।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
शान्तिपुर में अद्वैताचार्य के घर
न्यासं विधायोत्प्रणयोऽथ गौरो
वृन्दावन गन्तुमना भ्रमाद् य:।
राढे़ भ्रमन् शान्तिपुरीमयित्वा
ललास भक्तैरिह तं नतोअस्मि।।
इधर महाप्रभु से विदा होकर दु:खित हुए चन्द्रशेखर आचार्य नवद्वीप की ओर चले। उनके पैर आगे नहीं पड़ते थे, कभी तो वे रोने लगते, कभी पीछे फिरकर देखने लगते कि सम्भव है, प्रभु दया करके हमारे पीछे-पीछे आ रहे हों। कभी भ्रमवश होकर आप-ही-आप कहने लगते- ‘प्रभो! आप आ गये अच्छा हुआ।’ फिर थोड़ी देर में अपने भ्रम को दूर करने के निमित्त चारों ओर देखने लगते। थोड़ी दूर चलकर बैठ जाते और सोचने लगते- ‘अब मेरे जीवन को धिक्कार है।
प्रभु के बिना अब मैं नवद्वीप में कैसे रह सकूँगा? अब मैं अकेला ही लौटकर नवद्वीप कैसे जाऊँ? पुत्र-वियोग से दु:खी वृद्धा शचीमाता जब मुझसे आकर पूछेगी कि मेरे लाल को, मेरे प्राणप्यारे पुत्र को, मेरी वृद्धावस्था के एकमात्र सहारे को, मेरी आँख के तारे को, मेरे दुलारे निमाई को तुम कहाँ छोड़ आये?’ तब मैं उस दु:खिनी माता का क्या उत्तर दूंगा? जब भक्त चारों ओर से मुझे घेरकर पूछेंगे- ‘प्रभु कहाँ हैं? वे कितनी दूर हैं, कब तक आ जायंगे?’ तब इन हृदय को विदीर्ण करने वाले प्रश्नों का मैं क्या उत्तर दूँगा। क्या मैं उनसे यह कह दूँगा कि ‘प्रभु अब लौटकर नहीं आवेंगे, वे तो वृन्दावन को चले गये? हाय! ऐसी कठिन बात मेरे मुख से किस प्रकार निकल सकेगी? यदि वज्र का हृदय बनाकर मैं इस बात को प्रकट भी कर दूँ, तो निश्चय ही बहूत-से भक्तों के प्राणपखेरू तो उसी समय प्रभु के समीप ही प्रस्थान कर जायंगे। भक्तों के बहुत-से प्राणरहित शरीर ही मेरे सामने पड़े रह जायंगे।
उस समय मेरे प्राण किस प्रकार शरीर में कैसे रह सकते हैं? खैर, इन सब बातों को तो मेरा वज्र हृदय सहन भी कर सकता हैं, किंतु उस पतिपरायणा पतिव्रता विष्णुप्रिया के करुण-क्रन्दन से तो पत्थर भी पिघलने लगेंगे। जब वह मेरे लौट आने का समाचार सुनेगी, तो अपने हृदय-विदारक रुदन से दिशा-विदिशाओं को व्याकुल करती हुई, पति के सम्बन्ध में जिज्ञासा करती हुई एक ओर खड़ी होकर रुदन करने लगेगी तब तो निश्चय ही मैं अपने को संभालने में समर्थ न हो सकूँगा। सभी लोग मुझे धिक्कार देंगे, सभी मेरे काम की निन्दा करेंगे। जब उन्हें पता चलेगा, कि प्रभु के संन्यास-सम्बन्धी सभी कृत्य मैंने ही अपने हाथ से कराये हैं, जब उन्हें यह बात विदित होगी कि मैंने ही प्रभु को संन्यासी बनाया है तो वे सभी मिलकर मुझे भाँति-भाँति से धिक्कारेंगे।
उन सभी प्रभु के भक्तों के दिये हुए अभिशाप को मैं किस प्रकार सहन कर सकूँगा। इससे तो यही उत्तम है कि मैं गंगा जी में कूदकर अपने प्राणों को गँवा दूँ। यह सोचकर वे जल्दी से गंगा-किनारे पहुँचे और गंगा जी में कूदने के लिये उद्यत हुए। उसी समय उन्हें प्रभु की बातों का स्मरण हो आया। ‘प्रभु ने माता के लिये और भक्तों के लिये बहुत-बहुत करके प्रेम-संदेश भेजा है, उनके संदेश को न पहुँचाने से मुझे पाप लगेगा। मैं प्रभु के सम्मुख कृतघ्न कहलाऊँगा। कौन जाने प्रभु लौटकर आते ही हों। मेरी दायीं भुजा फड़क रही है। दायीं आँख लहक रही है, इससे मेरे हृदय में इस बात का विश्वास-सा हो रहा है कि प्रभु अवश्य लौटकर आयेंगे और वे भक्तों ये मिलकर ही जहाँ जाना चाहेंगे जायँगे।’ इन विचारों के मन में आते ही उन्होंने गंगा जी में कूदकर आत्माघात करने का अपना विचार त्याग दिया और वहीं गंगा जी की रेती में प्रभु का चिन्तन करते हुए बैठ गये। उन्होंने मन में स्थिर किया कि ‘खूब रात्रि होने पर घर जाऊँगा। तब तक सब लोग सो जायंगे और मैं चुपके से अपने घर में जाकर छिप रहूँगा।
मेरे नवद्वीप आने का किसी को पता ही न चलेगा।’ इसीलिये गंगा जी की बालुका में अकेले बैठे-ही-बैठे उन्होंने सम्पूर्ण दिन बिता दिया। खूब अन्धकार होने पर वे गंगा जी के पार हुए और लोगों से आँख बचाकर अपने घर पहुँचे। घर पहुँचते ही नगर भर में इनके लौट आने का समाचार बात-की-बात में बिजली की तरह फैल गया। जो भी सुनता वही इनके पास दौड़ा आता और आते ही प्रभु के सम्बन्ध में पूछता। ये सबको धैर्य बताते हुए कहते- ‘हाँ, प्रभु शीघ्र ही लौट कर आयेंगे।’ इतने में ही पुत्र के समाचारों के लिये उत्सुक हुई वृद्धा माता अपनी पुत्रवधू को साथ लिये हुए आचार्यरत्न के घर आ पहुँची। जिस दिन से उनका प्यारा निमाई घर छोड़कर गया है, उसी दिन से माता के अपने मुख में अन्न का दाना तक नहीं दिया है। उसकी दोनों आँखें निरन्तर रोते रहने के कारण सूज गयी हैं, गला बैठ गया है, सम्पूर्ण शरीर शक्तिहीन हो गया है, उठकर बैठने की भी शक्ति नहीं रही है; किन्तु चन्द्रशेखर आचार्य के आगमन का समाचार सुनते ही न जाने माता के शरीर में कहाँ से बल आ गया, वह दौड़ी हुई आचार्य के घर आयी। विष्णुप्रिया जी भी उसका वस्त्र पकडे़ पीछे-पीछे रोती हुई आ रही थीं।
माता को आते देखकर आचार्य सम्भ्रक के सहित एकदम खडे़ हो गये। चारों ओर से भक्तों ने आप-से-आप माता के लिये रास्ता छोड़ दिया। माता ने आते ही चन्द्रशेखर को स्पर्श करना चाहा, किन्तु अपने शोक के आवेग को न सह सकने के कारण बीच में ही ‘हा निमाई!’ ऐसी कहती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी! जल्दी से आचार्यरत्न ने बढ़कर वृद्धा माता को संभाला, विष्णुप्रिया जी भी सास के चरणों के समीप बैठकर रुदन करने लगीं।
उस समय का दृश्य बड़ा ही करुणापूर्ण था। माता की ऐसी दशा देखकर सभी उपस्थित भक्त ढाह मार-मारकर रोने लगे। चन्द्रशेखर आचार्य का घर क्रन्दन की वेदनापूर्ण ध्वनि से गूँजने लगा। माता के मुख में से दूसरा कोई शब्द ही नहीं निकलता था, ‘हा निमाई! मेरे निमाई!’ बस, यही कहकर वह रुदन कर रही थी। बहुत देर इसी प्रकार रुदन करते रहने के अनन्तर भर्रायी हुई आवाज से माता ने रोते-रोते पूछा- ‘आचार्य! मेरे निमाई को कहाँ छोड़ आये? क्या वह सचमुच संन्यासी बन गया? आचार्य! तुम मुझे सच-सच बता दो, क्या उस मेरे दुलारे के वे कन्धों तक लटकने वाले काले-काले सुन्दर घुंघराले बाल सिर से पृथक् हो गये? क्या किसी निर्दयी नापित ने उन्हें छूरे की तीक्ष्ण धार से काट दिया? क्या मेरा सुकुमार निमाई भिखारी बन गया? क्या वह अब मांगकर खाने लगा? आचार्य! मुझ दु:खिनी अबला पर दया करके बता दो मेरा निमाई क्या अब न आवेगा? क्या अब मैं अपने हाथ से दात-भात बनाकर उस न खिला सकूँगी? क्या अब भूख लगने पर वह मुझसे बालाकों की भाँति भोजन के लिये आग्रह न करेगा? क्या अब वह मेरे कलेजे का टुकड़ा मुझसे अलग ही रहेगा?
क्या अब उसे अपनी छाती से चिपटाकर अपने तन की तपन मिटा सकूंगी? क्या अब मैं उसके सुगन्धित बालों वाले मस्तक को सूंघकर सुखी न बन सकूँगी? आचार्य! तुम बताते क्यों नहीं? तुम्हें मुझ कंगालिनी पर दया क्यों नहीं आती? तुम मौन क्यों हो रहे हो? मेरे प्रश्नों को उत्तर क्यों नहीं देते?’
आचार्य माता के इतने प्रश्नों को भी सुनकर मौन ही बने बैठे रहे। केवल वे आँखों से अश्रु बहा रहे थे। आचार्य को इस प्रकार रोते देखकर माता समझ गयी’ कि मेरे निमाई ने जरूर संन्यास ले लिया। इसलिये वह अधीरता प्रकट करती हुई कहने लगी-‘आचार्य! तुम मेरे निमाई का पता मूझे बता तो। वह जहाँ भी कहीं होगा, वहाँ मैं जाऊँगी। वह चाहे कैसा भी संन्यासी क्यों न बन गया हो, है तो मेरा पुत्र ही! मैं उसके साथ-साथ रहूंगी, जिस प्रकार अपने बछड़े के पीछे-पीछे दुबली और वृद्धा गौ रंभाती हुई चलती है, उसी प्रकार मैं निमाई के पीछे-पीछे चलूंगी।
आचार्य! मैं निमाई के बिना जीवित नहीं रह सकती। तुम मेरे ऊपर इतनी कृपा करो, मेरा निमाई जहाँ भी हो, वहीं मुझे ले जाकर उसके पास पहुँचा दो। आह! अब वह घर-घर से भात के दाने मांगकर खाता होगा? कोई मेरी-जैसी ही वृद्धा दया करके थोड़ा भात दे देती होगी। कोई-कोई दुत्कार भी देती होगी। कोई-कोई बासी और सूखा भात ही उसकी झोली में डाल देती होगी। यहाँ तो जब तक वह दो-चार मेरे हाथ के बने नहीं खा लेता था, तब तक उसका पेट ही नहीं भरता था। अब उस सूखे और बासी भात को वह किस प्रकार खा सकेगा? वह भूख का बड़ा कच्चा है। तीसरे पहर के जलपान में थोड़ी भी देर हो जाती या कभी घर की बनी मिठाई चुक जाती तो जमीन-आसमान एक कर डालता था। पकौड़ी बनाते-बनाते ही खाने को आ बैठता था, अब उसे तीसरे पहर कौन जलपान करायेगा? हा! मेरे ऐसे जीवन को धिक्कार है? हा! मेरा सर्वगुण सम्पन्न पुत्र! जिसकी भक्त राजा से भी बढ़कर पूजा और प्रतिष्ठा करते थे, वह द्वार-द्वार एक मुट्ठी चावल के लिये घूम रहा होगा। विधाता! तेरे ऐसे कठोर हृदय के लिये तुझे बार-बार धिक्कार है, जो इतना रूप, लावण्य, सौन्दर्य, पाडित्य और मान-सम्मान देने पर भी तैंने निमाई को घर-घर का भिखारी बना दिया।
‘बड़ी देर तक माता इसी प्रकार प्रलाप करती रही। कुछ धैर्य धारण करके आचार्य ने संन्यास की सभी बातें बता दीं। उनके सुनते ही माता फिर बेहोश हो गयी और विष्णुप्रिया भी अचेतन होकर शचीदेवी के चरणों में गिर पड़ी।
इस प्रकार रुदन करते-करते आधी से अधिक रात्रि बीत गयी। शचीमाता की बहिन ने खाने के लिये बहुत अधिक आग्रह किया, किंतु माता ने कुछ भी नहीं खाया। उसी हालत में वह विष्णुप्रिया को लिये हुए रात्रि भर पड़ी रोती रही। प्रात:काल आचार्य उन्हें घर पहुँचा आये। इस प्रकार श्रीवास, वासुदेव, नंदनाचार्य, गंगादास आदि सभी बिना कुछ खाये-पीये प्रभु के ही लिये अधीर होकर विलाप करते रहते थे। इस प्रकार तीसरे ही दिन नित्यानंद जी भी नवद्वीप आ पहुँचे।
नित्यानंद जी के आगमन का समाचार सुनकर बात-की-बात में सम्पूर्ण नगर के नर-नारी, बालक-वृद्ध तथा सभी श्रेणी के पूरूष उनके पास आ-आकर प्रभु का समाचार पूछने लगे। कोई पूछता- ‘प्रभु कहाँ है?’ कोई कहता- ‘यहाँ कब आवेंगे?’ कोई कहता- ‘हमें स्थान बता दो हम अभी जाकर उनके दर्शन कर आवें।’ जो लोग महाप्रभु से द्वेषभाव रखते थे, वे भी अपने कुकृत्यपर पश्चात्ताप करते हुए नित्यानन्द जी से रोते-रोते अत्यन्त ही दीनभाव से सरलतापूर्वक कहने लगे- ‘श्रीपाद! हम दुष्टों ने ही मिलकर प्रभु को गृहत्यागी-विरागी बनाया। हमारे ही कारण संन्यासी हुए। हमीलोग प्रभु को नवद्वीप से निर्वासित करने में कारण हैं। प्रभो! हमारी निष्कृति का भी कोई उपाय हो सकता है? दयालु गौरांग क्या हम-जैसे पापियों को भी क्षमा प्रदान कर सकते हैं? वे क्षमा चाहे न करें, हम अपने पापों का फल भोगने के लिये तैयार हैं, किंतु वे एक बार कृपा की दृष्टि से हमारी ओर देखभर लें। क्या प्रभु के दर्शन हम लोगों को कभी हो सकेंगे? क्या इस जीवन में गौरचन्द्र के सुन्दर तेजयुक्त श्रीमुख के दर्शनों का सौभाग्य हम लोगों को कभी प्राप्त हो सकता है?
लोगों के मुख से ऐसी बात सुनकर नित्यानन्द जी सभी से कहते- ‘महाप्रभु बड़े दयालु हैं, उनके हृदय में प्राणिमात्र के प्रति दया के भाव हैं, उनका शत्रु या अप्रिय कोई भी नहीं। वे अपने अपकार करने वाले के प्रति भी प्रेम प्रदर्शित करते हैं, वे तुम लोगों के ही प्रेम के वशीभूत होकर फुलिया होते हुए शान्तिपुर जा रहे हैं। शान्तिपुर में वे आचार्य अद्वैत के घर ठहरेंगें तुम सभी लोग वहीं जाकर प्रभु के दर्शन कर सकते हो।’
नित्यानन्द जी के मुख से यह बात सुनकर कि ‘प्रभु इस समय फुलिया में हैं, हरिदास के आश्रम होंगे और वहाँ से शान्तिपुर जायेंगे’ बस, इस बात को सुनते ही लोग फुलिया की ओर दौड़ने लगे। कोई तो नाव पर पार होने लगे। कोई अपनी डोंगी को आप ही खेकर ले जाने लगे। कोई घडो़ के द्वारा ही गंगा जी को पार करने लगे। बहुत-से उतावले भक्तों ने तो नाव, डोंगी तथा घड़ों की भी परवा नहीं की। वे वैसे ही गंगा जी में कूद पड़े और हाथों से तैरकर ही उस पार पहुँच गये। हजारों आदमी बात-की-बात में गंगा जी को पार करके फुलिया ग्राम में पहुँच गये। प्रेम में उन्मत्त हुए पुरुष जेारों से ‘हरि बोल’, ‘हरि बोल’ की गगनभेदी ध्वनि करने लगे। उस महान कोलाहल को सुनकर प्रभु आश्रम में से बाहर निकल आये।
संन्यासी-वेषधारी प्रभु के दर्शनों से वह प्रेम में उन्मत्त हुई अपार जनता जेारों से हरिध्वनि करने लगी। सभी के नेत्रों से आंसुओं की धाराएँ बह रही थीं। कोई-कोई तो प्रभु के मुँडे़ हुए सिर को और उनके गेरुए रंग के वस्त्रों को देखकर जोरों से ‘हा प्रभु! हा हरि ‘कहकर रुदन करने लगे। प्रभु ने सभी को कृपा की दृष्टि से देखा और सभी को लौट जाने के लिये कहकर आप शान्तिपुरी की ओर चलने लगे। बहुत-से भक्त उनके साथ-ही-साथ शान्तिपुर को चले। कुछ लौटकर नवद्वीप आ गये।
इधर नित्यानंद जी लोगों को प्रभु के आने का समाचार सुनाते हुए शचीमाता के समीप पहुँचे। उस समय माता पुत्रविछोहरूपी आक्रान्त हुई ब्रहोशी के सहित आहें भर रही थीं। नित्यानंद जी ने माता के चरण-स्पर्श किये। माता ने चौंककर देखा कि सामने नित्यानंद खड़े हैं। अत्यंत ही अधीरता के साथ माता कहने लगी- ‘बेटा निताई! तू अपने भाई निमाई को कहाँ छोड़ आया? तू तो मुझसे प्रतिज्ञा करके गया था कि मैं निमाई को साथ लेकर आऊँगा? वह कितनी दूर है? उसे तू पीछे क्यों छोड़ आया? तू तो संग लाने के लिये कह गया था। मेरा निमाई कहाँ है? बेटा! मुझे जल्दी से बता दे। तेरे ही कहने से मैंने अब तक प्राण रखे हैं। अब तू मुझे जल्दी बता दे। कहीं तू भी तो मुझे निमाई की तरह धोखा नहीं देता? तू सच-सच बता दे निमाई कहाँ है? मैं वहीं जाऊँगी, तू मुझे अभी उसी देश में ले चल, जहाँ मेरा निमाई हो। ‘उपवासों से क्षीण हुई दु:खिनी माता को धैर्य बंधाते हुए नित्यानंद जी ने कहा- ‘माता! तुम इतनी अधीर मत हो। मैं तुम्हारे निमाई को साथ ही लेकर आया हूँ। वे शांतिपुर में अद्वैताचार्य के घर पर हैं। उन्होंने तुम्हें वहीं बुलाया है, मैं तुम्हें वहीं ले चलूँगा।’
‘निमाई शांतिपुर है’ इतना सुनते ही मानो माता के गये हुए प्राण फिर से शरीर में लौट आये। वह अधीर होकर कहने लगी- ‘बेटा! मुझे शांतिपुर ले चल! मैं जब तक निमाई को देख न लूँगी, तब तक मुझे शांति न होगी।’
नित्यानंद जी ने देखा कि माता चिरकाल के उपवासों से अत्यंत ही क्षीण हो गयी हैं। उन्होंने निमाई के जाने के दिन से आज तक अन्न का दर्शन तक नहीं किया है। ऐसी दशा में यदि इन्हें प्रभु के समीप ले चलेंगे तो इन्हें महान दु:ख होगा; इसलिये इन्हें जैसे भी बने तैसे आग्रहपूर्वक थोड़ा-बहुत भोजन कराना चाहिये। यह सोचकर उन्होंने कहा- ‘माता! मैं तो भूख के मारे मरा जा रहा हूँ। जब तक तुम्हारे हाथ का बना हुआ भोजन न पाऊँगा, तब तक मेरी तृप्ति न होगी। इसलिये जल्दी से दाल-भात बनाकर मुझे खिला दो, तब तक प्रभु के समीप चलेंगे। मुझे से तो भूख के कारण चला भी नहीं जाता।’
नित्यानंद जी की ऐसी बात सुनकर कुछ शंकित-चित्त से माता ने कहा- ‘निताई! तू मुझे छल तो नहीं रहा है? मुझे भोजन कराने के निमित्त ही तो, निमाई के शांतिपुर आने का बहाना नहीं कर रहा है? तू मुझे सत्य-सत्य बता दे निमाई कहाँ है?’
नित्यानंद जी के माता के चरणों को स्पर्श करते हुए कहा- ‘माता! मैं तुम्हारे चरणों को स्पर्श करके कहता हूँ कि मैं तुम्हे ठग नहीं रहा हूँ। प्रभु फुलिया होकर शांतिपुर मेरे सामने गये हैं और मुझे तुम्हे लाने के लिये ही नवद्वीप भेजा है।’
नित्यानंद जी की इस बात से माता को संतोष हुआ, वह बड़े कष्ट के साथ उठी और उठकर स्नान किया। फिर विधिवत भोजन बनाया। भोजन बनाकर भगवान भोग लगाया और नित्यानंद जी के लिये परोसकर उनसे भोजन करने के लिये कहा।
नित्यानंद जी के आग्रह के साथ दृढ़ता दिखाते हुए कहा- ‘पहले माता कर लेंगी तब मैं भोजन करूँगा।’ माता ने कहा- ‘बेटा! मेरे भोजन को तो निमाई साथ ले गया। अब वही जब करावेगा तब भोजन करूँगी। उसके बिना देखे मुझे भोजन भावेगा ही नहीं।‘ नित्यानंद जी ने कहा- ‘तुम्हारा एक बेटा निमाई तो शांतिपुर है, दूसरा बेटा तुम्हारे सामने है। तुम अब भी भोजन न करोगी, तो मैं भी नहीं करता। मैं माता को बिना खिलाये भोजन कर ही नहीं सकता।’
माता ने कुछ आग्रह के स्वर में कहा- ‘पहले तू कर तो ले, तब मैं भी करूंगी। बिना मुझे खिलाये मैं कैसे खा सकती हूँ? नित्यानंद जी ने प्रेमपूर्वक बच्चों की भाँति कहा-‘हाँ, यह बात नहीं है, मैं तो तुम्हें करा के ही भोजन करुँगा। अच्छा, तुम मेरी शपथ खाकर कह दो कि मेरे कर लेने के पश्चात् तू भी भोजन कर लोगी।’
नित्यानन्द जी के अत्यन्त आग्रह करने पर माता ने भोजन करना स्वीकार कर लिया। तब नित्यानन्द जी ने प्रेमपूर्वक माता के हाथ का बना हुआ प्रसाद पाया। उनके भोजन कर लेने के उपरान्त माता ने विष्णुप्रिया जी को भी आग्रहपूर्वक भोजन कराया और स्वयं भी दो-चार ग्रास खाये। किन्तु उनके मुख में अन्न जाता ही नहीं था। जैसे-तैसे करके उन्होंने थोड़ा भोजन किया। माता के भोजन कर लेने के अनन्तर नित्यानन्द जी ने चन्द्रशेखर तथा श्रीवास आदि भक्तों से कहा- ‘आप लोग पालकी का प्रबन्ध करके माता को साथ लेकर अद्वैताचार्य के घर शान्तिपुर आवें। तब तक मैं आगे चलकर देखता हूँ कि प्रभु पहुँचे या नहीं। भक्तों ने नित्यानन्द जी की बात को स्वीकार किया। वे शान्तिपुर की तैयारियाँ करने लगे। इधर उतावले अवधूत नित्यानन्द जी जल्दी से दौड़ते हुए शान्तिपुर पहुँचे।
अद्वैताचार्य के घर पहुँचकर नित्यानन्द जी ने देखा प्रभु अभी तक वहाँ नहीं पहुँचे, तब उन्होंने आचार्य से पूछा- ‘क्या प्रभु यहाँ नहीं आये?’ प्रभु के आगमन की बात सुनकर अद्वैताचार्य प्रेम में गद्गद हो उठे। रुंधे हुए कण्ठ से उन्होंने कहा- ‘क्या प्रभु इस दीन-हीन कंगाल के ऊपर कृपा करेंगे? क्या प्रभु अपनी चरण-धूलि से इस अकिंचन के घर को पावन बनावेंगे?’
नित्यानन्द जी ने कहा- ‘मुझे वे नवद्वीप भेजकर स्वयं फुलिया होते हुए आपके यहाँ आने वाले थे। यहीं पर माता तथा भक्तों को भी बुलाया है। आते ही होंगे।’ इतना सुनते ही वृद्ध आचार्य आनन्द में विभोर होकर उछल-उछलकर नृत्य करने लगे। उस समय उनकी दशा विचित्र थी, वे हर्ष और शोक दोनों के बीच में पड़े हुए थे। वे प्रभु के संन्यास का स्मरण करके तो दु:खित भाव से रुदन कर रहे थे और प्रभु के पधारने और उनके दर्शन पाने के सुख के कारण भीतर-ही-भीतर परम प्रसन्न हो रहे थे। उसी समय उन्होंने अपनी धर्मपत्नी सीतादेवी से प्रभु के लिये भाँति-भाँति के भोजन बनाने को कहा। आचार्यरत्न सीतादेवी तो उसी समय नाना प्रकार के व्यजनों के बनाने में लग गयी और आचार्य देव अपने पुत्र हरिदास, नित्यानन्द तथा अन्य भक्तों के सहित प्रभु को देखने के लिये गंगा-किनारे पहुँचे।
गंगा-किनारे पहुँचकर दूर से ही आचार्य ने देखा बहुत-से भक्तों से घिरे हुए हाथ में दण्ड-कमण्डलु धारण किये गेरुए रंग के वस्त्र पहने प्रभु जल्दी-जल्दी शान्तिपुर की ओर आ रहे हैं। दूर से देखते ही आचार्य ने पृथ्वी पर लोटकर साष्टांग प्रणाम किया। जल्दी से आकर प्रभु भी दण्ड-कमण्डलु के सहित आचार्य के चरणों में गिर पड़े। उनके चरणों में हरिदास जी पड़े और इसी प्रकार एक-दूसरे के चरणों को पकड़कर भक्त जोरों के सहित क्रन्दन करने लगे। घाट पर के स्त्री-पुरुष इस प्रेमदृश्य को देखकर आश्चर्यचकित हो गये। सभी इस अपूर्व प्रेम की प्रशंसा करने लगे। बहुत देर के अनन्तर प्रभु स्वयं उठे। उन्होंने अद्वैताचार्य को अपने हाथों से उठाया और अपने चरणों के समीप पड़े हुए आचार्य अद्वैत के पुत्र अच्युत को प्रभु ने गोदी में उठा लिया और अपने रँगे वस्त्र से उसके शरीर की धूलि पोंछते हुए कहने लगे- ‘आचार्य तो हमारे पिता हैं, तुम्हारे भी वे पिता हैं क्या? तब तो हम-तुम दोनों भाई-भाई ही हुए? क्यों ठीक है न? बताओ, हम तुम्हारे भाई नहीं हैं? हमें पहचानते हो?’
बालक अच्युत ने उत्तर दिया- ‘प्रभो! आप चराचर जीवों के पिता हैं। आपके पिता कौन हो सकते हैं? आप तो वैसे ही मुझसे हंसी कर रहे हैं।’
बालक के ऐसे अद्भुत उत्तर को सुनकर अद्वैताचार्य आदि सभी भक्त प्रसन्न होकर उस बालक की बुद्धि की सराहना करने लगे। प्रभु ने भी कई बार अच्युत के मुंह को चूमा और आप सभी भक्तों के सहित आचार्य के घर पहुँचे। घर पहुँचने पर आचार्य ने प्रभु के चरणों को धोया और अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, चन्दन, पुष्पमाला आदि पूजन की सामग्रियों से विधिवत उनकी पूजा की। फिर प्रभु के पादोदाक का स्वयं पान किया, भक्तों को बांटा और अपने सम्पुर्ण घर में उसे छिड़का। प्रभु ने पधारने के कारण आचार्य के आनन्द का ठिकाना नहीं रहा, वे बार-बार अपने सौभाग्य की सराहना करने लगे।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Advaitacharya’s house in Shantipur
Then Gaura, who was in love with the trust He who is deluded with the intention of going to Vrindavan Radhe roamed the city of peace I bow to him here with the devotees of Lalas.
Here Chandrashekhar Acharya, who was sad after leaving Mahaprabhu, went towards Navadweep. His feet did not move forward, sometimes he would start crying, sometimes he would look back to see that it is possible that God is following us out of mercy. Sometimes being confused, you yourself start saying- ‘Lord! It is good that you have come.’ Then in a short while he started looking around to clear his confusion. After walking a little distance, he would sit down and start thinking – ‘What a shame on my life now.
How will I be able to live in Navadweep now without the Lord? Now how can I go back alone to Navadvipa? Saddened by the loss of her son, when old Sachimata would come and ask me, ‘Where have you left my son, my beloved son, the only support of my old age, the apple of my eye, my beloved Nimai?’ : What answer will I give to Khini Mata? When the devotees surround me from all sides and ask – ‘Where is the Lord? How far away are they, when will they come?’ What shall I answer then to these heart-wrenching questions? Shall I tell them that ‘Prabhu will not come back now, He has gone to Vrindavan’? Oh! How could such a difficult thing come out of my mouth? Even if I make this thing manifest by making the heart of Vajra, then definitely the life-lovers of many devotees will leave near the Lord at the same time. Many lifeless bodies of devotees will remain lying in front of me.
How can my soul remain in the body at that time? Well, my thunderous heart can tolerate all these things, but even the stones will start melting due to the compassion of that husband-loving Vishnu Priya. When she hears the news of my return, then with her heart-wrenching cry, disturbing the directions and directions, inquiring about her husband, she will stand on one side and start crying, then surely I will not be able to control myself. Will be able to Everyone will curse me, everyone will criticize my work. When they will come to know that I have done all the acts related to the retirement of the Lord with my own hands, when they will come to know that I have made the Lord a monk, then all of them together will curse me in many ways.
How will I be able to tolerate the curse given by all those devotees of the Lord. It is better than this that I lose my life by jumping into Ganga ji. Thinking of this, they quickly reached the banks of the Ganges and got ready to jump into the Ganges. At the same time he remembered the words of the Lord. ‘The Lord has sent many messages of love for the mother and for the devotees, I will feel guilty if I don’t deliver his message. I will be called ungrateful before the Lord. Who knows, the Lord may have come back. My right arm is throbbing. The right eye is twitching, it gives me the belief in my heart that the Lord will definitely come back and he devotees will go wherever they want to go together. Gave up his idea and sat there thinking of God in the sand of Ganga ji. He fixed in his mind that ‘I will go home when it is very late in the night. Till then everyone will be asleep and I will secretly go and hide in my house.
No one will come to know about my coming to Navadweep.’ That is why he spent the whole day sitting alone in the sand of Ganga ji. When it was very dark, he crossed the Ganga ji and reached his home by saving his eyes from the people. As soon as he reached home, the news of his return spread like lightning through word of mouth. Whoever hears this, he used to run to him and as soon as he came, he would ask about the Lord. Telling everyone to be patient, he said- ‘Yes, the Lord will come back soon.’ Meanwhile, the old mother, eager for the news of her son, reached Acharyaratna’s house with her daughter-in-law. Since the day her beloved Nimai has left home, from that day mother has not given even a grain of food in her mouth. Both his eyes are swollen due to continuous crying, throat is tight, the whole body has become weak, there is no power even to sit up; But on hearing the news of Chandrashekhar Acharya’s arrival, don’t know from where the strength came in the mother’s body, she came running to Acharya’s house. Vishnupriya ji was also coming behind him crying holding his clothes.
Seeing the mother coming, Acharya along with Sambhrak stood up. Devotees from all around left the way for Mata. The mother wanted to touch Chandrashekhar as soon as he came, but due to not being able to bear the impulse of her grief, she fell down on the earth saying ‘Ha Nimai!’ Quickly Acharyaratna took care of the old mother, Vishnupriya ji also started crying sitting near the feet of her mother-in-law.
