।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
श्रीकृष्ण–लीलाभिनय
कवचिद रूदति वैकुण्ठचिंतासबलचेतन:।
क्वचिद्धसति तच्चिन्ताह्लाद उद्गायति क्वचित्।।
नदति क्वचिदुत्कण्ठो विलज्जो नृत्यति क्वचित्।
क्वचित्तद्भावनायुक्तस्तन्मयोऽनुचकार ह।।
यदि एक शब्द में कोई हमसे भक्त की परिभाषा पूछे तो हम उसके सामने ‘लोकबाह्म’ इसी शब्द को उपस्थित कर देंगे। इस एक ही शब्द में भक्त-जीवन की, भक्तिमार्ग के पवित्र पथ के पथिक की पूरी परिभाषा परिलक्षित हो जाती है। भक्तों के सभी कार्य अनोखे ही होते हैं। उन्हें लोक की परवा नहीं। बालकों की भाँति वे सदा आनन्द में मस्त रहते हैं, उन्हें रोने में भी मजा आता है और हंसने में भी आनन्द आता है। वे अपने प्रियतम की स्मृति में सदा बेसुध-से बने रहते हैं। जिस समय उन्हें कोई उनके प्यारे प्रीतम की दो-चार उलटी-सीधी बातें सुना दे, अहा, तब तो उनको आनन्द का कहना ही क्या है? उस समय तो उनके अंग-प्रत्यंगों में सभी सात्त्विक भावों का उदय हो जाता है। यथार्थ स्थिति का पता तो उसी समय लगता है। आइये, प्रेमावतार श्रीचैतन्य के शरीर में सभी भक्तों के लक्षणों का दर्शन करें।
एक दिन श्री वासपण्डित के घर में प्रभु ने भावावेश में आकर ‘वंशी-वंशी’ कहकर अपनी वही पुरानी बांस की बांसुरी मांगी। कुछ हंसते हुए श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘यहाँ बांसुरी कहा? आपकी बांसुरी तो गोपिकाएँ हर ले गयी।’ बस, इतना सुनना था कि प्रभु प्रेम में विह्वल हो गये, उनके सम्पूर्ण अंगों में सात्त्विक भावों का उद्दीपन होने लगा। वे गद्गदकण्ठ से बार-बार श्रीवास पण्डित कहते- ‘हाँ, सुनाओ। कुछ सुनाओ। वंशी की लीला सुनाते क्यों नही? उस बेचारी पोले बांस की बांसुरी ने उन गोपिकाओं का क्या बिगाड़ा था, जिससे वे उसे हर ले गयीं। पण्डित! तुम मुझे उस कथा-प्रसंग को सुनाओं।’ प्रभु को इस प्रकार आग्रह करते देखकर श्रीवास कहने लगे- ‘आश्विन का महीना था, शरद-ॠतु थी। भगवान निशानाथ अपनी सम्पूर्ण कलाओं से उदित होकर आकाशमण्डल को आलोकमय बना रहे थे। प्रकृति शांत थी, विहंगवृंद अपने-अपने घोंसलों में पड़े शयन कर रहे थे। वृंदावन की निकुंजों में स्तब्धता छायी हुई थी। रजनी की नीरवता की नाश करती हुई यमुना अपने नीले रंग के जल के साथ हुंकार करती हुई धीरे-धीरे बह रही थी। उसी समय मोहन की मनोहर मुरली की सुरीली तान गोपिकाओं के कानों में पड़ी।’ बस, इतना सुनना था कि प्रभु पछाड़ खाकर भूमि पर गिर पड़े और आँखों से अविरल अश्रु बहाते हुए श्रीवास पण्डित से कहने लगे- ‘हाँ, फिर क्या हुआ? आगे कहो। कहते क्यों नहीं? मेरे तो प्राण उस मुरली की सुरीली तान को सुनने के लिये लालायित हो रहे हैं।’
श्रीवास फिर कहने लगे- ‘उस मुरली की ध्वनि जिसके कानों में पड़ी, जिसने वह मनमोहनी तान सुनी, वही बेसुध हो गयी। सभी अकी-सी, जकी-सी, भूली-सी, भटकी-सी हो गयीं। उन्हें तन-बदन की तनिक भी सुधि न रही। उस समय-
निशम्य गीतं तदनंगवर्धनं
व्रजस्त्रिय: कृष्णगृहीतमानसा:।
आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमा:
स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डला:।।[1]
‘उस अनंगवर्धन करने वाले मुरली के मनोहर गान को सुनकर जिनके मन को श्रीकृष्ण ने अपनी ओर खींच लिया है, ऐसी उन गोकुल की गोपियों ने सापत्न्य-भाव से अपने अनेकों उद्योग को एक-दूसरी पर प्रकट नहीं किया। वे श्रीकृष्ण की उस जगन्मोहन तान में अधीन हुई जिधर से वह ध्वनि सुनायी पड़ी थी, उसी को लक्ष्य करके जैसे बैठी हुई थीं वैसे ही उठकर चल दीं। उस समय जाने की शीघ्रता के कारण उनके कानों के हिलते हुए कमनीय कुण्डल बड़े ही सुंदर मालूम पड़ते थे।‘
जो गौ दुह रही थी वह दुहनी को वहीं पटककर चल दी, जिन्होंने दुहने के लिये बछड़ा छोड़ दिया था, उन्हें उसे बांधन तक की भी सुध न रही। जो दूध औटा रही थीं वे उसे उफनता हुआ ही छोड़कर चल दीं। माता पुत्रों को फेंककर, पत्नी पतियों की गोद में से निकलकर, बहनें भाइयों को खिलाते छोड़कर उसी ओर को दौड़ने लगीं। श्रीवास कहते जाते थे, प्रभु भावावेश में सुनते जाते थे। दोनों ही बेसुध थे। इस प्रकार श्रीकृष्ण-कथा कहते-कहते ही सम्पूर्ण रात्रि बीत गयी। भगवान भुवनभास्कर भी घर के दूसरी ओर छिपकर इन लीलाओं का आस्वादन करने लगे। सूर्य के प्रकाश को देखकर प्रभु को कुछ बाह्यज्ञान हुआ। उन्होंने प्रेमपूर्वक श्रीवास पण्डित का जोरों से आलिंगन करते हुए कहा- ‘पण्डित जी! आज आपने हमें देवदुर्लभ रस का आस्वादन कराया। आज आपके श्रीमुख से श्रीकृष्ण-लीलाओं के श्रवण से मैं कृतकृत्य हो गया।’ इतना कहकर प्रभु नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिये चले गये।
दूसरे दिन प्रभु ने सभी भक्तों के सहित परामर्श किया कि सभी भक्त मिलकर श्रीकृष्ण-लीला का अभिनय करें। स्थान का प्रश्न उठने पर प्रभु ने स्वयं अपने मौसा पं० चन्द्रशेखर आचार्यरत्न का घर बता दिया। सभी भक्तों को वह स्थान बहुत ही अनुकूल प्रतीत हुआ। वह घर भी बड़ा था और वहाँ पर सभी भक्तों की स्त्रियाँ भी बिना किसी संकोच के जा-आ सकती थीं।
