।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
घर-घर में हरिनाम का प्रचार
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नाम केवलम् ।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।
सत्ययुग में प्राय: सभी धर्मात्मा पुरुष होते थे। धर्म के कारण ठीक समय पर वर्षा होती थी, योगक्षेम की किसी को भी चिंता नहीं होती थी। देश, काल तथा खाद्य पदार्थों में पूर्णरूप से विशुद्धता विराजमान थी। उस समय के लोग ध्यान-प्रधान होते थे। सत्ययुग में प्रभुप्राप्ति का मुख्य साधन ध्यान ही समझा जाता था। त्रेतायुग में भोग-सामग्रियों की प्रचुरता थी, इसलिये खूब द्रव्य लगाकर उस समय बड़े-बड़े यज्ञ-याग करने की ही प्रथा थी। उस समय भगवत-प्राप्ति का मुख्य साधन यज्ञ करना ही समझा जाता था। सकाम तथा निष्काम दोनों ही भावों के द्विजातिगण यथाशक्ति, यज्ञ-याग करते थे। द्वापर में भोग-सामग्रियों की न्यूनता हो गयी, लोगों के भाव उतने विशुद्ध नहीं रहे। देश, काल तथा खाद्य पदार्थों की सामग्रियों में भी पवित्रता का संदेह होने लगा, इसलिये उस समय का प्रधान साधन भगवत-पूजन तथा आचार-विचार ही माना गया।
कलियुग में न तो पर्याप्तरूप से सबके लिये भोग-सामग्री ही है और न अन्य युगों की भाँति खाद्य पदार्थों की प्रचुरता ही। पवित्र स्थान बुरे लोगों के निवास से दूषित हो गये, धर्मस्थान कलह के घर बन गये, लोगों के हृदयों में से धर्म के प्रति आस्था जाती रही। लोगों के अधर्मभाव से वायुमण्डल दूषित बन गया। वायुमण्डल के दूषित हो जाने से देशों में से पवित्रता चली गयी; काल विपरीत हो गया। सत्पुरुष, सत्शास्त्र तथा सत्संग का सर्वत्र अभाव-सा ही हो गया। ऐसे घोर समय में भलीभाँति ध्यान, यज्ञ-याग तथा पूजा-पाठ का होना भी सबके लिये कठिन हो गया है। इस युग में तो एक भगवन्नाम ही मुख्य है।[2] उक्त धार्मिक कृत्यों को जो लोग पवित्रता और सन्निष्ठा के साथ कर सकें वे भले ही करें, किंतु सर्वसाधारण के लिये सुलभ, सरल और सर्वश्रेष्ठ साधन भगवन्नाम ही है। भगवन्नाम की ही शरण लेकर कलिकाल में मनुष्य सुगमता के साथ भगवत-प्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकता है। इसीलिये कलियुग के सभी महात्माओं ने नाम के ऊपर बहुत जोर दिया है। महाप्रभु तो नामावतार ही थे। अब तक वे भक्तों के ही साथ एकांत भाव से श्रीवास के घर संकीर्तन करते थे, अब उन्होंने सभी प्राणियोंको हरिनाम-वितरण करने का निश्चय किया।
प्रचार का कार्य त्यागी महानुभाव ही कर सकते हैं। भक्तिभाव और भजन-पूजन में सभी को अधिकार है, किंतु लोगों को करने के लिये शिक्षा देना तो त्यागियों का ही काम है। उपदेशक या नेता तो त्यागी ही बन सकते हैं। भगवान बुद्ध राजा बनकर भी धर्म का संगठन कर सकते थे, शंकराचार्य-जैसे परम ज्ञानी महापुरुष को लिंगसंयास और दण्डधारण की क्या आवश्यकता थी? गौरांग महाप्रभु गृहस्थी होते हुए भी संकीर्तन का प्रचार कर सकते थे, किंतु इन सभी महानुभावों ने लोगों को उपदेशकरने के ही निमित्त संयासधर्म को स्वीकार किया। बिना संयासी बने लोकशिक्षण का कार्य भलीभाँति हो भी तो नहीं सकता। प्रभु के भक्तों में दो संयासी थे, एक तो अवधूत नित्यानंद और दूसरे महात्मा हरिदास जी। अवधूत नित्यानंद जी तो लिंगसंयासी थे और महात्मा हरिदास अलिंगसंयासी। ब्रह्मणेतर वर्ण के लिये संन्यास की विधि तो है, किंतु शास्त्रों में उनके लिये संन्यास के चिह्नों का विधान नहीं है, वे विदुर की भाँति अलिंगसंन्यासी बन सकते हैं या वन में वास करके वानप्रस्थधर्म का आचरण कर सकते हैं, इसीलिये हरिदास जी ने किसी भी प्रकार का साधुओं का-सा वेश नहीं बनाया था। प्रभुप्राप्ति के लिये किसी प्रकार का बाह्य वेश बनाने की आवश्यकता भी नहीं है। प्रभु तो अन्तर्यामी हैं, उनसे न तो भीतर के भाव ही छिपे हैं और न वे बाहरी चिह्नों को देखकर धोखा खा सकते हैं। चिह्न धारण करना तो एक प्रकार की लोक-परम्परा है।
प्रभु ने नित्यानन्द और हरिदास जी को बुलाकर कहा- ‘अब इस प्रकार एकान्त में ही संकीर्तन करते रहने से काम नहीं चलेगा। अब हमें नगर-नगर और घर-घर में हरिनाम का प्रचार करना होगा। यह काम आप लोगों के सुपुर्द किया जाता है। आप दोनों ही नवद्वीप के मुहल्ले-मुहल्ले और घर-घर में जाकर हरिनाम का प्रचार करें। लोगों से विनय करके, हाथ जोड़ तथा पैर छूकर आप लोग हरिनाम की भिक्षा मांगें। आप लोग हरिनाम-वितरण करते समय पात्रापात्र अथवा छोटे-बडे़ का कुछ भी खयाल न करें। ब्राह्मण से लेकर चाण्डालपर्यन्त, पण्डित से लेकर मूर्खतक सबको समान-भाव से हरिनाम का उपदेश करें। हरिनामके सभी प्राणी अधिकारी हैं। जो भी जिज्ञासा करे अथवा न भी करे उसी के सामने आपलोग भगवान के सुमधुर नामों का संकीर्तन करें। उससे भी संकीर्तन करने की प्रार्थना करें। जाइये, श्रीकृष्ण भगवान आपके इस कार्य में सहायक होंगे।
प्रभु का आदेश पाकर दोनों ही अवधूत परम उल्लास के सहित नवद्वीप में हरिनाम-वितरण करने के लिये चले। दोनों एक ही उद्देश्य से तथा एक ही काम के लिये साथ-ही-साथ चले थे, किंतु दोनों के स्वभाव में आकाश-पाताल का अन्तर था। नित्यानन्द का रंग गोरा था, हरिदास कुछ काले थे। नित्यानन्द लम्बे और कुछ पतले थे, हरिदास जी का शरीर कुछ स्थूल और ठिगना-सा था। हरिदास गम्भीर प्रकृति के शान्त पुरुष थे और नित्यानन्द परम उद्दण्ड और चंचल प्रकृति के। हरिदास की अवस्था कुछ ढलने लगी थी, नित्यानन्द अभी पूर्ण युवक थे।
हरिदास जी नम्रता से काम लेने वाले थे, नित्यानन्द जी किसी के बिना छेडे़ बात ही नहीं करते थे। इस प्रकार यह भिन्न प्रकृति का जोड़ नवद्वीप में नाम-वितरण करने चला। ये दोनों घर-घर जाते और वहाँ जोरों से कहते-
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
लोग इन्हें भिखारी समझकर भाँति-भाँति की भिक्षा लेकर इनके समीप आते। ये कहते हम अन्न के भिखारी नहीं हैं, हम तो भगवन्नाम के भिखारी हैं। आप लोग एक बार अपने मुख से श्रीहरि के-
श्रीकृष्ण! गोविंद! हरे मुरारे! हे नाथ! नारायण! वासुदेव!
इन सुमधुर नामों का उच्चारण करके हमारे हृदयों को शीतल कीजिये, यही हमारे लिये परम भिक्षा है। लोग इनके इस प्रकार के मार्मिक वाक्यों को सुनकर प्राभावान्वित हो जाते और उच्च स्वर से सभी मिलकर हरि नामों का संकीर्तन करने लगते। इस प्रकार ये एक द्वार से दूसरे द्वार पर जाने लगे। ये जहाँ भी जाते, लोगों की एक बड़ी भीड़ इनके साथ हो लेती और ये सभी से उच्च स्वर से हरिकीर्तन करने को कहते। सभी लोग मिलकर इनके पीछे नाम-संकीर्तन करते जाते। इस प्रकार मुहल्ले-मुहल्ले और बाजार-बाजार में चारों ओर भगवान् के सुमधुर नामों की ही गूंज सुनायी देने लगी।
नित्यानंद रास्ते चलते-चलते भी अपनी चंचलता को नहीं छोड़ते थे। कभी रास्ते में साथ चलने वाली किसी लड़के को धीरे से नोंच लेते, वहा चौंककर चारों ओर देखने लगता, तब ये हंसने लगते। कभी दो लड़कों के सिरों को सहसा पकड़कर जल्दी से उन्हें लड़ा देते। कभी बच्चों के साथ मिलकर नाचने ही लगते। छोटे-छोटे बच्चों को द्वार पर जहाँ भी खड़ा देखते उनकी ओर बंदर का-सा मुख बनाकर बंदर की तरह ‘खौ-खौ’ करके घुड़की देने लगते। बच्चा रोता हुआ अपनी माता की गोदी में दौड़ा जाता और ये आगे बढ़ जाते। कोई-कोई आकर इन्हें डांटता, किंतु इनके लिये डांटना और प्यार करना दोनों समान ही था।
उसे गुस्से में देखकर आप उपेक्षा के भाव से कहते ‘कृष्ण-कृष्ण कहो’ ‘कृष्ण-कृष्ण’’। व्यर्थ में जिह्व को क्यों कष्ट देते हो। यह कहकर अपने कोकिल-कूजित कमनीय कण्ठ से गायन करने लगते –
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
गुस्सा करने वालों का सभी रोष काफूर हो जाता और वे भी इनके साथ मिलकर तन्मयता के साथ श्रीकृष्ण का कीर्तन करने लगते। ये निर्भिक भाव से स्त्रियों में घुस जाते और उनसे कहते- ‘माताओ! मैं तुम्हारा पुत्र हूँ, पुत्र की प्रार्थना को स्वीकार कर लो। तुम एक बार भगवान का नाम-संकीर्तन करके मेरे हृदय को आनन्दित कर दो। इनकी इस प्रकार सरल, सरस और निष्कपट प्रार्थना से सभी माताओं का हृदय पसीज जाता और वे सभी मिलकर श्रीकृष्ण-कीर्तन में निमग्न हो जातीं। इस प्रकार ये प्रात:काल से लेकर सांयकाल पर्यन्त द्वार-द्वार घूमते और संकीर्तन का शुभ संदेश सभी लोगों को सुनाते। शाम को आकर प्रचार का सभी वृत्तांत प्रभु को सुनाते। इनकी सफलता की बातें सुनकर प्रभु इनके साहस की सराहना करते और इन्हें विविध भाँति से प्रोत्साहित करते। इन दोनों को ही नाम के प्रचार में बड़ा ही अधिक आनन्द आता। उसके पीछे ये खाना-पीना सभी कुछ भूल जाते।
अब तो प्रभु का यश चारों ओर फैलने लगा। दूर-दूर से लोग प्रभु के दर्शन को आते। भक्त तो इन्हें साक्षात भगवान का अवतार ही बताते, कुछ लोग इन्हें परम भागवत समझकर ही इनका आदर करते। कुछ लोग विद्वान भक्त समझते और कुछ वैसे ही इनके प्रभाव से प्रभावान्वित होकर स्तुति-पूजा करते। इस प्रकार अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार लोग विविध प्रकार से इनकी पूजा करने लगे। लोग भाँति-भाँति के उपहार तथा भेंट प्रभु के लिये लाते। प्रभु उन सबकी प्रसन्नता के निमित्त उन्हें ग्रहण कर लेते। ये घाट में, बाजार में जिधर भी निकल जाते उधर के ही लोग खड़े हो जाते और इन्हें विविध प्रकार से दण्ड-प्रणाम करने लगते। इस प्रकार ज्यों-ज्यों संकीर्तन का प्रचार होने लगा। त्यों-ही-त्यों प्रभु का यश:-सौरभ चारों ओर व्याप्त होता हुआ दृष्टिगोचर होने लगा। प्रभु सभी से नम्रतापूर्वक मिलते। बड़ों को भक्तिभाव से प्रणाम करते, छोटों से कुशल-क्षेम पूछते और बराबरवालों को गले से लगाते। मूर्ख-पण्डित, धनी-दरिद्र, ऊंच-नीच तथा छोटे-बड़े सभी प्रकार के लोग प्रभु को आदर की दृष्टि से देखने लगे। इधर भक्तों का उत्साह भी अब अधिकाधिक बढ़ने लगा।
नित्यानंद जी और हरिदास जी के प्रतिदिन के प्रचार का प्रभाव प्रत्यक्ष ही दृष्टिगोचर होने लगा। पाठशाला जाते हुए बच्चे स्वर से हरि का कीर्तन करते हुए जाने लगे। गाय-भैंसों को ले जाते हुए ग्वाले महामंत्र को गुनगुनाते जाते थे। गंगा-स्नान को जाते हुए यात्री हरि कीर्तन करते हुए जाते थे। उत्सव तथा पर्वों में स्त्रियां मिलकर हरिनाम का ही गायन करती हूई निकलती थीं। लोगों ने पुरुषों की तो बात ही क्या, स्त्रियों तक को बाजारों में हरिनाम-संकीर्तन करते तथा ऊपर हाथ उठाकर प्रेम से नृत्य करते हुए देखा। चारों ओर ये ही शब्द सुनायी देने लगे-
कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहि माम् ।
राम राघव राम राघव राम राघव रक्ष माम् ।।
रघुपति राघव राजाराम। पतित पावन सीताराम ।।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।
श्रीकृष्ण! गोविंद! हरे मुरारे! हे नाथ! नारायण! वासुदेव!
क्रमशः अगला पोस्ट [63]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Propagation of Harinam from house to house
The name of the Lord is the only name of the Lord. In Kali there is nothing, there is nothing, there is no movement otherwise.
In Satyayuga, almost all the pious souls were men. Due to religion, it used to rain at the right time, no one was worried about Yogakshem. There was complete purity in country, time and food items. People of that time were meditation-oriented. In Satyayuga, meditation was considered the main means of attaining God. In Tretayuga, there was an abundance of food items, that’s why it was customary to perform big sacrifices at that time by applying a lot of liquid. At that time, the main means of attaining God was considered to be the performance of Yagya. The two-caste people used to perform Yagya-Yagya, as per their capacity, both for the sake of fruition and for the desireless. In the Copper Age there was a scarcity of enjoyments, the feelings of the people were not so pure. Doubts about the purity of the country, time and food items also started, so the main means of that time were considered to be Bhagwat-worship and ethics.
In Kaliyuga there is neither enough food for everyone nor abundance of food items like in other ages. Holy places were polluted by the abode of bad people, religious places became houses of discord, people lost their faith in religion. The atmosphere became polluted due to the unrighteousness of the people. Due to the contamination of the atmosphere, the countries lost their purity; Time turned upside down. There was a lack of good men, good scriptures and satsang everywhere. In such dire times, it has become difficult for everyone to meditate properly, perform yagya and worship. In this age, the name of the Lord is the main thing.[2] Those who can perform these religious rituals with purity and sincerity may do so, but the most accessible, simple and best means for the general public is the name of the Lord. By taking refuge in the Lord’s name only, a man can easily move towards God-realization in Kalikal. That’s why all the great souls of Kaliyuga have laid a lot of emphasis on Naam. Mahaprabhu was just an incarnation. Till now he used to perform sankirtan at Srivas’ house in solitude along with the devotees, now he decided to distribute Harinam to all the living beings.
The work of propaganda can only be done by renounced personalities. Everyone has the right to do devotion and bhajan-worship, but to teach people to do it is the work of sacrifices only. A preacher or a leader can only become a renunciate. Lord Buddha could have organized religion even after becoming a king, what was the need of lingasanyas and punishment for a supremely wise great man like Shankaracharya? Gauranga Mahaprabhu could have preached sankirtana even though he was a householder, but all these great personalities accepted sannyasa dharma just for the sake of preaching to the people. Without becoming a monk, the work of public education cannot be done well. There were two monks among the devotees of the Lord, one was Avdhoot Nityanand and the other was Mahatma Haridas ji. Avdhoot Nityanand ji was a lingasanyasi and Mahatma Haridas was an alingasanyasi. There is a method of renunciation for the non-Brahmin caste, but there is no law for the signs of renunciation for them in the scriptures, they can become an Alingasnyasi like Vidur or live in the forest and practice Vanprasthadharma, that is why Haridas ji did not He had not dressed like a monk. There is no need to make any kind of outer dress for attaining God. The Lord is antaryami, neither the inner feelings are hidden from him nor can he be deceived by the external signs. Wearing a symbol is a kind of folk tradition.
The Lord called Nityanand and Haridas ji and said- ‘Now it will not work to keep doing sankirtan in solitude like this. Now we have to propagate Harinam in every city and every house. This work is entrusted to you. Both of you should go from house to house and locality of Navadweep and spread the name of Harinam. By begging people, by folding hands and touching feet, you people should beg for the name of Harinam. While distributing Harinam, you should not think about the character or the big or small. From a Brahmin to a Chandal, from a learned man to a fool, preach Harinam to everyone equally. All the creatures of Harinam are possessors. You should chant the melodious names of God in front of whoever inquires or does not. Pray to him also to do sankirtan. Go ahead, Lord Krishna will help you in this task.
After getting the order of the Lord, both the Avdhoots went to Navadweep with great enthusiasm to distribute Harinam. Both had walked together for the same purpose and for the same work, but there was a difference between heaven and hell in their nature. Nityananda’s complexion was fair, Haridas was somewhat dark. Nityanand was tall and a bit thin, Haridas ji’s body was a bit fat and short. Haridas was a calm man of serious nature and Nityananda was extremely boisterous and fickle. Haridas’s condition was starting to decline, Nityananda was still a young man.
Haridas ji was the one who used to work with humility, Nityanand ji did not talk without teasing anyone. In this way, this pair of different nature went to name-distribution in Navadweep. Both of them used to go from house to house and there they would say loudly-
Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare.
People thinking him to be a beggar used to come near him with different alms. They say that we are not beggars of food, we are beggars of God’s name. You people once from your mouth to Shri Hari-
Sri Krishna! Govind! Hare Murare! O Lord! Narayana! Vasudeva!
Cool our hearts by chanting these sweet names, this is the ultimate alms for us. People used to get impressed after listening to such poignant sentences of his and all together started chanting the names of Hari in a loud voice. In this way they started going from one door to another. Wherever he went, a large crowd of people used to accompany him and he would ask everyone to do Harikirtan in a loud voice. All the people used to do name-sankirtan together behind him. In this way, the echo of God’s melodious names started being heard everywhere in the locality and market.
Nityananda did not leave his playfulness even while walking on the road. Sometimes he would gently scratch a boy walking along the way, he would start looking around in surprise, then he would start laughing. Sometimes holding the heads of two boys suddenly, they would make them fight quickly. Sometimes he used to start dancing along with the children. Wherever he saw small children standing at the door, he would make a monkey’s face and start barking like a monkey. The child would run crying into his mother’s lap and she would go ahead. Somebody would come and scold him, but for him scolding and loving both were the same.
Seeing him angry, you say with a sense of neglect, ‘Say Krishna-Krishna’ ‘Krishna-Krishna’. Why do you trouble the tongue in vain? Having said this, the cuckoo started singing in a melodious voice –
Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare.
All the fury of those who got angry would have evaporated and they too would join them in chanting Shri Krishna with great enthusiasm. He would boldly enter women and say to them- ‘Mothers! I am your son, accept the prayer of the son. You make my heart happy by chanting God’s name once. This kind of simple, sweet and sincere prayer of his would melt the hearts of all the mothers and all of them together would get engrossed in Shri Krishna-Kirtan. In this way, from morning till evening, he used to go from door to door and tell the good news of Sankirtan to all the people. Coming in the evening, he used to narrate all the stories of the campaign to the Lord. Hearing the stories of their success, the Lord would appreciate their courage and encourage them in various ways. Both of them take great pleasure in the promotion of the name. Behind him everyone forgets about food and drink.
Now the fame of the Lord has started spreading everywhere. People used to come from far and wide to see the Lord. Devotees used to call him the incarnation of God, some people would have respected him considering him as the Supreme God. Some people considered scholars as devotees and some similarly praised and worshiped by being influenced by their influence. In this way, according to their nature, people started worshiping them in different ways. People bring different types of gifts and offerings for the Lord. The Lord would have accepted them for the happiness of all of them. Wherever he used to go out in the ghat, in the market, the people of that place used to stand and started saluting him in various ways. In this way, as and when Sankirtan was propagated. Just then the glory of the Lord: Saurabh began to be visible everywhere. The Lord would meet everyone humbly. Saluting elders with devotion, asking about their well-being from younger ones and hugging equals. Stupid-scholarly, rich-poor, high-low and small-big all types of people started looking at the Lord with respect. Here the enthusiasm of the devotees also started increasing more and more.
The effect of daily preaching by Nityanand ji and Haridas ji was visible immediately. On their way to the school, the children started singing Hari’s kirtan in their voices. The cowherds used to hum the Mahamantra while taking the cows and buffaloes. While going to bathe in the Ganges, the pilgrims used to go chanting Hari Kirtan. In festivals and festivals, women used to go out together singing Harinam. Let alone men, people saw even women chanting Harinam-Sankirtan in the markets and dancing with love with their hands raised up. These words were heard all around –
O Kṛṣṇa, Keśava, Kṛṣṇa, Keśava, Kṛṣṇa, Keśava, please protect me. O Rama, O Rama, O Rama, O Rama, O Rama, protect me. Raghupati Raghav Rajaram. Fallen Holy Sitaram. Hare Ram Hare Ram Ram Ram Hare Hare. Hare Krishna Hare Krishna Hare Krishna Hare Hare ।। Sri Krishna! Govind! Hare Murare! O Lord! Narayana! Vasudeva!
respectively next post [63] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]