[69]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

IMG WA

।। श्रीहरि:।।

[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम

भक्‍तों के साथ प्रेम-रसास्‍वादन

सर्वथैव दुरूहोअयमभक्‍तैर्भगवद्रस: ।

तत्‍पादाम्‍बुजसर्वस्‍वैर्भक्‍तैरेवानुरस्‍यते ।।

प्रेम की उपमा किससे दें। प्रेम तो एक अनुपमेय वस्‍तु है। स्‍थावर, जंगम, चर, अचर, सजीव तथा निर्जीव सभी में प्रेम समानरूप से व्‍याप्‍त हो रहा है। संसार में प्रेम ही तो ओतप्रोत भाव से भरा हुआ है। जो लोग आकाश को पोला समझते हैं, वे भुले हुए हैं। आकाश तो लोहे से भी कहीं अधिक ठोस है। उसमें तो एक परमाणु भी और नहीं समा सकता, वह सद्वृत्ति और दुर्वृत्तियों के भावों से ठूंस-ठूंसकर भरा हुआ है। प्रेम उन सभी में समानरूप व्‍याप्‍त है। प्रेम को चूना-मसाला या जोड़ने वाला द्राविक पदार्थ समझना चाहिये। प्रेम के कारण ये सभी भाव टिके हुए हैं। किंतु प्रेम की उपलब्धि सर्वत्र नहीं होती। वह तो भक्‍तों के ही शरीरों में पूर्णरूप से प्रकट होता है। भक्‍त ही परस्‍पर में प्रेमरूपी रसायन का निरंतर पान करते रहते हैं।

उनकी प्रत्‍येक चेष्‍टा में प्रेम-ही-प्रेम होता है। वे सदा प्रेम-वारूणी पान करके लोक बाह्य उन्‍मत्त-से बने रहते हैं और अपने प्रेमी बन्‍धुओं तथा भक्‍तों को भी उस वारूणी को भर-भर प्‍याले पिलाते रहते हैं।उस अपूर्व आसवका पान करके वे भी मस्‍त हो जाते हैं, निहाल हो जाते हैं, धन्‍य हो जाते हैं, लज्‍जा, घृणा तथा भय से रहित होकर वे भी पागलों की भाँति प्रलाप करने लगते हैं। उन पागलों के चरित्र में कितना आनन्‍द है, कैसा अपूर्व रस है। उनकी मार-पीट,गाली-गलौज, स्‍तुति-प्रार्थना, भोजन तथा शयन सभी कामों में प्रेम का सम्‍पुट लगा होने से ये सभी काम दिव्‍य और अलौकिक- से प्रतीत होते हैं। उनके श्रवण से सहृदय पुरुषों को सुख होता है, वे भी उस प्रेमासव के लिये छटपटाने लगते हैं और उसी छटपटाहट के कारण वे अंत में प्रभु-प्रेम के अधिकारी बनते हैं।

महाप्रभु अब भक्‍तों के साथ लेकर नित्‍यप्रति बड़ी ही मधुर-मधुर लीलाएँ करने लगे। जब से जगाई-मधाई का उद्धार हुआ और वे अपना सर्वस्‍व त्‍यागकर श्रीवास पण्डित के यहाँ रहने लगे, तब से भक्‍तों का उत्‍साह अत्‍यधिक बढ़ गया है। अन्‍य लोग भी संकीर्तन के महत्त्व को समझने लगे हैं। अब संकीर्तन की चर्चा नवद्वीप में पहले से भी अधिक होने लगी है। निंदक अब भाँति-भाँति से कीर्तन को बदनाम करने की चेष्‍टा करने लगे हैं। पाठक! उन निन्‍दकों को निंदा करने दें। आप तो अब गौर की भक्‍तों के साथ की हुई अद्भुत लीलाओं का ही रसास्‍वादन करें।

मूरारी गुप्‍त प्रभु के सहपाठी थे, वे प्रभु से अवस्‍था में भी बड़े थे। प्रभु उन्‍हें अत्‍यधिक प्‍यार करते और उन्‍हें अपना बहुत ही अंतरंग भक्‍त समझते। मुरारी का भी प्रभु के चरणों में पूर्णरीत्‍या अनुराग था। वे रामोपासक थे, अपने को हनुमान समझकर कभी-कभी भावावेश में आकर हनुमान जी की भाँति हुंकार भी मारने लगते। वे सदा अपने को प्रभु का सेवक ही समझते। एक दिन प्रभु ने विष्‍णु-भाव में ‘गरुड़’-‘गरुड़’ कहकर पुकारा। बस, उसी समय मुरारी ने अपने वस्‍त्र को दोनों ओर पंखों की तरह फैलाकर प्रभु को जल्‍दी से अपने कंधे पर चढ़ा लिया और आनन्‍द से इधर-उधर आंगन में घूमने लगे। यह देखकर भक्‍तों के आनन्‍द का ठिकाना नहीं रहा। उन्‍हें प्रभु साक्षात चतुर्भुज नारायण की भाँति गरुड़ पर चढ़े हुए और चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म इन चारों वस्‍तुओं को लिये हुए-से प्रतीत होने लगे। भक्‍त आनन्‍द के सहित नृत्‍य करने लगे। मालती देवी तथा शची माता आदि अन्‍य स्‍त्रियाँ प्रभु को मुरारी के कंधे पर चढ़ा हुआ देखकर भयभीत होने लगीं। कुछ काल के अनन्‍तर प्रभु को बाह्यज्ञान हुआ और वे मुरारी के कंधे से नीचे उतरे।

मुरारी रामोपासक थे। प्रभु उनकी ऐकान्ति की निष्‍ठा से पुर्णरीत्या परिचित थे। भक्तों को उनका प्रभाव जताने के निमित्त प्रभु ने एक दिन उनसे एकान्त में कहा- ‘मुरारी! यह बात बिलकुल ठीक है कि श्रीराम और श्रीकृष्‍ण दोनों एक ही हैं। उन्हीं भगवान के अनन्त रूपों में से ये भी हैं। भगवान के किसी भी नाम तथा रूप की उपासना करो, अन्त में सबका फल प्रभु-प्राप्ति ही है, किंतु श्रीरामचन्द्र जी की लीलाओं की अपेक्षा श्रीकृष्‍ण-लीलाओं में अधिक रस भरा हुआ है। तुम श्रीराम रूप की लीलाओं की अपेक्षा श्रीकृष्‍ण-लीलाओं का आश्रय ग्रहण क्यों नहीं करते? हमारी हार्दिक इच्छा है कि तुम निरन्तर श्रीकृष्‍ण-लीलाओं का ही रसास्वादन किया करो। आज से श्रीकृष्‍ण को ही अपना सर्वस्व समझकर उन्हीं की अर्चा-पूजा तथा भजन-ध्‍यान किया करो।‘

