[71]”श्रीचैतन्य–चरितावली”

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।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
नदिया में प्रेम-प्रवाह और क़ाज़ी का अत्‍याचार

नामैकं यस्‍य वाचि स्‍मरणपथगतं श्रोत्रमूलं गतं वा
शुद्ध वाशुद्धवर्ण व्‍यवहितिसहितं तारमत्‍येव सत्‍यम्।
तच्‍चेद्देहद्रविणजनतालोभपाखण्‍डमध्‍ये
निक्षिप्‍तं स्‍यान्‍न फलजनकं शीघ्रमेवात्र विप्र।।

प्रेम ही ‘जीवन’ है। जिस जीवन में प्रेम नहीं, वह जीवन नहीं जंजाल है। जहाँ प्रेम है, वही वास्‍तविक प्रेम की छटा दृष्टिगोचर होती है। कहीं प्रेमियों का सम्मिलन देखिये, प्रेमियों की वार्ता सुनिये अथवा प्रेमियों के हास-परिहास, खान-पान अथवा उनके मेलों-उत्‍सवों में सम्मिलित हूजिये, तब आपको पता चलेगा कि वास्‍तविक जीवन कैसा होता है और उसमे कितना मजा है, कितनी मिठास है। उस मिठास के सामने संसार के जितने मीठे कहे जाने वाले पदार्थ हैं, सभी फीके-फीके–से प्रतीत होने लगते हैं। किसी भाग्‍यवान पुरुष के शरीर में ही प्रेम प्रकट होता है और उसकी छत्रछाया में जितने भी प्राणी आकर आश्रय ग्रहण करते हैं, वे सभी पावन बन जाते हैं, उन्‍हें भी वास्‍तविक जीवन का सुख मिल जाता है। प्रेमी जिस स्‍थान में निवास करता है, वह भूमि पावन बन जाती है, जिस स्‍थान में वह क्रीड़ा करता है, वह स्‍थान तीर्थ बन जाता है, और जिन पुरुषों के साथ वह लीला करता है, वे बड़भागी पुरुष भी सदा के लिये अमर बन जाते हैं। जिस नवद्वीप में प्रेमवतार गौरचन्‍द्र उदित होकर अपनी सुखद शीतल किरणों के प्रकाश से संसारी तापों से आक्‍लांत प्राणियों को शीतलता प्रदान कर रहे हों उस भाग्‍यवती नगरी के उस समय के आनन्‍द का वणन कर ही कौन सकता है? महाप्रभु के कीर्तनारम्‍भ से सम्‍पूर्ण नवद्वीप एक प्रकार से आनन्‍द का घर ही बन गया था। वहाँ हर समय श्रीकृष्‍ण-कीर्तन की सुमधुर ध्‍वनि सुनायी पड़ती थी।

जगाई-मधाई के उद्धार से लोग संकीर्तन का महत्त्व समझने लगे। हजारों लोग सदा प्रभु के दशर्नों के लिये आते। वे प्रभु के लिये भाँति-भाँति की भेंटे लाते। कोई तो सुंदर पुष्‍पों की मालाएँ लाकर प्रभु के गले में पहनाता, कोई स्‍वादिष्‍ट फलों को ही उपहारस्‍वरूप प्रभु के सामने रखता। बहुत-से सुंदर-सुंदर पकवान अपने घरों से लाकर प्रभु को भेंट करते। प्रभु उनमें से थोड़ा-सा लेकर सभी के मन को प्रसन्‍न कर देते। सभी आकर पूछते- प्रभो! हमलोग भी कुछ कर सकते हैं? क्‍या हमलोगों को भी कृष्‍ण कीर्तन का अधिकार है?’ प्रभु कहते- ‘कृष्‍ण-कीर्तन सब कोई कर सकता है। इसमें तो अधिकार-अनधिकारी का प्रश्‍न ही नहीं। भगवन्‍नाम के तो सभी अधिकारी हैं। नाम में विधि-निषेध अथवा ऊँच-नीच का विचार ही नहीं। आपलोग प्रेम-पूर्वक श्रीकृष्‍ण-कीर्तन कर सकते हैं।‘ इस पर लोग पूछते- ‘प्रभो! हमलोग तो जानते भी नहीं, कीर्तन कैसे किया जाता है। हमें आजतक संकीर्तन की शिक्षा ही नहीं मिली और न हमने इसकी पद्धति किसी पुस्‍तक में ही पढ़ी।