भक्तों के यह पूछने पर कि कौन-सी लीला होगी और किस-किसको किस-किस पात्र का अभिनय कराना होगा, इसके उत्तर में प्रभु ने कहा- ‘इसका अभी से कोई निश्चय नहीं। बस यही निश्चय है कि लीला होगी और पात्रों के लिये आपस में चुन लो।
पात्रों के पाठ का कोई निश्चय नहीं है। उस समय जिसे जिसका भाव आ जाय, वह उसी भाव में अपने विचारों को प्रकट करे। अभी से निश्चय करने पर तो बनावटी लीला हो जायगी। उस समय जैसी भी जिसे स्वाभाविक स्फुरता हो, यह सुनकर सभी भक्त बड़े प्रसन्न हुए। प्रभु के अन्तरंग भक्तों को तो अनुभव होने लगा मानो कल वे प्रत्यक्ष वृंदावन-लीला के दर्शन करेंगे।
प्रभु ने उसी समय पात्रों का निर्णय किया। पात्रों के चुनने में भक्तों में खूब हंसी-दिल्लगी होती रही। सबसे पहले नाटक कराने वाले सूत्रधार का प्रश्न उठा। एक भक्त ने कहा- ‘सूत्रधार तो कोई ऐसा मोटा-ताजा होना चाहिये जो जरूरत पड़ने पर मार भी सह सके; क्योंकि सूत्रधार को ही सबकी देख-रेख रखनी होती है।’
यह सुनकर नित्यानंद जी बोल उठे- ‘तो इस काम को हरिदास जी के सुपुर्द किया जावे। ये मार खाने में भी खूब प्रवीण हैं।’ सभी भक्त हंसने लगे, प्रभु ने भी नित्यानंद जी की बात का समर्थन किया। फिर प्रभु स्वयं ही कहने लगे- ‘नारद जी के लिये तो किसी दूसरे की जरूरत ही नहीं! साक्षत नारदावतार श्रीवास पण्डित उपस्थित हैं ही।’ इसी समय एक भक्त धीरे से बोल उठा- ‘नारदो कलहप्रिय:’ नारद जी तो लड़ाई-झगड़ा पसंद करने वाले हैं। इस पर हंसते हुए अद्वैताचार्य ने कहा- ‘ये नारद भगवान इससे अधिक और कलह क्या करावें? आज नवद्वीप में जो इतना कोलाहल और हो-हल्ला मच रहा है, इसके आदिकारण तो ये नारदावतार श्रीवास महाराज ही हैं।’
इतने में ही मुरारी बोल उठा- ‘अजी, नारद जी को एक चेला भी चाहिये, यदि नारद जी पसंद करें तो मैं इनका चेला बन जाऊं।‘
यह सुनकर गदाधर बोले- ‘नारद जी के पेट में कुछ दर्द तो हो ही नहीं गया है, जो हिंगाष्टक-चूर्ण के लिये वैद्य को चेला बनावें। उन्हें तो एक ब्रह्मचारी शिष्य चाहिये। तुम ठहरे गृहस्थी। तुम्हें लेकर नारद जी क्या करेंगे? उनके चेला तो नीलाम्बर ब्रह्मचारी बने ही बनाये हैं।‘
प्रभु ने मुसकराते हुए कहा- ‘भुवनमोहिनी लक्ष्मी देवी का अभिनय हम करेंगे। किंतु हमारी सखी ललिता कौन बनेगी?’ इस पर पुण्डरीक विद्यानिधि बोल उठे- ‘प्रभु की ललिता तो सदा प्रभु के साथ छाया की तरह रहती ही हैं। ये गदाधर जी ही तो ललिता सखी हैं।’ इस पर सभी भक्तों ने एक स्वर में कहा- ‘ठीक है, जैसी अगूंठी वैसा ही उसमें नग जड़ा गया है।’ इस पर प्रभु हंसकर कहने लगे- ‘तब बस ठीक है, एक बड़ी बूढ़ी बड़ाई की भी हमें जरूरत थी सो उसके लिये श्रीपाद नित्यानन्द जी हैं ही।’ इतने में ही अधीर होकर अद्वैताचार्य बोल उठे- ‘प्रभो! हमें एकदम बुला ही दिया क्या? अभिनय में क्या बूढे़ कुछ न कर सकेंगे।‘
हंसते हुए प्रभु ने कहा- ‘आपको जो बूढा़ बताता है, उसकी बुद्धि स्वयं बूढ़ी हो गयी है। आप तो भक्तों के सिरमौर हैं। दान लेने वाले वृन्दावन विहारी श्रीकृष्ण तो आप ही बनेंगे।’ यह सुनकर सभी भक्त बड़े प्रसन्न हुए। सभी ने अपना-अपना कार्य प्रभु से पूछा। बुद्धिमन्त खां और सदाशिव के जिम्मे रंगमंच तैयार करने का काम सौंपा गया। बुद्धिमन्त खाँ जमीदार और धनवान थे, वे भाँति-भाँति साज-बाज के सामान आचार्यरत्न के घर ले आये। एक ऊंचे चबूतरा पर रंगमंच बनाया गया। दायीं ओर स्त्रियों के बैठने की जगह बनायी गयी और सामने पुरुषों के लिये। नियत समय पर सभी भक्तों की स्त्रियाँ आचार्यरत्न के घर आ गयीं। मालिनी देवी और श्री विष्णुप्रिया के सहित शचीमाता भी नाटयाभिनय को देखने के लिये आ गयीं। सभी भक्त क्रमश: इकट्ठे हो गये। सभी भक्तों के आ जाने पर किवाड़ बंद कर दिये गये और लीला-अभिनय आरम्भ हुआ।
भीतर बैठे हुए आचार्य वासुदेव पात्रों का रंगमंच पर भेजने के लिये सजा रहे थे। इधर पर्दा गिरा। सबसे पहले मंगलाचरण हुआ। अभिनय में गायन करने के लिये पांच आदमी नियुक्त थे। पुण्डरीक, विद्यानिधि, चन्द्रशेखर आचार्यरत्न और श्रीवास पण्डित के रमाई आदि तीनों भाई। विद्यानिधि का कण्ठ बड़ा ही मधुर था। वे पहले गाते थे। उनके स्वर में ये चारों अपना स्वर मिलाते थे। विद्यानिधि ने सर्वप्रथम अपने कोमल कण्ठ से इस श्लोक का गायन किया-
जयति जननिवासो देवकीजन्मवादो
यदुवरपर्षत्स्वैर्दोर्भिरस्यन्नधर्मम्।।
स्थिरचरवृजिनघ्न: सुस्मितश्रीमुखेन
व्रजपुरवनितानां वर्धयन् कामदेवम्।।[1]
इसके अनन्तर एक और श्लोक मंगलाचरण में गाया गया, तब सूत्रधार रंग-मंचपर आया। नाटक के पूर्व सूत्रधार आकर पहले नाटक की प्रस्तावना करता है, वह अपने किसी साथी से बातों-ही-बातों में अपना अभिप्राय प्रकट कर देता है, जिस पर वह अपना अभिप्राय प्रकट करता है, उसे परिपार्श्वक कहते हैं। सूत्रधार (हरिदास)– ने अपने परिपार्श्वक (मुकुन्द)- के सहित रंगमंच पर प्रवेश किया। उस समय दर्शकों में कोई भी हरिदास जी को नहीं पहचान सकते थे, उनकी छोटी-छोटी दाढ़ों के ऊपर सुन्दर पाग बंधी हुई थी, वे एक बहुत लम्बा-सा अंगरखा पहने हुए थे और कंधेपर बहुत लंबी छड़ी रखी हुई थी। आते ही उन्होंने अपनी आजीविका प्रदान करने वाली रंगभूमि को प्रणाम किया और दो सुन्दर पुष्पों से उसकी पूजा करते हुए प्रार्थना करने लगे- ‘हे रंगभूमि! तू आज साक्षात वृन्दावन ही बन जाओ’ इसके अनन्तर चारों ओर देखते हुए दर्शकों की ओर हाथ मटकाते हुए वे कहने लगे- ‘बड़ी आपत्ति है, यह नाटक करने का काम भी कितना खराब है। सभी के मन को प्रसन्न करना होता है। कोई कैसी भी इच्छा प्रकट कर दे, उसकी पूर्ति करनी ही होगी।
