[58]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
सप्तप्रहरिया भाव

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः।।

महाभारत के युद्धक्षेत्र में अर्जुन के प्रार्थना करने पर भगवान ने उसे अपना विराटरूप दिखाया था। भगवान का वह विराटरूप अर्जुन को ही दृष्टिगोचर हुआ था। दोनों सेनाओं के लाखों मनुष्य वहाँ उपस्थित थे, किंतु उनमें से किसी को भी भगवान के उस रूप के दर्शन नहीं हुए थे। अर्जुन भी इन चर्म-चक्षुओं से भगवान के दर्शन नहीं कर सकते थे, इसलिये कृपा करके भगवान ने उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान कर दी थी। इसीलिये दिव्य दृष्टि के सहारे उस अलौकिक रूप को देखने में समर्थ हो सके। इधर भगवान वेदव्यास जी ने संजय को दिव्य दृष्टि दे रखी थी, इस कारण उन्हें भी हस्तिनापुर में बैठे-ही-बैठे उस रूप के दर्शन हो सके। असल में दिव्य दृष्टि के बिना दिव्य रूप के दर्शन हो ही नहीं सकते। बाहरी लौकिक दृष्टि से तो बाहर के भौतिक पदार्थ ही देखे जा सकते हैं। जब तक भीतरी नेत्र न खुलें, जब तक कृपा करके श्रीकृष्ण दिव्य दृष्टि प्रदान न करें तब तक अलौकिक और परम प्रकाशमय स्वरूप दीख ही नहीं सकता। भक्तों का लोक ही अलग होता है, उसकी भाषा अलग होती है और उसका व्यवहार भी भिन्न ही प्रकार का होता है। जिसे भगवान कृपा करके अपना लेते हैं, अपना कहकर जिसे वरण कर लेते हैं और जिसकी रतिरूपी अन्तर्दृष्टि को खोल देते हैं, उसे ही अपने ध्येय पदार्थ में इष्टदेव के दर्शन होते हैं। उसके सामने ही उसके भाव ज्यों-के-त्यों प्रकट होते हैं। दृढ़ विश्वास के बिना कहीं भी अपने इष्टदेव के दर्शन नहीं हो सकते।

हम पहले ही बता चुके हैं कि गौरांग के जीवन में द्विविध भाव दृष्टिगोचर होते थे। वैसे तो वे सदा एक अमानी भवत-भक्त के भाव में रहते थे, किंतु कभी-कभी उनके शरीर में भगवत-भाव भी प्रकट होता था, उस समय उनकी सभी चेष्टाएँ तथा व्यवहार ऐश्वर्यमय होते थे। ऐसा भाव बहुत देर तक नहीं रहता था, कुछ काल के ही अनन्तर उस भाव का शमन हो जाता और फिर ये ज्यों-के-त्येां ही साधारण भगवत-भक्त के भाव में आ जाते। अब तक ऐसे भाव थोड़ी ही देर को हुए थे, किंतु एक बार ये पूरे सात प्रहर भगवत-भाव में बने रहे। इस भाव को ‘सप्तप्रहरिया भाव’ या ‘महाप्रकाश’ कहकर वैष्णव भक्तों ने इसका विशदरूप से वर्णन किया है। नवद्वीप में प्रभु के शरीर में यही सबसे बड़ा भाव हुआ था।

वासुदेव घोष, मुरारी गुप्त और मुकुन्द दत्त- ये तीनों उस महाप्रकाश के समय वहाँ मौजूद थे। ये तीनों ही वैष्णवों में प्रसिद्ध पदकार हुए हैं। इन तीनों ने चैतन्यचरित्र लिखा है। इन्होंने अपनी आँखेां का प्रत्यक्ष देखा हुआ वर्णन किया है, इतने पर भी विश्वास न करने वाले विश्वास नहीं करते, क्योंकि वे इस विषय से एकदम अनभिज्ञ हैं। उनकी बुद्धि भौतिक पदार्थों के अतिरिक्त् ऐसे विषयों में प्रवेश ही नहीं कर सकती। किंतु जिनका परमार्थ-विषय में तनिक भी प्रवेश होगा, उन्हें इस विषय के श्रवण से बड़ा सुख मिलेगा, इसलिये अब ‘महाप्रकाश’ का वृत्तान्त सुनिये।

