।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
जगाई-मधाई का पश्चात्ताप
न चाराधि राधाधवो माधवो वा
न वापूजि पुष्पादिभिश्चन्द्रचूड:।
परेषां धने धन्धने नीतकालो
दयालो यमालोकने क: प्रकार:।।
जो हृदय पाप करते-करते मलिन हो जाता है, उसमें पश्चात्ताप की लपट कुछ असर नहीं करती। जिस प्रकार अत्यन्त कालें वस्त्र में स्याही का दाग प्रतीत नहीं होता, जो वस्त्र जितना ही स्वच्छ होगा, उसमें मैल का दाग भी उतना ही अधिक प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होगा। इसी प्रकार पश्चात्ताप की ज्वाला स्वच्छ और सरल हृदयों में ही अधिक उठा करती है। जो जितना ही अधिक निष्पाप होगा, जिसने अपने पापों को समझकर उनसे सदा के लिये मुंह मोड़ लिया होगा, उसे अपने पूर्वकृत कुकर्मों पर उतना ही अधिक पश्चात्ताप होगा और वह पश्चात्ताप ही उसे प्रभु के पादपद्मों तक पहुँचाने में सहायक बन सकेगा। पाप करने के पश्चात जो उसके स्मरण से हृदय में एक प्रकार का ताप या दु:ख होता है, उसे ही पश्चात्ताप कहते हैं। जिसे अपने कुकृत्यों पर दु:ख नहीं, जिसे अपने झूठ और अनर्थ वचनों का पश्चात्ताप नहीं, वह सदा इन्द्रियलोलुप संसारी योनियों में घूमने वाला नारकीय जीव ही बना रहेगा। उसकी निष्कृति का उपाय प्रभु कृपा करें तब भले ही हो सकता है। पश्चात्ताप हृदय के मल को धोकर उसे स्वच्छ बना देता है। पश्चात्ताप दुष्कर्मों की सर्वोत्तम ओषधि है, पश्चात्ताप प्राणियों को परम पावन बनाने के लिये रसायन है। पश्चात्ताप संसार-सागर में डूबते हुए पुरुष का एकमात्र सहारा है। वे पुरुष धन्य हैं, जिन्हें अपने पापों और दुष्कर्मों के लिये पश्चात्ताप हुआ करता है।
जगाई-मधाई दोनों भाइयों की निताई और निमाई इन दोनों भाइयों की अहैतु की कृपा से ऐसी कायापलट हुई कि इन्हें घरबार, कुटुम्ब-परिवार कुछ भी अच्छा नहीं लगता। ये सब कुछ छोड़कर सदा श्रीवास पण्ड़ित के ही घर में रहकर श्रीकृष्ण-कीर्तन और भगवन्नाम का जप करने लगे। ये नित्यप्रति चार बजे उषाकाल में उठकर गंगा स्नान करने जाते और नियम से रोज दो लाख हरिनाम का जप करते। इनकी आँखे सदा अश्रुओं से भीगी ही रहतीं। पुरानी बातों को याद कर-करके ये दोनों भाई सदा अधीर-से ही बने रहते। इन्हें खाना-पीना या किसी से बातें करना विष का समान जान पड़ता। ये न तो किसी से बोलते और न कुछ खाते ही थे, दिन-रात आँखों से आंसू ही बहाते रहते। श्रीवास इनसे खाने के लिये बहुत अधिक आग्रह करते, किंतु इनके गले के नीचे ग्रास उतरता ही नहीं। नित्यानन्द जी समझा-समझाकर हार गये, किंतु इन्होंने कुछ खाना स्वीकार ही नहीं किया। तब नित्यानन्दजी प्रभु को बुला लाये। प्रभु ने अपना कोमल कर इन दोनों की पीठपर फेरते हुए कहा- ‘भाइयों! तुम्हारें सब पाप तो मैंने ले लिये। अब तुम निष्पाप होकर भी भोजन क्यों नहीं करते? क्या तुमने मुझे सचमुच में अपने पाप नहीं दिये या मेरे ही ऊपर तुम्हारा विश्वास नहीं है।’
हाथ जोडे़ हुए अत्यन्त दीनता के साथ इन दोनों ने कहा- ‘प्रभो! हमें आपके ऊपर पूर्ण विश्वास है, हम अपने पापों के लिये नहीं रो रहे हैं, यदि हमें पापों का फल भोगना होता, तब तो परम प्रसन्नता होती, हमें तो आपके अहैतु की कृपा के ऊपर रुदन आता है। आपने हम-जैसे पतित और नीचों के ऊपर जो इतनी अपूर्व कृपा की है, उसका रह-रहकर स्मरण होता है और रोकने पर भी हमारे अश्रु नहीं रुकते।’ प्रभु ने इन्हें भाँति-भाँति से आश्वासन दिलाया। जगाई तो प्रभु के आश्वासन से थोड़ा-बहुत शान्त भी हुआ, किंतु मधाई का पश्चात्ताप कम न हुआ। उसे रह-रहकर वह घटना याद आने लगी, जब उसने निरपराध नित्यानन्द जी के मस्तक पर निर्दयता के साथ प्रहार किया था। इसके स्मरण मात्र से उसके रोंगटे खडे़ हो जाते और वह जोरों के साथ रुदन करने लगते। ‘हाय! मैंने कितनी बड़ी निचता की थी। एक महापुरुष को अकारण ही इतना भारी कष्ट पहुँचाया। यदि उस समय भगवान का सुदर्शनचक्र आकर मेरा सिर काट लेता या नित्यानन्द जी ही मेरा वध कर डालते तो मैं कृतकृत्य हो जाता। वध करना या कटुवाक्य कहना तो अलग रहा, वे महामहिम अवधूत तो उलटे मेरे कल्याण के निमित्त प्रभु से प्रार्थना ही करते रहे और प्रसन्नचित्त से भगवन्नाम का कीर्तन करते हुए हमारा भला ही चाहते रहे। इस प्रकार वह सदा इसी सोच में रहता।
