[57]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

IMG WA

।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
हरिदासजी द्वारा नाम-माहात्म्य

हरिकीर्तनशीलो वा तद्भक्तानां प्रियोऽपि वा।
शुश्रूषुर्वापि महतां स वन्द्योऽस्माभिरूत्तमः।।

शोक और मोह का कारण है प्राणियों में विभिन्न भावों का अध्यारोप। जब मनुष्य एक को तो अपना सुख देने वाला प्यारा सुहृद् समझता है ओर दूसरे को दुःख देने वाला शत्रु समझकर उससे द्वेष करने लगता है, तब उसके हृदय में शोक और मोह का उदय होना अवश्यम्भावी है, जिस समय सभी प्राणियों में वह उसी एक अखण्ड सत्ता का अनुभव करने लगेगा, जब प्राणिमात्र को प्रभु का पुत्र समझकर सबको महान भाव से प्यार करने लगेगा, तब उस साधक के हृदय में मोह और शोक का नाम भी न रहेगा। वह सदा प्रसन्न होकर भगवन्नामों का ही स्मरण-चिन्तन करता रहेगा। उसके लिये न तो कोई संसार में शत्रु होगा न मित्र, वह सभी को अपने प्रियतम की प्यारी संतान समझकर भाई के नाते से जीवमात्र की वन्दना करेगा और उसे भी कोई क्लेश न पहुँचा सकेगा। उसके सामने आने पर विषधर सर्प भी अपना स्वभाव छोड़ देगा। भगवन्नाम का माहात्म्य ही ऐसा है।

महात्मा हरिदास जी फुलिया के पास ही पुण्यसलिला माँ जाह्नवी के किनारे पर एक गुफा बनाकर उसमें रहते थे। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी। नित्यप्रति वहाँ सैकड़ों आदमी इनके दर्शन के लिये तथा गंगास्नान के निमित्त इनके आश्रम के निकट आया करते थे। जो भी मनुष्य इनकी गुफा के समीप जाता, उसके शरीर में एक प्रकार की खुजली-सी होने लगती। लोगों को इसका कुछ भी कारण मालूम न हो सका। उस स्थान में पहुँचने पर चित्त में शान्ति तो सभी के होती, किंतु वे खुजली से घबड़ा जाते। लोग इस विषय में भाँति-भाँति के अनुमान लगाने लगे। होते-होते बात सर्वत्र फैल गयी। बहुत-से चिकित्सकों ने वहाँ की जलवायु का निदान किया, अन्त में सभी ने कहा- ‘यहाँ जरूर कोई महाविषधर सर्प रहता है। न जाने हरिदास जी कैसे अभी तक बचे हुए हैं, उसके श्वास से ही मनुष्य की मृत्यु हो सकती है। वह कहीं बहुत भीतर रहकर श्वास लेता है, उसी का इतना असर है कि लोगों के शरीर में जलन होने लगती है, यदि वह बाहर निकलकर जोरों से फुंकार करे, तो इसकी फुंकार से मनुष्य बच नहीं सकता।

हरिदास जी इस स्थान को शीघ्र ही छोड़कर कहीं अन्यत्र रहने लगें, नहीं तो प्राणों का भय है।’ चिकित्सकों की सम्मति सुनकर सभी ने हरिदास जी से आग्रहपूर्वक प्रार्थना की कि आप इस स्थान को अवश्य ही छोड़ दें। आप तो महात्मा हैं, आपको चाहे कष्ट न भी हो, किंतु और लोगों को आपके यहाँ रहने से बड़ा भारी कष्ट होगा। दर्शनार्थी बिना आये रहेंगे नहीं और यहाँ आने पर सभी को शारीरिक कष्ट होता है। इसलिये आप हम लोगों का ही खयाल करके इस स्थान को त्याग दीजिये।’

हरिदास जी ने सबके आग्रह करने पर उस स्थान को छोड़ना मंजूर कर लिया और उन लोगों को आश्वासन देते हुए कहा- ‘आप लोगों को मेरे कारण कष्ट हो, यह मैं नहीं चाहता। यदि कल तक सर्प यहाँ से चला नहीं गया तो मैं कल शाम को ही इस स्थान का परित्याग कर दूँगा। कल या तो यहाँ सर्प ही रहेगा या मैं ही रहूँगा, अब दोनों साथ-ही-साथ यहाँ नहीं रह सकते।’