एक दिन प्रातःकाल ही सब भक्त श्रीवास पण्डित के घर पर जुटने लगे। एक-एक करके सभी भक्त वहाँ एकत्रित हो गये। उनमें से प्रधान-प्रधान भक्तों के नाम ये हैं- अद्वैताचार्य, नित्यानन्द, श्रीवास, गदाधर, मुरारी गुप्त, मुकुन्द दत्त, नरहरि, गंगादास, महाप्रभु के मौसा चन्द्रशेखर आचार्यरत्न, पुरुषोत्तम आचार्य (स्वरूपदामोदर) वक्रेश्वर, दामोदर, जगदानन्द, गोविन्द, माधव, वासुदेव घोष, सारंग तथा हरिदास आदि-आदि। इनके अतिरिक्त और भी बहुत-से भक्त वहाँ उपस्थित थे।

एक प्रहर दिन चढ़ते-चढ़ते प्रायः सभी मुख्य-मुख्य भक्त श्रीवास पण्डित के घर आ गये थे कि इतने में ही प्रभु पधारे। प्रभु के पधारते ही भक्तों के हृदयों में एक प्रकारके नवजीवन का-सा संचार होने लगा। और दिन तो प्रभु अन्य भक्तों की भाँति आकर बैठ जाते और सभी के साथ मिलकर भक्ति-भाव से बहुत देर तक संकीर्तन करते रहते, तब कहीं जाकर किसी दिन भगवत-आवेश होता, किंतु आज तो सीधे आकर एकदम भगवान के सिंहासन पर बैठ गये। सिंहासन की मूर्तियाँ एक ओर हटा दीं और आप शान्त, गम्भीर भाव से भगवान के आसन पर आसीन हो गये। इनके बैठते ही भक्तों के हृदयों में एक प्रकार का विचित्र-सा प्रकाश दिखायी देने लगा। सभी आश्चर्य और सम्भ्रम के भाव से प्रभु के श्रीविग्रह की ओर देखने लगे। किंतु किसी को उनकी ओर बहुत देर तक देखने का साहस ही नहीं होता था।

भक्तों को उनका सम्पूर्ण शरीर तेजोमय परम प्रकाशयुक्त दिखायी देने लगा। जिस प्रकार हजारों सूर्य-चन्द्रमा एक ही स्थान पर प्रकाशित हो रहे हों। बहुत प्रयत्न करने पर भी किसी की दृष्टि बहुत देर तक प्रभु के सम्मुख टिक नहीं सकती थी। एकदम, चारों ओर विमल-धवल प्रकाश की ज्योतिर्मय किरणें छिटक रही थीं। मानो अग्नि की शुभ्र ज्वाला में से बड़े-बड़े विस्फुलिंग इधर-उधर उड़-उड़कर अन्धकार का संहार कर रहे हों। प्रभु के नखों की ज्योति आकाश में बड़े-बड़े नक्षत्रों की भाँति स्पष्ट ही पृथक-पृथक दिखायी पड़ती थी। उनका चेहरा देदीप्यमान हो रहा था।

भक्तों की आँखों में यकाचैंध छा जाता, किंतु उस रूप से दृष्टि हटाने को तबीयत नहीं चाहती थी। इस प्रकार सभी भक्त बहुत देर तक पत्थर की निर्जीव मूर्तियों की भाँति स्तब्ध-भाव से चुपचाप बैठे रहे, उस समय कोई जोर से साँस तक नहीं लेता था, यदि एक सूई भी उस समय गिर पड़ती, तो उसकी भी आवाज सबको सुनायी देती। उस नीरव निस्तब्धता को भंग करते हुए प्रभु ने गम्भीर भाव से कहना आरम्भ किया- ‘भक्तवृन्द! हम आज तुम सब लोगों की मनःकामना पूर्ण करेंगे। आज तुम लोग हमारा विधिवत अभिषेक करो।’