प्रभु हंसकर कहने लगते- ‘नाम-संकीर्तन में सीखना ही क्‍या है, यह तो बड़ा सरल मार्ग है। इसके लिये विज्ञता अथवा बहुज्ञता की आवश्‍यकता नहीं। सभी कोई इसे कर सकते हैं। देखो, इस प्रकार ताली बजाकर-

हरि हरये नम: कृष्‍ण यादवाय नम:।
गोपाल गोविन्द राम श्रीमधुसूदन।।

इस मन्त्र को या और किसी मन्त्र को जिसमें भगवान के नामों का ही कीर्तन हो, गाते गये, दस-पांच अपने साथी इकट्ठे कर लिये और सभी मिलकर नाम-संकीर्तन करने लगे। तुम लोग नियमपूर्वक महीने भर तक करो तो सही, फिर देखना कितना आनन्द आता है।’ लोग प्रभु के मुख से भगवन्नाम-माहात्म्य और कीर्तन की महिमा सुनते और वहीं उन्हें दिखा-दिखाकर संकीर्तन करने लगते। जहाँ वे भूल करते प्रभु उन्हें फौरन बता देते। इस प्रकार उनसे जो भी पूछने आते, उन सभी को भगवन्नाम संकीर्तन का ही उपदेश करते। लोग महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके अपने-अपने घरों को चले आते और दूसरे ही दिन से संकीर्तन आरम्भ कर देते। पहले तो लोग ताली बजा-बजाकर ही कीर्तन करते थे, किंतु ज्यों-ज्यों उन्हें आनन्द आने लगा, त्यों-ही-त्यों उनके संकीर्तन के साथ ढोल-करताल तथा झाँझ-मृदंग आदि वाद्यों का ही समावेश होने लगा। एक को कीर्तन करते देखकर दूसरे को भी उत्साह होने लगा और उसने भी दस-पांच लोगों को इकट्ठा करके अपनी एक छोटी संकीर्तन-मण्‍डली बना ली और दोनों समय नियम से संकीर्तन करने लगे। इस प्रकार प्रत्येक मुहल्ले में बहुत-सी संकीर्तन मण्‍डलियां स्थापित हो गयीं। अच्छे-अच्छे घरों के लोग संध्‍या-समय अपने सभी परिवार वालों को साथ लेकर संकीर्तन करते। जिसमें स्त्री-पुरुष, छोटे-बडे़ सभी सम्मिलित होते।

भक्त सदा आनन्द में छके-से रहते। परस्पर एक-दूसरे का आलिंगन करते। दो भक्त जहाँ भी रास्ते में मिलते, वहीं एक-दूसरेसे लिपट जाते। कोई दूसरे को साष्‍टांग प्रणाम ही करते, वह जल्दी से उनकी चरण-रज लेने को दौड़ता। कभी दस-बीस भक्त मिलकर संकीर्तन के पदों का ही गायन करने लगे। कोई बाजार में सबके सामने नृत्य करते ही निकलते। इस प्रकार भक्तिरूपी नदिया में सदा प्रेम की तरंगें ही उठती रहतीं। रात्रि-दिन शंख, घड़ियाल, तुरही, ढोल, करताल, झांझ, मृदंग तथा अन्यान्य प्रकार के वाद्यों से सम्पूर्ण नवद्वीप नगर गूंजता ही रहता।

महाप्रभु भक्तों को साथ लेकर रात्रिभर संकीर्तन ही करते रहते। प्रात:काल घंटे-दो-घंटे के लिये सोते। उठते ही भक्तों को साथ लेकर गंगा-स्नान करने के लिये चले जाते। भक्तों को तो लोगों ने सदा से ही ‘बावले’ की उपाधि दे रखी है। इन बावले भक्तों का स्नान भी विचित्र प्रकार का होता। ये लोग सदा अफीमची की तरह पिनक में ही बने रहते। मद्यप के समान नशे में ही झूमते रहते और पागलों के समान ही बड़बड़ाया करते। स्नान करते-करते किसी ने किसी की धोती ही फेंक दी है, तो कोई किसी के ऊपर जल ही उलीच रहा है। कोई तैर कर उस पार जा रहा है, तो कोई प्रवाह के विरुद्ध ही तैरने का दुस्साहस कर रहा है। इस प्रकार घंटों में इनका स्नान समाप्त होता। तब प्रभु सब भक्तों के सहित घर आते।

