।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
संन्यास से पूर्व
तत् साधु मन्येऽसुरवर्य देहिनां
सदा समुद्विग्नधियामसद्ग्रहात्।
हित्वाऽऽत्मपातं गृहमन्धकूपं
वनं गतो यद्धरिमाश्रयेत।।
महाप्रभु का मन अब महान त्याग के लिये तड़पने लगा। उनके हृदय में वैराग्य की हिलोंरे-सी मारने लगीं। यद्यपि महाप्रभु को घर में भी कोई बन्धन नहीं था, यहाँ रहकर वे लाखों नर-नारियों का कल्याण कर रहे थे। किंतु इतने से ही वे संतुष्ट होने वाले नहीं थे। उन्हें तो भगवन्नाम को विश्वव्यापी बनाना था, फिर ये अपने को नवद्वीप का ही बनाकर और किसी एक पत्नी का पति बनाकर कैसे रख सकते थे? वे तो सम्पूर्ण विश्व की विभूति थे। भगवद्भक्तमात्र के वे पूजनीय तथा वन्दनीय थे। ऐसी दशा में उनका नवद्वीप में ही रहना असम्भव था।
संसारी सुख, धन-सम्पत्ति और कीर्ति- ये पूर्वजन्म के भाग्य से ही मिलते हैं। जिसके भाग्य में धन अथवा कीर्ति नहीं होती, वह चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न करे, कितने भी अच्छे-अच्छे भावों का प्रचार उसके द्वारा क्यों न हो उसे धन या कीर्ति मिल ही नहीं सकती। राजा युद्ध में शायद ही कभी लड़ने जाते है, नहीं तो घर में ही बैठा रहता हैं। सेना में बड़े-बड़े़ वीर योद्धा साहस और शूरवीरता के साथ युद्ध करते हैं, प्राणों की बाजी लगाकर लाखों एक-से-एक बढ़कर पराक्रम दिखाते हुए शत्रु के दांतों को खट्टा करते हैं, किंतु उनकी शूरवीरता का किसी को पता ही नहीं लगता।
विजय का सुयश घर में बैठे हुए राजा को ही प्राप्त होता है। एक चर्मकार का परिवार दिनभर काम करता है, उसके छोटे-से-बच्चे से लेकर बडे़-बूढे़, स्त्री-पुरुष दिन-रात्रि काम में ही जुटे रहते हैं, फिर भी उन्हें खाने को पूरा नहीं पड़ता। इसके विपरीत दूसरा महाजन पलंग से नीचे भी जब उतरता है, तो बहुत-से सेवक उसके आगे-आगे बिछौना बिछाते चलते हैं। उसके मुनीम दिन-रात्रि परिश्रम करते हैं, उन्हीं के द्वारा उसे हजारों रुपये रोज की आमदनी है। किंतु उन मुनीमों को महीनों में गिने हुए पंद्रह-बीस रूपये ही मिलते हैं। उस सब आमदनी का स्वामी वह कुछ न करने वाला महाजन ही समझा जाता है। इसलिये किसी के धन अथवा बढ़ती हुई कीर्ति को देखकर कभी इस प्रकार का द्वेष नहीं करना चाहिये कि हम इससे बढ़कर काम करते हैं तब भी हमारा इतना नाम क्यों नहीं होता? यह तो अपने-अपने भाग्य की बात है। तुम्हारे भाग्य में उतनी कीर्ति है ही नहीं, फिर तुम कितने भी बड़े काम क्यों न करो, कीर्ति उसी की अधिक होगी जो तुम्हारी दृष्टि में तुमसे कम काम करता है। तुम उसके भाग्य की रेखा को तो नहीं मेट सकते।
श्रीरामानुजाचार्य से भी पूर्व बहुत-से श्रीसम्प्रदाय के त्यागी और विरक्त संन्यासी हुए; किंतु श्रीसम्प्रदाय के प्रधान आचार्य का पद रामानुजभगवान के ही भाग्य में था। इसी प्रकार चाहे कोई कितना भी बड़ा महापुरुष हो या महात्मा क्यों न हो, उन सबके भोग प्रारब्ध के ही अनुसार होंगे। प्रारब्ध का सम्बन्ध शरीर से है, जिसने शरीर धारण किया है, उसे प्रारब्ध के भोग भोगने ही पड़ेंगे। यह दूसरी बात है कि महापुरुषों की उन भोगों में तनिक भी आसक्ति नहीं होती। वे शरीर को और प्रारब्ध को देह का वस्त्र और मैल समझकर उसी के अनुसार व्यवहार करते हैं। असली बात तो यह है कि उनका अपना प्रारब्ध तो कुछ होता ही नहीं, वे जगत के कल्याण के निमित्त ही प्रारब्ध का बहाना बनाकर लीलाएँ करते हैं।