प्रभु की ऐसी आज्ञा पाते ही सभी को अत्यन्त ही आनन्द हुआ। श्रीवास के आनन्द की तो सीमा ही न रही। वे प्रेम के कारण अपने आपे को भूल गये। जिस प्रकार कोई चक्रवर्ती राजा किसी कंगाल के प्रेम के वशीभूत होकर सहसा उसकी टूटी झोंपड़ी में स्वयं आ जाय, उस समय उसकी जो दशा हो जाती है, उससे भी अधिक प्रेममय दशा श्रीवास पण्डित की हो गयी। वे आनन्द के कारण हक्के-बक्के-से हो गये। शरीर की सुधि भुलाकर स्वयं ही घड़ा उठाकर गंगा जी की ओर दौड़े, किंतु बीच में ही प्रेम के कारण मूर्च्छित होकर गिर पड़े। तब उनके दास-दासी बहुत-से घड़े लेकर गंगाजल लेने के लिये चल दिये। बहुत-से भक्त भी कहीं-कहीं से घड़ा माँगकर गंगाजल लेने के लिये दौड़े गये। बहुत-से घड़ों में गंगाजल आ गया। भक्तों ने प्रभु को एक सुन्दर चैकी पर बिठाकर उनके सम्पूर्ण शरीर में भाँति-भाँति के सुगन्धित तैलों की मालिश की। तदनन्तर सुवासित जल के घड़ों से उन्हें विधिवत स्नान कराया। अद्वैताचार्य और आचार्यरत्न प्रभृति पण्डितश्रेष्ठ महापुरुष स्नान के मन्त्रों का उच्चारण करने लगे। भक्त बारी-बारी से प्रभु के श्रीअंग पर गंगाजल डालते जाते थे और मन-ही-मन प्रसन्न होते थे। इस प्रकार घंटों तक स्नान ही होता रहा। जब सभी ने अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार स्नान करा दिया तब प्रभु के श्रीअंग को एक महीन सुन्दर स्वच्छ वस्त्र से खूब पोंछा गया। उसी समय श्रीवास पण्डित अपने घर में से नूतन महीन रेशमी वस्त्र निकाल लाये। उन सुन्दर वस्त्रों को भक्तों ने विधिवत प्रभु के शरीर में पहनाया और फिर उन्हें एक सजे हुए सुन्दर सिंहासन पर विराजमान किया।

प्रभु के सिंहासनारूढ़ हो जाने पर भक्तों ने बारी-बारी से प्रभु के अंगों में केसर, कपूर तथा कस्तूरी मिले हुए चन्दन का लेप किया। चरणों में तुलसी ओर चन्दन चढ़ाया। मालाएँ घर में थोड़ी ही थीं, यह समझकर कुछ भक्त उसी समय बाजार में दौड़े गये और बहुत-सी सुन्दर-सुन्दर मालाएँ जल्दी से खरीद लाये। सभी ने एक-एक करके प्रभु के गले में मालाएँ पहनायीं। भक्तों के चढ़ाये हुए पुष्पों से प्रभु के पादपद्म एकदम ढक गये और मालाओं से सम्पूर्ण गला भर गया। प्रभु ने सभी भक्तों को अपने करकमलों से प्रसादीमाला प्रदान की। प्रभु की उस प्रसादीमाला को पाकर भक्त आनन्द के साथ नृत्य करने लगे।