इनके ऐसे निश्चय को सुनकर लोगों को बड़ा भारी आनन्द हुआ और सभी अपने-अपने स्थानों को चले गये। दूसरे दिन बहुत-से भक्त एकत्रित होकर हरिदास जी के समीप श्रीकृष्ण-कीर्तन कर रहे थे कि उसी समय सब लोगों को उस अँधेरे स्थान में बड़ा भारी प्रकाश-सा मालूम पड़ा। सभी भक्त आश्चर्य के साथ उस प्रकाश की ओर देखने लगे। सभी ने देखा कि एक चित्र-विचित्र रंगों का बड़ा भारी सर्प वहाँ से निकलकर गंगाजी की ओर जा रहा है। उसके मस्तक पर एक बड़ी-सी मणि जड़ी हुई है। उसी का इतना तेज प्रकाश है। सभी ने उस भयंकर सर्प को देखकर आश्चर्य प्रकट किया। सर्प धीरे-धीरे गंगा जी के किनारे-किनारे बहुत दूर चला गया। उस दिन से आश्रम में आने वाले किसी भी दर्शनार्थी के शरीर में खुजली नहीं हुई।

भक्तों का ऐसा ही प्रभाव होता है, उनके प्रभाव के सामने अजगर तो क्या, कालकूट को हजम करने वाले देवाधिदेव महादेव जी तक भी भय खाते हैं। यह सब भगवान की भक्ति का ही माहात्म्य है।

इस प्रकार महात्मा हरिदास जी फुलिया में रहते हुए श्रीभागीरथी का सेवन करते हुए आचार्य अद्वैत के सत्संग का निरन्तर आनन्द लूटते रहे।

अद्वैताचार्य ही इनके गुरु, पिता, आश्रयदाता अथवा सर्वस्व थे। उनके ऊपर इनकी बड़ी भारी भक्ति थी। जिस दिन महाप्रभु का जन्म नवद्वीप में हुआ था, उस दिन आचार्य के साथ ये आनन्द में विभोर होकर नृत्य कर रहे थे। आचार्य का कहना था कि ये जगन्नाथतनय कालान्तर में गौरांग रूप से जनोद्धार तथा सम्पूर्ण देश में श्रीकृष्ण-कीर्तन का प्रचार करेंगे। आचार्य के वचनों पर हरिदास जी को पूर्ण विश्वास था, इसलिये वे भी गौरांग के प्रकाश की प्रतीक्षा में निरन्तर श्रीकृष्ण-संकीर्तन करते हुए कालयापन करने लगे।

उस समय सप्तग्राम में हिरण्य और गोवर्धन मजूमदार नामक दो धनिक जमींदार भाई निवास करते थे। उनके कुलपुरोहित परम वैष्णव शास्त्रवेत्ता पं. बलराम आचार्य थे। आचार्य महाशय वैष्णवों का बड़ा ही आदर-सत्कार किया करते थे। आचार्य महाशय वैष्णवों का बड़ा ही आदर-सत्कार किया करते थे। अद्वैताचार्य जी से उनकी अत्यन्त ही घनिष्ठता थी। दोनों ही विद्वान थे, कुलीन थे, भगवद्भक्त और देशकाल के मर्मज्ञ थे, इसी कारण हरिदास जी भी कभी-कभी सप्तग्राम में जाकर बलराम आचार्य के यहाँ रहते थे। आचार्य इनकी नाम-निष्ठा और भगवद्भक्ति देखकर बड़े ही प्रसन्न होते और सदा इन्हें पुत्र की भाँति प्यार किया करते थे। गोवर्धन मजूमदार के पुत्र रघुनाथदास जब पढ़ने के लिये आचार्य के यहाँ आते थे, तो हरिदास जी को सदा नाम-जप करते ही पाते। इसीलिये वे मन-ही-मन इनके प्रति बड़ी श्रद्धा रखने लगे। एक दिन आचार्य इन्हें मजूमदार की सभा में ले गये। मजूमदार महाशय अपने कुलगुरु के चरणों में अत्यन्त ही श्रद्धा रखते थे, वैष्णव भक्तों का भी यथेष्ठ आदर करते थे। अपने कुलगुरु के साथ हरिदास जी को आया देखकर हिरण्य और गोवर्धन दोनों भाइयों ने आचार्य के सहित हरिदास जी की उठकर अभ्यर्चना की और शिष्टाचार प्रदर्शित करते हुए उन्हें बैठने के लिये सुन्दर आसन दिया। हरिदास जी बिना रुके जोरों से इसी मन्त्र का जप कर रहे थे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।