कीर्ति भी संसार के सुखों में से एक बड़ा भारी सुख है। लोक में जिसकी अधिक कीर्ति होने लगती है, उसी से कीर्तिलोलुप संसारी लोग डाह करने लगते हैं। इसका एकमात्र उपाय है अपनी ओर से कीर्ति लाभ का तनिक भी प्रयत्न न करना। ‘हमारी कीर्ति हो’ ये भाव भी जहाँ तक हों, हृदय में आने ही न चाहिये और आयी हुई कीर्ति का त्याग भी करते रहना चाहिये। त्याग से कीर्ति और निर्मल हो जाती है और डाह करने वाले भी त्याग के प्रभाव से उसके चरणोंमें सिर झुकाते हैं।
यह तो संसारी भोगों के विषय में बात रही। त्याग का इतना ही फल नहीं कि उससे कीर्ति निर्मल बने और विद्वेषी भी उसका लोहा मानने लगे; किंतु त्याग का सर्वोत्तम फल तो भगवत्प्राप्ति ही है। त्याग के बिना भगवत्प्राप्ति हो ही नहीं सकती। भगवत्प्राप्ति का प्रधान कारण है सर्वस्व का त्याग कर देना। जो लोग यह कहते हैं कि ‘संन्यास-धर्म तो भक्ति-मार्ग का विरोधी है।’ वे अज्ञानी हैं, उन्हें भक्ति-मार्ग का पता ही नहीं। हम दृढ़ता के साथ कहते हैं, बिना संन्यासी बने कोई भी मनुष्य भक्ति-मार्ग का अनुसरण कर ही नहीं सकता। हम शास्त्रों की दुहाई देकर यहाँ तक कहने के लिये तैयार हैं, कि कोई बिना संन्यासी हुए ज्ञान-लाभ भले ही कर ले, किंतु सर्वस्व त्याग किये बिना भक्ति तो प्राप्त हो ही नहीं सकती। मन से त्याग करने का बहाना बनाकर जो विषयों के सेवन में लगे रहने पर भी अपने को पूर्ण भगवद्भक्त कहने का दावा करते हैं, उनसे हमें कुछ कहना नहीं है। हम तो उन लोगों से निवेदन करना चाहते हैं जो यथार्थ में भक्ति-पथ का अनुसरण करने के इच्छुक हैं। उनसे हम दृढ़ता के साथ कहते हैं, अपने पूर्वजन्म के प्रारब्धानुसार आप सर्वस्व त्यागकर संन्यासी न हो सकें, यह आपकी कमज़ोरी है। जैसी भी दशा में रहें, भक्ति तक पहुँचने के लिये प्रयत्न तो प्रत्येक दशा में कर सकते हैं, किंतु पूर्ण भक्त बनने के लिये मन से नहीं स्वरूप से भी त्याग करना ही होगा।
सर्व-कर्म-फल-त्याग के साथ सर्व सांसारिक भोगों का त्याग भी अनिवार्य ही है। किंतु इसके विपरीत कुछ ऐसे भी भगवद्भक्त देखे गये हैं जो प्रवृत्ति मार्ग में रहते हुए भी पूर्ण भक्त हुए हैं। उन्हें अपवाद ही समझना चाहिये। सिद्धान्त तो यही है कि भगवद्भक्ति के लिये रूप, सनातन और रघुनाथदास की तरह अकिंचन बनकर घर-घर के टुकड़ों पर ही निर्वाह करके अहर्निश कृष्ण-कीर्तन करते रहना चाहिये। इसीलिये लोकमान्य तिलक ने भक्ति-मार्ग और ज्ञान-मार्ग दोनों को ही त्याग-मार्ग बताकर एक नये ही कर्मयोग-मार्ग की कल्पना की है। यों गृहस्थ में रहकर भी भगवद्भक्ति की जा सकती है, किंतु वह ऐसी ही बात है जैसे किसी साँस के रोगी के लिये दही सर्वथा निषेध हैं। यदि वह सांस की बीमारी में दही से एकदम बचा रहे तो सर्वश्रेष्ठ है, किंतु वह अपने पूर्व जन्म के संस्कारों के अनुसार दही की प्रबल वासना के कारण उसे एकदम नहीं छोड़ सकता, तो वैद्य उसमें एक ऐसी दवाई मिला देते हैं कि फिर वह दही बीमारी को हानिप्रद नहीं होती।