श्रीवास तो बेसुध थे। उनकी दशा ऐसी हो गयी थी मानो किसी जन्म के दरिद्री को पारसमणि मिल गयी हो। उनका हृदय तड़ रहा था कि प्रभु की इस अलौकिक छवि के दर्शन किसे-किसे करा दूँ? जब कोई प्रिय वस्तु देखने को मिल जाती है, तब हृदय में यह इच्छा स्वाभाविक ही उत्पन्न होती है, इसके दर्शन अपने सभी प्रियजनों को करा दूँ। यह सोचकर उन्होंने अद्वैताचार्यजी के कान में कहा- ‘शचीमाता मुझे बहुत चिढ़ाया करती हैं। वे मुझसे बार-बार कहती हैं कि तुम सभी ने मिलकर मेरे निमाई को बिगाड़ दिया। पहले वह कितना सीधा-सादा था, अब तुम्हीं सब न जाने उसे क्या-क्या सिखा देते हो? आज माता को लाकर दिखाऊँ कि देख तेरा निमाई असल में यह है। यह तेरा पुत्र नहीं है, किंतु सम्पूर्ण जगत का पिता है। यदि आपकी अनुमति हो तो मैं शचीमाता को बुला लाऊँ।’

आचार्य ने श्रीवास की बात का समर्थन करते हुए कहा- ‘हाँ, हाँ, अवश्य। शचीमाता को जरूर दर्शन कराना चाहिये।’

इतना सुनते ही श्रीवास पण्डित जल्दी से दौड़कर शचीमाता को बुला लाये। शचीमाता को देखते ही अद्वैताचार्य कहने लगे- ‘माता! यह सामने देखो, जिन्हें तुम अपना बताती थी, वे अब तुम्हारे पुत्र नहीं रहे। अब तुम इनके दर्शन करो और अपने जीवन को सफल बनाओ।’

माता भौचक्की-सी चुपचाप खड़ी ही रही। उसे कुछ सूझा ही नहीं कि मुझे क्या करना चाहिये। श्रीवास पण्डित ने माता की ऐसी दशा देखकर दीन-भाव से प्रार्थना की- ‘प्रभो! ये जगन्माता शची देवी सामने खड़ी हैं। इन्हें आपकी माता होने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इनके ऊपर कृपा होनी चाहिये। इन्हें आपके असली स्वरूप के दर्शन हों यही हमारी प्रार्थना है।’

प्रभु ने हुँकार देते हुए कहा- ‘शचीमाता के ऊपर कृपा नहीं हो सकती। यह सदा वैष्णवों को बुरा बताया करती हैं कि सभी वैष्णवों ने मिलकर मेरे निमाई को बरबाद कर दिया।’

प्रभु की ऐसी बात सुनकर अद्वैताचार्य ने कहा- ‘प्रभो! माता का आपके प्रति वात्सल्य-भाव है। वह जो भी कुछ कहती है वात्सल्य स्नेह के वशीभूत होकर ही कहती है। वैष्णवों के प्रति इसके हृदय में द्वेष के भाव नहीं हैं। इसकी उपासना वात्सल्य-भाव की ही है। इसके ऊपर अवश्य कृपा होनी चाहिये।’

अद्वैताचार्य यह प्रार्थना कर ही रहे थे कि धीरे से श्रीवास पण्डित ने माता के कान में कहा- ‘तुम प्रभु के पादपद्मों में प्रणाम करो।’ माता पुत्र के लिये प्रणाम करने में कुछ हिचकने लगी, तब आचार्य ने जोर देते हुए कहा- ‘माँ! अब तुम निमाई के भाव को भुला दो। इन्हें भगवत-बुद्धि से प्रणाम करो। देर करने का काम नहीं है।’

वृद्ध आचार्य के ऐसा आग्रह करने पर माता ने आगे बढ़कर प्रभु के पादपद्मों में साष्टांग प्रणाम किया और गद्गदकण्ठ से प्रार्थना करने लगी- ‘भगवन! मैं अज्ञ स्त्री तुम्हारे बारे में कुछ भी नहीं जानती कि तुम कौन हो। तुम जो भी हो, मेरे ऊपर कृपा करो।’ माता को प्रणाम करते देखकर प्रभु ने उसके मस्तक पर अपने चरणों को रखते हुए कहा- ‘जाओ, सब वैष्णव-अपराध क्षमा हुए, तुम्हारे ऊपर पूर्ण कृपा हुई।’ माता यह सुनकर आनन्द में विभोर होकर रुदन करने लगी।