आज ब्रह्मा बाबा की सभा में उन्हें प्रणाम करने गया था। रास्ते में नारद बाबा ही मिल गये। मुझसे कहने लगे- ‘भाई! तुम खूब मिले। हमारी बहुत दिनों से प्रबल इच्छा थी कि कभी वृन्दावन की-श्रीकृष्ण की लीला को देखें। कल तुम हमें श्रीकृष्ण लीला दिखाओ। नारद बाबा भी अजीब हैं। भला मैं वृन्दावन की परम गोप्य रहस्य लीलाओं का प्रत्यक्ष अभिनय कैसे कर सकता हूँ। परिपार्श्वक इस बात को सुनकर (आश्चर्य प्रकट करते हुए) कहने लगा- ‘महाशय! आप आज कुछ नशा-पत्ता तो करके नहीं आ रहें हैं? मालूम पड़ता है, मीठी विजया कुछ अधिक चढ़ा गये हो। तभी तो ऐसी भूली-भूली बातें कर रहें हो? भला नारद- जैसे ब्रह्मज्ञानी, जितेन्द्रिय और आत्माराम मुनि श्रीकृष्ण की श्रृगांरी लीलाओं के देखने की इच्छा प्रकट करें यह तो आप एकदम असम्भव बात कह रहे हैं।’
सूत्रधार (हरिदास)- वाह साहब! मालूम पड़ता है, आप शास्त्रों के ज्ञान से एकदम कोरे ही हैं। श्रीमद्भागवत में क्या लिखा है, कुछ खबर भी नहीं है? भगवान के लीलागुणों में यही तो एक भारी विशेषता है कि मोक्ष-पदवीदार पर पहुँचे हुए आत्माराम मुनि तक उनमें भक्ति करते हैं।[1]
परिपार्श्वक- अच्छे आत्माराम हैं, माया से रहित होने पर भी मायिक लीलाओं को देखने की इच्छा करते रहते हैं।
सू०– तुम तो निरे घोंघा वसन्त हो। भला भगवान की लीलाएँ मायिक कैसे हो सकती हैं? वे तो अप्राकृतिक हैं। उनमें तो मायका लेश भी नहीं।
परि०- क्यों जी, माया के बिना तो कोई क्रिया हो ही नहीं सकती, ऐसा हमने शास्त्रज्ञों के मुख से सुना है।
सू०- बस, सुना ही है, विचारा नहीं। विचारते तो इस प्रकार गुड़-गोबर को मिलाकर एक न कर देते। यह बात मनुष्यों की क्रिया के सम्बन्ध में है, जो मायाबद्ध जीव हैं। भगवान् तो मायापति हैं। माया तो उनकी दासी है। वह उनके इशारे से नाचती है। उनकी सभी लीलाएं अप्राकृतिक, बिना प्रयोजन के केवल भक्तों के आनन्द के ही निमित्त होती हैं।
परि०- (कुछ विस्मय के साथ) हाँ, ऐसी बात है? तब तो नारद जी भले ही देखें। खूब ठाट से दिखाओ। सालभर तक ऐसी तैयारी करो कि नारदजी भी खुश हो जायँ। उन्हें ब्रह्मलोक से आने में अभी दस-बीस वर्ष तो लग ही जायँगे।
सू०- तुम तो एकदम अकल के पीछे डंडा लिये ही फिरते रहते हो। वे देवर्षि ठहरे, संकल्प करते ही जिस लोक में चाहें पहुँच सकते हैं।
परि०- मुझे इस बात का क्या पता था, यदि ऐसी बात है, तो अभी लीला की तैयारी करता हूँ। हाँ, यह तो बताओ किस लीला का अभिनय करोगे?
सू०- मुझे तो दानलीला ही सर्वोत्तम जँचती है, तुम्हारी क्या सम्मति है?
परि०- लीला तो बड़ी सुन्दर है, मुझे भी उसका अभिनय पसंद है, किंतु एक बड़ा भारी द्वन्द्व है। अभिनय करने वाली बालिकाएँ लापता हैं। सू०- (कुछ विस्मय के साथ) वे कहाँ गयीं?
परि०- वे गोपेश्वर शिव का पूजन करने वृन्दावन चली गयी हैं। सू०- तुमने यह एक नयी आफत की बात सुना दी। अब कैसे काम चलेगा?
परि०- (जल्दी से) आफत काहेकी, मैं अभी जाता हूँ, बात-की-बात में आता हूँ और उन्हें साथ-ही-साथ लिवाकर लाता हूँ। सू०- (अन्यमनस्कभाव से) ये सब अभी हैं बच्ची, उनकी उम्र है कच्ची, वैसे ही बिना कहे चली गयीं, न किसी से कह गयीं, न सुन गयीं। वहाँ का पथ है दुर्गम भारी, कहीं फिरेंगी मारी-मारी। साथ में कोई बड़ी-बूढ़ी भी नहीं है।
परि०- है क्यों नहीं, बड़ाई बूढ़ी कैसी है? सू०- (हंसकर) बूढ़ी को भी पूजन को खूब सूझी, आँखों से दीखता नहीं। कोई धीरे से धक्का मार दे तो तीन जगह गिरेगी, उसे रास्ते का क्या होश? इतने ही में नेपथ्य से वीणा की आवाज सुनायी दी और बड़े स्वर के सहित- ‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे। हे नाथ नारायण वासुदेव’ यह पद सुनायी दिया। सूत्रधार यह समझकर कि नारद जी आ गये, जल्दी से अपने परिपार्श्वक (मुकुन्द) – के साथ कन्याओं को बुलाने के लिये दौड़ गये। इतने में ही क्या देखते हैं कि हाथ में वीणा लिये हुए पीले वस्त्र पहने सफेद दाढ़ी वाले नारद जी अपने शिष्य के सहित रंग-मंच पर ‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे। हे नाथ नारायण वासुदेव’ इस पद को गाते हुए धीरे-धीरे घुम रहे हैं। उस समय श्रीवास नारद-वेश में इतने भले मालूम पड़ते थे कि कोई उन्हें पहचान ही नहीं सकता था कि ये श्रीवास पण्डित हैं। शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी,रामनामी दुपट्टा ओढे़ कमण्डलु हाथ में लिये नारद जी के पीछे-पीछे घूम रहे थे।
स्त्रियाँ श्रीवास के इस रूप को देखकर विस्मित हो गयीं! शचीमाता ने हंसकर मालिनी देवी से पूछा- ‘क्यों? यही तुम्हारे पति हैं न? मालिनी देवी ने कुछ मुसकराते हुए कहा- ‘क्या पता तुम ही जानो!’