प्रभु की आज्ञा मुरारी ने शिरोधार्य कर ली। पर उनके हृदय में खलबली-सी मच गयी। वे जन्म से ही रामोपासक थे। उनका चित्त तो रामरूप में रमा हुआ था, प्रभु उन्हें कृष्‍णोपासना करने के लिये आज्ञा देते हैं। इसी असमंजस में पड़े हुए वे रात्रि भर आंसू बहाते रहे। उन्हें क्षणभर के लिये भी नींद नहीं आयी। पूरी रात्रि रोते-रोते ही बितायी। दूसरे दिन उन्होंने प्रभु के समीप जाकर दीनता और नम्रता के साथ निवेदन किया- ‘प्रभो! यह मस्तक तो मैंने राम को बेच दिया है। जो माथा श्रीराम के चरणों में बिक चुका है, वह दूसरे किसी के सामने कैसे नत हो सकता है?

नाथ! मैं आत्माघात कर लूंगा, मुझसे न तो रामोपासना का परित्याग होगा और न आपकी आज्ञा का ही उल्लघंन करने की मुझमें सामर्थ्‍य है।’ इतना कहकर मुरारी फूट-फूटकर रुदन करने लगे। प्रभु इनकी ऐसी इष्‍टनिष्‍ठा देखकर अत्यन्त ही प्रसन्न हुए और जल्दी से इनका गाढ़ आलिगंन करते हुए गद्गद कण्‍ठ से कहने लगे- ‘मुरारी! तुम धन्य हो, तुम्हें अपने इष्‍ट में इतनी अधिक निष्‍ठा है, हमें भी ऐसा ही आशीर्वाद दो कि हमारी भी श्रीकृष्‍ण के पादपद्मों में ऐसी ही ऐकान्तिक दृढ़ निष्‍ठा हो।’ एक दिन प्रभु ने मुरारी से किसी स्तोत्र का पाठ करने के लिये कहा। मुरारी ने बड़े ही लय और स्वर के साथ स्वरचित रघुवीराष्‍टक को सुनाया। उसके दो श्‍लोक यहाँ दिये जाते हैं-

राजत्किरीटमणिदीधितिदीपिताश-

मुद्यद्बृहस्पतिकवि प्रतिमे वहन्तम्।

द्वे कुण्‍डलेऽंकरहितेन्दुसमानवक्‍त्रं

रामं जगत्त्रयगुरुं सततं भजामि।।

उद्यद्विभाकरमरीचिविरोधिताब्ज-

नेत्रं सुबिम्बदशनच्छदचारुनासम्।

शुभ्रांशुरश्मिपरिनिर्जितचारुहासं

रामं जगत्त्रयगुरुं सततं भजामि।।[1]

प्रभु इनके इस स्तोत्र पाठ से अत्यन्त ही प्रसन्न हुए और इनके मस्तक पर ‘रामदास’ शब्द लिख दिया। निम्न-श्‍लोक में इस घटना का कैसा सुन्दर और सजीव वर्णन है-

इत्‍थं निशम्‍य रघुनंदनराजसिंह-

श्‍लोकाष्‍टकं स भगवान चरणं मुरारे:।

वैद्यस्‍य मूर्ध्नि विनिधाय लिलेख भाले

त्‍वं ‘रामदास’ इति भो भव मत्‍प्रसादात्।।

वे प्रभु राजसिंह श्रीरामचन्‍द्र जी के इन आठ श्‍लोकों को सुनकर बड़े प्रसन्‍न हुए और वैद्यवर मुरारी गुप्‍त के मस्‍तक पर अपने श्रीचरणों को रखकर उनसे कहने लगे-‘तुम्‍हें मेरी कृपा से श्रीरामचन्‍द्र जी की अविरल भक्ति प्राप्‍त हो।’ ऐसा कहकर प्रभु ने उनके मस्‍तक पर ‘रामदास’ ऐसा लिख दिया।

इस प्रकार प्रभु का असीम अनुग्रह प्राप्‍त करके आनन्‍द में विभोर हुए मुरारी घर आये। आते ही इन्‍होंने भावावेश में अपनी पत्‍नी से खाने के लिये दाल-भात माँगा। पतिव्रता साध्‍वी पत्‍नी ने उसी समय दाल-भात परोस कर इनके सामने रख दिया। अब तो ये ग्रासों में घी मिला-मिलाकर जो भी बाल-बच्‍चा अथवा कोई भी दीखता, उसे ही प्रेमपूर्वक खिलाते जाते और स्‍वयं भी खाते जाते। बहुत-सा अन्‍न पृथ्‍वी पर भी गिरता जाता। इस प्रकार से ये कितना खा गये, इसका इन्‍हें कुछ भी पता नहीं। इनकी स्‍त्री ने जब इनकी ऐसी दशा देखी तब वह चकित रह गयी, किंतु उस पतिप्राणा नारी ने इनके काम में कुछ हस्‍तक्षेप नहीं किया। इसी प्रकार खा-पीकर सो गये। प्रात:काल जब उठे तो क्‍या देखते हैं, महाप्रभु इनके सामने उपस्थित हैं। इन्‍होंने जल्दी से उठकर प्रभु की चरण-वंदना की और उन्‍हें बैठने के लिये एक सुंदर आसन दिया। प्रभु के बैठ जाने पर मुरारी ने विनीतभाव से इस प्रकार असमय में पधारने का कारण जानना चा‍हा। प्रभु ने कुछ हंसते हुए कहा- ‘तुम्‍हीं तो वैद्य होकर आफल कर देते हो। लाओ कुद ओषधि तो दो।’ आश्‍चर्य प्रकट करते हुए मुरारी ने पूछा- ‘प्रभो! ओषधि कैसी? किस रोग की ओषधि चाहिये? रातभर में ही क्‍या विकार हो गया?

