।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
जगाई-मधाई का उद्धार
साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधव:।
कालेन फलते तीर्थं सद्य: साधुसमागम:।।
सचमुच में जिसका हृदय कोमल है, जो सभी प्राणियों को प्रेम की दृष्टि से देखता है, जिसकी बुद्धि घृणा और द्वेष के कारण मलिन नहीं हो गयी है, परोपकार करना जिसका व्यसन ही बन गया है, ऐसा साधु पुरुष यदि सच्चे हृदय से किसी घोर पापी-से-पापी का भी कल्याण चाहे तो उसके धर्मात्मा बनने में संदेह ही नहीं। महात्माओं की स्वाभाविक इच्छा अमोघ होती है, यदि वे प्रसन्नतापूर्वक किसी के ओर देखभर लें, बस, उसी समय उसका बेड़ा पार है। साधुओं के साथ खोटी बुद्धि से किया हुआ संग भी व्यर्थ नहीं होता। साधुओं से द्वेष रखने वालों का भी कल्याण ही होते देखा गया है, यदि पापी के ऊपर किसी अपराध के कारण कभी क्रोध न करने वाले महात्माओं को दैवात क्रोध आ गया तब तो उसका सर्वस्व ही नाश हो जाता है, किंतु प्राय: महात्माओं को क्रोध कभी नाममात्र को ही आता है, वे अपने अहित करने वाले का भी सदा हित ही करते हैं। प्रहार करने पर भी वे वृक्षों की भाँति सुस्वादु फल ही प्रदान करते हैं, क्योंकि उनका हृदय दया से परिपूर्ण होता है।
इतने घोर पापी दोनों भाई जगाई-मधाई के ऊपर नित्यानन्द जी की कृपा हो गयी, उनके हृदय में इन दोनों के उद्धार के निमित्त चिन्ता हो उठी, मानों इन दोनों के पापों के अन्त होने का समय आ गया। जिस दिन इन दोनों को अवधूत नित्यानन्द और महात्मा हरिदास जी के दर्शन हुए, उसी दिन इनके शुभ दिनों का श्रीगणेश हो गया। संयोगवश अब उन्होंने उसी मुहल्ले में अपना डेरा डाला, जहाँ महाप्रभु का घर था। मुहल्ले के सभी लोग डर गये। एक-दूसरे से कहने लगे- ‘अब इन कीर्तन वालों पर आपत्ति आयी। ये दोनों राक्षस भाई जरूर कीर्तन करने वालो से छेड़खानी करेंगे।’ कोई-कोई कीर्तन-विरोधी कहने लगे- ‘अजी! अच्छा है। ये कीर्तन वाले रात्रि भर सोने ही नही देते थे। इनके कोलाहल के कारण रात्रि में नींद ही नही आती। अच्छा हैं, अब सुख से तो सो सकेंगे।’ कोई-कोई अपने अनुमान से कहते- ‘बहुत सम्भव है, अब ये कीर्तन करने वाले लोग स्वयं ही कीर्तन बंद कर देंगे और न बंद करेंगे तो अपने किये का मजा चखेंगे।’ इस प्रकार लोग भाँति-भाँति के तर्क करने लगे।
प्रभु का घर गंगा जी के समीप ही था। जिस घाट पर प्रभु स्नान करने जाते, उसी के रास्ते में इन दोनों क्रूरकर्मा भाइयों का डेरा पड़ा हुआ था। इनके डर के कारण गंगा-स्नान के निमित्त अकेला तो कोई जाता ही नहीं था। दस-बीस आदमी साथ मिलकर घाट पर स्नान करने जाते। रात्रि में तो कोई अपने घर से बाहर निकलता ही नहीं था, कारण कि ये दोनों भाई नशे में उन्मत्त होकर इधर-उधर घूमते और जिसे भी पाते, उसी पर प्रहार कर बैठते। इसलिये शाम होते ही जैसे पक्षी अपने-अपने घोंसलों में घुस जाते हैं और फिर प्रात:काल ही उसमें से निकलते हैं, उसी प्रकार उस मुहल्ले के लोग सूर्यास्त के बाद भूलकर भी घर से बाहर नहीं होते, क्योंके इनकी क्रूरता और नृशंसता से सभी लोग परिचित थे।
शाम को नियतिम रूप से भक्त संकीर्तन करते थे और कभी-कभी तो रात्रि भर संकीर्तन होता रहता था। इन दोनों के डेरा डालने पर भी संकीर्तन ज्यों-का-त्यों ही होता रहा। रात्रि में सभी भक्त एकत्रित हुए और उसी प्रकार लय एवं ध्वनि के साथ खोल, मृदंग, करताल और मजीरा आदि वाद्यों सहित भगवान के सुमधुर नामों का संकीर्तन होने लगा।
