जोड़कर गद्गदकण्ठ से स्तुति करने लगे। वे रोते-रोते बार-बार इस श्लोक को पढ़ते थे-

नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः।।[1]

श्लोक पढ़ते-पढ़ते वे और भी गौरांग को लक्ष्य करके भाँति-भाँति की स्तुति करने लगे। स्तुति करते-करते वे बेसुध-से हो गये। इसी बीच अद्वैताचार्य की पत्नी सीतादेवी ने प्रभु की पूजा की। प्रभु ने भावावेश में आकर उन दोनों के मस्तकों पर अपने श्रीचरण रखे। प्रभु के पदपद्मों के स्पर्शमात्र से आचार्यपत्नी और आचार्य आनन्द में विभोर होकर रुदन करने लगे। प्रभु ने आचार्य को आश्वासन देते हुए कहा- ‘आचार्य! अब जल्दी से उठो, अब देर करने का काम नहीं है। अपने संकीर्तन द्वारा मुझे आनन्दित करो।’

प्रभु का आदेश पाते ही, आचार्य दोनों हाथों को ऊपर उठाकर प्रेम के साथ संकीर्तन करने लगे। सभी भक्त अपने-अपने वाद्यों को बजा-बजाकर आचार्य के साथ संकीर्तन करने में निमग्न हो गये। आचार्य प्रेम के आवेश में जोरों से नृत्य कर रहे थे, उन्हें शरीर की तनिक भी सुध-बुध नहीं थी। वे प्रेम में इतने मतवाले बने हुए थे कि कहीं पैर रखते थे और कहीं जाकर पैर पड़ते थे। धीरे-धीरे स्वेद, कम्प, अश्रु, स्वरभंग तथा विकृति आदि सभी संकीर्तन के सात्त्विक भावों का अद्वैताचार्य के शरीर में उदय होने लगा। भक्त भी अपने-आपको भूलकर अद्वैताचार्य की ताल के साथ अपना ताल-स्वरमिला रहे थे, इस प्रकार उस दिन के संकीर्तन में सभी को अपूर्व आनन्द आया। आज तक कभी भी इतना आनन्द संकीर्तन में नहीं आया था। सभी भक्त इस बात का अनुभव करने लगे कि आज का संकीर्तन सर्वश्रेष्ठ रहा। क्यों न हो, जहाँ अद्वैत तथा निमाई, निताई ये तीनों ही प्रेम के मतवाले एकत्रित हो गये, वहाँ अद्वितीय तथा अलौकिक आनन्द आना ही चाहिये। बहुत रात्रि बीतने पर संकीर्तन समाप्त हुआ और सभी भक्त प्रेम में छके हुए-से अपने-अपने घरों को चले गये।

क्रमशः अगला पोस्ट [51]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Grace on Advaitacharya

My friend, spontaneous love shines even from afar. The moon delights the forest of rainbow eyes

If love is really natural, if it really does not have any kind of worldly selfishness, then it raises a kind of excitement in the heart from both the sides. Some Urdu poet has given a very beautiful definition of love with fear and doubt. They say-

Maybe this is called ‘love’? As if someone rubs the heart in the chest.

Seeing the pulling of the heart in the chest, they infer that whether it is possible or not, it is only because of love. Even then cannot say with certainty. Afraid to take decisive action. Blessed are you! In reality, there cannot be a better definition of love than this.

Sitting in Shantipur, Advaitacharya would listen to the news of all the pastimes of Gauranga and would be happy within himself. Hearing the praise of your beloved, naturally a kind of tickle starts happening in the heart. The glory of Mahaprabhu had gradually spread to the whole of Gaudesh.