प्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘तुम्‍हें मालूम नहीं है क्‍या विकार हो गया? अपनी स्‍त्री से तो पूछो। रात को तुमने मुझे कितना घृतमिश्रित दाल-भात खिला दिया। तुम प्रेम से खिलाते जाते थे, मैं भला तुम्‍हारे प्रेम की उपेक्षा कैसे कर सकता था? जितना तुमने खिलाया, खाता गया। अब अजीर्ण हो गया है और उसकी ओषधि भी तुम्‍हारे पास ही रखी है। यह देखो, यही इस अजीर्ण की ओषधि है।’ यह कहते हुए प्रभु वैद्य की खाट के समीप रखे हुए उनके उच्छिष्‍ट पात्र का जल पान करने लगे। मुरारी यह देखकर जल्‍दी से प्रभु को ऐसा करने से निवारण करने लगे। किंतु तब तक प्रभु आधे से अधिक जल पी गये। यह देखकर मुरारी प्रेम के रोते-रोते प्रभु के पादद्मों में लोटने लगे।

एक दिन प्रभु ने अत्‍यंत ही स्‍नेह के सहित मुरारी गुप्‍त ने कहा- ‘मुरारी! तुमने अपनी अहैतु की भक्ति द्वारा श्रीकृष्‍ण को अपने वश में कर लिया है। अपनी प्रेमरूपी डोरी से श्रीकृष्‍ण को इस प्रकार कसकर बांध लिया है कि यदि वे उससे छूटने की भी इच्‍छा करें तो नहीं छूट सकते।’ इतना सुनते ही कवि-हृदय रखने वाले मुरारी गुप्‍त ने अपनी प्रत्‍युत्‍पन्‍नमति से उसी समय वह श्लोक पढ़कर प्रभु को सुनाया-

क्‍वाहं दरिद्र: पापीयान् क्‍व कृष्‍ण: श्रीनिकेतन:।

ब्रह्मबन्‍धुरिति स्‍माहं बाहुभ्‍यां परिरम्भित:।।

सुदामा की उक्ति है।

सुदामा की उक्ति है। सुदामा भगवान की दयालुता और असीम कृपा का वर्णन करते हुए कह रहे हैं- ‘भगवान की दयालुता तो देखिये-कहाँ तो मैं सदा पापकर्मों में रत रहने वाला दरिद्र ब्राह्मण और कहाँ सम्‍पूर्ण ऐश्‍वर्य के मूलभूत निखिल पुण्‍याश्रय श्रीकृष्‍ण भगवान! तो भी उन्‍होंने केवल ब्राह्मण-कुल में उत्‍पन्‍न हुए मुझ जातिमात्र के ब्राह्मण को अपनी बाहुओं से आलिंगन किया। इसमें मेरा कुछ पुरुषार्थ नहीं है। कृपालु कृष्‍ण की अहैतु की कृपा ही इसका एकमात्र कारण है।’ इस प्रकार प्रभु विविध प्रकार से मुरारी के सहित प्रेम प्रदर्शित करते हुए अपना मनोविनोद करते रहते थे और मुरारी को उसके द्वारा अनिर्वचनीय आनन्‍द प्रदान करते रहते थे। अब अद्वैतचार्य के संबंध की भी बातें सुनिये।

अद्वैताचार्य प्रभु से ही अवस्‍था में बड़े नहीं थे, किंतु सम्‍भवतया प्रभु के पूज्‍य पिता श्रीजगन्‍नाथ मिश्र से भी कुछ बड़े होंगे। विद्या में तो ये सर्वश्रेष्‍ठ समझे जाते थे। प्रभु ने जिनमें मन्‍त्र-दीक्षा ली थी, वे ईश्‍वरपुरी आचार्य के गुरुभाई थे, इस कारण वयोवृद्ध, विद्यावृद्ध, कुलवृद्ध और संबंध वृद्ध होने के कारण प्रभु इनका गुरु की ही तरह आदर-सत्‍कार किया करते थे। यह बात आचार्य के लिये अ‍सह्य थी। वे प्रभु को अपने चरणों में नत होकर प्रणाम करते देखकर बड़े लज्जित होते और अपने को बार-बार धिक्‍कारते। वे प्रभु से दास्‍य-भाव के इच्‍छक थे। प्रभु उनके ऊपर दास्‍य-भाव न रखकर गुरु-भाव प्रदर्शित किया करते थे, इसी कारण वे दु:खी होकर हरिदास जी के साथ शांतिपुर चले गये और वहीं जाकर विद्यार्थियों को अद्वैत-वैदांत पढ़ाने लगे और भक्ति-शास्‍त्र अभ्‍यास छोड़कर ज्ञानचर्चा करने लगे।

प्रभु इनके मनोगत भावों को समझ गये। एक दिन आपने नित्‍यानंद जी से कहा- ‘श्रीपाद! आचार्य इधर बहुत दिनों से नवद्वीप नहीं पधारे, चलो शांतिपुर चलकर ही उनके दर्शन कर आवें।’ नित्‍यानंद जी को भला इसमें क्‍या आपत्ति होनी थी? दोनों ही शांतिपुर की ओर चल पड़े। दोनों ही एक-से मतवाले थे, जिन्‍हें शरीर की सुधि नहीं, उन्‍हें भला रास्‍ते का क्‍या पता रहेगा? चलते-चलते दोनों ही रास्‍ता भूल गये। भूलते-भटकते दोनों गंगा जी के किनारे ललितपुर में पहुँचे। ललितपुर में पहुँचकर गंगा जी के किनारे इन्‍हें एक घर दिखायी दिया। लोगों से पूछा- ‘क्‍यों जी, यह किसका घर है?’ लोगों ने कहा- ‘यह घर गृहस्‍थी संन्‍यासी का है।’ यह उत्तर सुनकर प्रभु बड़े जोरों से खिलखिलाकर हंस पड़े और नित्‍यानंद जी से कहने लगे- ‘श्रीपाद! यह कैसे आश्‍चर्य की बात! गृहस्‍थी भी और फिर संन्‍यासी भी। गृहस्‍थी-संन्‍यासी तो हमने आजतक कभी नहीं देखा। चलो देखे तो सही, गृहस्‍थी-संन्‍यासी कैसे होते हैं? नित्‍यानंद जी यह सुनकर उसी घर की ओर चल पड़े। प्रभु भी उनके पीछे-पीछे चलने लगे। उस घर के द्वार पर पहुँचकर दोनों ने काषाय-वस्‍त्र पहने संन्‍यासी वेषधारी पुरुष को देखा।