संकीर्तन की त्रितापहारी, अनन्त अघसंहारी, सुमधुर ध्वनि इन दोनों भाइयों के कानों में भी पड़ी। ये दोनों शराब के मद में तो चूर थे ही, उस कर्णप्रिय ध्वनि के श्रवणमात्र से और अधिक उन्मत्त हो गये। गर्मियों के दिन थे, बाहर अपने पलंगों पर पड़े हुए ये कीर्तन के जगत-पावनकारी रसामृत का पान करने लगे। कभी तो वे बेसुध होकर हुंकार मारने लगते, कभी पड़े-पड़े ही ‘अहा-अहा’ इस प्रकार कहने लगते। कभी भावावेश में आकर कीर्तन के लय के साथ उठकर नृत्य करने लगते। इस प्रकार ये संकीर्तन के माहात्म्य को बिना जानेही केवल उसके श्रवणमात्र से ही पागल-से हो गये। एक दिन दूर से कीर्तन की ध्वनि सुनकर ही इनके हृदय की कठोरता बहुत कुछ जाती रही। भला जिस हृदय में कर्णों के द्वारा भगवन्नाम का प्रवेश हो चुका है, वहाँ पर कठोरता रह ही कैसे सकती है? संकीर्तन श्रवण करते-करते ही ये दोनों भाई सो गये! प्रात:काल जब जगे तो इन्होंने भक्तों को घाट की ओर गंगास्नान के निमित्त जाते हुए देखा। महाप्रभु भी उधर से ही जा रहे थे। इन्होंने यह सब तो पहले ही सुन रखा था कि प्रभु ही संकीर्तन के जीवनदाता हैं। अत: प्रभु को देखते ही इन्होंने कुछ गर्वित स्वर में प्रसन्नता के साथ कहा- ‘निमाई पण्डित! रात्रि में तो बड़ा सुंदर गाना गा रहे थे, क्या ‘मंगलचण्डी’ के गीत थे? एक दिन अपने सभी साथियों के सहित हमारे यहाँ गान करो। तुम जो-जो सामग्री बताओगे वह सब हम मंगा देंगे। एक दिन जरूर हमारे यहाँ चण्डीमंगल होना चाहिये। हमें तुम्हारे गीत बहुत भले मालूम पड़ते है।’ भगवन्नाम-संकीर्तन का कैसा विलक्षण प्रभाव है! केवल अनिच्छापूर्वक श्रवण करने का यह फल है कि जो दोनों भाई किसी से सीधे बातें ही करना नहीं जानते थे, वे ही महाप्रभु से अपने यहाँ गायन करने की प्रार्थना करने लगे। प्रभु ने इनकी बातों का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। वे उपेक्षा करके आगे चले गये।
तीसरे पहर सभी भक्त प्रभु के घर एकत्रित हुए। सभी ने प्रभु से प्रार्थना की- ‘प्रभों! इन दोनों भाइयों का अब अवश्य ही उद्धार होना चाहिये। अब यही इनके उद्धार के निमित्त सुअवसर है। तभी लोगों को संकीर्तन का महत्त्व जान पड़ेगा एवं आपका पतितपावन और दीनबंधु नाम सार्थक हो सकेगा!’
प्रभु ने मुसकराते हुए कहा- ‘भक्तवृंद! जिनके उद्धार के निमित्त आप सब लोग इतने चिंतित हैं, जिनकी मंगल-कामना के लिये आप सभी के हृदयों में इतनी अधिक इच्छा है, उनका तो उद्धार अब हुआ ही समझो। अब उनके उद्धार में क्या देरी है? जिन्हें श्रीपाद के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हो चुका, वे पापी रह ही कैसे सकते हैं? श्रीपाद के दर्शन व्यर्थ कभी नहीं जाते। ये उनका कल्याण अवश्य करेंगे।’ प्रभु के ऐसे आश्वासन-वाक्य सुनकर भक्त अपने-अपने स्थानों को चले गये।
एक दिन रात्रि के समय नित्यानंद जी महाप्रभु के घर की ओर आ रहे थे। निताई ने जान-बूझकर, केवल उन दोनों भाइयों के उद्धार के निमित्त ही रात्रि में उधर से आने की बात सोची थी। ये धीरे-धीरे भगवन्नाम का उच्चारण करते हुए इनके डेरे के सामने होकर ही निकले। उस समय ये दोनों शराब के नशे में चूर हुए बैठे थे। नित्यानंद को रात्रि में उधर से जाते देखकर लाल आँखे किये हुए मदिरा की बेहोशी में मधाई ने पूछा- ‘कौन जा रहा है?’ नित्यानंद जी भला क्यों उत्तर देने वाले थे, वे चुप ही रहे, इस पर उसने डांटकर जोर से कहा- ‘अरे, कौन जा रहा है? बोलता क्यों नही?’