इसी प्रकार जो एकदम स्वरूपत: त्याग नहीं कर सकते उनके लिये भगवान ने बताया है, वे सम्पूर्ण संसारी कामों को भगवत-सेवा ही समझकर निष्काम-भाव से फल की इच्छा से रहित होकर करते रहेंगे और निरन्तर हरि-स्मरण में ही लगे रहेंगे तो उन्हें संसारी काम बाधा न पहुँचा सकेंगे। किंतु जो लोग हठपूर्वक इस बात का आग्रह ही करते हैं कि भक्ति-मार्ग के पथिक को किसी भी दशा में संसारी कर्मों को त्यागकर संन्यास-धर्म का अनुसरण न करना चाहिये, उनसे अब हम क्या कहें। वे थोड़ी ऊंची दृष्टि करके देखें तो पता चलेगा कि सभी भक्ति-मार्ग के प्रधान पुरुष घर-बार-त्यागी संन्यासी ही हुए हैं।
भक्ति के अथवा सभी मार्गों के प्रवर्तक भगवान ब्रह्माजी हैं। वे तो प्रवृत्ति-निवृत्ति दोनों के ही जनक हैं, इसलिये उन्हें किसी एक मार्ग का कहना ठीक नहीं। उनके पुत्र अथवा शिष्य भगवान नारद ही भक्ति-मार्ग के प्रधान आचार्य समझे जाते हैं। वे घर-बार-त्यागी आजन्म ब्रह्मचारी संन्यासी ही थे। उन्होंने एक-दो को ही घर-बार-विहीन नहीं बनाया; किंतु लाखों को उनकी पूर्वप्रकृति के अनुसार संसारत्यागी विरागी बना दिया।
महाराज दक्ष प्रजापति के ग्यारह-बारह हजार शबलाश्व और हरिताश्व नामक पुत्रों को सदा के लिये संन्यासी बना दिया। भक्ति-मार्ग की एक प्रधान शाखा के प्रवर्तक सनक, सनन्दन, सनत्कुमार और सनातन- ये चारों-के-चारों संन्यासी ही थे। भगवान के ब्राह्मण-शरीरों में परशुराम, वामन, नारद, सनत्कुमार, कपिल, नर-नारायण जितने भी अवतार हुए हैं, सभी गृह-त्यागी संन्यासी ही थे। और तो क्या भक्ति मार्ग के चारों सम्प्रदायों के माधवाचार्य (आनन्दतीर्थ), निम्बार्काचार्य, रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य- ये सब-के-सब संन्यासी ही थे।
यद्यपि भगवान वल्लभाचार्य की पूजा-पद्धति में संन्यास-धर्म की उतनी आवश्यकता नहीं। यथार्थ में उन्होंने प्रवृत्ति-मार्ग वाले धनवान पुरुषों के ही निमित्त इस प्रकार की पूजा-अर्चा की पद्धति की परिपाटी चलायी और स्वयं भी गृहस्थी रहते हुए सदा वात्सल्यभाव से बालकृष्ण की सेवा-पूजा करके ही भक्तों के सामने आदर्श उपस्थित करते रहे; किंतु फिर भी उन्होंने अन्त में श्रीवाराणसी धाम में जाकर भागवत-धर्म के अनुसार सर्वस्व त्यागकर संन्यास-धर्म को ग्रहण किया। जिस संन्यास-धर्म की इतनी महिमा है, उसकी निन्दा संसारी विषयों में आबद्ध जीवों के अतिरिक्त कोई कर ही नहीं सकता। बुद्ध, ईसा और चैतन्य यदि संन्यासी न होते तो ये महापुरुष संसार में आज त्याग का इतना ऊँचा भाव कैसे भर सकते थे? महाप्रभु गौरांगदेव तो त्याग की मूर्ति ही थे। वे तो यहाँ तक कहते हैं-
संदर्शनं विषयिणामथ योषितां च।
हा हन्त हन्त विषभक्षणतोऽप्यसाधु।।