नित्‍यानंद जी ने उन्‍हें नमस्‍कार किया। प्रभु ने संन्‍यासी समझकर उन्‍हें श्रद्धा सहित प्रणाम किया। संन्‍यासी के सहित एक परम सुंदर तेजस्‍वी तेईस वर्ष के ब्राह्मण-कुमार को अपने घर पर आते देखकर संन्‍यासी जी ने उनकी यथायोग्‍य अभ्‍यर्चना की और बैठने को आसन दिया। परस्‍पर में बहुत-सी बातें होती रहीं। प्रभु तो सदा प्रेम के भूखे ही बने रहते थे। उन्‍होंने चारो ओर देखते हुए संन्‍यासी जी से कहा- ‘संन्‍यासी महाराज! कुछ कुटिया में हो तो जलपान कराइये।’ संन्‍यासी जी के घर में दो स्त्रियाँ थी। उनसे संन्‍यासी जी ने जलपान लाने के लिये कहा। तब तक नित्‍यानंद जी के सहित प्रभु जल्‍दी से गंगा-स्‍नान करके आ गये और अपने-अपने आसनों पर दोनों ही बैठ गये। आषाढ़ का महीना था।

संन्‍यासी जी की स्‍त्री सुंदर-सुंदर आम और छिले हुए कटहल के कोये दो पात्रों में सजाकर लायीं। दो कटोरों में सुंदर दुग्‍ध भी था। प्रभु जल्‍दी-जल्‍दी कटहल और आमों को खाने लगे। वे संन्‍यासी महाशय वाममार्गी थे। यह हम पहले ही बता चुके हैं, उस समय बंगाल में वाममार्ग-पन्‍थ का प्राबल्‍य था। स्‍त्री ने पूछा- ‘क्‍या ‘आनन्‍द’ भी थोड़ी-सी लाऊं? संन्‍यासी जी ने संकेत द्वारा उसे मना कर दिया। स्‍त्री भीतर चली गयी। एक बड़े आम को खाते हुए प्रभु ने नित्‍यानंद जी से पूछा- ‘श्रीपाद! ‘आनन्‍द’ क्‍या वस्‍तु होता है? क्‍या संन्‍यासीयों की भाषा पृथक होती है? या गृहस्‍थी-संन्‍यासीयों की यह भाषा है। तुम तो गृहस्‍थी–संन्‍यासी नहीं हो फिर भी जानते ही होगे।’

प्रभु के इस प्रश्‍न से नित्‍यानंद जी हंसने लगे। प्रभु ने फिर पूछा- ‘श्रीपाद! हंसते क्‍यों हो, ठीक-ठीक बताओं? आनन्‍द क्‍या है? कोई मीठी चीज हो तो मंगाओ, दूध के पश्‍चात मीठा मुंह होगा!’

आम के रस को चूसते हुए नित्‍यानंद जी ने कहा- ‘प्रभों! ये लोग वाममार्गी हैं। मदिरा को ‘आनन्‍द’ कहकर पुकारते हैं। यह सुनकर प्रभु को बड़ा दु:ख हुआ। वे चारों ओर घिरे हुए सिंह की भाँति देखने लगे। इतने में ही स्‍त्री के बुलाने पर संन्‍यासी महाशय भीतर चले गये। उसी समय प्रभु जलपान के बीच में से ही उठकर दौड़ पड़े। नित्‍यानंद जी भी पीछे-पीछे दौड़े। इन दोनों को जलपान के बीच में ही भागते देखकर संन्‍यासी जी भी इन्‍हें लौटाने के लिये चले। प्रभु जल्‍दी से गंगा जी में कूद पड़े और तैरते हुए शांतिपुर की ओर चलने लगे। नित्‍यानंद जी तो तैरने के आचार्य ही थे, वे भी प्रभु के पीछे-पीछे तैरने लगे। गंगा जी के बीच में ही प्रभु का आवेश आ गया। दो कोस के लगभग तैरकर ये शांतिपुर के घाटपर पहुँचे और घाट से सीधे ही आचार्य के घर पहुँचे। दूर से ही हरिदास जी ने प्रभु को देखकर उनकी चरण-वंदना की, किंतु प्रभु को कुद होश नहीं था, वे सीधे अद्वैताचार्य के ही समीप पहुँचे। उन्‍हें देखते ही प्रभु ने कहा- ‘क्‍यों! फिर सूख ज्ञान बघारने लगे।’

आचार्य ने कहा- ‘सूखा ज्ञान कैसे है, ज्ञान तो सर्वश्रेष्‍ठ है। भक्ति तो स्त्रियों के लिये है।’ इतना सुनते ही प्रभु जोरों से अद्वैताचार्य जी को पीटने लगे। सभी लोग आश्‍चर्य के साथ इस अद्भुत लीला को देख रहे थे। किसी की भी हिम्‍मत नहीं होती थी कि प्रभु की इस काम से निवारण करे। प्रभु भी बिना कुछ सोचे- विचारे बूढ़े आचार्य की पीठ पर थप्‍पड़– घूंसे मार रहे थे। ज्‍यों-ज्‍यों मार पड़ती, त्‍यों-ही-त्‍यों अद्वैत और अधिक प्रसन्‍न होते। मानों प्रभु अपने प्रेम की मारद्वारा ही अद्वैताचार्य के शरीर में प्रेम का संचार कर रहे हैं।

अद्वैताचार्य के चेहरे पर दु:ख, शोक या विषण्णता अणुमात्र भी नहीं दिखायी देती थी। उलटे वे अधिकाधिक हर्षोन्‍नमत्त- से होते जाते थे। खटपट और मार की आवाज सुनकर भीतर से आचार्य की धर्मपत्‍नी सीता देवी भी निकल आयीं। उन्‍होंने प्रभु को आचार्य के शरीर पर प्रहार करते देखा तो घबड़ा गयीं और अधीर होकर कहने लगीं-‘हैं, हैं, प्रभु! आप यह क्‍या कर रहे हैं। बूढ़े आचार्य के ऊपर आपको दया नहीं आती।’ किंतु प्रभु किसी की कुछ सुनते ही न थे।