एक दिन एकान्त में मधाई ने जाकर श्रीपाद नित्यानन्द जी ने चरण पकड़ लिये और रोते-रोते प्रार्थना की- ‘प्रभो! मैं अत्यन्त ही नीच और पामर हूँ। मैंने घोर पाप किये हैं। उन सब पापों को तो भुला भी सकता हूँ। किंतु आपके ऊपर जो प्रहार किया था, वह तो भूलाने से भी नहीं भूलता। जितना ही उसे भुलाने की चेष्टा करता हूं, उतना ही वह मेरे हृदय में और अधिक भीतर गड़ता जाता है। इसकी निष्कृतिका का मुझे कोई उपाय बताइये। जब तक आप इसके लिये मुझे कोई उपाय न बतावेंगे, तब तक मुझे आन्तरिक शान्ति कभी भी प्राप्त न हो सकेगी।’
मधाई की बात सुनकर नित्यानन्द जी ने कहा- ‘भाई! मैं तुमसे सत्य-सत्य कहता हूं, मेरे मन में तुम्हारें प्रति लेशमात्र भी किसी प्रकार का दुर्भाव नहीं। मैंने तो तुम्हारे ऊपर उस समय भी क्रोध नहीं किया था। यदि तुम्हारे हृदय में दु:ख है तो इसके लिये तप करो। तप से ही सब प्रकार के संताप नष्ट हो जाते हैं और तप से ही दु:ख, भय, शोक तथा मन:क्षोभ आदि सभी विकार दूर हो जाते हैं। तपस्वी भक्त ही यथार्थ में भगवन्नाम का अधिकारी होता है। तुम गंगा जी का एक सुन्दर घाट बनवा दो, जिस पर सभी नर-नारी स्नान किया करें और तुम्हें शुभाशीर्वाद दिया करें। तुम वहीं रहकर अमानी तथा नम्र बनकर तप करते हुए निवास करो।‘
नित्यानन्द प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके मधाई ने स्वयं अपने हाथों से परिश्रम करके गंगा जी का एक सुन्दर घाट बनाया। उसी पर एक कुटी बनाकर वह रहने लगा। वहाँ घाट पर स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध, मूर्ख-पण्ड़ित, चाण्डाल-पतित जो भी स्नान करने आता, मधाई उसी के चरण पकड़कर अपने अपराधों के लिये क्षमा-याचना करता। वह रोते-रोते कहता- ‘हमने जानमें, अनजान में आपका कोई भी अपराध किया हो, हमारे द्वारा आपको कभी भी कैसा भी कष्ट हुआ हो, उसके लिये हम आपके चरणों में नम्र होकर क्षमा-याचना करते हैं।’ सभी उसकी इस नम्रता को देखकर रोने लगते और उसे गले से लगाकर भाँति-भाँति के आशीर्वाद देते।
शास्त्रों में बताया है, जिसे अपने पापों पर हृदय से पश्चात्ताप होता है, उसके चौथाई पाप तो पश्चात्ताप करते ही नष्ट हो जाते हैं। यदि आपके पापकर्मों को लोगों के सामने खूब प्रकट कर दे तो आधे पाप प्रकाशित करने से नष्ट हो जाते हैं और जो पापियों के पापों को अपने मन की प्रसन्नता के लिये कथन करते हैं, चौथाई पाप उनके ऊपर चले जाते हैं। इस प्रकार पाप करने वाला पश्चात्ताप से तथा लोगों के सामने अमानी बनकर सत्यता के साथ पाप प्रकट करने से निष्पाप बन जाता है।
इस प्रकार मधाई में दीनता और महापुरुषों की अहैतु की कृपा से भगवद्भक्तों के सभी गुण आ गये। भगवद्भक्त शीत, उष्ण आदि द्वन्द्वों को सहन करने वाले, सभी प्राणियों के ऊपर करुणा के भाव रखने वाले, सभी जीवों के सुहृद्, किसी से शत्रुता न करने वाले, शान्त तथा सत्कर्मों का सदा करते रहने वाले होते हैं।[1] वे विषय-भोगों की इच्छा भूलकर भी कभी नहीं करते। उनमें सभी गुण आप-से-आप ही आ जाते हैं। क्यों न आवें, भगवद्भक्ति का प्रभाव ही ऐसा है। हृदय में भगवद्भक्ति का संचार होते ही सम्पूर्ण सद्गुण आप-से-आप ही भगवद्भक्त के पास आने लगते हैं। जैसा कि श्रीमद्भागवत में कहा है-
यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिंचना
सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुरा:।
हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा
मनोरथेनासति धावतो बहि:।।[2]