इस पर नित्यानंद जी ने निर्भिक भाव से कहा- ‘क्यो, हम है, क्या कहते हो?’ मधाई ने कहा-‘तुम कौन हो? अपना नाम बताओ और इस समय रात्रिमें कहाँ जा रहे हो?’ नित्यानंद जी ने सरलता के साथ कुछ विनोद के लहजे में कह- ‘प्रभु के यहाँ संकीर्तन करने जा रहे हैं, हमारा नाम है ‘अवधूत’।’
अवधूत नाम को सुनकर ही मधाई चिढ़ गया। उसने कहा- ‘अवधूत, अवधूत, बड़ा विचित्र नाम है। अवधूत तो नाम नहीं होता, क्यों बे बदमाश! हमसे दिल्लगी करता है?’ यह कहकर उस अविचारी मदोन्मत्तन पास में पड़े हुए एक घड़े के टुकड़े को उठाकर नित्यानंद जी के सिर में जोर से मारा। वह खपड़ा इतने जोर से निताई के सिर मे लगा कि सिर में लगते ही उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये। एक टुकड़ा निताई के माथे में भी गड़ गया। खपड़े के गड़ जाने से मस्तक से रक्त की धारा-सी बहने लगी।
नित्यानंद जी का सम्पूर्ण शरीर रक्त से लथपथ हो गया। उनके सभी वस्त्र रक्तरंजित हो गये। इस पर भी नित्यानंद जी को उसके ऊपर क्रोध नहीं आया और वे आनन्द के साथ नृत्य करते हुए भगवन्नाम का गान करने लगे। वे इनके ऊपर दशा दर्शाते हुए रो-रोकर प्रभु से प्रार्थना करने लगे-‘प्रभो! इस शरीरमें जो आघात हुआ, उसकी मुझे कुछ भी चिंता नहीं; किंतु इन ब्राह्मण-कुमारों की ऐसी दुर्दशा अब मुझसे नहीं देखी जाती। इनकी इस शोचनीय अवस्था के स्मरण से मेरा हृदय विदीर्ण हुआ जाता है। हे दयालो! अब तो इनकी निष्कृतिका उपाय बता दो।’ नित्यानंदजी को इस प्रकार प्रेम में नृत्य करते देखकर मधाई और अधिक चिढ़ गया। इस पर वह इनके ऊपर दूसरी बार प्रहार करने को उद्यत हुआ। इस पर जगाई ने उसे बीच में ही रोक दिया। मधाई की अपेक्षा जगाई कुछ कोमल प्रकृति का और दयावान् था, उसे नित्यानंदजी की इस दशा पर बड़ी दया आयी। प्रहार करने वाले पर भी क्रोध न करके वे आनन्द के सहित नृत्य कर रहे हैं और उलटे अपने अपराधी के कल्याण निमित्त प्रभु से प्रार्थना कर रहे हैं, इस बात से जगाई का हृदय पसीज उठा। उसने मधाई को राकते हुए कहा- ‘तुम यह क्या कर रहे हो? एक संयासी को बिना जाने-पूछे मार रहे हो। यह अच्छी बात नहीं है।’
लाल-लाल आँखों से चारों ओर देखते हुए मधाई ने कहा- ‘यह अपना सीधी तरह नाम-गांव ही नहीं बताता।’ सरलता के स्वर में जगाई न कहा- ‘यह परदेशी संयासी अपना नाम-गांव क्या बतावे? देखते नहीं अवधूत है। मांगकर खाता होगा, इधर-उधर पड़ा रहता होगा।’ जगाई के इस प्रकार निवारण करने पर मधाई शांत हुआ। उसने दूसरी बार नित्यानंदजी पर प्रहार नहीं किया। नित्यानंद जी आनंद में उन्मत्त हुए नृत्य कर रहे थे। माथे से रक्त का पनाला-सा बह रहा था। वहाँ की सम्पूर्ण पृथ्वी रक्त से भीग गयी थी। लोगों ने जल्दी से जाकर यह संवाद महाप्रभु को दिया। उस समय महाप्रभु भक्तों के सहित कीर्तन आरम्भ करने ही वाले थे। नित्यानंद जी के प्रहार की बात सुनकर अब इनसे नहीं रहा गया। ये नित्यानंद जी को प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। नित्यानंद जी की विपत्ति का समाचार सुनकर ये एकदम उठ पड़े और दौड़ते हुए घटनास्थल पर आये। इनके पीछे सभी भक्त भी ज्यों-के-त्यों ही उठे हुए चले आये। किसी के गले में ढोलकी लटक रही थी, किसी से मृदंग बंधा था, कोई पखावज लिये था, किसी के दोनों हाथों में करताल थी और बहुतों के हाथों में मजीरा ही थे।
प्रभु ने देखा नित्यानंद जी आनन्द के उद्रेक में प्रेम से उन्मत्त की भाँति नृत्य कर रहे हैं। उनके मस्तक से रक्त की धार बह रही है, उनका सम्पूर्ण शरीर रक्तरंजित हो रहा है। शरीर में से रक्त टप-टप नीचे टपक रहा है, उनके नीचे की सम्पूर्ण पृथ्वी रक्त के कारण लाल हो गयी है। ऐसी दशा में भगवान के सुमधुर नामों का कीर्तन कर रहे हैं। नित्यानंद जी के रक्तप्रवाह को देखकर प्रभु का खून उबलने लगा, उस समय वे अपनी सब प्रतिज्ञा भूल गये और आकाश की ओर देखकर जोरों से हुंकार मारते हुए ‘चक्र-चक्र’ इस प्रकार कहने लगे। मानो इन दोनों पापियों के संहार के निमित्त वे सुदर्शन चक्र का आहृवान कर रहे हैं।