सभी-के-सभी लोग सम्भ्रम-भाव से इन्हीं की ओर एकटक-भाव से देख रहे थे। इनके निरन्तर के नाम-जप को देखकर उन दोनों जमींदार भाइयों को इनके प्रति स्वाभाविक ही बड़ी भारी श्रद्धा हो गयी। उनके दरबार में बहुत-से और भी पण्डित बैठे हुए थे। भगवन्नाम-जप का प्रसंग आने पर पण्डितों ने नम्रता के साथ पूछा- ‘भगवन्नाम- जप का अन्तिम फल क्या है? इससे किस प्रकार की सुख की प्राप्ति होती है? क्या हरि-नाम-स्मरण से सभी दुःखों का अत्यन्ताभाव हो सकता है? क्या केवल नाम-जप से ही मोक्ष मिल सकता है?’

हरिदास जी ने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़े हुए पण्डितों को उत्तर दिया- ‘महानुभावो! आप शास्त्रज्ञ हैं, धर्म के मर्म को भलीभाँति जानते हैं। आपने सभी ग्रन्थों तथा वैष्णव-शास्त्रों का अध्ययन किया है। मैं आपके सामने कह ही क्या सकता हूँ, किंतु भगवन्नाम के माहात्म्य से आत्मा में सुख मिलता है, इसीलिये कुछ कहने का साहस करता हूँ।

भगवन्नाम का सर्वश्रेष्ठ फल यही है कि इसके जप से हृदय में एक प्रकार की अपूर्व प्रसन्नता प्रकट होती है, उस प्रसन्नताजन्य सुख का आस्वादन करते रहना ही भगवन्नाम का सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम फल है। भगवन्नाम का जप करने वाला साधक मोक्ष या दुःखों के अत्यन्ताभाव की इच्छा ही नहीं करता। वह सगुण-निर्गुण दोनों के ही चक्कर से दूर रहता है। उसका तो अन्तिम ध्येय भगवन्नाम का जप ही होता है। कहीं भी रहें, कैसी भी परिस्थिति में रहें, कोई भी योनि मिले, निरन्तर भगवन्नाम का स्मरण बना रहे। क्षणभर को भी भगवन्नाम से पृथक न हो। यही नाम-जप के साधक का अन्तिम लक्ष्य है। भगवन्नाम के साधक का साध्य और साधन भगवन्नाम ही है। भगवन्नाम से वह किसी अन्य प्रकार के फल की इच्छा नहीं रखता। मैं तो इतना ही जानता हूँ, इससे अधिक यदि आप कुछ और जानते हों तो मुझे बतावें।’

इनकी ऐसी युक्तियुक्त और सारगर्भित मधुर वाणी को सुनकर सभी को परम प्रसन्नता हुई। उसी सभा में गोपालचन्द्र चक्रवर्ती नाम का इन्हीं जमींदार का एक कर्मचारी बैठा था। वह बड़ा तार्किक था, उसने हरिदास की बात का खण्डन करते हुए कहा- ‘ये तो सब भावुकता की बातें हैं, जो पढ़-लिख नहीं सकते, वे ही इस प्रकार जोरों से नाम लेते फिरते हैं। यथार्थ ज्ञान तो शास्त्रों के अध्ययन से ही होता है। भगवन्नाम से कहीं दुःखों का नाश थोड़े ही हो सकता है? शास्त्रों में जो कहीं-कहीं नाम की इतनी प्रशंसा मिलती है, वह केवल अर्थवाद है। यथार्थ बात तो दूसरी ही है।’

हरिदास जी ने कुछ जोर देते हुए कहा- ‘भगवन्नाम में जो अर्थवाद का अध्यारोप करते हैं, वे शुष्क तार्किक हैं। वे भगवन्नाम के माहात्म्य को समझ ही नहीं सकते। भगवन्नाम में अर्थवाद हो ही नहीं सकता।’

इस पर गोपालचन्द्र चक्रवर्ती ने भी अपनी बात पर जोर देते हुए कहा- ‘ये मूर्खों को बहकाने की बातें हैं। अजामिल-जैसा पापी पुत्र का नारायणनाम लेते ही तर गया। क्या घट-घटव्यापी भगवान इतना भी नहीं समझ सकते थे कि इसने अपने पुत्र को बुलाया है? यह अर्थवाद नहीं तो क्या है?’ हरिदास जी ने कहा- ‘इसे अर्थवाद कहने वाले स्वयं अनर्थवादी हैं, उनसे मैं कुछ नहीं कह सकता।’ जोश में आकर गोपाल चक्रवर्ती ने कहा- ‘यदि भगवन्नाम-स्मरण करने से मनुष्य की नीचता जाती रहे तो मैं अपनी नाक कटा लूँ।’

