[60]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
भगवद्भाव की समाप्ति

अदृष्‍टपूर्वं हृषितोऽस्म्‍िा दृष्‍ट्वा
भयेन च प्रव्‍यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देवरूपं-
प्रसीद देवेश जगन्निवास।।

संसार में यह नियम है, जो मनुष्‍य जितना बोझ ले जा सकता है, समझदार लोग उसके ऊपर उतना ही बोझ लादते हैं। यदि कोई अज्ञानवश किसी के ऊपर उसकी शक्ति से अधिक बोझ लाद दे तो या तो वह उस बोझ को बीच में ही गिरा देगा या उससे मूर्च्छित होकर स्‍वयं ही भूमि पर गिर पड़ेगा। इस प्रकार भगवान अपने सम्‍पूर्ण तेज अथवा प्रेम को कहीं भी प्रकट नहीं करते। जहाँ जैसा अधिकारी देखते हैं वहाँ वैसा ही अपना रुप बना लेते हैं। भगवान के तेज की तो बात ही दूसरी है, मनुष्‍यों में जो सदाचारी, तपस्‍वी, कर्मनिष्‍ठ, संयमी, सच्चरित्र तथा तेजस्‍वी पुरुष होते हैं उनके सामने भी क्षुद्र प्रकृति के असंयमी और इन्द्रियलोलुप पुरुष अधिक देरतक बैठकर बातें नहीं कर सकते। उनके तेज के सम्‍मुख उन्‍हें अधिक देर ठहरना असह्य हो जाता है। किसी विशेष कारणवश उन्‍हें वहाँ ठहरना भी पड़े तो वह समय भार-सा मालूम पड़ता है। इसीलिये भगवान के असली तेज के दर्शन तो मायाबद्ध जीवन को इस पांचभौतिक शरीर से हो ही नहीं सकते। उन्‍हें भगवान के माया विशिष्‍ट तेज के ही दर्शन होते हैं, तभी तो भगवान ने अर्जुन को विश्‍वरूप दिखाने पर भी पीछे से संकेत कर दिया था कि यह तो रूप तुझे दिखाया था, यह भी एक प्रकार से मायिक ही है।

मायाबद्ध जीव को शुद्ध स्‍वरूप के दर्शन हो ही कैसे सकते हैं, इतने पर भी उसके पूर्ण तेज को अधिक देर सहन करने की देवताओं तक में शक्ति नही। फिर मनुष्‍यों की तो बात ही क्‍या? भक्‍तों के हृदय में एक प्रकार की अपूर्व ज्‍योति निरंतर जलती रहती है, किंतु प्रत्‍यक्षरूप से उन्‍हें भी अधिक कालतक भगवान का तेजोमय स्‍वरूप असह्य हो जाता है। हां, मधुर भाव से तो वे निरंतर अपने प्रियतम के साथ क्रीड़ा करते ही रहते हैं। वह भाव दसरा है, उसमें तेज, ऐश्‍वर्य तथा महत्ता का अभाव होता है। उसके बिना तो भक्‍त जी ही नहीं सकते। वह मधुर भाव ही भक्‍तों को सर्वस्‍व है। उच्‍च भक्‍त तो ऐश्‍वर्य अथवा तेजोमय रूप के दर्शनों की इच्‍छा ही नहीं करते। भगवत-इच्‍छा से कभी स्‍वत: ही हो जाय तो यह बात दूसरी है।
प्रभु को भगवत-भाव में पूरे सात प्रहर बीत गये। दिन गया, रात्रि का भी अंत होने को आया, किंतु प्रभु के तेज अथवा ऐश्‍वर्य में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं दिखायी दिया। भक्‍त ज्‍यों-के-त्‍यों बैठे थे, न तो कोई कहीं अन्‍यत्र भोजन करने गया और न कोई पैर फैलाकर सोया। चारों ओर से प्रभु को घेरे हुए बैठे ही रहे। रात्रि के अंत होने पर प्रभात का समय हो गया। अद्वैतचार्य ने देखा सभी भक्‍त घबड़ाये हुए- से हैं। वे अब अधिक देर तक प्रभु के अलौकिक तेज को सहन नहीं कर सकते। अत: उन्‍होंने श्रीवास पण्डित के कान में कहा- ‘हम साधारण संसारी लोग प्रभु के इस असह्य तेज को और अधिक देर तक सहन करने में असमर्थ हैं, अत: कोई ऐसा उपाय करना चाहिये जिससे प्रभु के इस भाव को शमन हो जाय।’

श्रीवास पण्डित को अद्वैताचार्य की सम्‍मति बहुत युक्तियुक्‍त प्रतीत हुई। उनकी बात का समर्थन करते हुए वे बोले- ‘हाँ, आप ठीक कहते हैं। इस ऐश्‍वर्यमय रूप की अपेक्षा तो हमें गौररूप की प्रिय है। हम सभी मिलकर प्रभु से प्रार्थना करें कि प्रभो! अब इस अपने अद्भुत अलौकिक भाव को संवरण कीजिये ओर हम लोगों को फिर उसी गौररुप से दर्शन दीजिये।’ श्रीवास जी की यह बात सभी को पसंद आयी और सभी हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे- ‘प्रभो! अब अपने इस ऐश्‍वर्य को अप्रकट कर लीजिये। इस तेज से हम संसारी जीव जल जायँगे। हममें इसे अधिक काल सहन करने की शक्ति नहीं है। अब हमें अपना वही असली गौररूप दिखाइये। ‘भक्तों की ऐसी प्रार्थना सुनकर प्रभु ने बड़े जोर के साथ एक हुंकार मारी। हुंकार मारते ही उन्‍हें एकदम मूर्छा आ गयी और मूर्छा आने पर यह कहते हुए कि ‘अच्‍छा तो लो अब हम जाते हैं’ अचेतन होकर सिंहासन पर से भूमिपर गिर पड़े। भक्तों ने जल्‍दी से उठाकर प्रभु को एक सुंदर से आसन पर लिटाया, प्रभु मूर्च्छित दशा में ज्‍यों–के-त्‍यों ही पड़े रहे। तनिक भी इधर-उधर को नहीं हिले-डुले। प्रभु को मुर्छित देखकर सभी भक्‍त विविध भाँति के उपचार करने लगे। कोई पंखा लेकर प्रभु को वायु करने लगे। सुगंधित तैल अथवा शीतल लेप प्रभु के मस्तक पर लेपन करने लगे, किंतु प्रभु की मूर्छा भंग नहीं हुई। प्रभु की परीक्षा के निमित्त अद्वैत और श्रीवास आदि प्रमुख भक्तों ने प्रभु ने प्रभु के सम्‍पूर्ण शरीर की परीक्षा की। उनकी नासिका के सामने बहुत देरतक हाथ रखे रहे, किंतु सांस बिलकुल चलता हुआ मालूम नहीं पड़ता था। हाथ-पैर तथा शरीर के सभी अंग-प्रत्‍यंग संज्ञाशून्‍य-से बने हुए थे। जिस अंग को जैसे भी डाल देते, वह वैसे ही पड़ा रहता, किसी प्रकार की चैतन्‍यपने की चेष्‍टा किसी भी अंग से प्रतीत नहीं होती थी। प्रभु की ऐसी दशा देखकर सभी भक्तों को बड़ा भारी भय-सा प्रतीत होने लगा।

वे बार-बार प्रभु के इस वाक्‍य को स्‍मरण करने लगे- ‘अच्‍छा तो लो अब हम जाते हैं।’ बहुत-से तो इससे अनुमान लगाने लगे कि प्रभु सचमुच हमें छोड़कर चले गये। बहुत-से कहने लगे- ‘यह बात नहीं, वह तो प्रभु के ऐश्‍वर्य और तेज के संबंध का भाव था, हमारे गौरहरि तो थोड़ी देर में चैतन्‍य लाभ कर लेंगे। किंतु उनका यह अनुमान ठीक होता दिखायी नहीं देता था, प्रात:काल से प्रतीक्षा करते-करते दोपहर हो गया, किंतु प्रभु की दशा में कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ। वे उसी भाँति संज्ञाशून्‍य पड़े रहे।
ज्‍येष्‍ठ का महीना था, भक्तों को बैठे-बैठे तीस घंटे हो गये। प्रभु की दशा देखकर सभी व्‍याकुल हो रहे थे। सभी उसी भाव से प्रभु को घेरे हुए बैठे थे, न कोई शौच-स्‍नान को गया और न किसी को भूख-प्‍यास की सुधि रही, सभी प्रभु के भाव में अधीर हुए चुपचाप बैठे थे। बहुतों ने तो निश्‍चय कर लिया था कि यदि प्रभु को चेतना लाभ न हुई तो हम भी यहीं बिना खाये-पीये प्राण त्‍याग देंगे। इसी उद्देश्‍य वे बिना रोये-पीटे धैर्य के साथ प्रभु के चारों ओर बैठे थे। कल प्रात:काल श्रीवास पण्डित के घर के किवाड़ जो बंद किये गये थे, वे ज्‍यों-के-त्‍यों बंद ही थे, प्रात:काल कोई भी निकलकर बाहर नहीं गया। इस घटना की सूचना शचीमाता को भी देना उचित नहीं समझा गया। क्‍योंकि वहाँ तो प्राय: सब-के-सब अपने-अपने प्राणों की बाजी लगाये हुए बैठे थे। इसी बीच एक भक्‍त ने कहा- ‘अनेकों बार जब प्रभु मूर्च्छित हुए हैं, तो संकीर्तन की सुमधुर ध्‍वनि सुनकर ही सचेत हुए हैं। क्‍यों नहीं प्रभु को चैतन्‍यता लाभ कराने के निमित्त संकीर्तन किया जाय।’ यह बात सभी को पसंद आयी और सभी ओर से प्रभु को घेरकर संकीर्तन करने लगे। सभी भक्त अपने कोमल कण्‍ठों से करुणामिश्रित स्‍वर तालस्‍वर के साथ-वाद्य बजाकर-

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
हरे कृष्‍ण हरे कृष्‍ण कृष्ण कृष्‍ण हरे हरे ।।

इस महामंत्र का संकीर्तन करने लगे। संकीर्तन की नवजीवन-संचारी प्राणों से भी प्‍यारी धुनि को सुनकर प्रभु के शरीर में रोमांच-से होने लगे। सभी को प्रभु का शरीर पुलकित-सा प्रतीत होने लगा। अब तो भक्‍तों के आनंद की सीमा नहीं रही। वे नाम-संकीर्तन छोड़कर प्रेम में विह्वल हुए पद-संकीर्तन करने लगे। प्रभु के शरीर की पुन: परीक्षा करने के निमित्त अद्वैताचार्य ने उनकी नासिका पर अपना हाथ रखा। उन्‍हें श्‍वासों का गमनागमन प्रत्‍यक्ष प्रतीत होने लगा। इतने में ही प्रभु ने एक जोर की हुंकार मारी। हुंकार को सुनते ही भक्‍तों की विषण्‍ण मण्‍डली में आनंद की बाढ़-सी आ गयी। वे उन्‍मत्तभाव से जोरों की जय-ध्‍वनि करने लगे। आकाशव्‍यापी तुमुल ध्‍वनि के कारण दिशाएं गूंजने लगीं।

भक्तोंके पदाघात से पृथ्‍वी हिलने लगी, वायु स्थिर-सी प्रतीत होने लगी। चारों ओर प्रसन्‍नता-ही-प्रसन्‍नता छा गयी। प्रेम में उन्‍मत्त होकर कोई नृत्‍य करने लगा, कोई आनंद के वेग को न सह सकने के कारण मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। कोई शंख बजाने लगा, कोई शीतल जल लेकर प्रभु के श्रीमुख में धीरे-धीरे डालने लगा। इस प्रकार श्रीवास जी का सम्‍पूर्ण घर उस समय आनंद का तरंगित सागर ही बन गया। जिसमें भक्तों की प्रसन्‍नता की हिलोरें उठ-उठकर दिशाओं को गुँजाती हुई भीषण शब्‍द कर रही थीं।
थोड़ी ही देर के अनन्‍तर प्रभु आँखें मलते हुए निद्रा से जागे हुए मनुष्‍य की भाँति उठे और अपने चारों ओर भक्तों को एकचित और बहुत-सी अभिषेक की सामग्रियो को पड़ी हुई देखकर आश्‍चर्य के साथ पूछने लगे-‘हैं, यह क्‍या है? हम कहाँ आ गये? आप सब लोग यहाँ क्‍यों एकत्रित हैं? आप सब लोग इस प्रकार विचित्र भाव से यहाँ क्‍यों बैठे हुए हैं?’

प्रभु के इस प्रश्‍नों को सुनकर भक्त एक-दूसरे की ओर देखकर मुसकराने लगे। प्रभु के इन प्रश्‍नों का किसी ने भी कुछ उत्तर नहीं दिया। इसपर प्रभु ने श्रीवास पण्डित को संबोधन करके पूछा- ‘पण्डित जी! बताइये न, असली बात क्‍या है? हमसे कोई चंचलता तो नहीं हो गयी, अचेतनावस्‍था में हमसे कोई अपराध तो नहीं बन गया? मामला क्‍या है, ठीक-ठीक बताते क्‍यों नहीं?
अपनी हंसी को रोकते हुए श्रीवास पण्डित कहने लगे- ‘अब हमें बहकाइये नहीं। बहुत बनने की चेष्‍टा न कीजिये। अब यहाँ कोई बहकने वाला नहीं है।‘

प्रभु ने दुगुना आश्‍चर्य प्रकट करते हुए कहा- ‘कैसा बहकाना, बताते क्‍यों नहीं? बात क्‍या है?’

इस पर बात को टालते हुए श्रीवास जी ने कहा-‘कुछ नहीं, आप संकीर्तन में अचेत हो गये थे, इसलिये आपको चैतन्‍य लाभ कराने के निमित्त सभी भक्‍त मिलकर कीर्तन कर रहे थे।‘
इस बात को सुनकर कुछ लज्जित होते हुए प्रभु ने कहा- ‘अच्‍छा, तो ठीक है। आप लोगों को हमारे कारण बड़ा कष्‍ट हुआ। आप सभी लोग हमें क्षमा करें। बहुत समय बीत गया। अब चलकर स्‍नान-संध्‍या-वन्‍दन करना चाहिये। मालूम होता है अभी प्रात:काल संध्‍या भी नहीं हुई।’ यह सुनकर सभी भक्‍त स्‍नान-संध्‍या के निमि‍त्त गंगा जी की ओर चले गये।

क्रमशः अगला पोस्ट [61]

[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



।। Srihari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Jap] Hare Krishna Hare Ram The end of godliness

I was delighted to see you like I had never seen before My mind is troubled with fear Show me that in the form of God- please Lord of the gods, dweller of the universe.

This is the rule in the world, that the more burden a man can carry, the wiser people put that much burden on him. If someone unknowingly imposes a burden on someone more than his capacity, then either he will drop that burden in the middle of it or he himself will fall on the ground due to it. In this way the Lord does not reveal His full glory or love anywhere. Wherever the officers see, so they make their appearance. God’s glory is another matter, in front of those who are righteous, ascetic, hard-working, self-controlled, good-character and brilliant men, even in front of them, incontinent and sensual-loving men of petty nature cannot sit and talk for a long time. It becomes unbearable for them to stay longer in front of his glory. Even if they have to stay there for some special reason, that time seems like a burden. That’s why the vision of the real glory of God cannot be seen from this five physical body in an illusionary life. They only see the illusory effulgence of God, that’s why even after showing the universal form to Arjuna, God had hinted from behind that this form was shown to you, it is also illusory in a way.

How can an illusioned creature be able to see the pure form, yet even the deities do not have the power to tolerate its full glory for a long time. Then what to talk about human beings? A kind of unique light burns continuously in the hearts of the devotees, but apparently they also find the effulgence of the Lord unbearable for a long time. Yes, in a sweet way, they continue to play with their beloved continuously. That feeling is second, it lacks brightness, opulence and importance. Devotees cannot live without him. That sweet feeling is everything to the devotees. High devotees don’t even desire to see opulence or shining form. If it happens automatically by the will of God, then that is another thing. The whole seven moments passed in Bhagwat-Bhav to the Lord. The day passed, the night also came to an end, but no change was seen in the glory or glory of the Lord. The devotees were sitting as they were, neither one went anywhere else to have food nor did anyone sleep with their legs spread. He kept sitting surrounded by the Lord from all sides. At the end of the night, it was time for morning. Advaitacharya saw that all the devotees were in a panic. They could no longer tolerate the supernatural effulgence of the Lord. Therefore, he said in the ear of Shrivas Pandit- ‘We ordinary worldly people are unable to tolerate this unbearable glory of the Lord for a long time, so some such remedy should be taken which will suppress this feeling of the Lord.’

Shrivas Pandit found Advaitacharya’s advice very sensible. Supporting his point, he said- ‘Yes, you are right. Rather than this glorious form, we love the form of glory. Let us all together pray to the Lord that Lord! Now cover this wonderful supernatural feeling of yours and give us darshan again in the same proud form.’ Everyone liked this talk of Shrivas ji and everyone started praising with folded hands – ‘Lord! Now reveal this wealth of yours. We worldly creatures will be burnt by this fire. We do not have the power to bear it for long. Now show us your true glory. Hearing such prayer of the devotees, the Lord shouted loudly. As soon as he started shouting, he fainted completely and fell unconscious from the throne on the ground saying, ‘Well, now we go’. The devotees quickly picked up the Lord and made him lie on a beautiful seat, the Lord remained lying unconscious. Didn’t move here and there even a bit. Seeing the Lord unconscious, all the devotees started doing different types of remedies. Someone took a fan and started fanning the Lord. Scented oil or cool paste was applied on the Lord’s head, but the Lord’s unconsciousness did not dissolve. In order to test the Lord, the prominent devotees like Advaita and Shrivas etc. examined the entire body of the Lord. He kept his hands in front of his nostrils for a long time, but he did not seem to be breathing at all. The hands, feet and all the parts of the body were made of inanimate matter. No matter how the organ was inserted, it remained lying there; there was no effort to revive any kind of organ. Seeing such a condition of the Lord, all the devotees felt very fearful.

They started remembering this sentence of the Lord again and again – ‘Well, now we are going.’ Many started speculating from this that the Lord had really left us. Many started saying- ‘It is not a matter, it was a feeling of relation to the glory and glory of the Lord, our Gaurahari will attain consciousness in a short while. But his guess did not appear to be correct, waiting since morning it became afternoon, but there was no change in the condition of the Lord. They remained unconscious like that. It was the month of Jyeshtha, the devotees sat for thirty hours. Everyone was getting worried seeing the condition of the Lord. Everyone was sitting surrounded by the Lord in the same mood, no one went to the bathroom and no one remembered hunger and thirst, all were sitting quietly in the feeling of the Lord. Many had made up their mind that if the Lord does not gain consciousness, they too will die here without eating or drinking. For this purpose they sat around the Lord with patience without crying or beating. The doors of Shrivas Pandit’s house which were closed yesterday morning, were closed as they were, no one went out in the morning. It was not considered appropriate to inform about this incident to Sachimata as well. Because almost all of them were sitting there with their lives at stake. Meanwhile, a devotee said – ‘Many times when the Lord has fainted, he has become conscious only after hearing the melodious sound of Sankirtan. Why not perform sankirtana for the Lord to attain consciousness.’ Everyone liked this and surrounded the Lord from all sides and started doing sankirtana. All the devotees playing the instruments with the talasvara mixed with compassion from their soft voices.

Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare.

Started chanting this Mahamantra. Listening to the new-life-giving tune of Sankirtan, which is dearer than life itself, the Lord’s body began to feel ecstatic. The body of the Lord seemed to be pulkit-like to everyone. Now there is no limit to the joy of the devotees. Leaving the chanting of the name, they started chanting the hymns, overwhelmed with love. In order to re-examine the body of the Lord, Advaitacharya put his hand on His nostrils. The movement of breaths started appearing to them. Just then, the Lord shouted loudly. As soon as they heard the hum, there was a flood of joy in the Vishna group of devotees. They started shouting loudly with frenzy. The directions started echoing due to the sky-wide tumult sound.

The earth started shaking due to the feet of the devotees, the air seemed stable. There was happiness everywhere. Being madly in love, some started dancing, some fell unconscious due to not being able to bear the speed of joy. Some started blowing the conch, some took cold water and started pouring it slowly into the mouth of the Lord. In this way, the entire house of Shrivas ji at that time became a rippling ocean of joy. In which the waves of happiness of the devotees were rising up and making horrifying sounds echoing in the directions. Within a short while, the Lord woke up like a man waking up from sleep rubbing his eyes and seeing the devotees gathered around him and many anointing materials lying around, he asked with astonishment – ‘What is this? Where have we come? Why are you all gathered here? Why are you all sitting here in such a strange mood?’

Hearing these questions of the Lord, the devotees looked at each other and started smiling. No one gave any answer to these questions of the Lord. On this, the Lord addressed Srivas Pandit and asked – ‘Pandit ji! Tell me, what is the real thing? Have we become restless, have we committed any crime in our unconsciousness? What is the matter, why don’t you tell exactly? Stopping his laughter, Shrivas Pandit started saying – ‘Don’t mislead us now. Don’t try to be many. Now there is no one to stray here.

Expressing double surprise, the Lord said – ‘ What kind of deception, why don’t you tell? What is the matter?’

Avoiding this, Shrivas ji said – ‘Nothing, you had fainted during sankirtan, that’s why all the devotees were doing kirtan together to make you gain consciousness.’ Feeling a bit ashamed after hearing this, the Lord said – ‘Okay, then it’s okay. You people suffered a lot because of us. Please forgive us all. much time has passed. Now after walking bath-sandhya-vandan should be done. It seems that it is not even morning till evening.’ Hearing this, all the devotees went towards Ganga ji for bath and evening.

respectively next post [61] [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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