Hearing the devotional words of the Lord, Acharya used to dance in ecstasy and used to say on his own sometimes- ‘It seems that my devotee Bhayabhanjan Bhagwan was worshiped by me with the water of the Ganges and Tulsi leaves for a long time. That worship has now become successful. Lord Gaurahari will remove the sorrows of the devotees by appearing in the form of Lord Vishwambhar.’ His heart says again and again- ‘Many devotees are becoming pure by being under the shadow of the Lord, they are making themselves grateful by association and contact with Gaurahari, Why don’t you also walk and make this dull life of yours meaningful?’But there is a kind of sweet value in love too. There is a kind of indescribable happiness even in waiting for the grace of your beloved. That’s why after a while he again thought – ‘Why should I go on my own, when he is my presiding deity, he will call me himself, why should I go without being invited?’ Advaitacharya did not come to Navadweep even if he wanted to because of all these reasons.

On the other hand, when Mahaprabhu got emotional, he used to shout out loud – where is “Nada”! Calling us, Nada himself went and hid in Shantipur. We have come because of his call.” At first, the devotees could not understand what the Lord meant by saying ‘Nada’? When Shrivas Pandita humbly wanted to know who is ‘Nada’, then the Lord Himself told that ‘It was on the request of Advaitacharya that I have descended on Avnital for the sake of Jagaduddhar. By saying ‘Nada’ we mean only them.

Now Gauranga’s joy was greatly increased due to Nityananda Prabhu coming to Navadvipa. Now how could he live without Advaita? Advaita and Nityananda were the main pillars of their circle. That’s why one day in solitude the Lord indicated to Srivas Pandita’s younger brother Ram to go to Shantipur. Ramai Pandit was very happy after getting the indication of the Lord. At the same time, he went to Shantipur to bring Advaitacharya.

On reaching Shantipur, Ramai went to Pandit Acharya’s house. At that time the Acharya was sitting in front of his house, seeing Shrivas Pandit’s younger brother coming from a distance, he became very happy, his happiness knew no bounds. Acharya understood that ‘ now our auspicious days have come. The Lord has kindly sent Ramai Pandit to call us personally, the Lord cares so much for the devotee’s vow that he forgets all his wealth in front of him.’ Meanwhile Ramai came and bowed down to the Acharya. Acharya also caressed him.

Ramai Pandit stood on one side after receiving love from Acharya and started smiling a bit looking at Acharya. Seeing him smiling, Acharya said- ‘It seems that God has remembered me, but how do I know that in reality he is my God? The Lord whom I wanted to reveal for the sake of propagating sankirtan on earth, is this my Aaradhyadev Prabhu, do you guys have any proof of this?’ Ramai Pandit said with a smile – ‘Acharya sir! We are not that much learned. Only scholars like you can understand the proof and reason. But we do understand this much that the Lord remembers you again and again and says- ‘ Advaitacharya has called us, we have come to the ground after being influenced by his hum. Advaitacharya was most worried about the salvation of the people, that’s why we have incarnated for the purpose of doing Lokodhar through Shri Krishna-Sankirtan to remove his worries.’ His heart was melting remembering the kindness, his throat was blocked due to love. Even if he wished, he could not say anything through his mouth, he started crying after being overwhelmed with love. His wife Sita Devi, who was sitting nearby, also started shedding tears because of love seeing such condition of Acharya.

After some time, the speed of Advaitacharya’s love decreased a bit. He quickly gathered all the ingredients of the puja and took his wife and child along with Ramai and proceeded towards Navadvipa. On reaching Navadweep, Acharya said to Ramai Pandita- ‘Look, we will not go to the Lord like this, we are staying here in Nandacharya’s house, you go straight home. If the Lord asks anything about our coming, you should say, ‘He has not come.’ If He has true love for us, He will call us from here Himself. He will keep his feet on our head, only then we will understand that he has mercy on us and on our prayer he has incarnated for the salvation of the world.

Ramai Pandit went to his home after hearing such words of Acharya. In the evening, all the devotees started coming and gathering at Shrivas Pandit’s house. After some time the Lord also came. Today, as soon as Prabhu entered the house, he got emotional. He quickly sat on the Lord’s seat in Bhagavadavesh and started saying loudly – ‘Nada has come from Shantipur, but he is hiding at Nandacharya’s house for the sake of our examination. He still wants to test us. It is He who has called us and now He wants to test us.’ After hearing these words of the Lord, the devotees started looking at each other’s faces.