अब तो सभी भक्त क्रमशः प्रभु की भाँति-भाँति की पूजा करने लगे। कोई धूप चढ़ाता, कोई दीप सामने रखता, कोई फल-फूल सामने रखता और कोई-कोई नवीन-नवीन, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र लाकर प्रभु के शरीर पर धारण कराता।

इस प्रकार सभी ने अपनी-अपनी इच्छानुसार प्रभु की पूजा की। अब भोग की बारी आयी। सभी अपनी-अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार विविध प्रकार के व्यंजन, नाना भाँति की मिठाइयाँ और भाँति-भाँति के फलों को सजा-सजाकर प्रभु के भोग के लिये लाये। सभी प्रसन्नतापूर्वक प्रभु के हाथों में भाँति-भाँति की वस्तुएँ देने लगे। कोई तो मिठाई देकर कहता- ‘प्रभु! इसका भोग लगाइये।’ प्रभु उसे प्रेमपूर्वक खा जाते। कोई फल देकर ही प्रार्थना करता- ‘इसे स्वीकार कीजिये।’ प्रभु चुपचाप फलों को ही भक्षण कर जाते। कोई लड्डू, पेड़ा तथा भाँति-भाँति की मिठाई देते, कोई कटोरों में दूध लेकर ही प्रार्थना करता- ‘प्रभो! इसे आरोगिये।’ प्रभु इसे भी पी जाते। उस समय जिसने जो भी वस्तु प्रेमपूर्वक दी, प्रभु ने उसे ही भक्षण कर लिया। किसी की वस्तु को अस्वीकार नहीं किया। भला अस्वीकार कर भी कैसे सकते थे? उनकी तो प्रतिज्ञा है कि ‘यदि कोई भक्ति से मुझे फल-फूल या पत्ते भी देता है, तो उन फूल-पत्तों को भी मैं खुश होकर खा जाता हूँ।’ फिर भक्तों के प्रेम से दिये हुए नैवेद्य को वह किस प्रकार छोड़ सकते थे।

उस दिन प्रभु ने कितना खाया और भक्तों ने कितना खिलाया इसका अनुमान कोई भी नहीं कर सकता। सबके प्रेम-प्रसाद को पाने के अनन्तर श्रीवास पण्डित ने अपने काँपते हुए हाथों से सुवासित ताम्बूल प्रभु के अर्पण किया। प्रभु प्रेमपूर्वक ताम्बूल चर्बण करने लगे। सभी बारी-बारी से ताम्बूल भेंट करने लगे। प्रभु उन्हें स्पर्श करके भक्तों को प्रसाद के रूप में देते जाते थे। प्रभुदत्त पान को पाकर सभी भक्त अपने भाग्य की सराहना करने लगे।

ताम्बूल भक्षण के अनन्तर प्रभु मन्द-मन्द मुस्कान के साथ सभी पर अपनी कृपादृष्टि फेरते हुए कुछ प्रेम की बातें कहने लगे। उस समय उनके मुख से जो भी बातें निकलतीं, वे सभी अमृत-रस से सिंची हुई होती थीं। भक्तों के हृदय में वे एक प्रकार की विचित्र प्रकार की खलबली-सी उत्पन्न करने वाली थीं। प्रभु की उस समय की वाणी में इतना अधिक आकर्षण था कि सभी बिना हिले-डुले, एक आसन से बैठे हुए प्रभु के मुख से निःसृत उपदेशरूपी रसामृत का निरन्तर भाव से पान कर रहे थे। किसी को कुछ पता ही नहीं था कि हम किस लोक में बैठे हुए हैं? उस समय भक्तों के लिये इस दृश्य जगत के प्रपंचों का एक प्रकार से अत्यन्ताभाव ही हो गया था। प्रातःकाल से बैठे-बैठे संध्या हो गयी, भगवान भुवनभास्कर भी प्रभु के भाव-परिवर्तन की प्रतीक्षा करते-करते अस्ताचल को प्रस्थान कर गये, किंतु प्रभु के भाव में अणुमात्र भी परिवर्तन नहीं हुआ। भक्त भी उसी प्रकार प्रेमपाश में बँधे वहीं बैठे रहे।

श्रीवास पण्डित के सेवकों ने घर में दीपक जलाये, किंतु उन क्षीण दीपकों की ज्योति प्रभु की देह के दिव्य प्रकाश में फीकी-फीकी-सी प्रतीत होने लगी। किसी को पता ही नहीं चला कि दिन कब समाप्त हुआ और कब रात्रि हो गयी। सभी उस दिव्यालोक के प्रकाश में अपने आपे को भूले हुए बैठे थे।

क्रमशः अगला पोस्ट [59]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Saptapraharia Bhava

A thousand suns will rise simultaneously in the sky If that radiance were similar to that of the great soul

On the prayer of Arjuna in the battlefield of Mahabharata, God showed him his great form. That huge form of God was visible to Arjuna only. Lakhs of human beings from both the armies were present there, but none of them saw that form of the Lord. Even Arjuna could not see God with these skin-eyes, so by grace God had given him divine vision. That’s why with the help of divine vision, we should be able to see that supernatural form. Here, Lord Vedvyas had given Sanjay a divine vision, due to which he too could see that form while sitting in Hastinapur. In fact, without divine vision one cannot see the divine form. From the outer worldly point of view, only the material things outside can be seen. Unless the inner eye is opened, unless Shri Krishna kindly grants divine vision, then the supernatural and supremely luminous form cannot be seen at all. The world of devotees is different, its language is different and its behavior is also different. The one whom God accepts by grace, the one whom he selects by calling himself his own and the one whose night-like insight opens up, only he gets the darshan of the presiding deity in his object. His feelings are revealed in front of him as they are. Without firm faith, one cannot have darshan of his presiding deity anywhere.

We have already told that dualistic feelings were visible in the life of Gauranga. Although he always lived in the spirit of an immanent devotee, but sometimes the spirit of God also appeared in his body, at that time all his efforts and behavior were glorious. Such a feeling did not remain for a long time, after some time only that feeling would be extinguished and then as it was, it would come back to the feeling of an ordinary Bhagwat-devotee. So far, such feelings had happened only for a short while, but once they remained in Bhagwat-Bhav for the whole seven hours. Vaishnava devotees have elaborately described this feeling by calling it ‘Saptapraharia Bhava’ or ‘Mahaprakash’. This was the biggest feeling in the body of the Lord in Navadweep.

Vasudev Ghosh, Murari Gupta and Mukunda Dutt – all these three were present there at the time of that great light. All these three have become famous among Vaishnavas. These three have written Chaitanyacharitra. He has described what he has seen directly with his eyes, even so the non-believers do not believe, because they are completely ignorant of this subject. His intelligence cannot enter such subjects except material things. But those who have even a little entry in the subject of Paramarth, they will get great pleasure from listening to this subject, so now listen to the story of ‘Mahaprakash’.

One day early in the morning all the devotees started gathering at Shrivas Pandit’s house. One by one all the devotees gathered there. Among them, the names of the main devotees are Advaitacharya, Nityananda, Srivas, Gadadhar, Murari Gupta, Mukund Dutt, Narhari, Gangadas, Mahaprabhu’s uncle Chandrashekhar Acharyaratna, Purushottam Acharya (Swarupadamodar), Vakreshwar, Damodar, Jagadananda, Govind, Madhav, Vasudev Ghosh, Sarang and Haridas etc-etc. Apart from these, many other devotees were present there.

One day almost all the main devotees had come to Shrivas Pandit’s house while climbing that the Lord came. As soon as the Lord arrived, a kind of new life began to spread in the hearts of the devotees. On other days, the Lord used to come and sit like other devotees and together with everyone used to do sankirtan for a long time with devotion, then someday there would have been Bhagwat-infatuation, but today he came straight and sat on the throne of God. The statues of the throne were removed to one side and you sat on the seat of God with a calm, serious attitude. As soon as he sat down, a kind of strange light started appearing in the hearts of the devotees. Everyone started looking at the Deity of the Lord with a sense of wonder and confusion. But no one had the courage to look at him for a long time.

Devotees started seeing his whole body full of bright light. Just as thousands of sun-moon are shining at one place. Even after trying a lot, no one’s vision could stay in front of the Lord for a long time. Suddenly, the luminous rays of pure white light were scattered all around. As if from the white flame of the fire, big sparkles were flying here and there and destroying the darkness. The light of Lord’s nails was clearly visible separately like big constellations in the sky. His face was getting radiant.

The eyes of the devotees were dazzled, but my health did not want to take my eyes off that form. In this way, all the devotees sat silently for a long time like lifeless idols of stone, at that time no one even breathed loudly, even if a needle had fallen at that time, its sound would have been heard by everyone. Dissolving that silent silence, the Lord started saying in a serious sense – ‘ Devotees! Today we will fulfill the wishes of all of you. Today you guys anoint us duly.

Everyone was extremely happy after receiving such an order from the Lord. There was no limit to the joy of Srivas. He forgot himself because of love. Just as a Chakravarti king, being influenced by the love of a pauper, suddenly comes to his broken hut, Shrivas Pandit’s condition was even more loving than his condition at that time. They became giddy with joy. Forgetting about his body, he himself picked up the pitcher and ran towards Ganga ji, but in the middle he fainted due to love. Then his maids and servants went with many pitchers to collect the water of the Ganges. Many devotees also ran to get water from the Ganges by asking for a pitcher from somewhere. Ganges water came in many pitchers. The devotees made the Lord sit on a beautiful post and massaged His whole body with various fragrant oils. After that they were duly bathed with pitchers of scented water. Advaitacharya and Acharyaratna Prabhriti Pandit, the best great man, started chanting the mantras of the bath. Devotees used to pour Gangajal on Lord’s body one by one and were happy in their hearts. In this way the bath continued for hours. When everyone had bathed according to their wish, then the body of the Lord was thoroughly wiped with a fine, beautiful, clean cloth. At the same time Shrivas Pandit brought out new fine silk clothes from his house. The devotees duly put those beautiful clothes on the Lord’s body and then made him sit on a decorated beautiful throne.

After the Lord was enthroned, the devotees alternately applied sandalwood paste mixed with saffron, camphor and musk to the parts of the Lord. Tulsi and sandalwood was offered at his feet. Realizing that garlands were few in the house, some devotees ran to the market at the same time and quickly bought many beautiful garlands. Everyone put garlands on the Lord’s neck one by one. The lotus feet of the Lord were completely covered by the flowers offered by the devotees and the entire throat was filled with garlands. The Lord gave Prasadimala to all the devotees from His lotus flowers. The devotees started dancing with joy after getting that Prasadimala of the Lord.

Srivas was unconscious. His condition had become such as if a born poor person had got alms. His heart was aching as to whom should he give the darshan of this supernatural image of the Lord? When one gets to see a dear thing, then this desire naturally arises in the heart, to show it to all my dear ones. Thinking of this, he said in the ear of Advaitacharyaji – ‘ Sachimata teases me a lot. She tells me again and again that all of you together have spoiled my Nimai. Earlier he was so simple, now you all don’t know what do you teach him? Today I will bring mother and show her that this is actually your Nimai. He is not your son, but the father of the whole world. If you allow, I will call Sachimata.’

Acharya supporting Srivas’s point said- ‘Yes, yes, of course. Sachimata must be given darshan.

On hearing this, Shreevas Pandit quickly ran and called Sachimata. On seeing Sachimata, Advaitacharya started saying – ‘Mother! Look in front of you, those whom you used to call your own, are no longer your sons. Now you visit them and make your life successful.

Mother kept standing silently as bewildered. He didn’t even know what I should do. Shrivas Pandit, seeing such a condition of the mother, prayed humbly – ‘Lord! This Jaganmata Sachi Devi is standing in front. She has got the ultimate fortune of being your mother. There should be mercy on them. It is our prayer that they should see your real form.

The Lord roared and said- ‘There can be no mercy on Sachimata. She always badmouths Vaishnavas that all Vaishnavas together ruined my Nimai.’

Hearing such words of the Lord, Advaitacharya said – ‘Lord! Mother has affection towards you. Whatever she says, she says only after being influenced by affection. There is no hatred in his heart towards Vaishnavas. Its worship is only of love. There must be mercy on him.

Advaitacharya was still praying that Shrivas Pandit said softly in the mother’s ear- ‘You bow down at the lotus feet of the Lord.’ The mother hesitated to bow down for the son, then the Acharya insisted- ‘Mother. ! Now you forget the feeling of Nimai. Salute them with God-intelligence. There is no work to delay.

On such request of the old Acharya, the mother went ahead and prostrated at the lotus feet of the Lord and started praying with a loud voice – ‘ God! I ignorant woman does not know anything about you who you are. Whoever you are, have mercy on me.’ Seeing the mother bowing down, the Lord placed His feet on her head and said – ‘Go, all Vaishnava-crimes are forgiven, you have been blessed completely.’ Mother was in joy after hearing this. She started crying out of excitement.

Now all the devotees have started worshiping the Lord in different ways. Some offer incense, some keep lamps in front, some keep fruits and flowers in front and some bring new, beautiful clothes and put them on the Lord’s body.

In this way everyone worshiped the Lord according to their wish. Now the turn of enjoyment has come. Everyone brought different types of dishes, different types of sweets and different types of fruits according to their wishes and preferences for the enjoyment of the Lord. Everyone happily started giving different things in the hands of the Lord. Someone would give sweets and say- ‘Lord! Offer it as food.’ The Lord would have eaten it with love. Someone used to offer fruits and pray – ‘Accept this.’ The Lord silently ate the fruits. Some give laddus, peda and different types of sweets, some take milk in bowls and pray – ‘Lord! Heal it.’ Prabhu would have drunk it too. At that time, whatever thing was given with love, the Lord ate it. Didn’t reject anyone’s item. How could you even reject it? He has a vow that ‘if someone gives me flowers and leaves out of devotion, I will happily eat those flowers and leaves.’ Then how could he leave the naivedya given with the love of the devotees? .

No one can estimate how much the Lord ate and how much was fed by the devotees on that day. After receiving everyone’s love-prasad, Shrivas Pandit offered the fragrant tambul to the Lord with his trembling hands. The Lord lovingly started chewing the tambul. Everyone started offering tambul in turn. The Lord used to touch them and give them as Prasad to the devotees. After getting Prabhudatta Paan, all the devotees started appreciating their fortune.

After eating Tambul, the Lord started saying some words of love while turning His blessings on everyone with a slow smile. At that time, whatever words came out of his mouth, they were all irrigated with nectar-juice. She was going to create some kind of strange disturbance in the hearts of the devotees. There was so much attraction in the speech of the Lord at that time that everyone, without moving, sitting on the same seat, continuously drank the rasamrit in the form of sermons emanating from the mouth of the Lord. No one had any idea in which world we were sitting? At that time, for the devotees, there had become a kind of extreme absence of the illusions of this visible world. Sitting from morning till evening, Lord Bhuvan Bhaskar also left for Asthachal while waiting for the change in the attitude of the Lord, but there was not even an iota of change in the attitude of the Lord. The devotees also kept sitting there tied in the same way.

The servants of Srivas Pandit lit lamps in the house, but the light of those feeble lamps seemed to fade in the divine light of the Lord’s body. No one knew when the day ended and when it became night. Everyone was sitting in the light of that divine world, forgetting themselves.

respectively next post [59] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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