इस प्रकार थोडे़ ही दिनों में मधाई की भगवद्भक्ति की दूर-दूर तक ख्याति हो गयी। लोग उसके पुराने पापों को ही नहीं भूल गये, किंतु उसके पुराने मधाई नाम का भी लोगों को स्मरण नहीं रहा। मधाई अब ‘ब्रह्मचारी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये। अहा! भगवद्भक्ति मे कितनी भारी अमरता है? भगवन्नाम पापों की क्षय करने की कैसी अचूक ओषधि है? इस रसायन के पान करने से पापी-से-पापी भी पुण्यात्मा बन सकता है। नवद्वीप में ‘मधाईघाट’ आजतक भी उस महामहिम परम भागवत मधाई के नाम को अमर बनाता हुआ भगवान के इस आश्वासन-वाक्य का उच्च स्वर से निर्घोष कर रहा है-
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:।।
चाहे कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, उसने चाहे सभी पापों का अन्त ही क्यों न कर डाला हो, वह भी यदि अनन्य होकर-और सभी आश्रय छोड़कर एकमात्र मेरे में ही मन लगाकर मेरा ही स्मरण-ध्यान करता है तो उसे सर्वश्रेष्ठ साधु ही समझना चाहिये। क्योंकि उसकी भलीभाँति मुझमें ही स्थिति हो चुकी है।
क्रमशः अगला पोस्ट [67]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram wake-up-madhai’s repentance
Not Charadhi Radhadhava or Madhava He did not worship the moon with flowers and other objects The time spent in others’ wealth and business What is the kind of merciful Yama-looking?
The flame of repentance has no effect on the heart which becomes impure by committing sins. Just as an ink stain is not visible on a very dark cloth, the cleaner the cloth, the more clearly the stain of dirt will be visible in it. Similarly, the flame of repentance rises only in clean and simple hearts. The more sinless one is, the one who has turned away from his sins after understanding them forever, the more he repents for his past misdeeds and that repentance alone can help him reach the feet of the Lord. After committing a sin, the kind of heat or sorrow that is felt in the heart by remembering it, that is called repentance. The one who doesn’t feel sorry for his misdeeds, who doesn’t repent for his lies and bad words, he will always remain a hellish creature wandering in worldly vaginas. It can be possible only if God blesses him with a solution. Repentance washes away the filth of the heart and makes it clean. Repentance is the best medicine for misdeeds, repentance is the chemical to make the living beings supremely pure. Repentance is the only support of a man drowning in the world-ocean. Blessed are those men who repent for their sins and misdeeds.
Nitai and Nimai of both Jagai-Madhai brothers have undergone such a metamorphosis by the grace of Ahaitu that they do not like anything in their home, family and family. Leaving all this, he always stayed in the house of Srivasa Pandit and started chanting Shri Krishna-Kirtan and Bhagavannam. He used to wake up at four o’clock in the morning every day and go to bathe in the Ganges and chant two lakh Harinam daily as a rule. His eyes were always wet with tears. Remembering old things, these two brothers always remained impatient. Eating, drinking or talking to anyone seemed like poison to them. He neither spoke to anyone nor used to eat anything, day and night he used to shed tears from his eyes. Shrivas used to request him a lot to eat, but the grass does not go down his throat. Nityanand ji was defeated after explaining, but he did not accept any food at all. Then Nityanandji called the Lord. Lord softened himself and turned on the back of both of them and said- ‘Brothers! I have taken all your sins. Now why don’t you eat even though you are sinless? Haven’t you really given me your sins or don’t you have faith in me.’