श्रीवास पण्डित ने वेश ही नारद का नहीं बना रखा था, सचमुच उन्हें उस समय नारद मुनि का वास्तविक आवेश हो आया था। उसी आवेश में आपने अपने साथ के शिष्य से कहा- ‘ब्रह्मचारी! क्या बात है? यहाँ तो नाटक का कोई रंग-ढंग दिखायी नहीं पड़ता?’ उसी समय सूत्रधार के साथ सुप्रभा के सहित गोपीवेश में गदाधर ने प्रवेश किया।
इन्हें देखकर नारद जी ने पूछा- ‘तुम कौन हो?’ सुप्रभा (ब्रह्मानन्द) ने कहा- ‘भगवन! हम ग्वालिनी हैं, वृन्दावन में गोपेश्वर भगवान के दर्शन के निमित्त जा रहीं हैं। आप महाराज कौन हैं? और कहाँ जा रहें हैं?’
नारद जी ने कहा- ‘मैं श्रीकृष्ण का एक अत्यन्त ही अंकिचन किंकर हूँ, मेरा नाम नारद है!’
‘नारद’ इतना सुनते ही सुप्रभा के साथ सखी ने तथा अन्य सभी ने देवर्षि नारद को साष्टांग प्रणाम किया। गोपी (गदाधर) नारद जी के चरणों को पकड़कर रोते-रोते कहने लगी- ‘हे भक्तभयहारी भगवन ! जिन श्रीकृष्ण ने अपना काला रंग छिपाकर गौर वर्ण धारण कर लिया है, उन अपने प्राण प्यारे प्रियतम के प्रेम की अधिकारिणी मैं कैसे बन सकूँगी? यह कहते-कहते गोपी (गदाधर) नारद के पैरों को पकड़कर जोरों के साथ रुदन करने लगी। उसके कोमल गोल कपोलों पर से अश्रुओं की धारा को बहते देखकर सभी भक्त-दर्शन रुदन करने लगे।‘
नारद जी गोपी को आश्वासन देते हुए कहने लगे- ‘तुम तो श्रीकृष्ण की प्राणों से भी प्यारी सहचरी हो। तुम व्रजमण्डल के घनश्याम की मनमोहिनी मयूरी हो। तुम्हारे नृत्य को देखकर वे ऊपर रह ही नहीं सकते। उसी क्षण नीचे उतर आयेंगे। तुम अपने मनोहर सुखमय नृत्य से मेरे संतप्त हृदय को शीतलता प्रदान करो।’
गोपी इतना सुनने पर भी रुदन ही करती रही। दूसरी ओर सुप्रभा अपने नृत्य के भावों से नारद के मन को मुदित करने लगी। उधर सूत्रधार (हरिदास) भी सुप्रभा के ताल-स्वर में ताल-स्वर मिलाते हुए कंधे पर लट्ठ रखकर नृत्य करने लगे। वे सम्पूर्ण आँगन में पागल की तरह घूम-घूमकर ‘कृष्ण भज कृष्ण भज कृष्ण भज बावरे। कृष्ण के भजन बिनु खाउगे क्या पामरे।।‘ इस पद को गा-गाकर जोरों से नाचने लगे। पद गाते-गाते आप बीच में रुककर इस दोहे को कहते जाते-
रैनि गंवाई सोइके, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अमोल था कौड़ी बदले जाय।।
कृष्ण भज कृष्ण भज कृष्ण भज बावरे।
कृष्ण के भजन बिनु खाउगे क्या पामरे।।
गोपी नारद के चरणों को छोड़ती ही नहीं थीं, सुप्रभा (ब्रह्मानन्द)- ने गोपी (गदाधर)- से आग्रहपूर्वक कहा- ‘सखि! पूजन के लिये बड़ी वेला हो गयी। सभी हमारी प्रतीक्षा में होंगी, चलो चलें।‘
सुप्रभा की ऐसी बात सुनकर सखी ने नारद जी की चरणवन्दना की और उनसे जाने की अनुमति मांगकर सुप्रभा के सहित दूसरी ओर चली गयी। उनके दूसरी ओर जाने पर नारद जी अपने ब्रह्मचारी से कहने लगे- ‘ब्रह्मचारी! चलो हम भी वृन्दावन की ही ओर चलें। वहीं चलकर श्रीकृष्ण भगवान की मनोहर लीलाओं के दर्शन से अपने जन्म को सफल करें।’
‘जो आज्ञा’ कहकर ब्रह्मचारी नारद जी के पीछे-पीछे चलने लगा। घर के भीतर महाप्रभु भुवन मोहिनी लक्ष्मी देवी का वेष धारण कर रहे थे। उन्होंने अपने सुन्दर कमल के समान कोमल युगल चरणों में महावर लगाया। उन अरुण रंग के तलुओं में महावर लालिमा फीकी-फीकी-सी प्रतीत होने लगी। पैरों की उंगलियों में आपने छल्ली और छल्ला पहने, खड़ला, छडे़ और झाँझनों के नीचे सुन्दर घुंघरू बांधे। कमर में करधनी बांधी। एक बहुत ही बढ़िया लहँगा पहनी। हाथों की उंगलियों में छोटी-छोटी छल्ली और अंगुठे में बड़ी-सी आरसी पहनी। गले में मोहन माला पचमनिया, हार, हमेल तथा अन्य बहुत-सी जड़ाऊ और कीमती मालाएँ धारण कीं। कानों में कर्णफूल और बाजुओं में सोने की पहुँची पहनी।
आचार्य वासुदेव ने बड़ी ही उत्तमता से प्रभु के लम्बे-लम्बे घुंघराले बालों में सीधी मांग निकाली और पीछे से बालों का जूड़ा बांध दिया। बालों के जूडे़ में मालती, चम्पा और चमेली आदि के बड़ी ही सजावट के साथ फूल गूंथ दिये। एक सुन्दर-सी माला जूडे़ में खोंस दी। माँग में बहुत ही बारीकी से सिन्दूर भर दिया। माथे पर बहुत छोटी-सी रोली की एक गोल बिन्दी रख दी। सुगन्धित पान प्रभु के श्रीमुख में दे दिया। एक बहुत ही पतली कामदार ओढ़नी प्रभु को उढा़ दी गयी। श्रृंगार करते-करते ही प्रभु को रुक्मिणी का आवेश हो आया। वे श्रीकृष्ण के विरह में रुक्मिणी भाव से अधीर हो उठे।
रूक्मिणी कि पिता की इच्छा थी कि वे अपनी प्यारी पुत्री का विवाह श्रीकृष्णचन्द्र जी के साथ करें, किंतु उनके बड़े पुत्र रुक्मी ने रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल के साथ करने का निश्चय किया था। इससे रुक्मिणी अधीर हो उठी। वह मन-ही-मन श्रीकृष्णचन्द्र जी को अपना पति बना चुकी थी। उसने मन से अपना सर्वस्व भगवान वासुदेव के चरणों में समर्पित कर दिया था। वह सोचने लगी- ‘हाय! वह नराधम शिशुपाल कल बारात सजाकर मेरे पिताकी राजधानी में आ जायगा। क्या मैं अपने प्राणप्यारे पतिदेव को नहीं पा सकूँगी? मैंने तो अपना सर्वस्व उन्हीं के श्रीचरणों में समर्पण कर दिया है। वे दीनवत्सल हैं, अशरणशरण हैं, घट-घटकी जानने वाले हैं। क्या उनसे मेरा भाव छिपा होगा? वे अवश्य ही जानते होंगे। फिर भी उन्हें स्मरण दिलाने को एक विनय की पाती तो पठा ही दूँ। फिर आना-न-आना उनके अधीन रहा? या तो इस प्राणहीन शरीर को शिशुपाल ले जायगा या उसे ख़ाली हाथों ही लौटना पड़ेगा। प्राण रहते तो मैं उस दुष्ट के साथ कभी न जाऊँगी।
इस शरीर पर तो उन भगवान वासुदेव का ही अधिकार है। जीवित शरीर का वे ही उपभोग कर सकते है।’ यह सोचकर वह अपने प्राणनाथ के लिये प्रेम-पाती लिखने को बैठी-
श्रुत्वा गुणान्भुवनसुंदर श्रृण्वतां ते
निर्विश्य कर्णविवरैर्हरतोऽंगतापम्।
रूपं दृशां दृशिमतामखिलार्थलाभं
त्वय्यच्युताविशति चित्तमपत्रपं मे।।
इस प्रकार सात श्लोक लिखकर एक ब्राह्मण के हाथ उसने अपनी वह प्रणयरस से पूर्ण पाती द्वारिका को भगवान के पास भिजवायी। महाप्रभु भी उसी तरह से हाथ के नखों के द्वारा रुक्मिणी के भावावेश में अपने प्यारे श्रीकृष्ण को प्रेमपाती-सी लिखने लगे। वे उसी भाव से विलख-विलखकर रुदन करने लगे और रोते-रोते उन्हीं भावों को प्रकट भी करने लगे। कुछ काल के अनन्तर वह भाव शांत हुआ। बाहर रंगमंच पर अद्वैताचार्य सुप्रभा और गोपी के साथ मधुर भाव की बातें कर रहे थे। हरिदास कंधे पर लट्ठ रखकर ‘जागो-जागो’ कहकर घूम रहे थे। सभी भक्त प्रेम में विभोर होकर रुदन कर रहे थे। इतने में ही जगन्मोहिनी रूप को धारण किये हुए प्रभु ने रंग-मंचपर प्रवेश किया। प्रभु के आगे बड़ाई वेश में नित्यानंद जी थे।
नित्यानंद जी के कंधे पर हाथ रखे हुए धीर-धीरे प्रभु आ रहे थे। प्रभु के उस अद्भुत रूप-लावण्ययुक्त स्वरूप को देखकर सभी भक्त चकित हो गये। उस समय के प्रभु के रूप का वर्णन करना कवि की प्रतिभा के बाहर की बात है। सभी इस बात को भूल गये कि प्रभु ने ऐसा रूप बनाया है। भक्त अपनी-अपनी भावना के अनुसार उस रूप में पार्वती, सीता, लक्ष्मी, महाकाली तथा रासविहारिणी रसविस्तारिणी श्रीराधिका जी के दर्शन करने लगे। जिस प्रकार समुद्र-मंथन के पश्चात भगवान के भुवनमोहिनी रूप को देखकर देव, दानव, यक्ष, राक्षस सब-के-सब उस रूप के अधीन हो गये थे और देवाधिदेव महादेव जी तक कामासक्त होकर उसके पीछे दौड़े थे, उसी प्रकार यहाँ भी सभी भक्त विमुग्ध-से तो हो गये थे; किंतु प्रभु के आशीर्वाद से किसी के हृदय में काम के भाव उत्पन्न नहीं हुए। सभी ने उस रूप में मातृ स्नेह का अनुभव किया। प्रभु लक्ष्मी के भाव में आकर भवमय सुंदर पद गा-गाकर मधुर नृत्य करने लगे। उस समय प्रभु की आकृति-प्रकृति, हाव-भाव, चेष्टा तथा वाणी सभी स्त्रियों की-सी ही हो गयी थी। वे कोकिल-कूजित कमनीय कण्ठ से बड़े ही भावमय पदों का गान कर रहे थे। उनकी भाव-भंगी में जादू भरा हुआ था, सभी भक्त उस अनिर्वचनीय अलौकिक और अपूर्व नृत्य को देखकर चित्र के लिखे-से स्तम्भित भाव से बैठे हुए थे।
प्रभु भावावेश में आकर नृत्य कर रहे थे। उनके नृत्य की मधुरिमा अधिकाधिक बढ़ती ही जाती थी, दोनों आँखों से अश्रुओं की दो अविच्छिन्न धारा-सी बह रही थी, माना गंगा-यमुना का प्रवाह सजीव होकर बह रहा हो। दोनों भृकुटियां ऊपर चढ़ी हुई थी। कड़े, छड़े, झाँझन और नूपुरों की झनकार से सम्पूर्ण रंगमंच झंकृत-सा हो रहा था। प्रकृति स्तब्ध थी मानो वायु भी प्रभु के इस अपूर्व नृत्य को देखने के लालच से रुक गया हो? भीतर बैठी हुई सभी स्त्रियाँ विस्मय से आँखें फाड़-फाड़कर प्रभु के अद्भुत रूप-लावण्य की शोभा निहार रही थीं।
उसी समय नित्यानंद जी बड़ाई के भाव को परित्याग करके श्रीकृष्ण-भाव से क्रन्दन करने लगे। उनके क्रन्दन को सुनकर सभी भक्त व्याकुल हो उठे और लम्बी-लम्बी सांसें छोड़ते हुए सब-के-सब उच्च स्वर से हा गौर! हा कृष्ण! कहकर रुदन करने लगे। सभी की रोदनध्वनि से चन्द्रशेखर का घर गूंजने लगा। सम्पूर्ण दिशाएँ रोती हुई-सी मालूम पड़ने लगीं। भक्तों को व्याकुल देखकर प्रभु भक्तों के ऊपर वात्सल्यभाव प्रकट करने के निमित्त भगवान के सिंहासन पर जा बैठे। सिंहासन पर बैठते ही सम्पूर्ण घर प्रकाशमय बन गया। मानों हजारों सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र एक साथ ही आकाश में उदय हो उठे हों। भक्तों की आँखों के सामने उस दिव्यालोक के प्रकाश को सहन न करने के कारण चकाचौंध-सा छा गया।
प्रभु ने भगवान के सिंहासन पर बैठे-ही-बैठे हरिदास जी को बुलाया। हरिदास जी लट्ठ फेंककर जल्दी से जगन्माता की गोदी के लिये दौड़े। प्रभु ने उन्हें उठाकर गोद में बैठा लिया। हरिदास महामाया आदि शक्ति की क्रोड में बैठकर अपूर्व वात्सल्यसुख का अनुभव करने लगे। इसके अनन्तर क्रमश: सभी भक्तों की बारी आयी। प्रभु ने भगवती के भाव में सभी को वात्सल्यसुख का रसास्वादन कराया और सभी को अपना अप्राप्य स्तनपान कराकर आनन्दित और पुलकित कराया। इसी प्रकार भक्तों को स्तनपान कराते-कराते प्रात:काल होते ही प्रभु ने भगवती-भाव का संवरण किया। वे थोड़ी देर में प्रकृतिस्थ हुए और उस वेष को बदलकर भक्तों के सहित नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिये गंगा किनारे की ओर चले गये। चन्द्रशेखर का घर प्रभु के चले जाने पर भी तेजोमय ही बना रहा और वह तेज धीरे-धीरे सात दिन में जाकर बिलकुल समाप्त हुआ।
इस प्रकार प्रभु ने भक्तों के सहित श्रीमद्भागवत की प्राय: सभी लीलाओं का अभिनय किया।
क्रमशः अगला पोस्ट [69]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Shri Krishna-Leelabhinay
Sometimes he cries, conscious of the strength of Vaikuntha’s anxiety. Sometimes he laughs and sometimes he sings of joy. Sometimes he roars, sometimes he dances in anxiety and sometimes in shame. Sometimes, with the thought of it, he followed it.
If someone asks us the definition of a devotee in one word, then we will present this word ‘Lokbahm’ in front of him. In this one word, the complete definition of a devotee’s life, a traveler on the holy path of Bhaktimarg is reflected. All the works of the devotees are unique. He doesn’t care about the people. Like children, they are always happy in joy, they take pleasure in crying and they also take pleasure in laughing. They always remain unconscious in the memory of their Beloved. The time when someone tells them two or four wrong things about their beloved Pritam, aha, then what can they say about happiness? At that time, all the sattvik feelings arise in their organs. The real situation is known only at that time. Come, let us see the symptoms of all devotees in the body of Premavatara Sri Chaitanya.
One day in the house of Shri Vaspandit, Lord came in a fit of passion and asked for the same old bamboo flute of his by saying ‘Vanshi-Vanshi’. Laughing a bit, Shrivas Pandit said – ‘Where is the flute here? Your flute has taken away all the gopikas.’ All I had to hear was that the Lord became enraptured in love, sattvik feelings began to ignite in all his organs. Shrivas Pandit used to say again and again in Gadgadkanth – ‘Yes, tell me. say something. Why don’t you narrate the pastimes of Vanshi? What harm did that poor pole bamboo flute do to those Gopikas, due to which they took it away. Pandit! You tell me that story.’ Seeing the Lord urging in this way, Shrivas said – ‘It was the month of Ashwin, it was autumn. Lord Nishanath was making the sky bright by emerging from all his arts. Nature was calm, the birds were sleeping lying in their nests. There was stillness in the Nikunjas of Vrindavan. Destroying the silence of Rajni, Yamuna was flowing slowly roaring with her blue water. At the same time, the melodious tone of Mohan’s beautiful murli fell in the ears of the Gopikas. Just this much was to be heard that the Lord fell down on the ground and started shedding tears continuously from his eyes and said to Shrivas Pandit – ‘Yes, what happened then? say further Why don’t you say? My soul is longing to listen to the melodious tone of that Murli.’
Shrivas again started saying- ‘The one who heard the sound of that Murli, the one who heard that mesmerizing tone, became unconscious. All have become like Aki-like, Zaki-like, forgotten-like, stray-like. He didn’t remember even the slightest bit about his body. That time-
Hearing the song that enhanced the body The women of Vraja were absorbed in Krishna Ajag Muranyon Yamalakshitodyama: He is where the beloved swings his earrings.
‘The Gopis of Gokul, whose hearts have been attracted by Shri Krishna, after listening to the beautiful song of Murli of that Anangvardhan, did not reveal their many industries to each other in a sense of kinship. She got up and walked away as she was sitting, aiming at the place from where that sound was heard. At that time, due to the haste to go, the moving soft coils of his ears looked very beautiful.
The cow that was being milked left the milker on the spot, those who had left the calf for milking did not even think of tying it. The women who were churning the milk left it boiling and went away. Mothers leaving their sons, wives leaving their husbands’ laps, sisters leaving their brothers to feed, started running in the same direction. Shrivas used to say, Prabhu used to listen with emotion. Both were unconscious. In this way, the whole night passed by telling the story of Shri Krishna. Lord Bhuvanbhaskar also started relishing these pastimes by hiding on the other side of the house. Seeing the light of the sun, the Lord got some external knowledge. Hugging Srivas Pandit with love, he said – ‘Pandit ji! Today you made us taste Devdurlabh juice. Today, I am grateful to have heard the pastimes of Shri Krishna from your mouth.’ Having said this, the Lord went away to retire from his routine.
On the second day, the Lord along with all the devotees consulted that all the devotees together should act in Shri Krishna-Leela. When the question of the place arose, the Lord himself told the house of his uncle Pt. Chandrashekhar Acharyaratna. All the devotees found that place very favorable. That house was also big and the women of all the devotees could also move there without any hesitation. On being asked by the devotees as to which leela would take place and who would have to act in which character, in response to this the Lord said – ‘There is no certainty about it as of now. It is only certain that Leela will happen and choose among yourselves for the characters.
There is no certainty of the text of the characters. At that time, the one whose feeling comes, he should express his thoughts in the same feeling. If you decide from now on, it will be an artificial leela. All the devotees were overjoyed to hear this, whatever happens naturally at that time. The intimate devotees of the Lord began to feel as if tomorrow they would see Vrindavan-Leela directly.
The Lord decided the characters at the same time. There was a lot of laughter and frolic among the devotees while choosing the characters. First of all, the question of the facilitator leading the play arose. A devotee said- ‘The sutradhar should be such a fat-fresh person who can bear beatings if needed; Because it is the Sutradhar who has to take care of everyone.
Hearing this, Nityanand ji said – ‘ Then this work should be handed over to Haridas ji. He is also very proficient in taking beatings.’ All the devotees started laughing, the Lord also supported Nityanand ji’s words. Then the Lord himself started saying – ‘There is no need of anyone else for Narad ji! Sakshat Naradavatar Shrivas Pandit is present.’ At the same time, a devotee spoke softly – ‘Nardo kalhapriya:’ Narad ji is the one who likes fighting. Laughing at this, Advaitacharya said- ‘What more discord should this Lord Narad create? Today, there is so much uproar and uproar in Navadweep, the main reason for this is this Naradavatar Shrivas Maharaj.’
In the meantime, Murari spoke – ‘Aji, Narad ji also needs a disciple, if Narad ji likes it, then I can become his disciple.’
Hearing this, Gadadhar said – ‘Narad ji has no pain in his stomach, which should make the doctor a disciple for Hingashtak-powder. He needs a celibate disciple. You are a householder. What will Narad ji do with you? Nilambar Brahmachari has made his disciples. Prabhu said with a smile – ‘We will act as Bhuvanmohini Lakshmi Devi. But who will be our friend Lalita?’ On this Pundarika Vidyanidhi said – ‘Lord’s Lalita always stays with the Lord like a shadow. This Gadadhar ji is Lalita’s friend.’ On this, all the devotees said in one voice – ‘Okay, just like the ring, the stone is studded in it.’ Shripad Nityanand ji is there for us as well. Did you just call us? Will the old people not be able to do anything in acting?
Laughing, the Lord said – ‘ The one who calls you old, his intelligence has itself become old. You are the head of the devotees. You will become Vrindavan Vihari Shri Krishna who takes donations.’ All the devotees were very happy to hear this. Everyone asked the Lord about their work. Buddhimant Khan and Sadashiv were entrusted with the task of preparing the theatre. Buddhimant Khan was a landlord and rich, he brought various decorations to Acharyaratna’s house. The theater was built on a high platform. On the right side a place was made for women to sit and in front for men. At the appointed time all the women of the devotees came to Acharyaratna’s house. Along with Malini Devi and Shri Vishnupriya, Sachimata also came to watch the play. All the devotees gathered respectively. When all the devotees arrived, the doors were closed and the play began.
Sitting inside, Acharya Vasudev was decorating the characters to be sent to the theatre. Here the curtain fell. First there was an invocation. Five men were appointed to sing in the act. Pundrik, Vidyanidhi, Chandrashekhar Acharyaratna and Srivas Pandita’s Ramai etc. three brothers. Vidyanidhi’s voice was very sweet. He used to sing earlier. All four of them used to add their voices to his voice. Vidyanidhi first sang this verse with his soft voice-
Jayati Jananivaso Devakījanmavado The youngest of the Yadus, with their arms, threw away irreligion. He destroys the evils of the immovable and the immovable with a beautiful smile on his face Raising Cupid among the women of Vraja.
After this another verse was sung in invocation, then the Sutradhar came on the stage. Before the drama, the narrator comes and prefaces the play first, he expresses his opinion to one of his companions in words, on whom he expresses his opinion, it is called Pariparsvak. The Sutradhar (Haridas) – accompanied by his Pariparshvak (Mukunda) – entered the stage. At that time no one in the audience could recognize Haridas ji, he had a beautiful pag tied over his small molars, he was wearing a very long tunic and a very long stick was placed on his shoulder. As soon as he arrived, he bowed down to the theater that provided his livelihood and worshiped it with two beautiful flowers and started praying – ‘O theater! You become Vrindavan today.’ After this, while looking around and waving his hands towards the audience, he started saying – ‘It is a big objection, how bad is the work of doing this drama. Everyone’s mind has to be pleased. Whatever wish one expresses, it has to be fulfilled.
Today Brahma went to Baba’s meeting to pay obeisance to him. Only Narad Baba met him on the way. They started saying to me- ‘Brother! You met a lot We had a strong desire for many days to see the pastimes of Shri Krishna in Vrindavan. Tomorrow you show us Shri Krishna Leela. Narad Baba is also strange. Well, how can I directly act out the supremely secret pastimes of Vrindavan? Hearing this, Pariparshwak (expressing surprise) started saying – ‘Sir! You are not coming today after getting intoxicated, are you? It seems that sweet Vijaya has been given a little too much. That’s why you are talking such nonsense? Well Narad – you are saying something completely impossible, such as Brahmagyani, Jitendriya and Atmaram Muni should express their desire to see Shrikrishna’s Shringari pastimes.’
Sutradhar (Haridas) – Wow sir! It seems that you are completely devoid of the knowledge of the scriptures. What is written in Shrimad Bhagwat, there is no news either? This is a great feature in the Lord’s pastimes that even Atmaram Muni, who has reached the stage of salvation, worships Him.[1]
Pariparshvak- He is a good Atmaram, even though he is devoid of Maya, he keeps on desiring to see the illusory pastimes.
Soo- You are just a snail spring. How can God’s pastimes be illusory? They are unnatural. There is not even a trace of mother in them. Pari- Why, no action can be done without Maya, we have heard this from the mouth of scientists.
Soo- Just heard, didn’t think. If you had thought, you would not have mixed jaggery and cow dung like this. This is in relation to the actions of human beings, who are illusory creatures. God is Mayapati. Maya is his maidservant. She dances at his behest. All his pastimes are unnatural, without purpose, only for the enjoyment of the devotees. Pari- (with some astonishment) Yes, it is such a thing? Then even Narad ji can see. Show off in a big way. Make such preparations for the whole year that even Naradji becomes happy. It will take at least ten to twenty years for them to come from Brahmalok.
Soo- You keep roaming around with a stick behind your intellect. They remain Devarshi, they can reach any world they want as soon as they make a resolution. Pari- How did I know about this, if it is such a thing, then now I am preparing for the leela. Yes, tell me which leela will you act?
Soo- Danleela suits me best, what is your opinion? Pari- Leela is very beautiful, I also like her acting, but there is a huge conflict. The acting girls are missing. Soo- (with some surprise) where did she go? Pari- She has gone to Vrindavan to worship Gopeshwar Shiva. Soo- You told me about a new disaster. How will it work now? Pari- (quickly) Aafat kaheki, I go now, talk to each other and bring them together. Soo- (non-consciously) All these are still children, their age is raw, they went away without saying anything, neither told anyone, nor heard. The path there is difficult and difficult, there will be fighting somewhere. Along with that, there are no elders either. Pari- Why not, how is the old lady proud? Soo- (Laughing) Even the old woman understood a lot about worship, she could not see it with her eyes. If someone gently pushes her, she will fall in three places, what sense does she have of the way? Just then, the sound of the veena was heard from the background and with a loud voice – ‘Shri Krishna Govind Hare Murare’. O Nath Narayan Vasudev’ this verse was recited. Sutradhar, thinking that Narad ji has come, quickly ran to call the girls with his sidekick (Mukund). What do we see in this, Narad ji with white beard wearing yellow clothes with veena in hand, is singing ‘Shri Krishna Govind Hare Murare’ on the stage along with his disciple. He is moving slowly while singing this verse ‘Hey Nath Narayan Vasudev’. At that time Shrivas used to look so good in Narad-vesh that no one could recognize him that he is Shrivas Pandit. Shuklamber Brahmachari, wearing a Ramnami scarf, was walking behind Narad ji with a kamandalu in his hand. Women were amazed to see this form of Shrivas! Sachimata laughingly asked Malini Devi – ‘Why? Is this your husband? Malini Devi said with a smile – ‘Who knows, only you know!’
Shrivas Pandit had not only disguised himself as Narada, but he had actually developed a real passion for Narada Muni at that time. In the same enthusiasm, you said to your disciple – ‘Brahmachari! What is the matter? Can’t you see any form of drama here?’ At the same time, Gadadhar entered the Gopivesh along with Sutradhar along with Suprabha. Seeing him, Narad ji asked – ‘Who are you?’ Suprabha (Brahmanand) said – ‘Lord! We are Gwalini, going to Vrindavan for the darshan of Lord Gopeshwar. Who are you sir? And where are you going?
Narad ji said- ‘I am a very Ankichan Kinkar of Shri Krishna, my name is Narad!’ On hearing this ‘Narad’, Sakhi along with Suprabha and all others prostrated to Devarshi Narad. Gopi (Gadadhar) started crying holding the feet of Narad ji and said – ‘ O God who is fearful of devotees! How can I become the possessor of the love of my beloved, Shri Krishna, who has hidden his dark complexion and assumed a fair complexion? While saying this, Gopi (Gadadhar) started crying loudly holding Narad’s feet. Seeing the stream of tears flowing from his soft round cheeks, all the devotees started crying. While giving assurance to Gopi, Narad ji said – ‘ You are a companion dearer than Shri Krishna’s life. You are the charming Mayuri of Ghanshyam of Vrajmandal. They can’t stay above seeing your dance. Will come down at the same moment. You give coolness to my troubled heart with your graceful dance.’
Gopi kept on crying even after hearing this. On the other hand, Suprabha started pleasing Narad’s mind with her dance expressions. On the other hand, Sutradhar (Haridas) also started dancing by keeping a stick on his shoulder, adding rhythm and tone to Suprabha’s voice. They wandered madly in the whole courtyard, ‘Krishna Bhaj Krishna Bhaj Krishna Bhaj Bawre. Krishna ke bhajan binu khauge kya paamre..’ They started dancing loudly after singing this verse. While singing the verse, you stop in the middle and say this couplet-
Lost the rain, lost the day. Diamond birth was priceless, let the penny be changed. Krishna Bhaj Krishna Bhaj Krishna Bhaj Bawre. What will you eat without the hymns of Krishna.
Gopis did not leave Narad’s feet at all, Suprabha (Brahmanand) – insisted to Gopis (Gadadhar) – ‘ Friend! It is time for worship. Everyone will be waiting for us, let’s go.’ Hearing such words of Suprabha, Sakhi worshiped the feet of Narad ji and sought permission from him to go and went to the other side along with Suprabha. On going to his other side, Narad ji started saying to his brahmachari – ‘Brahmachari! Let us also go towards Vrindavan. Walk there and make your birth successful by seeing the beautiful pastimes of Lord Krishna.
The brahmachari started following Narad ji by saying ‘Jo Agnya’. Inside the house, Mahaprabhu Bhuvan was dressed as Mohini Lakshmi Devi. He planted Mahavar at the couple’s feet, soft like a beautiful lotus. Mahavar redness started to appear faded in those arun colored soles. You wore cuticles and rings on your toes, tied beautiful anklets under khadlas, sticks and cymbals. Girdle tied around the waist. Wore a very nice lehenga. Small cuticles were worn on the fingers of the hands and large RCs were worn on the thumb. Mohan Mala, Pachmaniya, Haar, Hamel and many other inlaid and precious garlands were worn around the neck. He wore earrings in his ears and gold bracelets on his arms.
Acharya Vasudev expertly pulled out a straight line in the long curly hair of the Lord and tied the hair in a bun at the back. Flowers were interwoven into the hair bun with elaborate decorations of Malti, Champa and Chameli etc. Tucked a beautiful garland into the bun. The vermilion was filled very minutely in the maang. A round dot of very small roll was placed on the forehead. Fragrant paan was given in the mouth of the Lord. A very thin kamdar odhani was put on the Lord. While doing the makeup, the Lord got infatuated with Rukmini. He became impatient with Rukmini feeling in separation from Shri Krishna.
Rukmini’s father wanted to marry his beloved daughter to Lord Krishna, but his elder son Rukmi decided to marry Rukmini to Shishupala. This made Rukmini impatient. She had made Shri Krishnachandraji her husband in her heart. He wholeheartedly surrendered himself at the feet of Lord Vasudev. She started thinking- ‘Hi! That Naradham Shishupal will come to my father’s capital tomorrow after arranging a procession. Will I not be able to find my beloved husband? I have surrendered my everything at his feet. He is humble, he is sheltered, he knows every little thing. Will my feelings be hidden from them? He must have known. Even then, to remind them, I should send them a letter of humility. Then coming or not coming was under their control? Either Shishupala will take this lifeless body or he will have to return empty handed. If I were alive, I would never go with that rascal.
Only that Lord Vasudev has the right over this body. Only they can consume the living body.’ Thinking this, she sat down to write a love letter for her Prannath-
O beautiful one of the worlds listen to your virtues He entered through the holes in his ears and relieved the heat of his body Form is the gain of all meaning for the sighted My shameless mind enters into You, O infallible one.
In this way, by writing seven verses, he sent his hand full of prayers to Dwarka to God in the hands of a Brahmin. In the same way Mahaprabhu also started writing like a lover to his beloved Shri Krishna in the spirit of Rukmini with the nails of his hand. They started crying in the same way and started expressing the same feelings while crying. After some time that feeling calmed down. Outside on the stage, Advaitacharya was talking sweetly with Suprabha and Gopi. Haridas was roaming around saying ‘wake up’ with a stick on his shoulder. All the devotees were crying out of love. In the meantime, the Lord entered the stage wearing the form of Jaganmohini. Nityanand ji was in front of the Lord in a grandiose dress.
Prabhu was slowly coming with his hand on Nityanand ji’s shoulder. All the devotees were amazed to see that wonderful form of the Lord. It is beyond the genius of the poet to describe the form of the Lord at that time. Everyone forgot that the Lord had created such a form. Devotees started seeing Parvati, Sita, Lakshmi, Mahakali and Rasviharini Rasvistarini Shriradhika in that form according to their feelings. Just as the gods, demons, yakshas and rakshasas, after seeing the Bhuvanmohini form of God after the churning of the ocean, all became subservient to that form and ran after Lord Mahadev ecstatically, in the same way, here also all the devotees At least they had become disillusioned; But due to the blessings of the Lord, the feelings of lust did not arise in anyone’s heart. Everyone experienced motherly affection in that form. Coming in the mood of Lord Lakshmi, Bhavamay started dancing sweetly by singing beautiful verses. At that time the Lord’s appearance, nature, gestures, movements and speech had become like those of all women. He was singing very soulful verses from Kokil-Kujit’s humble voice. Her expressions were full of magic, all the devotees were sitting in awe of the writing of the picture, watching that indescribable, supernatural and unique dance.
Prabhu was dancing in ecstasy. The sweetness of her dance was increasing more and more, tears were flowing from both the eyes like two continuous streams, as if the flow of Ganga-Yamuna was flowing alive. Both the eyebrows were raised. The entire theater was resounding with the tinkling of strings, rods, cymbals and nupuras. Nature was stunned as if even the wind had stopped with the greed to see this unique dance of the Lord. All the women sitting inside were gazing at the wonderful beauty of the Lord with tears in their eyes.
At the same time, Nityanand ji started crying with the feeling of Shri Krishna, leaving the sense of pride. Hearing his cry, all the devotees were distraught and while exhaling long, all of them shouted Ha Gaur! Ha Krishna! Started crying after saying. Chandrashekhar’s house started echoing with everyone’s cry. All the directions seemed to be crying. Seeing the devotees distressed, the Lord sat on the throne of God to express his affection towards the devotees. The whole house became bright as soon as he sat on the throne. It is as if thousands of suns, moons and stars have appeared in the sky at the same time. Because of not tolerating the light of that heavenly world, the eyes of the devotees were dazzled.
The Lord called Haridas ji while sitting on the throne of God. Haridas ji threw the stick and quickly ran for the lap of Jaganmata. The Lord picked him up and made him sit on his lap. Sitting in the core of Haridas Mahamaya Adi Shakti, he started experiencing unsurpassed vatsalyasukh. After this, the turn of all the devotees came respectively. In the spirit of Bhagwati, the Lord made everyone taste the bliss of Vatsalyasukh and made everyone happy and ecstatic by giving them His unattainable breast milk. Similarly, while making the devotees breastfeed, as soon as the morning broke, the Lord covered the Bhagwati-Bhav. He became natural in a while and changed that dress and went towards the banks of the Ganges to retire from daily work along with the devotees. Chandrasekhar’s house remained bright even after Prabhu left and that brightness gradually ended in seven days.
In this way the Lord acted out almost all the pastimes of Shrimad Bhagwat along with the devotees.
respectively next post [69] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]