हरिदास जी ने भी जोश में आकर कहा- ‘यदि भगवन्नाम के जप से नीचताओं का जड़-मूल से नाश न हो जाय तो मैं अपने नाक-कान दोनों ही कटाने के लिये तैयार हूँ।’ बात को बहुत बढ़ते देखकर लोगों ने दोनों को ही शान्त कर दिया। जमींदार उस आदमी से बहुत असन्तुष्ट हुए। उसे वैष्णवापराधी और भगवन्नामविमुख समझकर जमींदार ने उसे नौकरी से पृथक कर दिया। सुनते हैं कि कालान्तर में उसकी नाक सचमुच कट गयी।

इसी प्रकार की एक दूसरी घटना हरिनदी नामक ग्राम में हुई। हरिनदी नामक ग्राम के एक पण्डितमानी, अहंकारी ब्राह्मण को अपने शास्त्रज्ञान का बड़ा गर्व था। हरिदास जी चलते-फिरते, उठते-बैठते उच्च स्वर से-

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।

-इस महामन्त्र का सदा जप करते रहते थे। इन्हें मुसलमान और महामन्त्र का अनधिकारी समझकर उसने इनसे पूछा- ‘मुसलमान के लिये इस उपनिषद के मन्त्र का जप करना कहाँ लिखा है? यह तुम्हारी अनधिकार चेष्टा है और जो तुम्हें भगवद्भक्त कहकर तुम्हारी पूजा करते हैं, वे भी पाप करते हैं।

शास्त्र में लिखा है, जहाँ अपूज्य लोगों की पूजा होती है और पूज्य लोगों की उपेक्षा की जाती है वहाँ दुर्भिक्ष, मरण, भय ओर दारिद्र्य- ये बातें होती हैं। इसलिये तुम इस अशास्त्रीय कार्य को छोड़ दो, तुम्हारे ऐसे आचरणों से देश में दुर्भिक्ष पड़ जायगा।’

हरिदास जी ने बड़ी ही नम्रता से कहा- ‘विप्रवर! मैं नीच पुरुष भला शास्त्रों का मर्म क्या जानूँ? किंतु आप-जैसे विद्वानों के ही मुख से सुना है कि चाहे वेद-शास्त्रों के अध्ययन का द्विजातियों के अतिरिक्त किसी को अधिकार न हो, किंतु भगवन्नाम तो किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन तथा खस आदि जितनी भी पापयोनि और जंगली जाति हैं, सभी को पावन बनाने वाला है। भगवन्नाम का अधिकार तो सभी को समानरूप से है।[1]

हरिदास जी के इस शास्त्र सम्मत उत्तर को सुनकर ब्राह्मण ने पूछा- ‘खैर, भगवन्नाम का अधिकार सबको भले ही हो, किंतु मन्त्र का जप इस प्रकार जोर-जोर से करने से क्या लाभ? शास्त्रों में मानसिक, उपांशु और वाचिक- ये तीन प्रकार के जप बताये हैं। जिनमें वाचिक जप से सहस्रगुणा उपांशु- जप श्रेष्ठ है, उपांशु-जप से लक्षगुणा मानसिक जप श्रेष्ठ है। तुम मन में जप करो, तुम्हारे इस जप को तो मानसिक, उपांशु अथवा वाचिक किसी प्रकार का भी जप नहीं कह सकते। यह तो ‘वैखरी-जप’ है जो अत्यन्त ही नीच बताया गया है।’

हरिदास जी ने उसी प्रकार नम्रतापूर्वक कहा- ‘महाराज! मैं स्वयं तो कुछ जानता नहीं, किंतु मैंने अपने गुरुदेव श्रीअद्वैताचार्य जी के मुख से थोड़ा-बहुत शास्त्र का रहस्य सुना है। आपने जो तीन प्रकार के जप बताये हैं और जिनमें मानसिक जप को सर्वश्रेष्ठता दी है, वह तो उन मन्त्रों के जप के लिये है। जिनकी विधिवत गुरु के द्वारा दीक्षा लेकर शास्त्र की विधि के अनुसार केवल पवित्रावस्था में ही सांगोपांग जप किया जाता है। ऐसे मन्त्र गोप्य कहे जाते हैं। वे दूसरों के सामने प्रकट नहीं किये जाते। किंतु भगवन्नाम के लिये तो शास्त्रों में कोई विधि ही नहीं बतायी गयी है। इसका जप तो सर्वकाल में, सर्वस्थानों में, सबके सामने और सब परिस्थितियों में किया जाता है। अन्य मन्त्रों का चाहे धीरे-धीरे जप का अधिक माहात्म्य भले ही हो, किंतु भगवन्नाम का माहात्म्य तो जोरों से ही उच्चारण करने में बताया है।