अर्थात ‘विषयी लोगों का तथा कामिनियों का दर्शन भी विष-भक्षण से बढ़कर है।’ अहा! ऐसा त्याग का सजीव उदाहरण और कहाँ मिल सकता है? महाप्रभु ने सचमुच में महान त्याग की पराकाष्ठा करके दिखा दी। उनके पथ के अनुयायी अन्तरंग भक्त जीव, सनातन, रूप, रघुनाथदास, प्रबोधानन्द, स्परूप दामोदर, हरिदास, गोपाल भट्ट, लोकनाथ गोस्वामी एक-से-एक बढ़कर परम त्यागी संन्यासी थे। इनका त्याग और वैराग महाप्रभु के परम त्यागमय भावों का एक उज्ज्वल आदर्श है। रूप स्वामी के लिये तो यहाँ तक सुना जाता है, कि वे एक दिन से अधिक एक वृक्ष के नीचे भी नहीं ठहरते थे। व्रजवासियों के घर से टुकडे़ माँग लाना और रोज किसी नये वृक्ष के नीचे पड़ रहना। धन्य है उनके त्याग का और उनके भक्ति को! भगवान के अन्तरंग भक्त उद्धव, विदुर दोनों ही संन्यासी हुए। परम संन्यासिनी गोपिकाओं से बढ़कर त्याग का आदर्श कहाँ मिल सकता है? उद्धव, विदुर और गोपिकाओं ने यद्यपि लिंग-संन्यास नहीं लिया था, क्योंकि लिंग-संन्यास का विधान शास्त्रों में प्राय: ब्राह्मण के लिये ही पाया जाता है, किंतु तो भी ये घर-बार को छोड़कर अलिंग-संन्यासी ही थे।
महाप्रभु भला घर में कैसे रह सकते थे? उनके मन में संन्यास लेने के भाव प्रबलता के साथ उठने लगे। वे मन-ही–मन सोचने लगे कि- ‘अब हम जब तक संन्यासी बनकर और मूँड़ मुड़ाकर घर-घर भिक्षा नहीं माँगेंगे तब तक न तो हमारी आत्मा को पूर्ण शान्ति प्राप्त होगी और न हमारे इन विरोधियों का ही उद्धार होगा। हम इन विरोधियों का उद्धार अपने महान त्याग द्वारा ही कर सकेंगे। ये हमारी बढ़ती हुई कीर्ति से डाह करके ऐसे भाव रखने लगे है।’
प्रभु इन्हीं भावों में मग्न थे कि इतने में ही कटवा में रहने वाले दण्डी स्वामी केशव भारती महाराज नवद्वीप पधारे। समय के प्रभाव से आज कल तो सभी प्राचीन व्यवस्था नष्ट हो गयी; किंतु हम जब की बात कह रहे हैं उस समय ऐसी परिपाटी थी कि दण्डी संन्यासी किसी भी गृहस्थ के द्वार पर पहुँच जाय, वही गृहस्थ उठकर उनका सत्कार करता और उनसे श्रद्धा-भक्ति के सहित भिक्षा कर लेने के लिये प्रार्थना करता।
दसनामी संन्यासियों में तीर्थ, सरस्वती और आश्रम- इन तीनों को दण्ड धारण करने का अधिकारी है। भारतीयों को भी दण्ड का अधिकार है, किंतु दण्डी सम्प्रदाय में उनका आधा दण्ड समझा जाता है। शेष गिरी, पुरी, वन, अरण्य तथा पर्वत आदि छ: प्रकार के संन्यासियों को दण्ड का अधिकार नहीं है।[1]दण्ड ब्राह्मण ही ले सकता है। इसलिये दण्डी संन्यासी ब्राह्मण ही होते हैं। केशव भारती दण्डी ही संन्यासी थे। पीछे इनकी शिष्य-परम्परा में इनके उत्तराधिकारी गृहस्थी बन गये जो कटवा के समीप अब भी विद्यमान हैं।
भारती को देखते ही प्रभु ने उठकर उनके चरणों में प्रणाम किया। भारती इनके शरीर में ऐसे अपूर्व प्रेम के लक्षणों को देखकर एकदम भौंचक्के-से रह गये। इनकी नम्रता, शालीनता और सुशीलता से प्रसन्न होकर भारती प्रेम में विभोर हुए कहने लगे- ‘आप या तो नारद हैं या प्रह्लाद, आप तो मूर्तिमान प्रेम ही दिखायी पड़ते है।’
भारती के मुख से ऐसी बात सुनकर प्रभु प्रेम में विभोर हो गये और भारती के पैरों को पकड़कर गद्गद-कण्ठ से कहने लगे- ‘आप साक्षात ईश्वर हैं, आप नररूप में नारायण हैं। आज मुझ गृहस्थी के घर को पावन बनाइये और मेरे ऊपर कृपा कीजिये, जिससे मैं संसार-बन्धन से मु्क्त हो सकूँ।’ भारती ने कहा- ‘आपके सम्पूर्ण शरीर में भगवत्ता के चिह्न हैं। आप प्रेम के अवतार हैं, मुझे तो आपके दर्शन से भगवान के दर्शन का-सा सुख अनुभव हो रहा है।’