देवपूजन, तुलसीपूजन आदि कर्मों को करते। तब तक विष्‍णुप्रिया भोजन बनाकर तैयार कर लेतीं। जल्दी से आप भोजनों पर बैठ जाते। भक्तों के बिना साथ लिये इन्हें भोजन अच्छा ही नहीं लगता था, इसलिये दस-पांच भक्त सदा इनके साथ ही भोजन करते। भोजन करते-करते कभी तो माता से कहते- ‘अम्मा! तेरी बहू के हाथ में जाने क्या जादू है।’ सभी चीजों में बड़ी भारी मिठास आ जाती है। और तो और, साग भी तो मीठा लगता है।’ पास बैठे हुए भक्त से कहने लगते- ‘क्यों जी! ठीक है न? तुम्हें साग में भी मिठास मालूम पड़ती है!’ यह सुनकर सभी भक्त हंसने लगते। विष्‍णुप्रिया जी भी मन-ही-मन मुसकराने लगतीं।

भोजन के अनन्तर आप थोड़ी देर विश्राम करते। तीसरे पहर फिर धीरे-धीरे सभी भक्त प्रभु के घर आकर एकत्रित हो जाते। तब प्रभु उनके साथ श्रीकृष्‍ण-‍कथाएँ कहने लगते। कभी कोई श्रीमद्भागवत का ही प्रकरण छिड़ गया है। कभी कोई ‘गीत-गोविन्द’ के पद की ही व्याख्‍या कर रहा है।

सांयकाल के समय भक्तों को साथ लेकर प्रभु नगर-भ्रमण करने के लिये निकलते। इस प्रकार इनका सभी समय भक्तों के सहवास में ही व्यतीत होता। क्षणभर भी भक्तों का पृथक् होना इन्हें असह्य-सा प्रतीत होता। भक्तों की भी प्रभु के चरणों में अहैतु की भक्ति थी। वे प्रभु के संकेत के अनुसार चेष्‍टाएँ करते। वे सदा प्रभु के मुख की ही ओर देखते रहते कि किस समय प्रभु के मुख पर कैसे भावों के लक्षण प्रतीत होते हैं। उन्हीं भावों के अनुसार वे क्रियाएँ करने लगते। इस कारण ईर्ष्‍या करना ही जिनका स्वभाव है, जो दूसरे के अभ्‍युदय तथा गौरव को देख ही नहीं सकते, ऐसे खल पुरुष सदा प्रभु की निन्दा किया करते। प्रभु उन लोगों की बातों के ऊपर ध्‍यान ही नहीं देते थे। जब कोई भक्त किसी के सम्बन्ध की ऐसी बातें छेड़ भी देता तो आप उसी समय उसे डांटकर कह देते ‘अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु त्यक्त्वासेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम्’ दूसरोंकी निन्दा-स्तुति करना छोड़कर तुम निरन्तर श्रीकृष्‍ण-कीर्तन में ही अपने मन को क्यों नहीं लगाते। इस कारण प्रभु के सम्मुख किसी की निन्दा-स्तुति करने की भक्तों को हिम्मत ही नहीं होती थी।

प्रभु के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर द्वेषी लोगों ने मुसलमानों को भड़काया। वे जानते थे कि हम निमाई पण्डित का वैसे तो कुछ बिगाड़ नहीं सकते। उनके कहने में हजारों आदमी हैं। हाँ, यदि शासकों की ओर से इन्हें पीड़ा पहुँचायी जायगी, तब तो इनका सभी गौरहरिपना ठीक हो जायगा। उस समय मुसलमानों का शासन था। इसलिये मुसलमानों की शिकायतों पर विशेष ध्‍यान दिया जाता था। इसलिये खलों ने मुसलमानों को ही बहकाना शुरू किया- ‘निमाई पण्डित अशास्त्रीय काम करता है। उसकी देखा-देखी सम्पूर्ण नगर में कीर्तन होने लगा है। दिन-रात्रि कीर्तन की ही ध्‍वनि सुनायी पड़ती है। इस कोलाहल के कारण रात्रि में लोगों को निद्रा भी तो नहीं आने पाती। क़ाज़ी से कहकर इन लोगों को दण्‍ड दिलाना चाहिये। न जाने ये सब मिलकर क्या कर बैठें?’ मुसलमानों को भी यह बात जँच गयी। वे भला हिंदु धर्म का अभ्‍युदय कब देख सकते थे! इसलिये सभी ने मिलकर क़ाज़ी के यहाँ संकीर्तनके विरुद्ध अभियोग चलाया। उस समय बंगाल-सूबे में अभियोगों के निर्णय करने का काम काजियों के ही अधीन था। जमींदार, राजा अथवा मण्‍डलेश्‍वर कुछ गांवों का बादशाह से नियत समय के लिये ठेका ले लेते और जितने में ठेका लेते उतने रूपये तो कर उगाहकर बादशाह को दे देते, जो बचते उसे अपने पास रख लेते। दीवानी और फौजदारी के जितने मामले होते उनका फैसला क़ाज़ी किया करते। बादशाह की ओर से स्थान-स्थान पर क़ाज़ी नियुक्त थे।