Nityanand started smiling in his heart. Murari Gupta worshiped the Lord at the same time. After offering dhoop, lamp, naivedya, put a garland of fragrant flowers around the Lord’s neck and gave a beautiful fragrant tent to eat. At the same time Ramai Pandit went and narrated all the incidents to Advaitacharya. The Acharya was astonished to hear all the stories and came to Shrivas Pandit’s house falling unconscious in love. As soon as he entered the house where the Lord was sitting, Advaitacharya felt that the whole house was becoming enlightened. Light like crores of suns is sitting in that house, they could not have a clear vision of the effulgent idol of the Lord. Acharya could not tolerate the effect of that unbearable heat. Dazzling flashed in front of his eyes, he fainted and fell on the ground and could not move beyond the threshold. The devotees lifted the old Acharya and brought him before the Lord.

Even after reaching in front of the Lord, he remained unconscious and in a state of unconsciousness started crying loudly by taking long breaths. Seeing such a state of that old ascetic scholar, all the present devotees started diving into the ocean of joy and began to weep considering their devotion to be insignificant.

After a while the Lord said – ‘ Acharya! Wake up, what is the use of delaying now, your wish has come true. The time has come for your eternal desire to be successful. Now get up and worship us properly’

After listening to the loving voice of the Lord, he became somewhat natural. Like an innocent child, the 70-year-old white haired scholar Brahmin got ready to worship the Lord with ease.

Jagannath Mishra, who was worshiped and respected, who was the teacher of Vishwaroop and who fed Nimai in his lap, the crown jewel of devotees Mahamanya Advaitacharya ordered a twenty-three year old youth to worship him like a servant, appreciating his fortune. Got ready. This is called Vibhutimatta, this is Bhagavatta, in front of whom all the living beings are small. Due to whose influence a man is considered to be worshiped by all, even though he is small in caste, family, form and status.

Advaitacharya first washed the feet of the Lord with fragrant water, then after giving Padya, Ardhya, smeared the body with fragrant sandalwood paste, after offering Akshat, Dhoop, Deep, Naivedyadi etc., put a beautiful garland around the Lord’s neck and after giving the tambul, he chanted with folded hands. Started praising He used to recite this verse again and again while crying-

Obeisance to the god of brahmins and to the welfare of cows and brahmins. Obeisance to Krishna, Govinda, the well-wisher of the universe.

While reciting the verses, he started praising Gaurang even more in various ways. He became unconscious while praising. Meanwhile, Advaitacharya’s wife Sita Devi worshiped the Lord. The Lord came in emotion and placed His feet on the heads of both of them. Acharya’s wife and Acharya started crying in joy at the mere touch of Lord’s feet. Prabhu assured Acharya and said – ‘ Acharya! Now get up quickly, now there is no work to delay. Delight me with your chanting.’

On receiving the order of the Lord, Acharya raised both his hands and started chanting with love. All the devotees got engrossed in performing sankirtan with Acharya by playing their respective instruments. Acharya was dancing loudly in the passion of love, he was not aware of his body at all. He was so intoxicated with love that he used to keep his feet somewhere and fall somewhere else. Gradually, the sattvik feelings of all sankirtans like sweating, trembling, tears, dissonance and deformity etc. started rising in Advaitacharya’s body. Devotees were also forgetting themselves and mixing their rhythm with Advaitacharya’s rhythm, in this way everyone enjoyed the sankirtan of that day. Till date, there was never so much joy in sankirtan. All the devotees started realizing that today’s sankirtan was the best. Why not, where Advaita and Nimai, Nitai all these three intoxicated with love have gathered, there must be unique and supernatural joy. After a long night, the sankirtan ended and all the devotees went to their respective homes overwhelmed with love.

respectively next post [51] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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