आचार्य भी प्रेम में विभोर हुए मार खाते जाते और नाचते-नाचते गौर-गुणवान करते जाते। इस प्रकार थोड़ी देर के पश्‍चात प्रभु को मूर्च्‍छा आ गयी और बेहोश होकर गिर पड़े। बाह्यज्ञान होने पर उन्‍होंने आचार्य को हर्ष के सहित नृत्‍य करते और अपने चरणों में लोटते हुए देख, तब आप जल्‍दी उठकर क‍हने लगे- ‘श्री‍हरि, श्री‍हरि! मुझसे कोई अपराध तो नहीं हो गया। मैंने अचेतनावस्‍था में कोई चंचलता तो नहीं कर डाली। आप तो मेरे पितृतुल्‍य हैं। मैं तो भाई अच्‍युत के समान आपका पुत्र हूँ। अचेतनावस्‍था में यदि कोई चंचलता मुझसे हो गयी हो, तो उसे आप क्षमा कर दें।’ इतना कहकर ये चारों ओर देखने लगे। सामने सीता देवी को खड़ी हुई देखकर आप उनसे कहने लगे- ‘माता जी! बड़ी जोर की भूख लग रही है। जल्‍दी से भोजन बनाओ।’ यह कहकर आप नित्‍यानंद जी से कहने लगे- ‘श्रीपाद! चलो, जब तक हम जल्‍दी से गंगास्‍नान कर आवें और तब तक माता जी भात बना रखेंगी।’ इनकी बात सुनकर आचार्य हरिदास तथा नित्‍यानंद जी इनके साथ गंगा जी की ओर चल पड़े। चारों ने मिलकर खूब प्रेमपूर्वक स्‍नान किया। स्‍नान करने के अनन्‍तर सभी लौटकर आचार्य के घर आ गये। आचार्य के पूजा-गृह में जाकर प्रभु ने भगवान के लिये साष्‍टांग प्रणाम किया। उसी समय आचार्य प्रभु के चरणों में लोट गये।

आचार्य के चरणों में हरिदास जी लोटे। इस प्रकार आचार्य को अपने चरणों में देखकर प्रभु जल्‍दी से कानों पर हाथ रखते हुए उठे और अपने दाँतों से जीभ काटते हुए कहने लगे- ‘श्रीहरि, श्रीहरि! आप यह हमारे ऊपर कैसा अपराध चढ़ा रहे हैं? हम तो आपके पुत्र के समान हैं।

भोजन तैयार था, सभी ने साथ बैठकर बड़े ही प्रेम के साथ भोजन किया। रात्रिभर नित्‍यानंद जी के सहित प्रभु ने आचार्य के घर पर ही निवास किया। दूसरे दिन आप गंगा को पार करके उस पार कालना नामक स्‍थान में पहुँचे। वहाँ पर परम वैष्‍णव गौरीदास जी धरवार छोड़कर एकांत में गंगा जी के किनारे रहकर भजन-भाव करते थे। प्रभु विचित्र वेश से उनके पास पहुँचे। प्रभु के कंधे पर नाव खेने का एक डांड़ रखा हुआ था, वे मल्‍लाओं की तरह हिलते-हिलते गौरीदास जी के समीप पहुँचे। गौरीदास जी ने प्रभु की प्रशंसा तो बहुत दिनों से सुन रखी थी;

किंतु उन्‍हें प्रभु के दर्शनों का सौभाग्‍य अभी तक नहीं प्राप्‍त हुआ था। प्रभु का परिचय पाकर उन्‍होंने इनकी पूजा की और अन्‍य सामग्रियों से उनका सत्‍कार किया। प्रभु ने उन्‍हें वह डाँड़ देते हुए कहा- ‘आप इसके द्वारा संसार सागर में डूबे हुए लोगों का उद्धार कीजिये और उन्‍हें संसार सागर से पार उतारिये।’ उसे प्रभु की प्रसादी समझकर उन्‍होंने उसे सहर्ष स्‍वीकार किया। उनके परलोगमन के अनन्‍तर उस डाँड़ के अधि‍पति उनके पट्टशिष्‍य-श्रीहृदय चैतन्य महाराज हुए। उन्‍होंने उस डांड़ की बड़ी महिमा बढ़ायी उनके उत्‍तराधिकारी महात्‍मा श्री श्‍यामानंद जी ने तो सम्‍पूर्ण उड़ीसा प्रान्‍त में ही गौर-धर्म का बड़ा भारी प्रचार किया। सम्‍पूर्ण उड़ीसा-देश में जो आज गौर-धर्म का इतना अधिक प्रचार है, उसका सब श्रेय महात्‍मा श्‍यामानंद जी को ही है। उन्‍होंने लाखों उड़ीसा-प्रांत निवासियों को गौर-भक्‍त बनाकर उन्‍हें भगवन्‍नामोपदेश किया। सचमुच प्रभु-प्रदत्‍त वह डाँड़ लोगों को संसार सागर से पार उतारने का एक प्रधान कारण बन सका। कालना से चलकर प्रभु फिर नवद्वीप में ही आकर रहने लगे। आचार्य भी बीच-बीच में प्रभु के दर्शनों को नवद्वीप आते थे।

इसी प्रकार एक दिन श्रीवास पण्डित अपने घर में पितृश्राद्ध करके पितरों की प्रसन्‍नता के निमित्‍त विष्‍णु सहस्‍त्रनाम का पाठ कर रहे थे। उसी समय प्रभु वहाँ आ उपस्थित हुए। पाठ सुनते-सुनते ही प्रभु को वहाँ फिर नृसिंहावेश हो आया और वे नृसिंहवेश में आकर हुंकार देने लगे और चारों और इधर-उधर दौड़ने लगे। प्रभु की हुंकार और गर्जना को सुनकर सभी लोग भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। लोगों को भयभीत देखकर श्रीवास पण्डित ने प्रभु से भाव-संवरण करने की प्रार्थना की। श्रीवास की प्रार्थना पर प्रभु मूर्च्छित होकर गिर पड़े और थोड़ी देर में प्रकृतिस्‍थ हो गये।

एक बार वनमाली आचार्य नाम का एक कर्मकाण्‍डी की ब्राह्मण अपने पुत्र सहित प्रभु के पास आया और उनके पादपद्मों में प्रणाम करके उसने अपनी निष्‍कृति का उपाय पूछा। प्रभु ने उसके ऊपर कृपा प्रदर्शित करते कहा- ‘इस कलिकाल में कर्मकाण्‍ड की क्रियाओं का सांगोपांग होना बड़ा दुस्‍साध्‍य है। अन्‍य युगों की भाँति इस युग में द्रव्‍य-शुद्धि, शरीरशुद्धि बन ही नहीं सकती। इसलिये इस युग में तो बस, एकमात्र भगवन्‍नाम ही आधार है।’ जैसा कि सभी शास्‍त्रों में बताया गया है-