The scene at that time was very compassionate. Seeing such a condition of the mother, all the present devotees started crying bitterly. Chandrashekhar Acharya’s house started echoing with the painful sound of the cry. No other word could come out of the mother’s mouth, ‘Ha Nimai! My Nimai!’ Just saying this, she was crying. After crying like this for a long time, the mother asked in a hoarse voice, ‘Acharya! Where did you leave my Nimai? Did he really become a monk? Teacher! You tell me the truth, have those black beautiful curly hairs of my darling hanging till the shoulders separated from the head? Did some cruel measure cut them with the sharp edge of the knife? Has my Sukumar Nimai become a beggar? Has he now started begging? Teacher! Have mercy on me, a sad weak person, and tell me, will my Nimai not come now? Will I not be able to feed him after making rice with my own hands? Will he not beg me for food like a child when he is hungry? Will that piece of my heart remain separate from me now?
Will I be able to remove the heat from my body by hugging him to my chest? Will I not be able to feel happy now by smelling his fragrant hairy head? Teacher! why don’t you tell Why don’t you feel pity on me Kangalini? why are you being silent Why don’t you answer my questions?’
Acharya remained silent even after listening to so many questions of Mata. Only they were shedding tears from their eyes. Seeing Acharya crying like this, mother understood that my Nimai had definitely taken sannyas. That’s why she started saying expressing impatience – ‘ Acharya! If you tell me the address of my Nimai. Wherever he is, I will go there. No matter what sannyasin he may have become, he is still my son! I will be with him, as a lean and old cow follows her calf, similarly I will follow Nimai.
Teacher! I cannot survive without Nimai. You are so kind to me, wherever my Nimai is, take me there and reach him. Ahh! Now he must be asking for grains of rice from house to house and eating it? Some old lady like me would have kindly given some rice. Some would even rebuke. Some must have put stale and dry rice in his bag. Here, until he had eaten two or four made by my hands, his stomach was not full. Now how will he be able to eat that dry and stale rice? He is very hungry. If there was a slight delay in the third time refreshment or if there was a shortage of home-made sweets, he used to unite heaven and earth. He used to come to eat as soon as he was making dumplings, now who will give him refreshment in the third hour? Ha! Woe to my life like this? Ha! My all-qualified son! Whose devotees used to worship and respect more than the king, he must be roaming from door to door for a handful of rice. Creator! You are cursed again and again for such a hard heart of yours, that even after giving so much beauty, elegance, beauty, education and respect, you made Nimai a beggar from house to house.
For a long time the mother continued to babble like this. With some patience, Acharya told all the things about Sannyas. On hearing this, the mother fainted again and Vishnupriya also fainted and fell at the feet of Sachidevi.
More than half of the night passed while crying like this. Sachimata’s sister insisted a lot to eat, but Mata did not eat anything. In the same condition, she kept crying for the whole night carrying Vishnupriya. In the morning Acharya brought him home. In this way Shrivas, Vasudev, Nandanacharya, Gangadas etc. all used to lament impatiently for the Lord without eating or drinking anything. In this way, on the third day, Nityananda also reached Navadvipa.
Hearing the news of Nityanand ji’s arrival, men and women, children and old people and all categories of men from the whole city started coming to him and asking about the news of the Lord. Some asked- ‘Where is the Lord?’ Some said- ‘When will he come here?’ While crying to Nityanand ji, he started saying in a very humble way – ‘Shripad! We rascals together made the Lord a recluse. He became a monk because of us. We are the reason for banishing the Lord from Navadvipa. Lord! Can there be any solution for our elimination too? Can the merciful Gauranga grant forgiveness even to sinners like us? Whether he forgives or not, we are ready to suffer the consequences of our sins, but once he looks at us with kindness. Will we ever be able to see the Lord? Can we ever get the good fortune of seeing the beautiful effulgent Shrimukh of Gaurchandra in this life?
Hearing such a thing from the mouth of the people, Nityanand ji used to say to everyone – ‘ Mahaprabhu is very kind, He has feelings of kindness towards every living being, He has no enemy or dislike. They also show love towards the one who wronged them, they are going to Shantipur under the control of your love. He will stay at Acharya Advaita’s house in Shantipur. All of you can go there and have darshan of the Lord.’
On hearing this from the mouth of Nityanand ji that ‘Prabhu is currently in Phulia, there will be Haridas’s ashram and from there he will go to Shantipur’, people started running towards Phulia as soon as they heard this. Some started crossing on the boat. Some started carrying their canoe by themselves. Some started crossing the Ganga ji with the help of pots. Many eager devotees didn’t even care about the boat, canoe and pots. He just jumped into Ganga ji and reached the other side only by swimming with his hands. Thousands of people reached Phulia village after crossing the Ganges. The men madly in love started making deafening sounds of ‘Hari Bol’, ‘Hari Bol’. Hearing that great commotion, Prabhu came out of the ashram.
On seeing the sannyasin-dressed Lord, the huge crowd, madly in love, started chanting Haridhwani. Streams of tears were flowing from everyone’s eyes. Some on seeing the shaven head of the Lord and His saffron colored clothes shouted ‘O Lord! Started crying by saying ‘Ha Hari’. The Lord looked at everyone with kindness and after asking everyone to return, you started walking towards Shantipuri. Many devotees went to Shantipur along with him. Some returned to Navadweep.
Here Nityanand ji reached near Sachimata telling the people the news of the Lord’s arrival. At that time, the mother was sighing along with Brahoshi who was bereaved of her son. Nityanand ji touched the feet of the mother. Mother was shocked to see that Nityananda was standing in front of her. With extreme impatience the mother started saying – ‘ Son Nitai! Where did you leave your brother Nimai? You had promised me that I would bring Nimai with you. How far is that? Why did you leave her behind? You had asked me to bring you with me. Where is my Nimai? Son! tell me quickly It is because of your saying that I have kept my life till now. Now you tell me quickly. Don’t you also cheat me like Nimai? You tell the truth, where is Nimai? I will go there, you take me to the same country where I am born. While tying patience to the grieving mother who was emaciated by fasting, Nityanand ji said- ‘Mother! Don’t be so impatient I have brought your Nimai with me. He is at Advaitacharya’s house in Shantipur. They have called you there, I will take you there.’
On hearing ‘Nimai Shantipur hai’, it is as if the departed soul of the mother has returned to her body. She started saying impatiently – ‘ Son! Take me to Shantipur! I will not be at peace until I see Nimai.
Nityanand ji saw that the mother had become very emaciated by fasting for a long time. He has not even seen food since the day Nimai left. In such a condition, if we take them near the Lord, they will be in great sorrow; That’s why they should be fed little by little with insistence. Thinking of this he said – ‘Mother! I am dying of hunger. I will not be satisfied until I get the food made by your hand. That’s why make dal-rice quickly and feed me, till then I will walk near the Lord. I can’t even walk because of hunger.’
Hearing such words of Nityanand ji, the mother said with some doubt – ‘Nitai! You are not deceiving me are you? Is he not pretending to come to Shantipur for Nimai just to feed me? You tell me the truth, where is Nimai?’ Touching the feet of Nityanand ji’s mother, he said- ‘Mother! I touch your feet and say that I am not cheating you. Prabhu has gone to Shantipur in front of me through Phulia and has sent me to Navadweep only to bring you.
The mother was satisfied with this talk of Nityanand ji, she got up with great difficulty and got up and took a bath. Then duly prepared food. After preparing food, offered food to God and served it for Nityanand ji and asked him to have food.
Showing firmness with Nityanand ji’s request, he said – ‘First mother will do it, then I will eat.’ Mother said – ‘Son! Nimai took my food with him. Now I will eat when he will get it done. Without seeing him, I will not be able to eat food.’ Nityanand ji said- ‘One of your sons Nimai is Shantipur, the other son is in front of you. If you still don’t eat, I don’t either. I cannot eat without feeding my mother.’
Mother said in a voice of some insistence – ‘First you do it, then I will also do it. How can I eat without feeding me? Nityanand ji lovingly said like a child – ‘ Yes, it is not a matter, I will eat only after getting you done. Well, take my oath and say that after I have done your tax, you will also have food.’ On Nityanand ji’s utmost request, the mother accepted the food. Then Nityanand ji lovingly received the prasad made by the mother’s hand. After they had their food, the mother insisted on feeding Vishnupriya ji and herself also ate two or four grasses. But the food did not enter his mouth. Somehow he ate some food. After the mother had taken food, Nityanand ji said to the devotees Chandrashekhar and Shrivas etc. – ‘You people should arrange a palanquin and come to Advaitacharya’s house Shantipur with the mother. Till then I will walk ahead and see whether the Lord reaches or not. The devotees accepted the words of Nityanand ji. They started making preparations for Shantipur. Meanwhile, the impatient Avdhoot Nityanand ji reached Shantipur running quickly. After reaching Advaitacharya’s house, Nityanand ji saw that Prabhu had not reached there yet, then he asked Acharya – ‘Has Prabhu not come here?’ Advaitacharya became overwhelmed with love after hearing about Prabhu’s arrival. With a choked voice, he said- ‘Will the Lord have mercy on this poor man? Will the Lord make this Akinchan’s house pure with the dust of his feet?’
Nityanand ji said- ‘He himself was going to come to your place after sending me to Navadweep. This is where the mother and the devotees have also been called. He must be coming.’ On hearing this, the old Acharya started dancing and jumping in ecstasy. At that time his condition was strange, he was lying between both joy and sorrow. They were crying with sorrow remembering the retirement of the Lord and were very happy inside because of the happiness of the Lord’s arrival and getting his darshan. At the same time, he asked his wife Sitadevi to prepare different types of food for the Lord. Acharyaratna Sita devi at the same time got busy in making different types of dishes and Acharya Dev along with his sons Haridas, Nityananda and other devotees reached the banks of the Ganges to see the Lord.
On reaching the banks of the Ganges, the Acharya saw from afar the Lord dressed in saffron colored clothes, surrounded by many devotees and holding a stick-kamandalu in his hand, coming quickly towards Shantipur. On seeing it from a distance, the Acharya returned to the earth and prostrated. Coming quickly, the Lord also fell at the feet of the Acharya along with Danda-Kamandalu. Haridas ji fell at his feet and in the same way, holding each other’s feet, the devotees started crying loudly. The men and women on the ghat were surprised to see this love scene. Everyone started praising this unique love. After a long time the Lord himself got up. He raised Advaitacharya with his hands and the Lord lifted Achyuta, the son of Acharya Advaita, who was lying near his feet, in his lap and wiped the dust off his body with his dirty clothes and said – ‘Acharya is our father, he is also yours. Is it father? Then we and you both are brothers? Why isn’t it okay? Tell me, aren’t we your brothers? Do you recognize us?’
Child Achyut replied – ‘ Lord! You are the father of grazing animals. Who could be your father? You are just laughing at me.
Hearing such a wonderful answer of the child, Advaitacharya etc. all the devotees were happy and started appreciating the intelligence of that child. The Lord also kissed Achyuta’s mouth many times and you reached Acharya’s house along with all the devotees. On reaching home, the Acharya washed the feet of the Lord and duly worshiped Him with Akshat, Dhoop, Deep, Naivedya, Sandalwood, Pushpamala etc. Then drank the padodak of the Lord himself, distributed it to the devotees and sprinkled it all over his house. Acharya’s joy knew no bounds due to the arrival of the Lord, he started appreciating his good fortune again and again.
respectively next post [86] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]