उस समय बंगाल के नवाब हुसेनशाह थे। वे बंगाल के स्वतन्त्र शासक थे। उनकी ओर से फौजदार चाँदखाँ नाम के क़ाज़ी नवद्वीप में भी नियुक्त हुए थे। बादशाह के दरबार में इनका बड़ा सम्मान था। कुछ लोगों का कहना है, ये हुसेनशाह के विद्यागुरु थे। कुछ भी हो, चाँदखाँ सहृदय, समझदार और शान्तिप्रिय मनुष्‍य थे। हिन्दुओं से वे अ‍कारण नहीं चिढ़ते थे।

नीलाम्बर चक्रवर्ती के दौहित्र होने के नाते से वे महाप्रभु से भी परिचित थे। इसलिये लोगों के बार-बार शिकायत करने पर भी उन्होंने महाप्रभु के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं करनी चाही। जब लोगों ने नित्यप्रति उनसे संकीर्तन की शिकायत करनी आरम्भ कर दी और उन पर अत्यधिक जोर डाला गया तब उनकी भी समझ में यह बात आ गयी कि ‘हाँ, ये लोग दिन-रात्रि‍ बाजे बजा-बजाकर शोर मचाते रहते हैं। ऐसा भी क्या भजन-कीर्तन? यदि भजन ही करना है, तो धीरे-धीरे करें। यही सोचकर वे एक दिन अपने दल-बल के सहित कीर्तनवालों को रोकने के लिये चले। बहुत-से लोग प्रेम में उन्मत्त होकर संकीर्तन कर रहे थे। इनके आदमियों ने उनसे कीर्तन बंद कर देने के लिये कहा; किंतु वे भला किसी की सुनने वाले थे। मना करने पर भी वे बराबर कीर्तन करते ही रहे। इस पर क़ाज़ी को गुस्सा आ गया और उसने घुसकर कीर्तन करने वालों के ढोल फोड़ दिये और भक्तों से डांटकर कहने लगे- ‘खबरदार, आज से किसी ने इस तरह शोर मचाया तो सभी को जेल खाने भेज दूंगा।’ बेचारे भक्त डर गये। उन्होंने संकीर्तन बंद कर दिया। इसी प्रकार जहाँ-जहाँ भी सकीर्तन हो रहा था, क़ाज़ी के आदमी वहाँ-वहाँ जाकर संकीर्तन को बंद कराने लगे। सम्पूर्ण नगर में हाहाकर मच गया।

लोग संकीर्तन के संबंध में भाँति-भाँति की बातें कहने लगे। कोई तो कहता- ‘भाई! यहाँ मुसलमानी शासन में संकीर्तन हो ही नहीं सकता। हम तो इस देश को परित्‍याग करके किसी ऐसे देश में जाकर रहेंगे, जहाँ सुविधापूर्वक संकीर्तन कर सकेंगे।’ कोई कहते ‘अजी! जोर-जोर से नाम लेने में ही क्‍या लाभ? यदि क़ाज़ी मना करता है, तो धीरे-धीरे ही नाम-जप कर लिया करेंगे। किसी प्रकार भगवन्‍नाम-जप होना चाहिये।’ इस प्रकार भयभीत होकर लोग भाँति-भाँति की बातें कहने लगे।

दूसरे दिन सभी मिलकर महाप्रभु के निकट आये और उन्‍होंने रात्रि में जो-जो घटनाएँ हुईं सब कह सुनायी और अंत में कहा- ‘प्रभो! आप तो हमसे संकीर्तन करने के लिये कहते हैं, किंतु हमारे ऊपर संकीर्तन करने से ऐसी-ऐसी विपत्तियाँ आती हैं। अब हमारे लिये क्‍या आज्ञा होती है। आपकी आज्ञा हो तो हम इस देश को छोड़कर किसी ऐसे देश में चले जायँ, जहाँ सुविधापूर्वक संकीर्तन कर सकें। या आज्ञा हो तो संकीर्तन करना ही बंद कर दें। बहुत-से लोग तो डर के कारण भागे भी जा रहे हैं।’

प्रभु ने कुछ दृढ़ता के साथ रोष में आकर कहा- ‘तुम लोगों को न तो देश का ही परित्‍याग करना होगा और संकीर्तन को ही बंद करना! तुम लोग जैसे करते रहे हो, उसी तरह संकीर्तन करते रहो। मैं उस क़ाज़ी को और उसके साथियों को देख लूँगा, वे कैसे संकीर्तन को रोकते हैं? तुम लोग तनिक भी न घबड़ाओ।’ प्रभु के ऐसे आश्‍वासन को सुनकर सभी भक्त अपने-अपने घरों को चले गये। बहुत-से तो प्रभु के आज्ञानुसार पूर्ववत ही संकीर्तन करते रहे। किंतु उनके मन में सदा डर ही बना रहता था। बहुतों ने उसी दिन से संकीर्तन करना बंद ही कर दिया।

लोगों को डरा हुआ देखकर प्रभु ने सोचा कि इस प्रकार काम नहीं चलने का। लोग क़ाज़ी के डर से भयभीत हो गये हैं। जब तक मैं क़ाज़ी का दमन न करूँगा, तब तक लोगों का भय दूर न होगा। यह सुनकर पालक आश्‍चर्य करेंगे कि क़ाज़ी के पास अस्‍त्र-शस्‍त्रों से सुसज्जित बहुत-सी सेना है, बादशाह की ओर उसे अधिकार प्राप्‍त है। उसके पास राजबल, धनबल, सैन्‍यबल तथा अधिकारबल आदि सभी मौजूद हैं। उसका दमन अहिंसाप्रिय, शांत स्‍वभाव वाले, अस्‍त्र-शस्‍त्रहीन, ढोल-करताल के लय के साथ नृत्‍य करने वाले निमाई पण्डित कैसे कर सकेंगे? इस प्रश्‍न का उत्तर पाठकों को अगले अध्‍याय में आप-से-आप ही मिल जायगा।

क्रमशः अगला पोस्ट [72]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]



, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Love-flow in Nadia and Qazi’s tyranny

One whose name has reached the path of remembrance in his mouth or at the root of his ears Truth is like a star with a pure or impure colour. That is in the midst of body, wealth, people, greed and hypocrisy O brāhmaṇa it will be deposited here and will not bear fruit soon

love is life. The life in which there is no love, that life is not a web. Where there is love, only the shade of real love is visible. Somewhere see the meeting of lovers, listen to the talk of lovers or join in the jokes, food and festivals of lovers, then you will know how real life is and how much fun and sweetness is in it. In front of that sweetness, all the things that are said to be sweet in the world seem pale. Love manifests in the body of a fortunate man and all the creatures who come and take shelter under his umbrella, they all become pure, they also get the happiness of real life. The place where the lover lives becomes holy, the place where he plays becomes a place of pilgrimage, and the men with whom he plays become immortal forever. Huh. Who can describe the bliss of that fateful city at that time, in Navadvipa where Premavatar Gaurchandra was rising and giving coolness to the creatures who were suffering from the heat of the world with the light of his pleasant cool rays? With the beginning of Mahaprabhu’s Kirtanarambh, the entire Navadweep had in a way become a place of joy. The melodious sound of Shri Krishna-Kirtan was heard there all the time.

With the salvation of Jagai-Madhai, people started understanding the importance of Sankirtan. Thousands of people always come to see the Lord. They used to bring different types of offerings for the Lord. Some would bring garlands of beautiful flowers and wear them around the Lord’s neck, some would keep delicious fruits in front of the Lord as a gift. Many beautiful dishes were brought from their homes and presented to the Lord. The Lord would have pleased everyone’s heart by taking a little of them. Everyone comes and asks – Lord! Can we do something too? Do we also have the right to chant Krishna?’ Prabhu says – ‘Everyone can chant Krishna. There is no question of right or wrong in this. Everyone is entitled to the name of God. There is no idea of ​​law-prohibition or high-low in the name. You can do Shri Krishna-Kirtan with love. ‘ On this people ask- ‘Lord! We don’t even know how to do Kirtan. We have not received the education of Sankirtan till date, nor have we read its method in any book.

The Lord started laughing and saying – ‘ What is there to be learned in chanting the name, this is a very easy way. There is no need for expertise or multi-knowledge for this. Everybody can do it. Look, clapping like this-

O Hari Hari O Krishna Yadava Ome. Gopal Govinda Rama Srimadhusoodana.

He went on singing this mantra or any other mantra in which only the names of the Lord are chanted, ten or five of his companions gathered together and all of them started chanting the name. If you do it regularly for a month, it is okay, then you will see how happy it is.’ People used to hear the glory of Lord’s name-greatness and kirtan from the mouth of the Lord and there they started doing Sankirtan by showing them. Where they make mistakes, the Lord tells them immediately. In this way, whoever came to ask him, he used to preach the Lord’s name to all of them. People used to go to their respective homes after obeying Mahaprabhu’s orders and started sankirtan from the very next day itself. Earlier people used to do kirtan only by clapping, but as soon as they started enjoying it, instruments like dhol-kartal and jhanj-mridang started being included along with their sankirtan. Seeing one doing kirtan, the other also got excited and he also formed his own small sankirtan troupe by gathering ten people each and started doing sankirtan regularly at both the times. In this way many sankirtan circles were established in every locality. People from well-to-do homes used to perform sankirtan in the evening with all their family members. In which men and women, young and old, all would participate.

Devotees always remain happy. Mutually hugging each other. Wherever two devotees met on the way, they would hug each other. Some would have prostrated to others, he would hastily run to take their feet. Sometimes ten-twenty devotees together started singing the hymns of sankirtan. Some go out dancing in front of everyone in the market. In this way, waves of love would always rise in the rivers of devotion. Day and night, the entire Navadweep city used to resound with conch shells, gongs, trumpets, dhol, kartal, cymbals, mridang and other types of instruments.

Mahaprabhu used to do sankirtan throughout the night taking the devotees with him. Used to sleep for an hour or two in the morning. As soon as he got up, he would take the devotees along with him to take a bath in the Ganges. People have always given the title of ‘mad’ to the devotees. The bath of these crazy devotees would also be of a strange type. These people would always remain in the pinak like poppy seeds. He used to dance like a drunkard and used to babble like a lunatic. While taking a bath, someone has thrown away someone’s dhoti, while someone is splashing water on someone else. Some are going to the other side by swimming, while some are daring to swim against the current. In this way their bath would end in hours. Then the Lord would come home with all the devotees.

Devpujan, Tulsipujan etc. would have been done. By then Vishnupriya would have cooked and prepared the food. Soon you would sit down for meals. He didn’t like food without taking devotees along with him, that’s why ten-five devotees always used to eat with him. While eating, sometimes he used to say to his mother- ‘Amma! Don’t know what magic is in your daughter-in-law’s hand. There is a lot of sweetness in everything. Moreover, the greens also taste sweet.’ He used to say to the devotee sitting nearby – ‘Why! Is it ok? You find sweetness in greens too!’ Hearing this, all the devotees started laughing. Vishnupriya ji also started smiling inside herself.

After the meal, you rest for a while. At the third hour again, gradually all the devotees would gather at the Lord’s house. Then the Lord started telling Shri Krishna stories with them. Sometimes an episode of Shrimad Bhagwat has cropped up. Sometimes someone is explaining the post of ‘Geet-Govind’.

In the evening, taking the devotees with him, the Lord would go out for a city tour. In this way all his time would have been spent in the company of the devotees. The separation of the devotees even for a moment seemed unbearable to them. The devotees also had devotion at the feet of the Lord without any reason. They would make efforts according to the indication of the Lord. They always used to look at the face of the Lord to see at what time what signs of emotion appear on the face of the Lord. According to those feelings, they start doing activities. For this reason, those whose nature is to be jealous, who cannot see the glory and glory of others, such khal men always used to criticize the Lord. The Lord did not pay attention to the words of those people. When a devotee started talking about someone’s relationship, you would have reprimanded him at the same time and said ‘anyasya doshgunchintanmashu tyaktvasevakatharasamho nitraan pib tvam’ instead of criticizing and praising others, why don’t you keep your mind engaged in Shri Krishna’s kirtan. Because of this, the devotees did not have the courage to criticize or praise anyone in front of the Lord.

Seeing the increasing influence of the Lord, the envious people provoked the Muslims. They knew that anyway we cannot harm Nimai Pandit. There are thousands of men in his saying. Yes, if they are hurt by the rulers, then all their pride will be cured. At that time it was ruled by Muslims. That’s why special attention was paid to the complaints of Muslims. That’s why the Khals started misleading the Muslims – ‘Nimai Pandit does unscriptural work. Seeing him, kirtan has started happening in the whole city. The sound of kirtan is heard day and night. Because of this commotion, people could not even sleep at night. These people should be punished after telling the Qazi. Don’t know what all of them can do together?’ This thing was liked by the Muslims too. When could they have seen the rise of Hinduism! That’s why all together filed a case against Sankirtan at Qazi’s place. At that time, the work of deciding the cases in Bengal-province was under the responsibility of the Qazis only. The Zamindar, Raja or Mandleshwar would take a contract of some villages from the king for a fixed time and collect as many rupees as they took the contract and give it to the king, whatever was saved, they would keep it with themselves. The Qazi used to decide all the civil and criminal cases. Qazis were appointed from place to place on behalf of the emperor.

Hussain Shah was the Nawab of Bengal at that time. He was the independent ruler of Bengal. Qazi named Faujdar Chand Khan was also appointed on his behalf in Navadweep. He had great respect in the king’s court. Some people say that he was the teacher of Hussain Shah. In any case, Chand Khan was a kind-hearted, sensible and peace-loving man. He did not get irritated with Hindus without any reason.

Being the son-in-law of Nilambar Chakraborty, he was also familiar with Mahaprabhu. That’s why he didn’t want to take any action against Mahaprabhu even after people complained again and again. When people started complaining about their daily sankirtan and too much pressure was put on them, then they also understood that ‘yes, these people keep making noise day and night by playing instruments’. What bhajan-kirtan like this too? If you have to do bhajan, do it slowly. Thinking of this, one day he along with his team went to stop the kirtanwalas. Many people were performing sankirtan madly in love. His men asked him to stop the kirtan; But they were going to listen to someone. Even after refusing, he kept on doing kirtan equally. The qazi got angry on this and entered and broke the drums of those performing kirtan and scolded the devotees saying- ‘Beware, from today onwards if anyone makes noise like this, I will send everyone to jail.’ The poor devotees got scared. He stopped chanting. Similarly, wherever the skirtan was taking place, the Qazi’s men went there and there and started stopping the skirtan. There was hue and cry in the whole city.

People started saying different things regarding Sankirtan. Some would say- ‘Brother! Sankirtan cannot happen here under Muslim rule. We will leave this country and go to some other country where we can do sankirtan conveniently.’ Some say, ‘Oh! What is the use of taking the name out loud? If the Qazi refuses, then slowly chanting the name will do. There should be chanting of the Lord’s name somehow.’ Being frightened in this way, people started saying different things.

On the second day everyone together came near Mahaprabhu and he told all the incidents that happened in the night and in the end said- ‘Lord! You tell us to do sankirtan, but by doing sankirtan on us, such calamities come. Now what is the order for us? If you allow us to leave this country and go to some other country where we can do sankirtan conveniently. Or if there is permission, then stop chanting. Many people are even running away due to fear.

The Lord got angry and said with some firmness – ‘ You people will neither have to abandon the country nor will you have to stop the Sankirtan itself! Keep chanting as you have been doing. I will see that Qazi and his companions, how do they stop the sankirtan? Don’t panic at all.’ After hearing such an assurance from the Lord, all the devotees went to their respective homes. Many of them continued chanting as per the order of the Lord. But fear always remained in his mind. Many stopped doing sankirtan from that very day.

Seeing the people scared, the Lord thought that it would not work like this. People have become scared because of the fear of Qazi. Until I suppress the Qazi, the fear of the people will not go away. Guardians will be surprised to hear that the Qazi has a large army equipped with weapons, he has authority towards the emperor. He has royal power, money power, military power and authority etc. all are present. How can Nimai Pandit, who is non-violent, peaceful, unarmed, who dances to the beat of drums and drums, suppress him? Readers will get the answer to this question automatically in the next chapter.

respectively next post [72] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]

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