प्रभु ने भारती की स्तुति करते हुए कहा- ‘आप तो भगवान के प्यारे हैं, आपके हृदय में भगवान सदा निवास करते हैं। आपके नेत्रों में श्रीकृष्ण की छाया सदा छायी रहती है। इसीलिये चराचर विश्व में आप भगवान के ही दर्शन करते हैं।’
इस प्रकार इन दोनों महापुरुषों में बहुत देर तक प्रेम की बातें होती रहीं। एक-दूसरे के गुणों पर आसक्त होकर एक-दूसरे की स्तुति कर रहे थे। अनन्तर शचीमाता ने भोजन तैयार किया। प्रभु ने श्रद्धापूर्वक भारती जी को भिक्षा करायी। दूसरे दिन भारती जी गंगा-किनारे अपने आश्रम को ही फिर लौट गये। मानो वे प्रभु को संन्यास का स्मरण दिलाने के ही लिये आये हों।
भारती जी के चले जाने पर प्रभु का मन अब और भी अधिकाधिक अधीर होने लगा। अब वे महात्याग की तैयारियाँ करने लगे। पूर्ण सुख जिसका नाम है, जिसके आगे दूसरा सुख हो ही नहीं सकता, वह तो त्याग से ही मिलता है। धर्म, तप, ज्ञान और त्याग- ये ही भक्ति के परम साधन हैं। इसलिये शास्त्रों में बताया है-
सत्यान्नास्ति परो धर्मों मौनान्नास्ति परं तप:।
विचारान्न परं ज्ञानं त्यागान्नास्ति परं सुखम्।।
अर्थात जिसने एक सत्य का अवलम्बन कर लिया उसने सभी धर्मों का पालन कर लिया। जिसने मौन रहकर वाणी का पूर्णरीत्या संयम कर लिया, उसे सभी तपों का फल प्राप्त हो गया। जो सदा सत्-असत् का विचार करता रहता है, उसके लिये इससे बढ़कर और ज्ञान हो ही क्या सकता है और जिसने सर्वस्व त्याग कर दिया, उसने सबसे श्रेष्ठ परम सुखको प्राप्त कर लिया।
अब पाठक! आगे कलेजे को खूब कसकर पकड़ लीजिये। दिल को थामकर उन महान त्यागी महाप्रभु के महात्याग की तैयारी की बात सुनिये।
क्रमशः अगला पोस्ट [76]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram before retirement
I think that is good, O best of the demons, for the embodied From the evil grasp of the mind always disturbed. Leaving the self-destructive house in the dark well He who has gone to the forest should take refuge in Hari
Mahaprabhu’s mind now yearned for great sacrifice. Tremors of quietness started beating in his heart. Although Mahaprabhu had no bondage even at home, by staying here, he was doing welfare of lakhs of men and women. But he was not going to be satisfied with just this. He had to make the Lord’s name universal, then how could he maintain himself by making himself the husband of only one wife? He was the Vibhuti of the whole world. He was worshipable and worshipable only by Bhagwad devotees. In such a condition, it was impossible for him to stay in Navadvipa.
Worldly happiness, wealth and fame – these are obtained only by the luck of the previous birth. One who does not have wealth or fame in his destiny, no matter how hard he works, no matter how many good feelings are propagated by him, he cannot get wealth or fame. The king rarely goes to fight in the war, otherwise he stays at home. Big brave warriors in the army fight with courage and bravery, by risking their lives, show their valor more than lakhs and sour the teeth of the enemy, but no one knows about their bravery.
The auspiciousness of victory is achieved only by the king sitting at home. A tanner’s family works the whole day, from the smallest to the oldest, men and women are engaged in work day and night, yet they do not have enough to eat. On the contrary, when the second moneylender gets down from the bed, many servants spread the bed in front of him. His accountants work hard day and night, through them he earns thousands of rupees daily. But those accountants get only fifteen to twenty rupees counted in months. The master of all that income is that moneylender who does nothing. That’s why seeing someone’s wealth or increasing fame, one should never have such hatred that we work more than this, even then why don’t we get so much fame? It is a matter of your own fortune. You don’t have that much fame in your destiny, then no matter how big you do, the fame will be more for the one who works less than you in your eyes. You cannot erase the line of his fate, can you?
Even before Sri Ramanujacharya, there were many renunciants and detached ascetics of the Sri Sampradaya; But the post of the head Acharya of Sri Sampradaya was in the destiny of Lord Ramanuja. In the same way, no matter how great a great man or a saint he is, his enjoyment will be according to his destiny. Prarabdha is related to the body, the one who has adopted the body, he will have to suffer the fruits of Prarabdha. It is another matter that great men do not have the slightest attachment to those enjoyments. They treat the body and destiny as the clothes and filth of the body and behave accordingly. The real thing is that they do not have any destiny of their own, they do pastimes by making an excuse for destiny for the welfare of the world.
Fame is also one of the great pleasures of the world. The one who starts getting more fame in the world, the worldly people start envying him. The only solution for this is not to make even the slightest effort on your part to gain fame. As far as the feeling of ‘May our fame’ is there, it should not come in the heart and should also keep on sacrificing the fame that has come. Fame becomes more pure by renunciation and even the envious bow their heads at his feet due to the effect of renunciation.
This was a matter of worldly pleasures. The fruit of renunciation is not only that it makes fame pure and even the haters start accepting it as iron; But the best fruit of renunciation is the attainment of God. God cannot be attained without renunciation. The main reason for God-realization is renunciation of everything. Those who say that ‘Religion of renunciation is against the path of devotion’, they are ignorant, they do not know the path of devotion at all. We firmly say that no human being can follow the path of devotion without becoming a sannyasin. We are even ready to say, citing the scriptures, that one may gain knowledge without becoming a sannyasin, but devotion cannot be attained without sacrificing everything. We have nothing to say to those who, on the pretext of renouncing the mind, claim to call themselves complete devotees of the Lord, even though they are engaged in the enjoyment of subjects. We just want to request those people who are really willing to follow the path of devotion. We firmly say to them, according to the fate of your previous birth, you could not renounce everything and become a monk, this is your weakness. In whatever condition you are, you can try to reach Bhakti in every condition, but to become a complete devotee, you have to sacrifice not only in your mind but also in your form.
Along with renunciation of all actions and fruits, renunciation of all worldly pleasures is also essential. But on the contrary, some such devotees of Bhagavad have also been seen who have become complete devotees even while living on the path of pravritti. They should be considered as exceptions. The principle is that for the sake of Bhagavad-bhakti, like Roop, Sanatan and Raghunathdas, one should keep doing Aharnish Krishna-Kirtan by living on scraps from every house. That’s why Lokmanya Tilak has imagined a new Karmayoga-marg by describing both the path of devotion and the path of knowledge as the path of renunciation. Thus, devotion to God can be done even while staying at home, but that is the same thing as curd is completely prohibited for a breath patient. It is best if he avoids curd at all in case of respiratory disease, but he cannot completely give it up because of his strong desire for curd according to his previous birth rituals, then the doctor mixes such a medicine in him that then he can cure curd disease. is not harmful.
In the same way, God has said for those who cannot completely renounce their form, they will continue to do all worldly work thinking it as service to God, without any desire for the fruit and constantly engaged in the remembrance of Hari. Worldly work will not be able to hinder you. But those who stubbornly insist that the traveler of the path of devotion should not follow the religion of renunciation by renouncing worldly deeds, what should we say to them now. If they look a little higher, they will come to know that all the main men of the path of devotion have become renunciates who renounced their homes again and again.
Lord Brahma is the originator of devotion or all the paths. He is the father of both tendency and retirement, so it is not right to call him one path. His son or disciple Lord Narada is considered to be the main teacher of the path of devotion. He was a renunciate from home and a celibate sanyasi throughout his life. He did not make one or two homeless; But lakhs were made worldly renouncers according to their pre-nature.
Maharaj Daksh Prajapati’s eleven-twelve thousand sons named Shablashva and Haritashva were made sanyasis for ever. Sanak, Sanandan, Sanatkumar and Sanatan, the originators of a main branch of Bhakti-marg – all four of them were sanyasis. Parshuram, Vamana, Narad, Sanatkumar, Kapil, Nar-Narayan, all the incarnations that have taken place in the Brahmin-bodies of God, were all renunciants. What’s more, Madhavacharya (Anandatirtha), Nimbarkacharya, Ramanujacharya and Vallabhacharya of the four sects of the path of devotion – all of them were sannyasins.
Although there is not that much need of renunciation-religion in the method of worship of Lord Vallabhacharya. In reality, he started the practice of this type of worship-archa method only for the sake of the rich men of Pravritti-marga and himself, being a householder, always presented ideals in front of the devotees by serving and worshiping Balkrishna with affection; But still, in the end, he went to Shri Varanasi Dham and accepted Sannyas-Dharma, renouncing everything according to Bhagwat-Dharma. The renunciation-religion which is so glorified, no one can criticize it except the living beings engrossed in worldly subjects. If Buddha, Jesus and Chaitanya were not sannyasins, then how could these great men instill such a high sense of renunciation in the world today? Mahaprabhu Gaurangdev was an idol of renunciation. They even say-
Visitation of objects and women. Alas, alas, it is not good to eat poison.