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।

कलौ नास्‍त्‍येव नास्‍त्‍येव नास्‍त्‍येव गतिरन्‍यथा।

प्रभु के उपदेशानुसार वह कर्मकाण्‍डी ब्राह्मण परम भागवत वैष्‍णव बन गया।

एक दिन प्रभु विष्‍णु-मण्‍ड पर बैठकर बलदेव जी के आवेश में आकर ‘मधु लाओ, मधु लाओ’ इस प्रकार कहने लगे। नित्‍यानंद जी समझ गये कि प्रभु को बलदेव जी का आवेश हो आया है, इसलिये उन्‍होंने एक घड़ा गंगाजल लाकर प्रभु के सम्‍मुख रख दिया। जल पीकर प्रभु जोरों के साथ नृत्‍य करने लगे और जिस प्रकार बलदेव जी ने यमुनाकर्षण-लीला की थी, उसी का अभिनय करने लगे। उस समय वनमाली आचार्य को प्रभु के हाथ में सोने के हल और लांगल दिखायी देने लगे। चन्‍द्रशेखर आचार्य को प्रभु बलराम के रूप में दीखने लगे।

इस प्रकार प्रभु अपने अन्‍तरंग भक्‍तों को भाँति-भाँति की अलौकिक और प्रेममय लीलाएँ दिखाने लगे।

क्रमशः अगला पोस्ट [70]

••••••••••••••••••••••••••••••••••

[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:.

[Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram

love affair with devotees

In any case, this taste of the Supreme Personality of Godhead is very difficult for devotees.

That lotus feet are worshiped by all His devotees.

With whom to give the metaphor of love? Love is a unique thing. Love is pervading equally in all the immovable, movable, immovable, living and non-living. Love is the only thing in the world that is full of emotion. Those who consider the sky as pola, they have forgotten. The sky is more solid than iron. Not even a single atom can fit in it, it is filled to the brim with the feelings of virtues and vices. Love pervades all of them equally. Love should be considered as lime-spice or a binding substance. All these feelings are sustained because of love. But the achievement of love is not everywhere. He is fully manifested in the bodies of the devotees only. Only the devotees continuously drink the chemical of love with each other.

There is love-only-love in his every effort. He always remains free from external frenzy by drinking love-Varuni and keeps drinking cupfuls of that Varuni to his beloved friends and devotees. , become blessed, being free from shame, hatred and fear, they also start raving like madmen. There is so much joy in the character of those lunatics, what a unique juice. His fighting, abusing, praise-prayer, eating and sleeping, all these works seem divine and supernatural – because of the presence of love in all the works. Hearty men feel happy by listening to them, they also start yearning for that premasav and because of that yearning, they finally become entitled to God’s love.

Mahaprabhu now started performing very sweet pastimes with the devotees. Ever since Jagai-Madhai was saved and he renounced everything and started living at Srivas Pandita’s place, the enthusiasm of the devotees has increased tremendously. Others have also started realizing the importance of sankirtan. Now Sankirtan is being discussed more than ever in Navadvipa. The detractors are now trying to defame Kirtan in various ways. Reader! Let those detractors condemn. Now you can only enjoy the wonderful pastimes performed with the devotees of Gaur.

Murari Gupta was Prabhu’s classmate, he was even older than Prabhu. The Lord loved him very much and considered him to be his very intimate devotee. Murari also had full devotion at the feet of the Lord. He was a Ramopasak, considering himself to be Hanuman, sometimes he used to roar like Hanuman ji in a fit of emotion. He always considered himself to be a servant of the Lord. One day the Lord called out in Vishnu-Bhav by saying ‘Garuda’-‘Garuda’. Just then, Murari spread his clothes like wings on both sides and quickly put the Lord on his shoulder and started roaming around in the courtyard with joy. Seeing this, the joy of the devotees knew no bounds. He appeared to them as the four-armed Lord Narayan mounted on Garuda and carrying these four things, conch, chakra, mace and lotus in all four hands. The devotees started dancing with joy. Other women like Malati Devi and Sachi Mata started getting scared seeing the Lord mounted on Murari’s shoulder. After some time, the Lord got external knowledge and got down from Murari’s shoulder.

Murari was a Ramopasak. The Lord was fully aware of the devotion of his solitude. In order to show his influence to the devotees, the Lord said to him one day in solitude – ‘Murari! It is absolutely correct that both Shri Ram and Shri Krishna are one and the same. These are also among the eternal forms of the same God. Worship any name and form of God, in the end the result of all is God-attainment, but the pastimes of Shri Krishna are filled with more juice than the pastimes of Shri Ramchandra ji. Why don’t you take shelter of Krishna’s pastimes instead of the pastimes of Shri Ram? It is our heartfelt desire that you continue to relish the pastimes of Shri Krishna. From today onwards, considering Shri Krishna as your everything, worship him, worship him and meditate on him.’

Murari obeyed the command of the Lord. But there was a disturbance in his heart. He was a Ramopasak since birth. His mind was engrossed in the form of Ram, the Lord orders him to worship Krishna. Lying in this confusion, he kept shedding tears throughout the night. He could not sleep even for a moment. Spent the whole night crying. On the second day, he went near the Lord and requested with humility and humility – ‘Lord! I have sold this head to Ram. The one who has surrendered his head at the feet of Shri Ram, how can he bow before anyone else?

God! I will commit suicide, neither will I be able to give up worshiping Ram, nor do I have the ability to disobey your order.’ Saying this, Murari started crying bitterly. The Lord was extremely pleased to see such devotion of his and quickly embracing him deeply, started saying in a gleeful voice – ‘Murari! You are blessed, you have so much loyalty in your love, give us the same blessings that we also have such exclusive steadfast loyalty in the lotus feet of Shri Krishna.’ One day the Lord asked Murari to recite a hymn. Murari recited Raghuveerashtak, composed with great rhythm and tone. Two of his verses are given here-

Rajatkiritamaniddhitidipitash-

carrying the statue of the poet Jupiter in joy.

Two earrings without anchors and a face like the moon

I constantly worship Rama, the spiritual master of the three worlds.

Udyadvibhakaramarichivirodhitabja-

The eyes are well-imaged, the teeth are covered, and the nose is beautiful.

A beautiful smile illuminated by the white rays

I constantly worship Rama, the spiritual master of the three worlds.

The Lord was very pleased with his recitation of this hymn and wrote the word ‘Ramdas’ on his forehead. What a beautiful and lively description of this incident is given in the following verse-

Hearing this, Raghunandan Rajasingh-

That divine feet of Murari in eight verses.

He placed the inscription on the doctor’s head and speared it

You become ‘Ramdas’ by My grace.

Hearing these eight verses of Prabhu Rajsingh Shriramchandra ji, he was very happy and placing his feet on the head of Vaidyawar Murari Gupta, said to him – ‘May you get unceasing devotion to Shriramchandra ji by my grace.’ ‘Ramdas’ was written like this.

Thus having received the infinite grace of the Lord, Murari came home filled with joy. As soon as he came, he asked his wife for pulses and rice to eat. At the same time, the pious saintly wife served dal and rice and kept it in front of him. Now, by mixing ghee in the grass, whatever child or anyone he saw, he used to feed them with love and used to eat them himself. A lot of food kept falling on the earth as well. They don’t know how much they ate in this way. When his wife saw his condition, she was surprised, but that loving woman did not interfere in his work. In the same way they slept after eating and drinking. What do they see when they wake up in the morning, Mahaprabhu is present in front of them. He quickly got up and worshiped the feet of the Lord and gave him a beautiful seat to sit on. When Prabhu sat down, Murari humbly wanted to know the reason for his untimely arrival. The Lord said laughing a bit – ‘ You are the one who makes it successful by being a doctor. Bring some medicine.’ Expressing surprise, Murari asked – ‘Lord! How is the medicine? Which disease’s medicine is required? What disorder happened overnight?

The Lord laughed and said – ‘ You don’t know what disorder has happened? Ask your wife. You fed me so much rice and pulses mixed with ghee at night. You used to feed me with love, how could I ignore your love? He ate as much as you fed him. Now he has indigestion and his medicine is also kept with you. Look at this, this is the medicine for this indigestion.’ Saying this, the Lord started drinking water from the discarded vessel kept near the doctor’s bed. Seeing this Murari quickly started preventing Prabhu from doing so. But by then the Lord had drunk more than half of the water. Seeing this, Murari started rolling at the lotus feet of the Lord crying out of love.

One day Lord Murari Gupta said with great affection – ‘Murari! You have brought Shri Krishna under your control by your causeless devotion. She has tied Shri Krishna tightly with the cord of her love in such a way that even if he wanted to get rid of her, he could not get rid of her.’ On hearing this, Murari Gupta, who had a poet’s heart, recited that verse at the same time from his Pratyutpannamati and recited to the Lord-

Where am I, poor and sinful? Where is Krishna, the abode of Sri?

I embraced him with my arms calling him Brahmabandhu

It is the statement of Sudama.

It is the statement of Sudama. Describing God’s kindness and infinite grace, Sudama is saying- ‘Look at God’s kindness – where I am a poor Brahmin who is always engaged in sinful deeds and where is Lord Krishna, Nikhil Punyasraya, the foundation of all opulence! Even then, he only embraced me, a Brahmin of caste, born in a Brahmin clan, with his arms. There is no effort of mine in this. The only reason for this is the causeless grace of the merciful Krishna.’ Thus the Lord entertained Himself by showing love to Murari in various ways and thereby giving Murari indescribable joy. Now listen to the things about Advaitacharya’s relationship.

Advaitacharya was not bigger in status than Prabhu, but probably would be a bit bigger than Prabhu’s revered father Shri Jagannath Mishra. He was considered the best in education. The one in whom Prabhu took mantra-diksha, was the teacher’s brother of Ishwarpuri Acharya, that’s why due to being old, old in education, old in relations, Prabhu used to respect him like a teacher. This thing was unbearable for Acharya. Seeing the Lord bowing down at his feet, he was very ashamed and used to curse himself again and again. They were desirous of servitude to the Lord. Prabhu used to show guru-feelings instead of keeping them as slaves, that is why he went to Shantipur with Haridas ji and after going there started teaching Advaita-Vedanta to the students and leaving the practice of Bhakti-Shastra, started discussing knowledge.

The Lord understood their occult feelings. One day you said to Nityanand ji – ‘Shripad! Acharya has not come here to Navadweep for a long time, let’s go to Shantipur and visit him.’ What objection did Nityanand ji have in this? Both of them started towards Shantipur. Both were equally intoxicated, who do not care about the body, how would they know the way? While moving along, both of them forgot their way. While wandering, both of them reached Lalitpur on the banks of Ganga ji. After reaching Lalitpur, he saw a house on the banks of the Ganges. Asked the people – ‘Why, whose house is this?’ How surprising! A householder as well as a sannyasin. We have never seen a householder-sanyasi till date. Well, let’s see, how are householder-monks? Hearing this, Nityanand ji started towards the same house. The Lord also started following them. On reaching the door of that house, both of them saw a man dressed as an ascetic wearing orange clothes.

Nityananda ji greeted him. The Lord bowed down to him with reverence considering him as a monk. Seeing a most beautiful twenty-three year old Brahmin-kumar coming to his house along with the Sanyasi, the Sanyasi ji worshiped him appropriately and offered him a seat. Many things kept happening with each other. God always remained hungry for love. Looking around, he said to Sanyasi ji – ‘Sanyasi Maharaj! If you are in some cottage, then get some refreshments. There were two women in the monk’s house. Sanyasi ji asked him to bring refreshments. Till then, Prabhu along with Nityananda ji came quickly after bathing in the Ganges and both of them sat on their respective seats. It was the month of Ashadh.

Sanyasi ji’s wife brought beautiful mangoes and peeled jackfruits decorated in two vessels. There was also beautiful milk in two bowls. Prabhu quickly started eating jackfruit and mangoes. That monk gentleman was a leftist. We have already told this, at that time the Leftist sect was dominant in Bengal. The woman asked – ‘Should I bring a little bit of ‘Anand’? Sanyasi ji refused him by giving a signal. The woman went inside. While eating a big mango, the Lord asked Nityanand ji – ‘Shripad! What is ‘joy’? Is the language of the monks different? Or this is the language of the householder-monks. You are not a householder, yet you must have known.

Nityanand ji started laughing at this question of the Lord. The Lord again asked – ‘Shripad! Why are you laughing, tell me exactly? What is joy? If you want something sweet, ask for it, after milk your mouth will be sweeter!’

Sucking the mango juice, Nityanand ji said – ‘Lord! These people are leftists. Wine is called ‘Anand’. Prabhu was very sad to hear this. He started looking like a lion surrounded all around. In the meantime, on being called by the woman, the monk went inside. At the same time, the Lord got up from the middle of the refreshment and started running. Nityanand ji also ran behind. Seeing these two running away in the middle of the refreshment, Sanyasi ji also went to return them. Prabhu quickly jumped into Ganga ji and started swimming towards Shantipur. Nityanand ji was the master of swimming, he also started swimming behind the Lord. Lord’s passion came in the midst of Ganga ji. After swimming about two kos, he reached the ghat of Shantipur and directly reached Acharya’s house from the ghat. Seeing the Lord from a distance, Haridas ji worshiped the feet of the Lord, but the Lord was not conscious, he directly reached near Advaitacharya. On seeing them, the Lord said – ‘Why! Then started pouring dry knowledge.

Acharya said- ‘How is dry knowledge, knowledge is the best. Devotion is for women.’ As soon as he heard this, the Lord started beating Advaitacharya ji. Everyone was watching this wonderful pastime with wonder. No one had the courage to stop the Lord from this work. Prabhu was also slapping and punching the old Acharya on the back without thinking anything. Advait became more and more happy as soon as he was beaten. It is as if the Lord is infusing love in the body of Advaitacharya only through the beat of his love.

Advaitacharya’s face did not show even an iota of sorrow, grief or irritation. On the contrary, they became more and more ecstatic. Acharya’s wife Sita Devi also came out from inside after hearing the sound of banging and hitting. When she saw Prabhu hitting Acharya’s body, she got scared and started saying impatiently – ‘Yes, yes, Lord! What are you doing? You do not feel pity on the old Acharya.’ But the Lord did not listen to anyone.

Acharya too used to get beaten up while being engrossed in love and used to dance and dance. Thus after some time the Lord fainted and fell unconscious. On attaining external knowledge, he saw Acharya dancing with joy and rolling at his feet, then you got up early and started saying – ‘Shri Hari, Shri Hari! I haven’t committed any crime. I didn’t do any fickleness in my unconscious state. You are like my father. I am your son like brother Achyut. Please forgive me if I have erred in my unconsciousness.’ Having said this, he looked around. Seeing Sita Devi standing in front, you started saying to her – ‘Mother! Feeling very hungry. Cook food quickly.’ Saying this you started saying to Nityanand ji – ‘Shripad! Come on, as long as we come back after taking a quick bath in the Ganges and till then mother will prepare rice.’ After listening to her, Acharya Haridas and Nityanand ji went towards Ganga ji with her. All four bathed together very lovingly. After taking bath everyone returned to Acharya’s house. The Lord prostrated before the Lord after going to the Acharya’s place of worship. At the same time Acharya returned at the feet of the Lord.

Haridas ji fell at the feet of Acharya. In this way, seeing the Acharya at his feet, the Lord quickly got up keeping his hands on his ears and started saying while biting his tongue – ‘Sri Hari, Sri Hari! What kind of crime are you projecting this on us? We are like your sons.

Food was ready, everyone sat together and ate with great love. Prabhu along with Nityananda ji stayed at Acharya’s house for the whole night. On the second day you crossed the Ganges and reached a place called Kalna. There Param Vaishnav Gauridas ji left his court and used to do bhajan-bhaav by staying in solitude on the banks of Ganga ji. The Lord reached him in a strange disguise. A rowing oar was placed on the Lord’s shoulder, he reached near Gauridas ji shaking like a malla. Gauridas ji had heard the praise of the Lord for many days;

But he had not yet received the fortune of seeing the Lord. After getting the introduction of the Lord, he worshiped him and honored him with other things. The Lord gave him that rod and said- ‘You can save the people who are drowned in the ocean of the world through it and bring them across the ocean of the world.’ He happily accepted it considering it as Prasad of the Lord. After his passing away, his pattashishya-Shrihridaya Chaitanya Maharaj became the ruler of that dand. He increased the glory of that stick, his successor Mahatma Shree Shyamanand ji propagated Gaur-Dharma extensively in the entire Orissa region. All the credit goes to Mahatma Shyamanand ji for the fact that Gaur-Dharma is being propagated so much in the whole of Orissa-country today. He made millions of residents of Orissa-province Gaur-devotees and preached them to God. Indeed, that God-given rod could become a major reason for people to cross the worldly ocean. After moving from Kalna, the Lord again came and started living in Navadweep. Acharya also used to come to Navadweep to have darshan of the Lord.

Similarly, one day Shrivas Pandit was reciting Vishnu Sahastranam for the happiness of the ancestors by performing Pitru Shradh in his house. At the same time the Lord appeared there. As soon as he heard the lesson, the Lord again got into Nrusinghvesh there and he started roaring in Nrusinghvesh and started running here and there. Hearing the roar and roar of the Lord, all the people got scared and started running here and there. Seeing the people in fear, Shreevas Pandit prayed to the Lord to pacify him. On the prayer of Shrivas, the Lord fell down unconscious and became natural in a short while.

Once a ritualistic Brahmin named Vanamali Acharya came to the Lord along with his son and by bowing down at His lotus feet, he asked the remedy for his emancipation. The Lord showed mercy on him and said – ‘ It is very difficult to have a Sangopang of rituals in this Kalikal. Like other ages, physical purification cannot become physical purification in this era. That’s why in this age, only the name of God is the basis.’ As told in all the scriptures-

The name of the Lord is the name of the Lord, and the name of the Lord is the only name of the Lord.

In Kali there is no other movement.

As per the instructions of the Lord, that ritualistic Brahmin became Param Bhagwat Vaishnav.

One day Lord Vishnu, sitting on the Mand, came under the influence of Baldev ji and started saying ‘bring honey, bring honey’. Nityanand ji understood that Prabhu was infatuated with Baldev ji, so he brought a pitcher of Ganges water and kept it in front of Prabhu. After drinking water, the Lord started dancing with full swing and started acting the way Baldev ji had performed Yamunakarshan-leela. At that time Vanmali Acharya started seeing golden plow and langal in the hands of the Lord. Chandrashekhar started seeing Acharya in the form of Lord Balaram.

In this way, the Lord started showing various supernatural and loving pastimes to His intimate devotees.

respectively next post [70]

••••••••••••••••••••••••••••••••••

[From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *