।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
विष्णुप्रिया और गौरहरि
यस्यानुरागललितस्मितवल्गुमन्त्र-
लीलावलोकपरिरम्भणरासगोष्ठ्याम्।
नीता: स्म न:क्षणमिव विना तं
गोप्य: कथं न्वतितरेम तमो दुरन्तम्।।
पितृगृह से जिस दिन विष्णुप्रिया पतिगृह में आयी थीं, उस दिन प्रभु भक्तों के साथ कुछ देर में गंगाजी से लौटे थे। आते ही भक्तों के सहित प्रभु ने भोजन किया। भोजन के अनन्तर सभी भक्त अपने-अपने स्थानों को चले गये। प्रभु भी अपने शयनगृह में जाकर शय्यापर लेट गये। इधर विष्णुप्रिया का हृदय धक्-धक् कर रहा था। उनके हृदय-सागर में मानो चिन्ता और शोक का बवण्डर-सा उठ रहा था। एक के बाद एक विचार आते और उनकी स्मृतिमात्र से विष्णुप्रिया कांपने लगतीं। ऐसी दशा में भूख-प्यास का क्या काम? मानो भूख-प्यास तो शोक और चिन्ता के भय से अपना स्थान परित्याग करके भाग गयी थीं। प्रात:काल से उन्होंने कुछ भी नहीं खाया था। पति के निकट बिना कुछ प्रसाद पाये जाना अनुचित समझकर उन्होंने प्रभु के उच्छिष्ट पात्रों में से दो-चार ग्रास अनिच्छापूर्वक माता के आग्रह से खा लिये। उनके मुख में अन्न भीतर जाता ही नहीं था। जैसे-तैसे कुछ खा-पीकर वे धीरे-धीरे पतिदेव की शय्या के समीप पहुँचीं। उस समय प्रभु को कुछ निन्द्रा-सी आ गयी थी। दुग्ध के स्वच्छ और सुन्दर झागों के समान सुकोमल गद्दे के ऊपर बहुत ही सफेद वस्त्र बिछा हुआ था। दो झालरदार स्वच्छ सफेद कोमल तकिये प्रभु के सिराहने रखे हुए थे। एक बाँह तकिये के ऊपर रखी थी। उस पर प्रभु का सिर रखा हुआ था। कमल के समान दोनों बड़े-बड़े़ नेत्र मुँदे हुए थे। उनके मुख के ऊपर घुंघराली काली-काली लटें छिटक रही थीं। मानो मकरन्द के लालची मत्त मधुपों की काली-काली पंक्तियाँ एक-दूसरे का आश्रय लेकर उस अनुपम मुख-कमल की मन-मोहक मधुरिमा का प्रेमपूर्वक पान कर रही हों।
अर्धनिद्रित समय के प्रभु के श्रीमुख की शोभा को देखकर विष्णुप्रिया ठिठक गयीं। थोड़ी देर खड़ी होकर वे उस अनिर्वचनीय अनुपम आनन की अद्भुत आभा को निहारती रहीं। उनकी अधीरता अधिकाधिक बढ़ती ही जाती थी। धीरे से वे प्रभु के पैरों के समीप बैठ गयीं और अपने कोमल करों से शनै:-शनै: प्रभु के पाद-पद्मों के तलवों को सुहारने लगीं। उन चरणों की कोमलता, अरुणता और सुकुमारता को देखकर विष्णुप्रिया का हृदय फटने लगा। वे सोचने लगीं- ‘हाय! प्राणप्यारे इन सुकोमल चरणों से कण्टकाकीर्ण पृथ्वी पर नंगे पैरों कैसे भ्रमण कर सकेंगे? तपाये हुए सुवर्ण के रंग के समान यह राजकुमार का –सा सुकुमार शरीर संन्यास के कठोर नियमों का पालन कैसे कर सकेगा? इन विचारों के आते ही विष्णुप्रिया जी के नेत्रों से मोतियों के समान अश्रुबिन्दु झड़ने लगे।
चरणों में गर्म बिन्दुओं के स्पर्श होने से प्रभु चौंक उठे और तकिये से थोड़ा सिर उठाकर उन्होंने अपने पैरों की ओर निहारा। सामने विष्णुप्रिया को देखकर प्रभु थोडे़ उठ-से पड़े। आधे लेटे-ही-लेटे प्रभु ने कहा- ‘तुम रो क्यों रही हो? इतनी अधीर क्यों बनी हुई हो? तुम्हें यह हो क्या गया है?’
रोते-रोते अत्यन्त क्षीण स्वर में सुबकियाँ भरते हुए विष्णुप्रिया जी ने कहा- ‘अपने भाग्य को रो रही हूँ कि विधाता ने मुझे इतनी सौभाग्यशालिनी क्यों बनाया?’
प्रभु ने कुछ प्रेमविस्मित अधीरता-सी प्रकट करते हुए कहा-‘बात तो बताती नहीं, वैसे ही सुबकियाँ भर रही हो। मालूम भी तो होना चाहिए क्या बात है?’ उसी प्रकार रोते-रोते विष्णुप्रिया जी बोलीं- ‘मैंने सुना है आप घर-बार छोड़कर संन्यासी होंगे, हम सबको छोड़कर चले जायँगे?’
प्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘तुमसे यह बे-सिर-पैर की बात कही किसने?’ विष्णुप्रिया जी ने अपनी बात पर कुछ जोर देते हुए और अपना स्नेह-अधिकार जताते हुए कहा- ‘किसी ने भी क्यों न कही हो।
आप बतलाइये क्या यह बात ठीक नहीं है?’
प्रभु ने मुसकराते हुए कहा-‘हाँ, कुछ-कुछ ठीक है?’
विष्णुप्रिया जी पर मानो वज्र गिर पड़ा, वे अधीर होकर प्रभु के चरणों में गिर पड़ी और फूट-फूटकर रोने लगीं। प्रभु ने उन्हें प्रेमपूर्वक हाथ का सहारा देते हुए उठाया और प्रेमपूर्वक आलिंगन करते हुए वे बोले- ‘तभी तो मैं तुमसे कोई बात नहीं। तुम एकदम अधीर हो जाती हो।’
हाय! उस समय की विष्णुप्रिया जी की मनोवेदना का अनुभव कौन कर सकता है? उनके दोनों नेत्रों से निरन्तर अश्रु प्रवाहित हो रहे थे, उसी वेदना के आवेश में रोते-राते उन्होंने कहा- ‘प्राणनाथ! मुझ दुखिया को सर्वथा निराश्रय बनाकर आाप क्या सचमुच चले जायँगे? क्या इस भाग्यहीना अबाला को अनाथिनी ही बना जायँगे? हाय! मुझे अपने सौभाग्यसुख का बड़ा भारी गर्व था। ऐसे त्रैलोक्य-सुन्दर जगद् वन्द्य अपने प्राण प्यारे पति को पाकर मैं अपने को सर्वश्रेष्ठ सौभाग्यशालिनी समझती थी। जिसके रूप-लावण्य को देखकर स्वर्ग की अप्सराएँ भी मुझसे ईर्ष्या करती थीं। नवद्वीप नारियाँ जिस मेरे सौभाग्य-सुख की सदा भूरि-भूरि प्रशंसा किया करती थीं, वे ही कालांतर में मुझे भाग्यहीन-सी द्वार-द्वार भटकते देखकर मेरी दशा पर दया प्रकट खेवेगा? पति ही स्त्रियों का एकमात्र आश्रय-स्थान है, पति के बिना स्त्रियों को और दूसरी गति हो ही क्या सकती है? प्रभु ने विष्णुप्रिया जी को समझाते हुए कहा- ‘देखो, संसार में सभी जीव प्रारब्धकर्मों के अधीन हैं। जितने दिन तक जिसका जिसके साथ संस्कार होता है, वह उतने ही दिन तक उसके साथ रह सकता है। सबके आश्रयदाता तो वे ही श्रीहरि है। तुम श्रीकृष्ण का सदा चिंतन करती रहोगी तो तुम्हें मेरे जाने का तनिक भी दु:ख न होगा।‘
रोते-रोते विष्णुप्रियाजी ने कहा- ‘देव! आपके अतिरिक्त कोई दूसरे श्रीकृष्ण हैं, इसे मैं आज तक जानती ही नहीं और न आगे जानने की ही इच्छा है। मेरे तो ईश्वर, हरि और परमात्मा जो भी कुछ हैं, आप ही हैं। आपके श्रीचरणों के चिंतन के अतिरिक्त दूसरा चिंतनीय पदार्थ मेरी दृष्टि में है ही नहीं। मैं आपकी चरण-सेवा में ही अपना जीवन बिताना चाहती हूँ और मुझे किसी प्रकार के संसारी सुख की इच्छा नहीं है।’
प्रभु ने कुछ अधीरता प्रकट करते हुए कहा- ‘प्रिये! मैं सदा से तुम्हारा हूँ और सदा तुम्हारा रहूँगा। तुम्हारा यह नि:स्वार्थ प्रेम कभी भुलाया जा सकता है? कौन ऐसा भाग्यहीन होगा जो तुम-जैसी सर्वगुण सम्पन्ना जीवन की सहचरी का परित्याग करने की मन में इच्छा भी करेगा, किंतु विष्णुप्रिये! मैं सत्य-सत्य कहता हूँ, मेरा मन अब मेरे वश में नहीं है। जीवों का दु:ख अब मुझसे देखा नहीं जा सकता। मैं संसारी होकर और घर में रहकर जीवों का उतना अधिक कल्याण नहीं कर सकता। जीवों के लिये मुझे शरीर से तुम्हारा त्याग करना ही होगा। मन से तो तुम्हारा प्रेम कभी भुलाया नहीं जा सकता। तुम निरंतर विष्णुचिंतन करती हुई अपने नाम को सार्थक बनाओ और अपने जीवन को सफल करो।’
बहुत ही अधीर स्वर में विष्णुप्रिया जी ने कहा- ‘मेरे देवता! यदि जीवों के कल्याण में मैं ही बाधकरूप हूँ तो मैं आपके श्री चरणों का स्पर्श करके कहती हूँ कि मैं सदा अपने पितृगृह में ही रहा करूंगी। जब कभी आप गंगास्नान को जाया करेंगे, तो कहीं से छिपकर दर्शन कर लिया करूँगी। माता को तो कम-से-कम आधार रहेगा। खैर, मैं तो अपने हृदय को वज्र बनाकर इस पहाड़-जैसे दु:ख को सहन भी कर लूँ, किंतु उन वृद्धा माता की क्या दशा होगी? उनके तो आगे-पीछे कोई नहीं है। उनका जीवन तो एकमात्र आपके ही ऊपर निर्भर है। वे आपके बिना जीवित न रह सकेंगी। निश्चय ही वे आत्मघात करके अपने प्राणों को गवाँ देंगी।’
प्रभु ने कुछ रूंधे हुए कण्ठ से रुक-रूककर कहा- ‘सबके आगे-पीछे वे ही श्रीहरि हैं। उनके सिवाय प्राणियों का दूसरा आश्रय हो ही नहीं सकता। प्राणिमात्र के आश्रय वे ही हैं। उनके स्मरण से सभी का कल्याण होगा। प्रिये! मैं विवश हूँ, मुझे नवद्वीप को परित्याग करके अन्यत्र जाना ही होगा। संन्यास के सिवाय मुझे दूसरे किसी काम में सुख नहीं। तुम सदा से मुझे सुखी बनाने की ही चेष्टा करती रही हो। तुमने मेरी प्रसन्नता के निमित्त अपने सभी सुखों का परित्याग किया है। जिस बात में मैं प्रसन्न रह सकूँ, तुम सदा ऐसा ही आचरण करती रही हो।
जिस बात में मैं प्रसन्न रह सकूँ, तुम सदा ऐसा ही आचरण करती रही हो। अब तुम मुझे दु:खी बनाना क्यों चाहती हो? यदि तुम मुझे जबरदस्ती यहाँ रहने का आग्रह करोगी तो मुझे सुख न मिल सकेगा। रही माता की बात, सो उनसे तो मैं अनुमति ले भी चुका और उन्होंने मुझे संन्यास के निमित्त आज्ञा दे भी दी। अब तुमसे ही अनुमति लेनी और शेष रही है। मुझे पूर्ण आशा है, तुम भी मेरे इस शुभ काम में बाधा उपस्थित न करके प्रसन्नतापूर्वक अनुमति दे दोगी।’ कठोर हृदय करके और अपने दु:ख के आवेग को बलपूर्वक रोकते हुए विष्णुप्रिया ने कहा- ‘यदि माता ने आपको संन्यास की आज्ञा दे दी है, तो मैं आपके काम में रोड़ा न अटकाऊंगी। आपकी प्रसन्नता में ही मेरी प्रसन्नता है। आप जिस दशा में भी रहकर प्रसन्न हों वही मुझे स्वीकार है, किंतु प्राणेश्वर! मुझे हृदय से न भुलाइयेगा। आपके श्रीचरणों का निरंतर ध्यान बना रहे ऐसा आशीर्वाद मुझे और देते जाइयेगा। प्रसन्नतापूर्वक तो कैसे कहूं, किंतु आपकी प्रसन्नता के सम्मुख मुझे सब कुछ स्वीकार है। आप समर्थ है, मेरे स्वामी हैं, स्वतंत्र हैं और पतितों के उद्धारक हैं। मैं तो आपके चरणों की दासी हूँ। स्वामी के सुख के निमित्त दासी सब कुछ सहन कर सकती है। किंतु मेरा स्मरण बना रहे, यही प्रार्थना है।’
प्रभु ने प्रिया जी को प्रेमपूर्वक आलिंगन करते हुए कहा- ‘धन्य है, तुमने एक वीरपत्नी के समान ही यह बात कही है। इतना साहस तुम-जैसी पतिपरायणा सती-साध्वी स्त्रियाँ ही कर सकती हैं। तुम सदा मेरे हृदय में बनी रहोगी और अभी मैं जाता थोड़े ही हूँ। जब जाना होगा तब बताऊँगा।’ इस प्रकार प्रेम की बातें करते-करते ही वह सम्पूर्ण रात्रि बीत गयी। प्रात:काल प्रभु उठकर नित्य-कर्म के चले गये।
क्रमशः अगला पोस्ट [79]
••••••••••••••••••••••••••••••••••
[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Vishnupriya and Gaurahari
whose passionate smile charming mantra- In the playful look, embrace, and taste. We were taken away for a moment without him O gopīs how can we cross the infinite darkness
On the day when Vishnupriya had come from Pitru Griha to Pati Griha, the Lord had returned from Gangaji in some time with the devotees. As soon as he came, the Lord had food along with the devotees. After the meal, all the devotees went to their respective places. Prabhu also went to his bedroom and lay down on the bed. Here Vishnupriya’s heart was thumping. It was as if a whirlwind of worry and grief was rising in his heart-ocean. Thoughts came one after the other and Vishnupriya started trembling at the mere memory of them. What is the use of hunger and thirst in such a condition? As if hunger-thirst had fled away leaving their place due to fear of grief and worry. He had not eaten anything since morning. Considering it inappropriate to be near her husband without getting some prasad, she reluctantly ate two to four grasses from the Lord’s discarded vessels on the insistence of the mother. Food did not enter his mouth at all. Somehow after eating and drinking something, she slowly reached near the husband’s bed. At that time the Lord had felt a bit sleepy. Very white cloth was spread on the soft mattress like clean and beautiful foams of milk. Two fringed clean white soft pillows were placed on the head of the Lord. One arm was placed on the pillow. The head of the Lord was placed on it. Both the big lotus-like eyes were closed. Curly black locks were falling over his face. As if the black-black rows of honeybees, greedy for nectar, are taking shelter of each other and lovingly drinking the mind-bewitching sweetness of that unique mouth-lotus.
Vishnupriya was stunned to see the beauty of the Srimukh of the Lord of the half-sleeping time. Standing for a while, she kept gazing at the wonderful aura of that indescribable unique joy. His impatience kept increasing more and more. Slowly she sat down near the feet of the Lord and with her soft hands gradually began to caress the soles of the Lord’s feet. Vishnupriya’s heart started bursting at the sight of the tenderness, beauty and sweetness of those feet. She started thinking- ‘Hi! How will the dear ones be able to walk barefoot on the thorny earth with these soft feet? How could this prince’s soft body, like the color of tempered gold, follow the strict rules of sannyas? As soon as these thoughts came, teardrops started falling from the eyes of Vishnupriya ji like pearls.
The Lord was startled by the touch of the hot spots at his feet and raised his head a little from the pillow and looked at his feet. Seeing Vishnupriya in front of him, the Lord got up a little. While lying down, the Lord said – ‘Why are you crying? Why are you so impatient? What has happened to you?
Crying in a very weak voice, Vishnupriya ji said – ‘I am crying for my fate, why did the Creator make me so fortunate?’
Prabhu expressed some love-filled impatience and said-‘ You are not telling the matter, you are filling in the same way. You should know what is the matter?’ In the same way, while crying, Vishnupriya ji said – ‘I have heard that you will leave home and become a monk, will you leave us all?’
Prabhu laughingly said- ‘Who told you this nonsense?’ Vishnupriya ji while emphasizing on her point and expressing her affection and authority said- ‘Why hasn’t anyone told you. You tell me, isn’t this right?’
Prabhu said with a smile – ‘Yes, is everything okay?’
As if a thunderbolt fell on Vishnupriya ji, she fell impatiently at the feet of the Lord and started crying bitterly. The Lord lifted him up with the support of his hand lovingly and hugging him lovingly he said – ‘That’s why I don’t care about you. You get very impatient.’
Oh! Who can feel the anguish of Vishnupriya ji at that time? Tears were flowing continuously from both his eyes, crying out in the same emotion, he said- ‘Prannath! Will you really go away after making me completely helpless? Will this unfortunate child be made an orphan? Oh! I was very proud of my good fortune. Having found such a worldly-beautiful worldly husband, my beloved husband, I used to consider myself the most fortunate. Seeing whose beauty, even the Apsaras of heaven were jealous of me. The women of Navadvipa, who always praised my good fortune, will they show mercy on my condition after seeing me wandering from door to door like a wretched one? Husband is the only refuge of women, without husband what other movement can women have? Prabhu explained to Vishnupriya ji and said- ‘Look, all the living beings in the world are subject to their destiny. For as long as the person with whom the ritual is done, he can stay with him for that long. He alone is Sri Hari, the giver of shelter to all. If you always keep thinking of Shri Krishna, then you will not be sad at all about my departure.
While crying, Vishnupriyaji said – ‘Dev! Apart from you, there is no other Shri Krishna, I do not know this till date and neither do I have any desire to know further. Whatever Ishwar, Hari and Paramatma are to me, you are the only one. Apart from the contemplation of your holy feet, there is no other thing to think about in my eyes. I want to spend my life serving your feet and I do not desire any kind of worldly pleasure.’
Expressing some impatience, the Lord said – ‘Dear! I have always been yours and will always be yours. Can this selfless love of yours ever be forgotten? Who would be so unlucky that would even have a desire in mind to leave the companion of life full of all virtues like you, but dear Vishnu! I tell the truth, my mind is no longer under my control. The sorrow of the living beings cannot be seen from me now. Being worldly and staying at home, I cannot do much welfare of the living beings. For the sake of the living beings, I have to sacrifice you from my body. Your love can never be forgotten by heart. Make your name meaningful by continuously thinking about Vishnu and make your life successful.
Vishnupriya ji said in a very impatient voice – ‘My God! If I am the only obstacle in the welfare of the living beings, then I touch your feet and say that I will always stay in my ancestral home. Whenever you go to bathe in the Ganges, I will visit you secretly from somewhere. At least the mother will have support. Well, I can tolerate this mountain-like sorrow by making my heart a thunderbolt, but what will be the condition of that old mother? There is no one in front or behind Him. Their life depends only on you. They will not be able to survive without you. Surely she will lose her life by committing suicide.’
The Lord said intermittently in a hoarse voice – ‘ He is Sri Hari in front and behind everyone. Apart from him, there can be no other shelter for the living beings. He is the refuge of all living beings. Everyone will be benefited by his remembrance. Dear! I am constrained, I have to leave Navadvipa and go elsewhere. I am not happy in any other work except retirement. You have always been trying to make me happy. You have sacrificed all your pleasures for the sake of my happiness. You have always been behaving like this in which I can be happy.
You have always been behaving like this in which I can be happy. Why do you want to make me sad now? If you force me to stay here, then I will not be able to get happiness. As for the mother, I have already taken permission from her and she has also given me permission to retire. Now the only thing left is to take permission from you. I have full hope, you will also happily allow me in this auspicious work without obstructing it.’ With a hard heart and forcefully restraining the impulse of her sorrow, Vishnupriya said – ‘If the mother has given you the permission to retire. If yes, then I will not obstruct your work. My happiness lies in your happiness. I accept whatever state you are happy in, but Praneshwar! Do not forget me from your heart. Keep meditating on your holy feet, you will continue to give me more such blessings. How can I say happily, but I accept everything in front of your happiness. You are the able, my master, the free and the savior of the fallen. I am the slave of your feet. The maidservant can bear everything for the pleasure of her master. But remember me, this is my prayer.
Prabhu hugged Priya ji lovingly and said- ‘Blessed, you have said this like a brave wife. Such courage can only be shown by husband-oriented sati-sadhvi women like you. You will always remain in my heart and now I hardly go. I will tell you when I have to go.’ The whole night passed while talking about love like this. Prabhu got up early in the morning and went to his daily work.
respectively next post [79] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]