With folded hands, with utmost humility, both of them said – ‘Lord! We have full faith in you, we are not crying for our sins, if we had to suffer the consequences of our sins, then we would have been extremely happy, we cry for your causeless grace. The immense kindness you have shown to the downtrodden and the lowly like us, is constantly remembered and even after stopping, our tears do not stop.’ The Lord assured them in various ways. When he woke up, he calmed down a little with the assurance of the Lord, but Madhai’s remorse did not subside. He started remembering that incident, when he had mercilessly hit the head of innocent Nityanand ji. Just remembering it would make his hair stand on end and he would start crying loudly. ‘Oh! What a great humility I had done. A great man was caused so much trouble without any reason. If God’s Sudarshanchakra had come and cut my head at that time or Nityanand ji had killed me, I would have been grateful. It was different to kill or to say harsh words, on the contrary, that great Avdhoot kept on praying to the Lord for my welfare and wanted our good while singing the name of God with a happy heart. In this way he would always remain in this thinking.
One day Madhai went in solitude and took Shripad Nityanand ji’s feet and prayed while crying – ‘Lord! I am very lowly and palmer. I have committed grave sins. I can even forget all those sins. But the attack that was done on you, he does not forget even by forgetting. The more I try to forget it, the more it sinks deeper into my heart. Tell me some remedy for its neutrality. Unless you tell me some remedy for this, I will never be able to attain inner peace.’
After listening to Madhai, Nityanand ji said – ‘Brother! I tell you the truth, I do not have any kind of malice towards you in my mind. I was not angry with you even at that time. If you have sorrow in your heart, do penance for it. All kinds of anger are destroyed by penance and by penance only all the disorders like sorrow, fear, grief and mental disturbance etc. go away. Only the ascetic devotee is entitled to the Lord’s name in reality. You get a beautiful ghat made of Ganga ji, on which all men and women can bathe and bless you. You stay there and do penance by being humble and humble.
Following the orders of Nityanand Prabhu, Madhai himself made a beautiful ghat of Ganga ji by working hard with his own hands. He started living by making a hut on it. There, on the ghat, whoever came to bathe, woman-man, child-old, fool-scholar, chandal-fallen, Madhai would apologize for his crimes by holding his feet. He used to say while crying- ‘We have committed any crime against you knowingly or unknowingly, for whatever pain we have ever caused you, we humbly apologize at your feet.’ Seeing this, he started crying and hugging him and giving him many blessings.
It is said in the scriptures, one who repents from his heart for his sins, one-fourth of his sins get destroyed as soon as he repents. If you reveal your sinful deeds in front of the people, then half of the sins are destroyed by publishing them and those who narrate the sins of the sinners for the pleasure of their mind, a quarter of the sins go on them. In this way, the sinner becomes sinless by repenting and by revealing the sin with the truth by being honest in front of the people.
In this way Madhai acquired all the virtues of the devotees of the Lord by the grace of humility and the causelessness of great men. Devotees of the Lord are the ones who tolerate the dualities of heat and cold, who have compassion for all living beings, who are friendly to all living beings, who do not have enmity with anyone, who are always peaceful and always do good deeds.[1] They never desire for pleasures even by mistake. All the qualities come to him automatically. Why not come, such is the effect of devotion to the Lord. As soon as there is communication of Bhagavad Bhakti in the heart, all the virtues automatically start coming to the devotee of Bhagavad. As it is said in Srimad Bhagwat-
He who has unconditional devotion to the Lord The gods are there with all their virtues Where is the great virtue of a devotee of Harava? Running outside without desire.
In this way, within a few days, Madhai’s devotion to God became famous far and wide. People not only forgot his old sins, but people also did not remember his old name Madhai. Madhai now became famous by the name of ‘Brahmachari’. Aha! How great is immortality in devotion to the Lord? What an infallible medicine is the Lord’s name to destroy sins? By drinking this chemical, even the worst of sinners can become virtuous. ‘Madhaighat’ in Navadweep even today, making the name of that greatness Param Bhagwat Madhai immortal, is declaring this assurance-sentence of God in a loud voice-
Even if the wicked worships Me exclusively. He should be considered a saint for he has made the right decision.
No matter how great a sinner he may be, no matter how he may have destroyed all his sins, if he remembers and meditates only on Me, leaving all the shelters alone, then he is the best sage. It should be understood. Because its condition has been well established in me.
respectively next post [67] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]