भगवन्नाम का जितने ही जोरों से उच्चारण किया जायगा उसका उतना ही अधिक माहात्म्य होगा, क्योंकि धीरे-धीरे नाम-जप करने वाला तो अकेला अपने-आपको ही पावन बना सकता है, किंतु उच्च स्वर से संकीर्तन करने वाला तो सुनने वाले जड-चेतन सभी को पावन बनाता है।’[1]

इनकी इस बात को सुनकर ब्राह्मण ने झुँझलाकर कहा- ‘ये सब शास्त्रों के वाक्य अर्थवाद के नाम से पुकारे जाते हैं। लोगों की नाम-जप और संकीर्तन में श्रद्धा हो, इसीलिये ऐसे-ऐसे वाक्य कहीं-कहीं कह दिये गये हैं। यथार्थ बात तो यह है कि बिना दैवी-सम्पत्ति का आश्रय ग्रहण किये नाम-जप से कुछ भी नहीं होने का। यदि नाम-जप से ही मनुष्य का उद्धार हो जाता तो फिर इतने शास्त्रों की रचना क्यों होती?’

हरिदास जी ने उसी तरह नम्रता के साथ कहा- ‘पण्डित जी! श्रद्धा होना ही तो कठिन है। यदि सचमुच में केवल भगवन्नाम पर ही पूर्णरूप से श्रद्धा जम जाय तो फिर शास्त्रों की आवश्यकता ही नहीं रहती। शास्त्रों में भी और क्या है, सर्वत्र ‘भगवान पर श्रद्धा करो’ ये ही वाक्य मिलते हैं। श्रद्धा-विश्वास की पुष्टि करने के ही निमित्त शास्त्र हैं।’

आवेश में आकर ब्राह्मण ने कहा- ‘यदि केवल भगवन्नाम-जप से ही सब कुछ हो जाय तो मैं अपने नाक-कान दोनों कटवा लूँगा।’

हरिदास जी यह कहते हुए चले गये कि ‘यदि आपको विश्वास नहीं है तो न सही। मैंने तो अपने विश्वास की बात आपसे कही है।’ सुनते हैं, उस ब्राह्मण की पीनस-रोग से नाक सड़ गयी और वह गल-गलकर गिर पड़ी। भगवन्नाम-विरोधी की जो भी दशा हो वही थोड़ी है। सम्पूर्ण दुःखों का एकमात्र मूल कारण भगवन्नाम से विमुख होना ही तो है।

इस प्रकार महात्मा हरिदास जी भगवन्नाम का माहात्म्य स्थापित करते हुए गंगा जी के किनारे निवास करने लगे। जब उन्होंने सुना कि नवद्वीप में उदय होकर गौरचन्द्र अपनी शीतल और सुखमयी कृपा-किरणों से भक्तों के हृदयों को भक्ति-रसामृत से सिंचन कर रहे हैं, तो ये भी उस निष्कलंकपूर्ण चन्द्र की छत्र-छाया में आकर नवद्वीप में रहने लगे। ये अद्वैताचार्य के कृपापात्र तो पहले से ही थे, इसलिये इन्हें प्रभु के अन्तरंग भक्त बनने में अधिक समय नहीं लगा। थोड़े ही दिनों में ये प्रभु के प्रधान कृपापात्र भक्तों में गिने जाने लगे। इनकी भगवन्नाम-निष्ठा का सभी भक्त बड़ा आदर करते थे। प्रभु इन्हें बहुत अधिक चाहते थे। इन्होंने भी अपना सर्वस्व प्रभु के पादपद्मों में समर्पित कर दिया था। इनकी प्रत्येक चेष्टा प्रभु की इच्छानुसार ही होती थी। ये भक्तों के साथ संकीर्तन में रात्रि-रात्रि भर नृत्य करते रहते थे और नृत्य में बेसुध होकर गिर पड़ते थे। इस प्रकार श्रीवास पण्डित का घर श्रीकृष्ण-संकीर्तन का प्रधान अड्डा बन गया। शाम होते ही सब भक्त एकत्रित हो जाते। भक्तों के एकत्रित हो जाने पर किवाड़ बन्द कर दिये जाते और फिर संकीर्तन आरम्भ होता। फिर चाहे कोई भी क्येां न आये, किसी के लिये किवाड़ नहीं खुलते थे। इससे बहुत-से आदमी निराश होकर लौट जाते और वे संकीर्तन के सम्बन्ध में भाँति-भाँति के अपवाद फैलाते। इस प्रकार एक ओर तो सज्जन भक्त संकीर्तन के आनन्द में परमानन्द का रसास्वादन करने लगे और दूसरी ओर निन्दक लोग संकीर्तन के प्रति बुरे भावों का प्रचार करते हुए अपनी आत्मा को कलुषित बनाने लगे।

क्रमशः अगला पोस्ट [58]
••••••••••••••••••••••••••••••••••
[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Naam-Mahatmya by Haridasji

Whether he is fond of chanting the name of Hari or dear to his devotees Though he served the great he is the best we can worship.

The reason for grief and attachment is the superposition of different feelings in the living beings. When a person considers one as his dear friend who gives happiness and starts hating the other as an enemy who gives pain, then it is inevitable that grief and attachment will arise in his heart, at which time he will become the same unbroken entity in all beings. When he starts loving everyone with a great sense considering every living being as the son of God, then there will be no mention of attachment and sorrow in the heart of that seeker. He will always be happy and keep remembering and thinking about the names of the Lord. For him there will be neither enemy nor friend in the world, considering everyone as the beloved child of his Beloved, he will worship every living being as a brother and no trouble will be able to hurt him either. Even a poisonous snake will leave its nature when it comes in front of him. Such is the greatness of the name of the Lord.

Mahatma Haridas ji used to live in a cave near Phulia by making a cave on the banks of Punyasalila Maa Jahnavi. His fame had spread far and wide. Every day hundreds of people used to come near his ashram for his darshan and for bathing in the Ganges. Any person who goes near their cave, a kind of itching starts in his body. People could not know any reason for this. Everyone would have peace of mind on reaching that place, but they would get worried due to itching. People started speculating about this in various ways. Gradually the word spread everywhere. Many doctors diagnosed the climate there, in the end everyone said – ‘There must be some super poisonous snake living here. Don’t know how Haridas ji is still alive, a man can die only by his breath. He breathes somewhere deep inside, his effect is so much that people start feeling jealous, if he comes out and barks loudly, then man cannot escape from his bark.

Haridas ji should leave this place soon and start living somewhere else, otherwise there is a fear of life.’ After listening to the advice of the doctors, everyone earnestly prayed to Haridas ji that you must leave this place. You are a Mahatma, you may not be in trouble, but other people will suffer a lot if you stay here. Visitors will not remain without coming and everyone suffers physical pain when they come here. That’s why you leave this place keeping in mind only us.

On everyone’s request, Haridas ji agreed to leave that place and assured them, ‘I do not want you to suffer because of me. If the snake does not go away from here till tomorrow, I will leave this place tomorrow evening itself. Tomorrow either the snake will remain here or I will remain here, now both cannot live here together.’

On hearing such a resolution, the people were overjoyed and all went to their respective places. On the second day, many devotees gathered near Haridas ji and were doing Shri Krishna-Kirtan, that at the same time everyone felt like a huge light in that dark place. All the devotees started looking towards that light with wonder. Everyone saw that a big heavy snake of strange colors was coming out from there and going towards Gangaji. A big gem is studded on his forehead. His light is so bright. Everyone was surprised to see that fierce snake. The snake slowly went far away along the banks of Ganga ji. From that day onwards none of the visitors coming to the ashram felt itchy.

Such is the effect of devotees, in front of their effect, what to say, even a dragon, who digests Calcutta, even Mahadev ji, the god of gods, is afraid. All this is the greatness of devotion to God.

In this way Mahatma Haridas ji, while living in Phulia, continued to enjoy the satsang of Acharya Advaita while consuming Shri Bhagirathi.

Advaitacharya was his guru, father, shelter or everything. He had great devotion towards him. On the day when Mahaprabhu was born in Navadvipa, he was dancing with Acharya in ecstasy. Acharya had said that this Jagannathatanay would in course of time propagate Janodhar and Shri Krishna-Kirtan in the entire country. Haridas ji had full faith in Acharya’s words, so he also started doing Kalayapan while continuously doing Shri Krishna-Sankirtan waiting for the light of Gauranga.

At that time, two wealthy landlord brothers named Hiranya and Govardhan Majumdar lived in Saptagram. His Vice Chancellor was Param Vaishnava Shastraveta Pt. Balram Acharya. Acharya Mahasaya used to show great respect to the Vaishnavas. Acharya Mahasaya used to show great respect to the Vaishnavas. He had a very close relationship with Advaitacharya ji. Both were scholars, elite, devotees of Bhagavad and deep knowledge of the country, that is why Haridas ji also used to go to Saptagram and stay at Balram Acharya’s place. Acharya was very happy to see his name-loyalty and devotion to God and always used to love him like a son. When Raghunathdas, son of Govardhan Majumdar, used to come to Acharya’s place to study, he would always find Haridas ji chanting his name. That’s why they started having great faith towards him. One day Acharya took him to Majumdar’s meeting. Majumdar Mahasaya used to have great faith in the feet of his Vice-Chancellor, he used to respect Vaishnav devotees as well. Seeing Haridas ji coming with his vice-chancellor, both Hiranya and Govardhan brothers along with Acharya got up and worshiped Haridas ji and showing courtesy gave him a beautiful seat to sit. Haridas ji was chanting this mantra loudly without stopping.

Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare.

Everyone was looking at him with a confused feeling. Seeing his continuous name-chanting, both those landlord brothers naturally had a lot of faith in him. Many other pundits were also sitting in his court. When the context of chanting God’s name came, the pundits humbly asked – ‘What is the final result of chanting God’s name? What kind of happiness does one get from this? Can all sorrows be overcome by chanting the name of Hari? Can salvation be attained only by chanting the name?’

Haridas ji humbly replied to the pundits with folded hands – ‘ Excellencies! You are a scientist, you know the meaning of religion very well. You have studied all the scriptures and Vaishnava scriptures. What can I say in front of you, but the greatness of God’s name gives happiness to the soul, that’s why I dare to say something.

The best fruit of the Lord’s name is that a kind of unique happiness appears in the heart by chanting it, the best and the best fruit of the Lord’s name is to continue to enjoy that happiness. The seeker who chants the name of God does not desire salvation or the extreme absence of sorrows. He stays away from the affair of both Sagun and Nirgun. His ultimate aim is to chant the name of the Lord. Wherever you live, in whatever situation you live, in whatever life you meet, always remember the name of God. Do not be separated from the Lord’s name even for a moment. This is the ultimate goal of the seeker of chanting the name. The name of the Lord is the end and the means of the seeker of the Lord’s name. He does not desire any other kind of fruit from the Lord’s name. That’s all I know, if you know anything more then tell me.’

Everyone was overjoyed to hear his sweet and eloquent speech. An employee of the same landlord named Gopalchandra Chakraborty was sitting in the same meeting. He was very logical, he refuted the talk of Haridas and said- ‘These are all sentimental things, those who cannot read and write, they go around taking names loudly like this. Real knowledge is obtained only through the study of the scriptures. Can sorrows be destroyed by the name of God? The praise of the name at some places in the scriptures is mere economics. The real thing is something else.

Haridas ji said with some emphasis – ‘ Those who impose economics in the name of God, they are dry logical. They cannot understand the greatness of the name of the Lord. There can be no economics in the name of God.

On this, Gopalchandra Chakraborty also emphasized on his point and said- ‘These are words to mislead the fools. Ajamil-as soon as the son’s Narayan’s name was uttered, a sinner got wet. Couldn’t God even understand that he has called his son? If this is not economics, then what is it?’ Haridas ji said- ‘I cannot say anything to those who call it economics, they themselves are evil.’ Then I will cut off my nose.’

Haridas ji also got excited and said- ‘If the meanness is not destroyed from the root by chanting the name of God, then I am ready to cut off both my nose and ears.’ Calmed down The landlord became very dissatisfied with that man. Considering him Vaishnavaparadhi and Bhagwannamvimukh, the landlord separated him from his job. It is heard that later his nose was actually cut off.

Another similar incident took place in a village named Harinadi. A scholarly, arrogant Brahmin from a village named Harinadi was very proud of his knowledge of scriptures. Haridas ji while walking, getting up and sitting in a loud voice –

Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare.

He always used to chant this great mantra. Considering them to be Muslims and unauthorized of Mahamantra, he asked them – ‘ Where is it written for Muslims to chant the mantra of this Upanishad? This is your unauthorized attempt and those who worship you by calling you devotees of God, they also commit sin.

It is written in the scriptures, where the unworthy people are worshiped and the worshipable people are neglected, there are famine, death, fear and poverty. That’s why you leave this unscriptural work, because of your such behavior there will be famine in the country.’

Haridas ji said very humbly – ‘ Vipravar! How can I, a lowly man, know the meaning of the scriptures? But it has been heard from the mouth of scholars like you that even if no one has the right to study the Vedas and scriptures except the two castes, but the name of God is as much as Kirat, Hun, Andhra, Pulind, Pulkas, Abhir, Kanka, Yavan and Khas etc. Even sinful and wild caste, the one who makes everyone pure. Everyone has the right to the name of God equally.[1]

After listening to this scripture-based answer of Haridas ji, the Brahmin asked – ‘ Well, everyone may have the right to chant the name of God, but what is the benefit of chanting the mantra loudly like this? In the scriptures, there are three types of chanting – mental, upanshu and reader. In which Sahasrguna Upanshu-chanting is better than verbal chanting, Lakshwaguna mental chanting is better than Upanshu-chanting. You chant in your mind, this chanting of yours cannot be called any kind of chanting, mental, episodic or verbal. This is ‘vaikhari-chanting’ which has been described as very low.

Haridas ji humbly said in the same way – ‘ Maharaj! I myself do not know anything, but I have heard some secrets of the scriptures from the mouth of my Gurudev Shri Advaitacharya ji. The three types of chanting that you have mentioned and in which you have given superiority to mental chanting, it is for the chanting of those mantras. Sangopang chanting is done only in the sacred state according to the method of the scriptures after taking initiation by the Guru. Such mantras are called secret. They are not revealed to others. But there is no method mentioned in the scriptures for the name of God. It is chanted at all times, in all places, in front of everyone and in all circumstances. Even if chanting other mantras slowly may have more greatness, but the greatness of God’s name has been told in pronouncing it loudly.

The louder the chanting of the Lord’s name, the greater will be its greatness, because one who chants the name slowly can purify himself alone, but the one who chants it loudly, all the non-living beings who hear it. makes holy.'[1]

Hearing this, the Brahmin got annoyed and said- ‘All these scriptures’ sentences are called economics. People should have faith in name-chanting and sankirtan, that’s why such sentences have been said at some places. The real thing is that without taking shelter of divine wealth nothing can be achieved by chanting the name. If man could be saved by chanting the name, then why would so many scriptures have been created?’

Haridas ji said with humility in the same way – ‘ Pandit ji! It is difficult to have faith. If there really is complete faith in the name of the Lord, then there is no need for the scriptures. What’s more, in the scriptures also, the same sentences are found everywhere, ‘Have faith in God’. The scriptures are meant to confirm faith and belief.

In a fit of rage, the Brahmin said- ‘If everything is done only by chanting the name of God, then I will get both my nose and ears cut off.’

Haridas ji went away saying that ‘if you don’t believe then don’t. I have told you about my faith.’ Listen, that Brahmin’s nose rotted due to Pinus disease and she fell down. Whatever the condition of the anti-God’s name, it is only a little. The only root cause of all sorrows is to turn away from the name of God.

In this way, Mahatma Haridas ji started living on the banks of Ganga ji, establishing the greatness of Lord’s name. When he heard that after rising in Navadvipa, Gaurchandra was irrigating the hearts of the devotees with the nectar of bhakti-rasamrit with his cool and pleasant grace-rays, then they also came under the shadow of that spotless moon and started living in Navadvipa. He was already under the favor of Advaitacharya, so it did not take much time for him to become an intimate devotee of the Lord. Within a few days, he started being counted among the most favored devotees of the Lord. All the devotees used to respect him for his devotion to God. The Lord wanted him very much. He too had surrendered his everything at the feet of the Lord. His every effort was according to the will of the Lord. He used to dance night and night in Sankirtan with the devotees and used to fall unconscious in the dance. In this way the house of Srivasa Pandita became the main center of Sri Krishna-Sankirtan. In the evening, all the devotees would gather. When the devotees gathered, the doors would be closed and then the sankirtan would begin. Then no matter what anyone came, the doors were not opened for anyone. Due to this, many people would have returned disappointed and they would have spread all kinds of exceptions regarding Sankirtan. In this way, on the one hand, the virtuous devotees started relishing the ecstasy in the joy of Sankirtan and on the other hand, the detractors started polluting their souls by propagating bad feelings towards Sankirtan.

respectively next post [58] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *