।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
भक्तों को भगवान के दर्शन
मल्लानामशनिर्नृणां नरवरः स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान्’
गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां शास्ता स्वपित्रोः शिशुः।
मृत्युर्भोजपतेर्विराडविदुषां तत्त्वं परं योगिनां
वृष्णीनां परदेवतेति विदितो रंगं गतः साग्रजः।।
श्रीकृष्णभगवान ने जब बलदेव जी के साहित कंस के रंगमण्डप में प्रवेश किया था, तब वहाँ पर विभिन्न प्रकृति के मनुष्य बैठे हुए थे। उन्होंने अपनी-अपनी भावना के अनुसार भगवान के शरीर में भिन्न-भिन्न रूपों के दर्शन किये थे। इसलिये वहाँ के उपस्थित नर-नारियों को अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार नवों रसों का अनुभव हुआ। कोई तो भगवान के रूप को देखकर डर गये, कोई काँपने लगे, कोई घृणा करने लगे, कोई हँसने लगे, किसी के हृदय में प्रेम उत्पन्न हुआ और किसी को क्रोध उत्पन्न हुआ। स्त्रियों को तो वे साक्षात कामदेव ही प्रतीत हुए। किंतु यहाँ प्रभु के प्रकाश के समय सभी एक ही प्रकृति के भगवद्भक्त ही थे। इसलिये प्रभु के महाभाव से सभी को समानभाव से आनन्द ही हुआ, सभी ने उनके प्रकाश के आलोक में सुख का ही अनुभव किया, सभी ने उनमें भगवत्ता के ही दर्शन किये, किंतु सबके इष्ट भिन्न-भिन्न होने के कारण, एक ही भगवान उन्हें विभिन्न भाव से दिखायी दिये। सभी ने प्रभु के शरीर में अपने-अपने इष्टदेव का ही स्वरूप देखा।
सबसे पहले बातों-ही-बातों में प्रभु ने श्रीवास पण्डित के ऊपर कृपा की। आपने श्रीवास पण्डित को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘श्रीवास! तुम हमारे परम कृपापात्र हो, हम सदा ही तुम्हारी देख-रेख करते हैं। तुम्हें वह घटना याद है, जब देवानन्द पण्डित के यहाँ तुम बहुत-से अन्य शिष्यों के सहित श्रीमद्भागवत कापाठ सुन रहे थे। पाठ सुनते-सुनते तुम बीच में ही भावावेश में आकर मूर्च्छित हो गये थे। उस समय तुम्हारे भावावेश को न तो पण्डित जी ही समझ सके थे और न उनके शिष्य ही समझ सके थे। शिष्य तुम्हें कन्धों पर लादकर तुम्हारे घर पहुँचा गये थे। उस समय मैंने ही तुम्हें होश में किया था, मैंने ही तुम्हारी मूर्च्छा भंग की थी।’
प्रभु के मुख से अपनी इस गुप्त घटना को सुनकर श्रीवास पण्डित को परम आश्चर्य हुआ। उन्होंने यह घटना किसी के सम्मुख प्रकट नहीं की थी। इसके अनन्तर प्रभु अद्वैताचार्य को लक्ष्य करके कहने लगे- ‘आचार्य! तुम्हें उस दिन की याद है जब तुम्हें श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न श्लोक पर शंका हो गयी थी-
सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।[2]
और तुम उस दिन बिना ही भोजन किये सो गये थे, इस पर मैंने ही ‘पाणिपादं तत्’ की जगह ‘पाणिपादान्तः’ यह प्रकृत पाठ बताकर तुम्हारी शंका का निवारण किया था।’ इस बात को सुनकर आचार्य ने प्रभु के चरणों में बार-बार प्रणाम किया।
अब भक्तों ने भगवदावेश में आसन पर बैठे हुए प्रभु की संध्या-आरती का आयोजन किया। एक बहुत बड़ी आरती सजायी गयी। भक्त अपने हाथों से शंख, घडि़याल, झाँझ तथा अन्य भाँति-भाँति के व बजाने लगे। श्रीवास पण्डित ने शचीमाता के हाथ में आरती देकर उनसे आरती करने को कहा। श्रीवास की पत्नी की सहायता से वृद्धा माता ने अपने काँपते हुए हाथों से प्रभु की आरती की। उस समय सभी भक्त आनन्द में उन्मत्त होकर वाद्य बजा रहे थे। जैसे-तैसे आरती समाप्त की गयी। श्रीवास पण्डित ने शचीमाता को घर भेज दिया। अब सभी भक्तों के वरदान की बारी आयी। प्रायः प्रभु के सभी अन्तरंग भक्त उस समय वहाँ उपस्थित थे, किंतु उनके परम प्रिय भक्त श्रीधर वहाँ नहीं थे।
भक्त श्रीधर से तो पाठक परिचित ही होंगे। ये केला के खोल और दोना बेचने वाले वे ही भाग्यवान भक्त हैं, जिनसे प्रभु सदा छेड़खानी किया करते थे और घड़ी-दो-घड़ी तंग करके ही आधे दामों पर इनसे खोल लेते थे। केले की गहर के डंठल के नीचे केले में जो मोटी-सी डंठी शेष रह जाती है, उसी को बंगाल में खोल कहते हैं। बंगाल में उसका शाक बनता है। प्रभु के भोजनों में जब तक श्रीधर के खोल का साग नहीं होता था, तब तक उन्हें अन्य पदार्थ स्वादिष्ट ही नहीं लगते थे। केले के ऊपर जो कोमल-कोमल खोपटा होता है, उसे काट-काटकर और उसके थाल से बनाकर बहुत गरीब दूकानदार उन्हें भी बेचते हैं। उसमें स्त्रियाँ तथा पुरुष पूजन की सामग्री रखकर पूजा करने के निमित्त ले जाते हैं।
श्रीधरजी इन्हीं चीजों को बेचकर अपना जीवन निर्वाह करते थे। इनसे जो आमदनी हो जाती, उसमें से आधी से तो देवपूजन तथा गंगापूजन आदि करते और आधी से जिस किसी प्रकार पेट भरते। दिन-रात ये उच्च स्वर से हरिनाम-कीर्तन करते रहते। इसलिये इनके पास में रहने वाले मनुष्य इनसे बहुत ही नाराज रहते। उनका कहना था कि- ‘यह बूढ़ा रात्रि में किसी को सोने ही नहीं देता!’ इस गरीब दूकानदार की सभी उपेक्षा करते। कोई भी इन्हें भक्त नहीं समझता, किंतु प्रभु का इन पर हार्दिक स्नेह था। वे इनकी भगवत-भक्ति को जानते थे, इसीलिये उन्होंने भगवत-भाव में भी इन्हें स्मरण किया।
श्रीधर का घर बहुत दूर नगर के दूसरे कोने पर था। सुनते ही चार-पाँच भक्त दौड़े गये। उस समय श्रीधर आनन्द में पड़े हुए श्रीहरि के मधुर नामों का संकीतन कर रहे थे। लोगों ने जाकर किवाड़ खटखटाये। ‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव’ कहते-कहते ही इन्होंने कहा- ‘कौन है?’
भक्तों ने जल्दी से कहा- ‘किवाड़ तो खोलो, तब स्वयं ही पता चल जायगा कि कौन है? जल्दी से किवाड़ तो खोलो।’
यह सुनकर श्रीधर ने किवाड़ खोले और बड़ी ही नम्रता के साथ भक्तों से आने का कारण पूछा। भक्तों ने जल्दी से कहा- ‘प्रभु ने तुम्हें स्मरण किया है। चलो, जल्दी चलो।’
हम दीन-हीन कंगाल को प्रभु ने स्मरण किया है, यह सुनते ही श्रीधर मारे प्रेम के बेसुध हो गये। वे हाय कहकर एकदम धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़े। उन्हें शरीर की सुध-बुध भी न रही। भक्तों ने सोचा- यह तो एक नयी आफत आयी, किंतु प्रभु की आज्ञा तो पूर्ण करनी ही है, भक्तों ने मूर्च्छित श्रीधर को कंधों पर उठा लिया और उसी दशा में उन्हें प्रभु के पास लाये। श्रीधर अभी अचैतन्य-दशाही में थे, प्रभु ने अपने कोमल करकमलों से उनका स्पर्श किया।
प्रभु का स्पर्श पाते ही श्रीधर चैतन्य हो गये। श्रीधर को चैतन्य तक देखकर प्रभु उनसे कहने लगे- ‘श्रीधर! तुम हमारे रूप के दर्शन करो। तुम्हारी इतने दिनों की मनःकामना पूर्ण हुई।’ श्रीधर ने रोते-रोते प्रभु के तेजोमय रूप के दर्शन किये। फिर प्रभु ने उन्हें स्तुति करने की आज्ञा दी। श्रीधर हाथ जोड़े हुए गद्गदकण्ठ से कहने लगे- ‘मैं दीन-हीन पतित तथा लोक-बहिष्कृत अधम पुरुष भला प्रभु की क्या स्तुति कर सकता हूँ। प्रभो! मैं बड़ा ही अपराधी हूँ। आपकी यथार्थ महिमा को न समझकर मैं सदा आपसे झगड़ा ही करता रहा। आप मुझे बार-बार समझाते, किंतु माया के चक्कर में पड़ा हुआ मैं अज्ञानी आपके गूढ़ रहस्य को ठीक-ठीक न समझ सका। आज आपके यथार्थरूप के दर्शन से मेरा अज्ञानान्धकार दूर हुआ। अब मैं प्रभु के सम्मुख अपने समस्त अपराधों की क्षमा चाहता हूँ।’
प्रभु ने गद्गदकण्ठ से कहा- ‘श्रीधर! हम तुम्हारे ऊपर बहुत संतुष्ट हैं। तुम अब हमसे अपनी इच्छानुसार वर माँगो! ऋद्धि, सिद्धि, धन, दौलत, प्रभुता जिसकी तुम्हें इच्छा हो वही माँग लो। बोलो, क्या चाहते हो?’
हाथ जोड़े हुए अत्यन्त ही दीनभाव से गद्गदकण्ठस्वर में श्रीधर ने कहा- ‘प्रभो! मैंने क्या नहीं पा लिया? संसार मेरी उपेक्षा करता है। मेरे पूछने पर भी कंगाल समझकर लोग मेरी बात की अवहेलना कर देते हैं, ऐसे तुच्छ कंगाल को आपने अनुग्रह करके बुलाया और अपने देव-दुर्लभ दर्शन देकर मुझे कृतार्थ किया। अब मुझे और चाहिये ही क्या? ऋद्धि-सिद्धि को लेकर मैं करूँगा ही क्या? वह भी तो एक प्रकार की बड़ी माया ही है।’
प्रभु ने आग्रहपूर्वक कहा- ‘नहीं कुछ तो वरदान माँगो ही। ऋद्धि-सिद्धि नहीं तो जो भी तुम्हें प्रिय हो वही माँगो।’
श्रीधर ने उसी दीनता के स्वर में कहा- ‘यदि प्रभु कुछ देना ही चाहते हैं, तो यही वरदान दीजिये कि जो ब्राह्मणकुमार हमसे सदा खोल खरीदते समय झगड़ा करते रहते थे, वे सदा हमारे हृदय में विराजमान रहें।’
श्रीधर की इस निष्किंचनता और निःस्पृहता से प्रभु परम प्रसन्न हुए। श्रीधर भगवान के मुरली-मनोहर रूप के उपासक थे। वे भगवान के ‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव’ इन मधुर नामों का सदा संकीर्तन करते रहते थे, इसलिये उन्हें प्रभु ने श्रीकृष्ण-रूप के दर्शन कराये। प्रभु के श्रीविग्रह में अपने इष्टदेव के दर्शन करके श्रीधर कृतार्थ हुए। वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े और भक्तों ने एक ओर लिटा दिया।
अब मुरारी गुप्त की बारी आयी। मुरारी परम धार्मिक तथा विशुद्ध वैष्णव तो थे, किंतु उन्हें तर्क-वितर्क और शास्त्रार्थ करने का कुछ व्यसन-भक्तों को भगवान के दर्शन सा था। प्रभु ने उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा- ‘मुरारी! तुम्हारे भक्त होने में यही एक अपूर्णता है, तुम शुष्क वाद-विवाद करना त्याग दो। अध्यात्मशास्त्रों में भक्तिग्रन्थों को ही प्रधानता दो।’
मुरारी गुप्त ने कहा- ‘मैं वाद-विवाद और तर्क-वितर्क और कहाँ करता हूँ, केवल विद्वानों के समीप कुछ प्रसंग चलने पर कह देता हूँ।’
प्रभु ने कहा- ‘अद्वैताचार्य के साथ तुम तर्क-वितर्क नहीं किया करते? क्या उनसे तुम अद्वैतवेदान्त की बातें नहीं बघारा करते?’ इस पर अद्वैताचार्य ने प्रभु से पूछा- ‘प्रभो! क्या अद्वैतवेदान्त की बातें करना बुरा काम है?’
प्रभु ने कुछ मुसकराते हुए कहा- ‘बुरा काम कौन बताता है? बहुत अच्छा है, किंतु जिन्होंने भक्ति-पथ का अनुसरण किया हे, उन्हें इसप्रकार की सिद्धियों और प्रक्रियाओं के चक्कर में पड़ने का प्रयोजन ही क्या है?’ यह कहकर प्रभु गम्भीर घोष से इस श्लोक को पढ़ने लगे-
न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता।।[1]
प्रभु की ऐसी आज्ञा सुनकर मुरारी चुप हो गये। इस पर प्रभु ने कहा- ‘मुरारी! तुम्हें ब्रह्म की सिद्धि के लिये प्रक्रियाओं की शरण लेने की क्या आवश्यकता है? तुम्हारे भगवान तो जन्मसिद्ध हैं। तुम तो प्रभु के जन्म-जन्मान्तरों के भक्त हो। हनुमान के समान तुम्हारा भाव और विग्रह है। तुम साक्षात हनुमान ही हो। अपने रूप का तो स्मरण करो।’
मुरारी रामभक्त थे, प्रभु के स्मरण दिलाने पर वे अपने इष्टदेव का ध्यान करने लगे। उन्हें ऐसा भान हुआ कि मैं साक्षात हनुमान ही हूँ और अपने इष्टदेव के चरणों में बैठा हुआ उनकी पूजा कर रहा हूँ। उन्होंने ऊपर को आँख उठाकर प्रभु की ओर देखा। उन्हें प्रभु का रूप अपने इष्टदेव सीता-राम के ही रूप में दिखायी देने लगा। अपने इष्टदेव को प्रभु के श्रीविग्रह के रूप में देखकर मुरारी गद्गदकण्ठ से स्तुति करने लगे और बार-बार भूमि पर लोटकर साष्टांग प्रणाम करने लगे।
प्रभु के वरदान माँगने की आज्ञा पर हाथ जोड़े हुए मुरारी ने अविचल श्रीराम-भक्ति की ही प्रार्थना की, जिसे प्रभु ने उनके मस्तक पर अपने पादपद्म रखकर प्रेमपूर्वक प्रदान की।
इसके अनन्तर एक-एक करके सभी भक्तों की बारी आयी। अद्वैत, श्रीवास, वासुदेव सभी ने प्रभु से अहैतु की भक्ति की ही प्रार्थना की। हरिदास अपने को बहुत ही दीन-हीन, कंगाल और अधम समझते थे। उन्हें प्रभु के सम्मुख होने में संकोच होता था, इसलिये वे सबसे दूर भक्तों के पीछे छिपे हुए बैठे थे। प्रभु ने गम्भीर-भाव से कहा- ‘हरिदास! हरिदास कहाँ है? उसे हमारे सामने लाओ।’ सभी भक्त चारों ओर हरिदास जी को खोजने लगे, हरिदास जी सबसे पीछे सिकुड़े हुए बैठे थे। भक्तों ने उन्हें प्रभु के सम्मुख होने को कहा- किंतु वे तो प्रेम में बेसुध थे। भक्तों ने उन्हें उठाकर प्रभु के सम्मुख किया।
हरिदास को सम्मुख देखकर प्रभु उनसे कहने लगे- ‘हरिदास! तुम अपने को नीच मत समझो। तुम सर्वश्रेष्ठ हो, मेरी तुम्हारी एक ही जाति है। जो तुम्हारा स्मरण-ध्यान करते हैं, वे मानो मेरी ही पूजा करते हैं। मैं सदा ही तुम्हारे साथ रहता हूँ। तुम्हारी पीठ पर जब बेंत पड़ रहे थे, तब भी मैं तुम्हारे साथ ही था, वे बेंत तो मेरी ही पीठ पर पड़ रहे थे। देख लो, मेरी पीठ पर अभी तक निशान बने हुए हैं। सभी भक्तों के कष्टों को मैं अपने ऊपर ही झेलता हूँ। इसलिये भारी-से-भारी कष्ट पड़ने पर भी भक्त दुःखी नहीं होते। कारण कि जो लोग भक्तों को कष्ट देते हैं, वे मानो मुझे ही कष्ट पहुँचाते हैं। इसीलिये अब मैं दुष्टों का संहार न करके उद्धार करूँगा। तुमने मुझसे दुष्टों के संहार की प्रार्थना नहीं की थी। किंतु उनकी बुद्धि-शुद्धि और कल्याण की ही प्रार्थना की थी। इसलिये अब मैं अपने सुमधुर नाम-संकीर्तन द्वारा दुष्टों का उद्धार कराऊँगा। मेरे इस कार्य में जाति-वर्ण या ऊँच-नीच का विचार न रहेगा। मेरे नाम-संकीर्तन से सभी पावन बन सकेंगे। अब तुम अपना अभीष्ट वर मुझसे माँगो!’
हाथ जोड़े हुए दीनभाव से हरिदास जी ने कहा- ‘हे वर देने वालों में श्रेष्ठ! हे दयालो! हे प्रेमावतार! यदि आपकी इच्छा मुझे वरदान ही देने की है, तो मुझे यही वरदान दीजिये कि मैं सदा दीन-हीन, कंगाल तथा निष्किंचन अमानी ही बना रहूँ। मुझे प्रभु के दास होने के अतिरिक्त् अन्य किसी भी प्रकार का अभिमान न हो, मैं सदा वैष्णवों की पदधूलि को अपने मस्तक का परम भूषण ही समझता रहूँ, वैष्णवों के चरणों में मेरी सदा प्रीति बनी रहे। इसी वरदान की मैं प्रभु के निकट से याचना करता हूँ।
इनकी इस प्रकार की वर-याचना को सुनकर भक्तमण्डली में चतुर्दिक् से आनन्दध्वनि होने लगी। सभी हरिदास जी की भक्ति-भावना की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। मुकुन्ददत्त से भी पाठक अपरिचित न होंगे। वे भी वहाँ उपस्थित थें किंतु अपने को प्रभु-दर्शन का अनधिकारी समझकर दूर ही बैठे रो रहे थे। श्रीवास पण्डित ने डरते-डरते प्रार्थना की- ‘प्रभो! ये मुकुन्द आपके अत्यन्त ही प्रिय हैं, इनके ऊपर भी कृपा होनी चाहिये। ये अपने को प्रभु के दर्शन तक का अधिकारी नहीं समझते।’
प्रभु ने कुछ रोष के स्वर में गम्भीर-भाव से कहा- ‘मुकुन्द के ऊपर कृपा नहीं हो सकती। ये अपने को वैसे तो भक्त करके प्रसिद्ध करते हैं, किंतु बातें सदा तार्किकों-सी किया करते हैं। वैष्णव-लीलाओं को पण्डित-समाज में बैठकर बाजीगर का खेल बताते हैं और अपने को बड़ा भारी विद्वान और ज्ञानी समझते हैं। इन्हें भगवान के दर्शन न हो सकेंगे?’
रोते-रोते मुकुन्द ने श्रीवास के द्वारा पुछवाया, हम कभी भी भगवत-कृपा के अधिकारी न बन सकेंगे? इनके कहने पर श्रीवास पण्डित ने पूछा- ‘प्रभो! मुकुन्द जिज्ञासा कर रहे हैं कि हम कभी भगवत-कृपा के अधिकारी बन भी सकेंगे?’
प्रभु ने कुछ उपेक्षा-भाव से उत्तर देते हुए कहा- ‘हाँ, कोटि जन्मों के बाद अधिकारी बन सकते हो।’ इतना सुनते ही मुकुन्द आनन्द में विभोर होकर नृत्य करने लगे और प्रेम में पुलकित होकर गद्गदकण्ठ से यह कहते हुए कि ‘कभी होंगे तो सही, कभी होंगे तो सही’ नृत्य करने लगे। वे स्वयं ही कहते जाते, कोटि जन्मों की क्या बात है। थोड़े ही काल में कोटि जन्म बीत जायँगे। बहुत काल में भी बीतें, तो भी तो अन्त में हमें प्रभु-कृपा प्राप्त हो सकेगी। बस, भगवत-कृपा प्राप्त होनी चाहिये, फिर चाहे वह कभी क्यों न प्राप्त हो? इनकी ऐसी आनन्द-दशा को देखकर सभी भक्तों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वे इनकी ऐसी दृढ़ निष्ठा को देखकर अवाक रह गये। अन्त में प्रभु ने इन्हें प्रेमालिंगन प्रदान करते हुए कहा- ‘मुकुन्द! तुमने अपनी इस अविचल निष्ठा से मुझे खरीद लिया। सचमुच तुम परम वैष्णव हो, तुम्हारी ऐसी दृढ़ निष्ठा के कारण मेरी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। तुम भगवत-कृपा के सर्वश्रेष्ठ अधिकारी हो। तुमने ऐसी बात कहकर मेरे आनन्द को और लक्षों गुणा बढ़ा दिया। मुकुन्द! तुम्हारे-जैसा धैर्य, तुम्हारी-जैसी उच्च निष्ठा साधारण लोगों में होनी अत्यन्त ही कठिन है। तुम भगवत-कृपा के अधिकारी बन गये। मेरे तेजोमय रूप के दर्शन करो। यह कहकर प्रभु ने उन्हें अपने तेजोमय रूप के दर्शन कराये और मुकुन्द उस अलौकिक रूप के दर्शन से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर सभी भक्तों ने अपनी-अपनी भावना के अनुसार श्यामवर्ण, मुरलीमनोहर, सीता-राम, राधा-कृष्ण, देवी-देवता तथा अन्य भगवत-रूपों के प्रभु के शरीर में दर्शन किये।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram God’s darshan to the devotees
Saturn among wrestlers is the best of men, and Smaro is the idol of women’ The child of his father is the ruler of the cowherd men and the wicked rulers of the earth Death is the supreme essence of the Yogis who know the Cosmos of the Lord of Bhoja Known as the other god of the Vrishnis he went to Ranga with his elder brother
When Lord Krishna had entered Kansa’s theater with Baldev ji, then people of different nature were sitting there. They had seen different forms in the body of God according to their respective feelings. That’s why the men and women present there experienced the nine juices according to their nature. Some got scared seeing the form of God, some started trembling, some started hating, some started laughing, some got love and some got angry. To the women, he appeared to be the real Cupid. But here at the time of the light of the Lord, all were devotees of the same nature. That’s why everyone was equally happy with the greatness of the Lord, everyone experienced happiness in the light of His light, everyone saw the same God in Him, but because everyone’s favorite was different, the same God appeared to them in different ways. Shown with emotion. Everyone saw the form of their respective God in the body of the Lord.
First of all, the Lord blessed Srivas Pandit in every word. Addressing Shrivas Pandit, you said – ‘Shrivas! You are our most blessed, we always look after you. You remember that incident, when you were listening to the recitation of Shrimad Bhagwat along with many other disciples at Devanand Pandit’s place. While listening to the recitation, you fainted in the middle of emotion. At that time, neither Pandit ji nor his disciples could understand your feelings. The disciples carried you on their shoulders and took you home. At that time I had made you conscious, I had dissolved your unconsciousness.
Srivas Pandit was extremely surprised to hear this secret incident of his from the mouth of the Lord. He did not reveal this incident to anyone. After this Lord began to target Advaitacharya and say – ‘ Acharya! Do you remember the day when you had doubt on the following verse of Srimad Bhagavad Gita-
Hands and feet everywhere, that eyes, head and face everywhere. Hearing everywhere covers everything in the world.
And you went to sleep that day without eating, on this I cleared your doubt by telling you this Prakrit text ‘Panipadam Tat’ instead of ‘Panipadam Tat’. Greeted.
Now the devotees organized the evening-arti of the Lord sitting on the seat in Bhagavadavesh. A huge aarti was organized. Devotees started playing conch, gongs, cymbals and other types of instruments with their hands. Srivas Pandit gave the arti in the hands of Sachimata and asked her to perform the arti. With the help of Srivas’s wife, the old mother performed the Aarti of the Lord with her trembling hands. At that time all the devotees were playing instruments in a frenzy of joy. Somehow the aarti was finished. Shrivas Pandit sent Sachimata home. Now the turn of all the devotees has come. Almost all the intimate devotees of the Lord were present there at that time, but His most dear devotee Sridhar was not there.
Readers must be familiar with devotee Shridhar. These are those fortunate devotees who sell banana shells and doublets, with whom the Lord always used to flirt and after harassing them every now and then, used to shell them from them at half the price. The thick stalk that remains in the banana below the stalk of the banana tree, is called shell in Bengal. Its vegetable is made in Bengal. As long as the greens of Shridhar’s shell were not there in the food of the Lord, he did not find other things tasty. Very poor shopkeepers sell them also by cutting them and making them from the plate which is soft and soft. Women and men keep the material of worship in it and take it for worship.
Shridharji used to earn his living by selling these things. Half of the income that would have been earned from them, they used to do Devpujan and Gangapujan etc. and from the other half they used to fill their stomachs somehow. Day and night he used to chant Harinam-Kirtan loudly. That’s why people living near them would be very angry with them. He used to say- ‘This old man does not let anyone sleep at night!’ Everyone used to ignore this poor shopkeeper. No one considers him a devotee, but the Lord had great affection for him. He knew his devotion to Bhagwat, that is why he remembered him in Bhagwat-Bhav also.
Sridhar’s house was far away on the other corner of the city. On hearing this, four-five devotees ran away. At that time Sridhar was reciting the sweet names of Sri Hari lying in bliss. People went and knocked on the door. While saying ‘Shri Krishna Govind Hare Murare, O Nath Narayan Vasudev’, he said- ‘Who is it?’
The devotees quickly said – ‘Open the door, then you will know who it is. Quickly open the door.
Hearing this, Shridhar opened the doors and humbly asked the devotees the reason for their visit. The devotees quickly said – ‘ The Lord has remembered you. let’s hurry up.’
Shridhar became unconscious of love as soon as he heard that the Lord has remembered us poor and destitute. Saying hi, they fell down on the earth with a thud. He didn’t even care about his body. The devotees thought – this is a new disaster, but the Lord’s order has to be fulfilled, the devotees lifted the unconscious Shridhar on their shoulders and brought him to the Lord in that condition. Sridhar was still in unconsciousness, the Lord touched him with His soft lotus hands.
Sridhar became conscious as soon as he got the touch of the Lord. Seeing Sridhar till Chaitanya, the Lord started saying to him – ‘Sridhar! You see our form. Your wish of so many days has been fulfilled.’ Shridhar saw the radiant form of the Lord while crying. Then the Lord commanded them to praise. Shridhar started saying with folded hands – ‘ How can I praise the Lord, a downtrodden, downtrodden and ostracized man. Lord! I am very guilty. Not understanding your real glory, I always kept quarreling with you. You used to explain to me again and again, but I, who was in the entanglement of illusion, could not understand your deep secret properly. Today the darkness of my ignorance was dispelled by the vision of your real form. Now I seek forgiveness of all my crimes before the Lord.’
The Lord said in Gadgadkanth – ‘Sridhar! We are very satisfied with you. You can now ask us for a boon as per your wish! Ask for Riddhi, Siddhi, wealth, wealth, lordship whatever you desire. Tell me, what do you want?
Shridhar said in a very humble voice with folded hands – ‘Lord! What didn’t I get? The world ignores me. Even when I ask, people ignore me considering me as poor, you graciously called such a despicable poor person and blessed me by giving me your divine darshan. What else do I need now? What will I do about Riddhi-Siddhi? That too is just a kind of big illusion.
The Lord insisted – ‘ No, at least ask for a boon. If not Riddhi-Siddhi, then ask for whatever is dear to you.
Sridhar said in the same voice of humility- ‘If God wants to give something, then give this boon that the Brahmin Kumar who used to quarrel with us while buying shell, should always remain in our heart.’
The Lord was very pleased with this selflessness and selflessness of Shridhar. Shridhar was a worshiper of the Murli-manohar form of God. He always used to chant the sweet names of God ‘Shri Krishna Govind Hare Murare, O Nath Narayan Vasudev’, that’s why the Lord made him see the form of Shri Krishna. Shridhar became grateful after having darshan of his presiding deity in the idol of the Lord. He fainted and fell down and the devotees made him lie down on one side.
Now it was Murari Gupta’s turn. Murari was the most religious and pure Vaishnav, but he had some addiction to logic and debate – it was like a darshan of God to the devotees. The Lord addressed him and said – ‘ Murari! This is the one imperfection in your being a devotee, you should give up dry debates. In spiritual science, give priority to devotional books only.
Murari Gupta said- ‘Where else do I debate and argue, I only tell when some context happens near the scholars.’
The Lord said – ‘ You do not argue with Advaitacharya? Don’t you tell them about Advaita Vedanta?’ On this Advaitacharya asked the Lord – ‘Lord! Is it a bad thing to talk about Advaita Vedanta?’
The Lord said with a smile – ‘ Who tells the bad work? Very good, but those who have followed the path of devotion, what is the purpose of getting confused about such achievements and processes?’ Having said this, the Lord began reciting this verse with a loud voice-
Neither Yoga nor Sankhya nor Dharma accomplishes Me, O Uddhava. Not self-study, austerity or renunciation as my devotion is strong.
Murari became silent after hearing such an order from the Lord. On this the Lord said – ‘ Murari! Why do you need to take refuge in processes for the realization of Brahman? Your God is born perfect. You are a devotee of the Lord for many births. Your feelings and idols are like Hanuman. You are actually Hanuman. At least remember your form.
Murari was a devotee of Ram, on being reminded by the Lord, he started meditating on his presiding deity. He realized that he was actually Hanuman and was worshiping him sitting at the feet of his presiding deity. He raised his eyes upwards and looked at the Lord. He started seeing the form of God in the form of his presiding deity Sita-Ram. Seeing his presiding deity in the form of the Deity of the Lord, Murari started praising him with gadgadkanth and started prostrating again and again on the ground.
Murari, with folded hands on the Lord’s order to ask for a boon, prayed for unwavering devotion to Shri Ram, which the Lord lovingly granted by placing His lotus feet on his head.
After this the turn of all the devotees came one by one. Advaita, Shrivas, Vasudev all prayed to the Lord for the devotion of Ahaitu. Haridas considered himself very poor, poor and lowly. He hesitated to be in front of the Lord, so he sat hidden behind the farthest devotees. The Lord said seriously – ‘ Haridas! Where is Haridas? Bring him in front of us.’ All the devotees started looking for Haridas ji all around, Haridas ji was sitting shrunken at the back. The devotees asked him to appear in front of the Lord – but he was unconscious in love. The devotees lifted him up and brought him before the Lord.
Seeing Haridas in front of him, the Lord said to him – ‘Haridas! Don’t consider yourself mean. You are the best, I have only one caste with you. Those who remember and meditate on you, as if they worship me. I am always with you. I was with you even when the cane was falling on your back, those canes were falling on my back. Look, I still have scars on my back. I bear the sufferings of all the devotees on myself. That’s why the devotees do not feel sad even after facing the heaviest of difficulties. The reason is that those who trouble the devotees, it is as if they are troubling me. That’s why now I will save the wicked by not killing them. You did not pray to me for the destruction of the wicked. But had only prayed for his wisdom-purification and welfare. That’s why now I will deliver the wicked by my melodious name-sankirtan. There will be no consideration of caste-varna or high-low in this work of mine. All will be able to become pure by chanting my name. Now ask me for your desired groom!’
Haridas ji said with folded hands – ‘ O best of those who give boons! O kind! Hey love incarnation! If you want to give me a boon, then give me this boon that I will always remain poor, poor and destitute. I should not have any kind of pride other than being a servant of the Lord, I should always consider the dust of the feet of Vaishnavs as the ultimate ornament of my head, may my love always remain at the feet of Vaishnavs. I pray for this boon from the Lord.
Hearing this type of request for a groom, the devotees started rejoicing from all four directions. Everyone started praising Haridas ji’s devotion. Readers will not be unfamiliar with Mukundadatta. They were also present there, but thinking that they had no right to see God, they were crying sitting far away. Shrivas Pandit prayed in fear – ‘ Lord! This Mukund is very dear to you, he should also be blessed. They do not consider themselves entitled even to have the darshan of the Lord.
The Lord said seriously in a voice of anger – ‘Mukund cannot be blessed. Although they make themselves famous by being devotees, but they always talk logically. Sitting in the pandit-society, Vaishnav-Leelas are described as a juggler’s game and consider themselves to be very learned and knowledgeable. Will they not be able to see God?’
Crying, Mukund asked through Shrivas, will we never be able to be entitled to God’s grace? On his saying, Shrivas Pandit asked – ‘Lord! Mukund is inquiring whether we will ever be able to be entitled to God’s grace.’
The Lord replied with some disdain – ‘Yes, you can become an officer after millions of births.’ On hearing this, Mukund started dancing in ecstasy and, ecstatic with love, said with a loud voice that ‘someday you will be.’ So right, sometime it will be right’ started dancing. He himself used to say, what is the use of crores of births. Millions of births will pass in a short span of time. Even if it takes a long time, we will be able to get the grace of God in the end. Simply, God’s grace should be received, even if it is never received? All the devotees were very surprised to see such a blissful state of his. He was speechless to see such unwavering devotion of his. In the end, while giving him a love hug, the Lord said – ‘Mukund! You have bought me with this unwavering loyalty of yours. Truly you are the ultimate Vaishnav, because of your steadfast devotion, my happiness knew no bounds. You are the best officer of God’s grace. By saying such a thing, you increased my joy a million times. Mukund! It is very difficult to have patience like you, high loyalty like you in ordinary people. You have become entitled to God’s grace. See my bright form. Saying this, the Lord made him see his shining form and Mukund fainted from seeing that supernatural form and fell on the earth. Then all the devotees had darshan of the Lord in the body of Shyamvarna, Murlimanohar, Sita-Ram, Radha-Krishna, Goddess-Goddess and other Bhagwat-forms according to their feelings.
Next post respectively [60] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]