That is, ‘The philosophy of sensual people and kaminis is also better than consuming poison.’ Aha! Where else can one find a living example of such sacrifice? Mahaprabhu really showed the height of great sacrifice. The followers of his path were intimate devotees Jiva, Sanatan, Roop, Raghunathdas, Prabodhananda, Srup Damodar, Haridas, Gopal Bhatt, Loknath Goswami, one by one the ultimate renunciate ascetics. His sacrifice and detachment is a shining example of Mahaprabhu’s ultimate sacrifice. It is even heard for Roop Swami that he did not even stay under a tree for more than a day. Asking for pieces from the house of Vrajvasis and lying under a new tree everyday. Blessed is his sacrifice and his devotion! Both Uddhava and Vidura, intimate devotees of the Lord, became sanyasis. Where can one find a better ideal of renunciation than the supreme sannyasini Gopikas? Although Uddhava, Vidura and Gopikas did not take gender-renunciation, because the law of gender-renunciation is found in the scriptures mostly only for Brahmins, but even then they were alinga-renunciates leaving home and bar.
How could Mahaprabhu stay at home? The feelings of retirement started rising strongly in his mind. They started thinking in their mind that- ‘Until we don’t beg for alms from house to house by becoming ascetics and turning our heads, neither our soul will get complete peace nor these opponents of ours will be saved. We will be able to save these opponents only by our great sacrifice. Out of envy of our growing fame, they have started behaving like this.
Prabhu was engrossed in these feelings that Dandi Swami Keshav Bharti Maharaj, living in Katwa, came to Navadweep. Due to the effect of time, nowadays all the ancient system has been destroyed; But when we are talking about, at that time there was such a practice that when a Dandi monk reached the door of any householder, the same householder would get up and welcome him and pray to him for alms with reverence and devotion. Tirtha, Saraswati and Ashram among Dasnami sannyasins – all these three have the right to bear punishment. Indians also have the right to punish, but in the Dandi sect, their punishment is considered as half. Remaining six types of ascetics like Shesh Giri, Puri, Van, Aranya and Parvat etc. do not have the right to be punished. [1] Only a Brahmin can take the punishment. That’s why Dandi Sannyasis are Brahmins only. Keshav Bharti Dandi was the only monk. Later, in his disciple-tradition, his successors became householders who still exist near Katwa.
On seeing Bharti, the Lord got up and bowed down at her feet. Bharati was stunned to see the signs of such unique love in his body. Pleased with his humility, decency and amiability, Bharti started saying – ‘You are either Narad or Prahlad, you only see idolized love.’ Hearing such words from Bharti’s mouth, the Lord became engrossed in love and holding Bharti’s feet began to say loudly – ‘You are God in reality, you are Narayan in human form. Make my householder’s house holy today and bless me, so that I can be free from the bondage of the world.’ Bharti said- ‘Your whole body has the signs of God. You are the embodiment of love, I feel the pleasure of seeing God like seeing you.’
Prabhu praised Bharti and said – ‘ You are dear to God, God always resides in your heart. The shadow of Shri Krishna always remains in your eyes. That’s why you see only God in the pasture world.’ In this way, the talks of love continued for a long time between these two great men. Being enamored of each other’s qualities, they were praising each other. Later Sachimata prepared the food. The Lord devotedly made Bharti ji do alms. The next day, Bharti ji returned to his ashram on the banks of the Ganges. As if they have come only to remind the Lord of retirement.
Prabhu’s mind started getting more and more impatient after Bharti ji’s departure. Now they started making preparations for Mahatyag. Whose name is complete happiness, beyond which there can be no other happiness, it is attained only by renunciation. Religion, austerity, knowledge and sacrifice – these are the ultimate means of devotion. That’s why it is said in the scriptures-
There is no religion greater than truth and no austerity greater than silence. There is no knowledge beyond thought and no happiness beyond renunciation.
That is, the one who has adopted one truth, he has followed all the religions. The one who kept silence and restrained his speech completely, he got the fruits of all penances. For the one who always keeps on thinking of truth and falsehood, what can be better knowledge than this and the one who has renounced everything, he has attained the best supreme happiness.
Now reader! Next, hold the liver tightly. Hold your heart and listen to the preparation of Mahatyaag of that great Tyagi Mahaprabhu.
respectively next post [76] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]