प्रभु को इस प्रकार क्रोधविष्ट देखकर नित्यानंद जी ने उनसे विनीत भाव से कहा- प्रभो! अपनी प्रतिज्ञा स्मरण कीजिये, इन पापियों के प्रति जो आपके हृदय में क्रोध उत्पन्न हो आया है, उसे दूर कीजिये। जब आप ही पापियों के ऊपर दया न करके क्रोध करेंगे तो इनका उद्धार कैसे होगा? आप तो पापसंहारी हैं, आपका नाम तो पतितपावन है। आप तो दीनानाथ हैं। इनके बराबर दीन-हीन पतित आपको उद्धार के निमित्त कहाँ मिलेगा! प्रभो! ये पापी आपकी कृपा के पात्र हैं, ये गौर की दया के अधिकारी हैं। इनके ऊपर अनुग्रह होना चाहिये। अपने जगद्वन्द्य चरणों को मस्तकों पर रखकर इनका उद्धार कीजिये।’ निताई के ऐसी प्रार्थना करने पर भी प्रभु का क्रोध शांत नहीं हुआ। इधर प्रभु को क्रुद्ध देखकर सभी भक्त विस्मित-से हो गये। सभी आश्चर्य के साथ प्रभु के कुपित मुख की ओर संभ्रमभाव से देखने लगे। सभी को प्रतीत होने लगा कि आज संसार में महाप्रलय हो जायगा। सम्पूर्ण संसार प्रभु के प्रकोप से भस्मीभूत हो जायगा। प्रभु की ऐसी दशा देखकर कुछ भक्त अपने-आपको न रोक सके। मुरारी गुप्त आदि वीर भक्त महावीर के आवेश में आकर उन दोनों पापी भाइयों के संहार के निमित्त स्वयं उद्यत हो गये। उस समय भक्तों के हृदयों में एक प्रकार की भारी खलबली-सी मची हुई थी। उत्तेजित भक्त मण्डली को देखकर जगाई-मधाई के सभी सेवक डर के कारण थर-थर कांपने लगे। हजारों नर-नारी घटनास्थल पर आ-आकर एकत्रित हो गये। सम्पूर्ण नगर में एक प्रकार का कोलाहल-सा मच गया। नित्यानंद जी उत्तेजित हुए मुरारी गुप्त आदि भक्तों के पैरों में गिर-गिरकर उनसे शांत होने के लिये कह रहे थे। प्रभु से भी वे बार-बार शांत होने की प्रार्थना कर रहे थे। वे दोनों भाई डरे हुए-से चुपचाप खड़े थे। उन्हें कुछ सूझता ही नहीं था कि अब क्या करना चाहिये। इतने ही में उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो आकाश में से सुदर्शन चक्र उनके संहार के निमित्त उतर रहा है।
सुदर्शन चक्र के दर्शन से वे बहुत ही अधिक भयभीत हुए और डर के कारण थर-थर कांपने लगे। नित्यानंद जी ने इनकी मनोगत अवस्था को समझकर चक्र से आकाश में ही रुके रहने की प्रार्थना की और दीनभाव से पुन: प्रभु से प्रार्थना करने लगे-‘प्रभो! यदि आप ही इस युग में पापियों को दण्ड देंगे, तो फिर पापियों का उद्धार कहाँ हुआ? यह तो संहार ही हुआ। हरिदास जी को आपने आश्वासन दिया था कि हम पतितों का संहार न करके उद्धार करेंगे। समाने खड़े हुए इन दोनों पतित पातकियों का उद्धार करके आप अपने पतितपावन नाम को सार्थक क्यों नही करते? फिर दण्ड ही देना है, तो एक मधाई को ही दीजिये। जगाई ने तो आपका कोई अपराध नहीं किया। इसने तो उल्टे मधाई को प्रहार करने से निवारण किया है। दूसरी बार प्रहार करने से जगाई ने ही मधाई को रोका है। प्रभो! जगाई तो मेरी रक्षा करने वाला है, वह तो सर्वथा निर्दोष है।’
‘जगाई ने श्रीपाद की रक्षा की है, उन्हें मधाई के द्वितीय प्रहार से बचाया है’ इस बात को सुनते ही प्रभु की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। उनका सम्पूर्ण शरीर पुलकित हो उठा। प्रेम के कारण जगाई को प्रभु ने गले से लगा लिया और वे गद्गदकण्ठ से कहने लगे- ‘तुमने मेरे भाई को बचाया है, तुम मेरे भाई के रक्षक हो। तुमसे बढ़कर मेरा प्यारा और कौन हो सकता है? आओ, मेरे गले लगकर मेरे अनुजतप्त हृदय को शीतलता प्रदान करो।’ प्रभु का प्रेमालिंगन पाते ही जगाई मूर्च्छित हो गया, वह अचेत होकर प्रभु के चरणों में लोटने लगा। आज उस भाग्यवान ब्राह्मणबंधु का जन्म सफल हो गया। उसके सभी पाप क्षय हो गये। उसके हृदय में पाप-पुंजों का समूह जमे हुए हिम के समान प्रेमरूपी अग्नि की आंच पाने से पिघल-पिघलकर आँखों के द्वारा बहने लगा। प्रभु के चरणों में पड़ा हुआ जगाई जोरों के साथ फूट-फूटकर रोने लगा।
अपने भाई को इस प्रकार प्रेम में अधीर होकर रुदन करते देखकर मधाई के हृदय में भी पश्चात्ताप की ज्वाला जलने लगी। उसे भी अपने कुकृत्य पर लज्जा आने लगी। अब वह अधिक कालतक स्थिर न रह सका। आँखों में आंसू भरकर गद्गदकण्ठ से उसने कहा- ‘प्रभो! हम दोनों ही भाइयों ने मिलकर समानरूप से पाप किये है। हम दोनों ही लोकनिन्दित पात की हैं। आपने एक भाई को ही अपने चरणों की शरण प्रदान की है।
नाथ! हम दोनों को ही अपनाइये, हम दोनों की ही रक्षा कीजिये।’ यह कहते-कहते मधाई भी प्रभु के चरणों में लौटने लगा। अश्रुओं के वेग से वहाँ की सब धूलि कीचड़ बन गयी थी, वह कीचड़ दोनों भाइयों के अंगों में लिपटा हुआ था। सम्पूर्ण शरीर धूलि और कीच में सना हुआ था। नदिया के बिना तिलक के राजाओं को इस प्रकार धूलि में लोटते देखकर सभी नर-नारी अवाक रह गये। सभी लोग उन पापियों के पापों को भुलाकर उनके ऊपर दया के भाव प्रदार्शित करने लगे। अहा! नम्रता में कितना भारी आकर्षण होता है!
मधाई के ऊपर से प्रभु का रोष अभी भी नहीं गया था। उन्होंने गम्भीर स्वर में कहा- ‘मधाई! मैं तुम्हें क्षमा नहीं कर सकता। मैं अपने अपराध करने वाले के प्रति तो कभी क्रोध नहीं करता, किंतु तुमने श्रीपाद नित्यानंद जी का अपराध किया है, यदि वे तुम्हें क्षमा कर दे, तब तो तुम मेरे प्रिय हो सकते हो। जब तक वे तुम्हें क्षमा नहीं करते, तब तक तुम मेरे सामने दोषी ही हो। जाओ, नित्यानंद जी की शरण लो।’
प्रभु की ऐसी आज्ञा सुनकर मधाई अस्त-व्यस्तभाव से प्रभु के चरणों को छोड़कर नित्यानंद जी के चरणों में जाकर गिर गया और फूट-फूटकर रोने लगा। उसे अपने कुकृत्य पर बड़ी भारी लज्जा आ रही थी। उसी की ग्लानि के कारण वह अधीर होकर दहाड़ मारकर रो रहा था। उसके रुदन की ध्वनि को सुनकर पत्थर भी पसीज उठता था। चारों दिशाओंमें सन्नाटा छा गया, मानों मधाई के रुदन से द्रवीभूत होकर सभी दिशाएं रो रही हों, सभी लोग उन पापियों की ऐसी दशा देखकर अपने आपे को भूल गये। उन्हें उस क्षण कुछ पता ही नहीं चला कि हम स्वर्ग में हैं या मर्त्यलोक में। सभी गौरांग के प्रेम-प्रवाह के वशवर्ती होकर उस अभूतपूर्व दृश्य को देख रहे थे।
मधाई को नित्यानंद जी के पैरों के नीचे पड़ा देखकर नित्यानंद जी से प्रभु कहने लगे- ‘श्रीपाद! इस मधाई ने आपका अपराध किया है, आप ही इसे क्षमा कर सकते हैं, मुझमें इतनी क्षमता नहीं कि मैं आपका अपराध करने वाले को अभय प्रदान कर सकूँ। बोलो क्या कहते हो?’
अत्यंत ही दीन-भाव से नित्यानंद जी ने कहा- ‘प्रभो! यह तो आपकी सदा से ही रीति रही आयी है। आप अपने सेवकों के सिर सदा से सुयश का सेहरा बांधते आये हैं। आप इनके उद्धार का श्रेय मेरे सिर पर लादना चाहते हैं, किंतु इस बात को तो सभी जानते हैं कि पतितपावन गौर में ही ऐसे पापियों को उबारने की सामर्थ्य है।
प्रभो! मैं हृदय से कहता हूँ, मेरे हृदय में मधाई के प्रति अणुमात्र भी विद्वेष के भाव नहीं है। यदि मैंने जन्म-जन्मान्तरों में कभी भी कोई सुकृत किया हो, तो उन सबका पुण्य मैं इन दोनों भाइयों को प्रदान करता हूँ।
इतना सुनते ही प्रभु ने दौड़कर मधाई को अंक में उठा लिया और जोरों से उसका आलिंगन करते हुए कहने लगे- ‘मधाई! अब तुम मेरे अत्यंत ही प्रिय हो गये। श्रीपाद ने तुम्हें क्षमा कर दिया। उन्होंने अपने सभी पुण्य प्रदान करके तुम्हें भागवत वैष्णव बना दिया। तुम आज से मरे अन्तरंग भक्त हुए। श्रीपाद की कृपा से तुम पापरहित बन गये।’ प्रभु का प्रेमालिंगन और आश्वासन पाने से मधाई के आनन्द की सीमा न रही। वह उसी क्षण मूर्च्छित होकर प्रभु के पादपद्मों में पड़ गया। प्रभु के दोनों पैरों को पकड़े हुए नवद्वीप के सर्वेसर्वा और एकमात्र शासनकर्ता वे दोनों भाई धूलि में लोटे हुए रुदन कर रहे थे। भक्त तथा नगर के अन्य नर-नारी मन्त्रमुग्ध की भाँति खड़े हुए इस पतितोद्धार के दृश्य को देख रहे थे। इस हृदय को हिला देने वाले दृश्य से उनकी तृप्ति ही नहीं होती थी। उसी समय प्रभु ने अपने पैरों में पड़े हुए धूलिधूसरित दोनों भाइयों को उठाया और भक्त को संकीर्तन करने की आज्ञा दी।
इन दोनों पापी भाइयों की ऐसी दीनता देखकर भक्तों के हर्ष का ठिकाना नहीं रहा। वे अलग-अलग सम्प्रदाय बना-बनाकर प्रेम में उन्मत्त हुए हरिध्वनि करने लगे और जोरों से ताल और स्वरसहित कीर्तन करने लगे। नगर के सभी नर-नारी कीर्तन में सम्मिलित हुए। आज उनके लिये संकीर्तन देखने का यह प्रथम ही अवसर था। सभी भक्तों के सहित-
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
-इस महामंत्र का उचारण करने लगे। झाँझ, मृंदग और मजीरा बजने लगे, भक्त उन्मत्त होकर कीर्तन करने लगे। बीच-बीच में गौरहरि के जय-जयकरों की ध्वनि से आकाश-मण्डल गूंजने लगा। कीर्तन की ध्वनि से सभी को स्वेद, कम्प, अश्रु आदि सात्त्विक भाव होने लगे। उस समय के संकीर्तन में एक प्रकार की अद्भुत छटा दिखायी देने लगी। सभी प्रेम में पागल-से बने हुए थे। संकीर्तन करते हुए भक्तगण उन दोनों भाइयों को साथ लिये हुए प्रभु के घर पर पहुँचे।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Salvation of Jagai-Madhai
It is holy to see the saints for the saints are holy places In due course of time a holy place immediately bears fruit by the association of saintly persons
Truly one whose heart is soft, who looks at all beings with love, whose intellect is not tainted by hatred and malice, whose addiction has become to charity, such a saintly man, if with a true heart, a heinous sinner If the welfare of even a sinner is desired, then there is no doubt that he will become a pious soul. The natural desire of the Mahatmas is unfailing, if they happily look at someone, that’s all, at the same time his fleet is crossed. The association made with sages with a wrong mind is also not in vain. It has been seen that even those who have enmity with sages are blessed, if the mahatmas, who never get angry on sinners because of any crime, get angry, then everything gets destroyed, but often the mahatmas never get angry. He knows only a little, he always does good to those who do harm to him. Even when struck, they give delicious fruits like trees, because their heart is full of kindness.
Both Jagai-Madhai, who were so grave sinners, were blessed by Nityanand ji, their heart was worried about their salvation, as if the time had come for the end of their sins. The day when both of them had darshan of Avdhoot Nityanand and Mahatma Haridas ji, their auspicious days began on the same day. Coincidentally now he camped in the same locality where Mahaprabhu’s house was. All the people of the locality got scared. They started saying to each other – ‘ Now there is an objection on these kirtan people. These two demon brothers will surely molest those who do kirtan.’ Some anti-kirtan started saying – ‘Aji! It’s good. These kirtan people did not let me sleep for the whole night. Because of their uproar, one cannot sleep at night. It is good, now you will be able to sleep peacefully. Some say with their guess- ‘It is very possible, now these people who do kirtan will stop kirtan themselves and if they don’t stop then they will taste the pleasure of their actions.’ In this way people started arguing in various ways.
Prabhu’s house was near Ganga ji. On the way to the ghat where the Lord used to take bath, the camp of these two cruel Karma brothers was lying. Because of their fear, no one used to go alone to bathe in the Ganges. Ten-twenty men would go together to bathe at the ghat. No one used to come out of his house at night, because these two brothers roamed here and there in a drunken state and would attack whoever they found. That’s why just like birds enter their nests in the evening and then come out of it only in the morning, in the same way the people of that locality do not go out of the house even after sunset, because of their cruelty and cruelty. were familiar. Devotees used to perform sankirtana regularly in the evening and sometimes the sankirtana continued throughout the night. Even after both of them camped, the chanting continued as it was. All the devotees gathered in the night and in the same way chanting of the melodious names of the Lord with musical instruments like khol, mridang, kartal and majira etc. started.
Tritaphari, infinite fire-killing, melodious sound of Sankirtan fell in the ears of these two brothers as well. Both of them were intoxicated with alcohol, they became more insane just by hearing that melodious sound. It was summer, lying outside on their beds, they started drinking Rasamrit, the world-purifier of Kirtan. Sometimes they start barking senselessly, sometimes they start saying ‘aha-aha’ like this while lying down. Sometimes, in a fit of passion, he would get up and dance to the beat of the kirtan. In this way, without knowing the greatness of Sankirtan, they became insane just by hearing it. One day, listening to the sound of kirtan from a distance, the hardness of his heart went away a lot. How can hardness remain in a heart in which the name of the Lord has entered through the ears? Both these brothers fell asleep while listening to sankirtan. When he woke up in the morning, he saw the devotees going towards the ghat to bathe in the Ganges. Mahaprabhu was also going from there. He had already heard all this that GOD is the giver of life for Sankirtan. Therefore, on seeing the Lord, he said with pleasure in a proud voice – ‘Nimai Pandit! In the night he was singing a very beautiful song, were the songs from ‘Mangalchandi’? One day sing at our place along with all your friends. We will order whatever material you tell. One day we should definitely have Chandimangal here. We like your songs very much.’ What a wonderful effect of chanting the Lord’s name! The result of listening reluctantly is that both the brothers, who did not know how to talk directly to anyone, started praying to Mahaprabhu to sing at their place. The Lord did not answer anything to his words. They ignored and went ahead.
At the third o’clock all the devotees gathered at the Lord’s house. Everyone prayed to the Lord – ‘Lord! Both these brothers must now be saved. Now this is the good opportunity for their salvation. Only then people will know the importance of Sankirtan and your name Patitpavan and Deenbandhu will be meaningful.’
The Lord said with a smile – ‘ Devotees! For whose salvation all of you are so worried, for whose good wishes you all have so much desire in your hearts, understand that his salvation has now taken place. What is the delay in their salvation now? How can those who have had the good fortune of seeing Shripad remain sinners? Shripad’s darshan never goes in vain. He will definitely do their welfare.’ The devotees went to their respective places after hearing such assurances from the Lord. One day at night Nityanand ji was coming towards Mahaprabhu’s house. Nitai deliberately thought of coming from there in the night only for the sake of the salvation of those two brothers. While chanting the name of God slowly, they came out in front of their camp. At that time both of them were sitting drunk. Seeing Nityananda passing away in the night, Madhai asked, ‘Who is going?’ Hey, who’s leaving? Why doesn’t he speak?
On this, Nityanand ji said fearlessly – ‘Why, we are, what do you say?’ Madhai said – ‘Who are you? Tell your name and where are you going at this time of night?’ Nityanand ji said in a tone of humor with simplicity- ‘We are going to do sankirtan at the Lord’s place, our name is ‘Avadhoot’.
Madhai got irritated on hearing the name Avdhoot. He said- ‘Avdhoot, Avdhoot, it is a very strange name. Avdhoot is not a name, why you scoundrel! Does he play pranks on us?’ Saying this, that thoughtless Madonmattan picked up a piece of a pitcher lying nearby and hit Nityananda ji hard on the head. That rag hit Nitai’s head with such force that it broke into pieces as soon as it hit her head. A piece also got stuck in Nitai’s forehead. A stream of blood started flowing from the head due to the falling of the rag.
Nityanand ji’s whole body got soaked in blood. All his clothes were stained with blood. Even on this, Nityanand ji did not get angry with him and he started singing the name of God while dancing with Anand. Depicting the condition on them, they started praying to the Lord crying – ‘Lord! I don’t care about the trauma that happened in this body; But I do not see such plight of these Brahmin-kumars now. My heart breaks when I remember their pitiable condition. O kind! Now tell me the remedy for their destruction. Seeing Nityanandji dancing in love like this, Madhai became more irritated. On this, he got ready to attack them for the second time. On this Jagai stopped him midway. Jagai was kinder and kinder than Madhai, he felt great pity for Nityanandji’s condition. He is dancing with joy without getting angry even at the one who attacked him and on the contrary, he is praying to the Lord for the welfare of his offender, because of this Jagai’s heart ached. He shook Madhai and said- ‘What are you doing? You are killing a monk without knowing or asking. that is not good.’ Looking around with red eyes, Madhai said- ‘He doesn’t even tell his name and village in a straight way.’ In a voice of simplicity, he did not wake up and said – ‘What should this foreigner monk tell his name and village? Do not see that he is an avadhoot. He must have been begging for food, he must have been lying here and there.’ Madhai calmed down after Jagai’s redress in this way. He did not attack Nityananda a second time. Nityanand ji was dancing in ecstasy. A stream of blood was flowing from his forehead. The whole earth there was drenched with blood. People quickly went and gave this dialogue to Mahaprabhu. At that time Mahaprabhu was about to start the kirtan along with the devotees. Hearing about Nityanand ji’s attack, he could not bear it anymore. He loved Nityanand ji more than his life. Hearing the news of Nityanand ji’s calamity, he immediately got up and came running to the spot. All the devotees followed him as they stood up. Some had a dholki hanging around their neck, some had a mridang tied to it, some had a pakhavaj, some had a kartal in both their hands and many had majeera in their hands.
The Lord saw Nityanand ji dancing like a madman with love in the ecstasy of Ananda. A stream of blood is flowing from his head, his whole body is getting stained with blood. Blood is dripping down from the body, the whole earth beneath them has turned red because of the blood. In such a condition, chanting the melodious names of the Lord. Seeing the blood flow of Nityanand ji, the Lord’s blood started boiling, at that time he forgot all his vows and started shouting ‘Chakra-Chakra’ while looking at the sky. As if he is invoking the Sudarshan Chakra to kill these two sinners.
Seeing the Lord so angry, Nityanand ji humbly said to him – Lord! Remember your promise, remove the anger that has arisen in your heart towards these sinners. When you are angry with sinners without showing mercy, how will they be saved? You are the destroyer of sins, your name is the Purifier. You are Dinanath. Where else would you find a degenerate person equal to him for upliftment? Lord! These sinners deserve your grace, they deserve the mercy of Gaur. There should be grace on them. Save them by placing your worldly feet on their heads.’ The Lord’s anger did not calm down even after Nitai prayed like this. Here all the devotees were amazed to see the Lord angry. With astonishment, everyone started looking at the angry face of the Lord with confusion. Everyone started feeling that today there will be a great catastrophe in the world. The whole world will be reduced to ashes by the wrath of the Lord. Seeing such condition of the Lord, some devotees could not stop themselves. Murari Gupta etc. being infatuated with the ardor of Mahavira, the devotee of Mahavir, himself engaged himself in the cause of the destruction of those two sinful brothers. At that time there was a great disturbance in the hearts of the devotees. Seeing the agitated devotees, all the servants of Jagai-Madhai started trembling with fear. Thousands of men and women came and gathered at the spot. There was an uproar in the whole city. Nityanand ji was prostrated at the feet of Murari Gupta etc. devotees asking them to calm down. He was also praying to the Lord again and again to calm down. Both those brothers stood silently in fear. He didn’t know what to do now. In the meantime, it seemed to him as if the Sudarshan Chakra was descending from the sky to kill him.
At the sight of Sudarshan Chakra, he was very frightened and started trembling due to fear. Realizing his occult state, Nityanand ji prayed to the chakra to stay in the sky and with humility again started praying to the Lord – ‘Lord! If you are the one who will punish the sinners in this age, then where is the salvation of the sinners? This is just destruction. You had given assurance to Haridas ji that we will save the fallen by not killing them. Why don’t you make your name of the Purifier meaningful by saving these two fallen sinners standing in front of you? Then if you want to punish, then give it to a midwife only. Jagai did not commit any crime against you. On the contrary, he has prevented from hitting Madhai. It was Jagai who prevented Madhai from striking for the second time. Lord! Jaagi is going to protect me, he is completely innocent.
‘Jagai has protected Shripad, saved him from the second attack of Madhai’, the Lord’s happiness knew no bounds after hearing this. His whole body was thrilled. Because of love, the Lord embraced Jagai and he started saying with a loud voice – ‘ You have saved my brother, you are my brother’s savior. Who can be more dear to me than you? Come, hug me and give coolness to my restless heart.’ Jai fainted as soon as he received the Lord’s love hug, he fainted and started returning at the feet of the Lord. Today the birth of that lucky Brahmin brother has been successful. All his sins were destroyed. The group of sins in his heart started flowing through the eyes after getting the flame of love like frozen snow. Jagai, lying at the feet of the Lord, started crying bitterly.
Seeing her brother crying impatiently in love like this, the flame of repentance started burning in Madhai’s heart too. He too felt ashamed of his misdeed. Now he could not remain stable for long. With tears in his eyes, he said in a loud voice – ‘Lord! Both of us brothers together have sinned equally. Both of us belong to the censure of the people. You have given refuge to your feet only to one brother.
God! Adopt both of us, protect both of us.’ Saying this, Madhai also started returning to the feet of the Lord. Due to the speed of tears, all the dust there had become mud, that mud was wrapped in the organs of both the brothers. The whole body was covered in dust and mud. All men and women were speechless to see Tilak’s kings rolling in the dust like this without Nadia. Everyone forgot the sins of those sinners and started showing kindness towards them. Aha! What a great attraction there is in humility! The anger of the Lord had not yet gone over Madhai. He said in a serious voice – ‘Madhai! I can’t forgive you. I never get angry with the one who wrongs me, but you have wronged Shripad Nityanand ji, if he forgives you, then you can be dear to me. Until he forgives you, you are still guilty before me. Go, take refuge in Nityanand ji.’
Hearing such an order from the Lord, Madhai left the feet of the Lord in disarray and fell at the feet of Nityanand ji and started crying bitterly. He was feeling very ashamed of his misdeed. Due to his guilt, he was crying out of patience. Hearing the sound of his cry, even the stone used to sweat. There was silence in all four directions, as if all the directions were crying after being liquefied with the cry of Madhai, everyone forgot themselves after seeing such a condition of those sinners. They didn’t know at that moment whether they were in heaven or in the world of death. Everyone was watching that unprecedented scene being subdued by the flow of love of Gauranga.
Seeing Madhai lying under the feet of Nityanand ji, the Lord said to Nityanand ji – ‘Shripad! This Madhai has committed a crime against you, only you can forgive him, I do not have the capacity to provide protection to the person who committed your crime. Tell me, what do you say? With great humility, Nityanand ji said – ‘Lord! This has always been your custom. You have always been tying the head of Suyash on the heads of your servants. You want to put the credit of their salvation on my head, but everyone knows that only the Holy Gour has the power to uplift such sinners.
Lord! I say from my heart, I do not have even an iota of enmity towards Madhai in my heart. If I have ever done any good in births, I give all those good deeds to these two brothers.
On hearing this, the Lord ran and lifted Madhai by the arm and hugged him tightly and said- ‘Madhai! Now you have become very dear to me. Shripad has forgiven you. He made you a Bhagwat Vaishnav by giving all his virtues. From today onwards you have become an intimate devotee. By the grace of Shripad you became sinless. There was no limit to Madhai’s joy after getting the Lord’s love and assurance. He fainted at the same moment and fell at the feet of the Lord. Holding both the feet of the Lord, the Sarvesarva and the only ruler of Navadvipa, both the brothers were crying lying in the dust. The devotees and other men and women of the city were watching the scene of this Patitodhar standing like enchanted. He was never satisfied with this heart-wrenching sight. At the same time the Lord raised both the dusty brothers lying at His feet and ordered the devotee to perform sankirtan.
Seeing such humility of these two sinful brothers, the joy of the devotees knew no bounds. Forming different sects, they became mad in love and started chanting Haridhwani and chanting loudly with rhythm and voice. All the men and women of the city participated in the kirtan. Today, this was the first opportunity for him to see Sankirtan. With all the devotees
Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare. Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare.
Started chanting this great mantra. The cymbals, mrindag and majira started playing, the devotees started chanting frantically. In between, the sky started echoing with the sound of the hail of Gaurahari. Due to the sound of kirtan, everyone started feeling sattvik feelings like sweat, trembling, tears etc. At that time, a kind of wonderful shade started appearing in the sankirtan. Everyone was madly in love. While doing sankirtan, the devotees reached the Lord’s house taking those two brothers with them.
respectively next post [65] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]