।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
पुरी के पथ में
मा याहीत्यपमंगलं वज्र सखे स्नेहेन हीनं वच-
स्तिष्ठेति प्रभुता यथारुचि कुरुष्वैषाप्युदासीनता।
नो जीवामि विना त्वयेति वचनं सम्भाव्यते वा न वा
तन्मां शिक्षय नाथ यत्सुमुचितं वक्तुं त्वयि प्रस्थिते।।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने सज्जन और दुर्जन के समागम की तुलना करते हुए कहा है-
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दारुन दुख देहीं।।
सचमुच अपने प्रियजन के बिछोह के समय तो सहृदय पुरुषों को मरण-समान ही दु:ख होता है। जिसके साथ इतने दिनों तक हास-परिहास, भोजन-पान आदि किया, जो निरन्तर अपने सहवास-सुख का आनन्द पहुँचाता रहा, वही अपना प्यारा प्रियतम आज सहसा हमसे न जाने कब तक के लिये पृथक हो रहा है, इस बात के स्मरण मात्र से सहृदय सज्जनों के हृदय में भारी क्षोभ उत्पन्न होने लगता है। किन्तु उस दु:ख में भी मीठा-मीठा मजा हैं, उसका आस्वादन भावुक प्रेमी पुरुष ही कर सकते हैं। संसारी स्वार्थपूर्ण पुरुषों के भाग्य में वह सुख नही बदा है।
दस दिनों तक भक्तों के चित को आनन्दित कराते रहने के अनन्तर आज प्रभु शान्तिपुर को परित्याग करके पुरी के पथिक बन जायँगें, इस बात के स्मरण मात्र से सभी परिजन और पुरजनों के हृदय में प्रभु के वियोगजन्य दुख की पीड़ा-सी होने लगी। सभी के चेहरों पर विषण्ण्ाता छायी हुई थी।
प्रभु ने कुछ अन्यमनस्क भाव से अपने ओढ़ने का रँगा वस्त्र उठाया, लंगोटी को कमर से बांध लिया और छोटी-सी साफी सिर से लपेट ली। एक हाथ में दण्ड लिया और दूसरे में कमण्डलु लेकर प्रभु उस बैठक से बाहर हुए प्रभु को यात्री के वेष में देखकर उपस्थित सभी भक्त फूट-फूटकर रोने लगे। वृद्धा शची माता का तो दिल ही धड़कने लगा।
जगदानन्द ने प्रभु के हाथ से दण्ड ले लिया और दामोदर पण्डित ने कमण्डलु। अब प्रभु के दोनों हाथ ख़ाली हो गये। उन दोनों हाथों से वृद्धा माता के चरणों को स्पर्श करते हुए प्रभु ने गदगद कण्ठ से कहा- ‘माता ! मुझे ऐसा आशीर्वाद दो कि मैं अपने सन्यांस-धर्म का विधिवत पालन कर सकूँ।’ पता नहीं उस समय पुत्र स्नेह से दु:खी हुई माता को इतना साहस कहाँ से आ गया? उसने अपने प्यारे पुत्र के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- बेटा ! तुम्हारा पथ मंगलमय हो, वायु तुम्हारे अनुकुल रहे, तुम अपने धर्म का विधिवत पालन कर सको।’ इतना कहते-कहते ही माता का गला भर आया, आगे वह और कुछ न कह सकी। उसी अवस्था में रोती हुई अपनी माता की प्रभु ने प्रदक्षिणा की और दोनों हाथों को जोड़कर वे नि:स्पृहभाव से गंगा जी के किनारे-किनारे पुरी की ओर चल पड़े। सैकड़ों भक्त आंसू बहाते हुए और आर्तनाद करते हुए प्रभु के पीछे-पीछे चले।
शचीमाता भी लोक-लाज की कुछ भी परवा न कर रोती हुई पैदल ही अपने प्राणप्यारे पुत्र के पीछे-पीछे चलीं। जिस प्रकार नि:स्पृह बछड़ा माता को छोड़कर पुरी के पथ में दूसरी ओर जा रहा हो और उसकी माता वृद्धा गाय रंभाती हुई उसके पीछे-पीछे दौड़ रही हो, इसी प्रकार शरीर की सुधि भुलाकर शची माता प्रभु के क्रन्दन करती हुई भक्तों के आगे-आगे चल रही थीं। उनके क्रन्दन से कलेजा फटने लगता था। उनके सफेद बाल बिखरे हुए थे, आँसुओं से वक्ष:स्थल भींगा हुआ था। वे पछाड़ खाती हुई प्रभु के पीछे-पीछे चल रही थीं।
प्रभु माता को देखते हुए भी संकोचवश उनसे आँखे नहीं मिलाते थे। बूढ़े अद्वैताचार्य भी जोरों से बच्चों की भाँति रुदन कर रहे थे। इस प्रकार के रुदन को सुनकर प्रभु अधीर हो उठे। वे चलते-चलते ठहर गये और आँखों से आँसू बहाते हुए अद्वैताचार्य जी से कहने लगे- आचार्यदेव ! इतने वृद्ध होकर जब आप ही इस प्रकार बालकों की तरह रुदन कर रहे हैं तो फिर भक्तों को और कौन धैर्य बँधावेगा? आपका मुझ पर सदा पुत्र की भाँति स्नेह रहा है। यह मैं जानता हूँ कि मेरे वियोग से आपको अपार दु:ख हुआ है, किन्तु आप तो सर्वसमर्थ हैं। आपके साहस के सामने मेरा वियोगजन्य दु:ख कुछ भी नहीं है। आप अब मेरे कहने से शान्तिपुर लौट जायँ। आप यदि मेरे साथ चलेंगे तो यहाँ माता की तथा भक्तों की देख-रेख कौन करेगा। आप मेरे काम के लिये शान्तिपुर में रह जाइये। मैं माता को तथा भक्तों को आप के हाथ में सौंपता हूँ। आप ही सदा से इनके रक्षक रहे हैं और अब भी इन सबका भार आपके ही ऊपर है। यह करुणापूर्ण दृश्य अब और अधिक मुझसे नहीं देखा जाता। अब आप इन सभी भक्तों के सहित लौट जायँ।’
आचार्य ने प्रभु की आज्ञा का पालन किया। वे वहीं ठहर गये। उन्होंने भूमि में लोटकर प्रभु के लिये प्रणाम किया। प्रभु ने उनकी चरण-धूली अपने मस्तक पर चढ़ायी और माता के चरणों की वन्दना करते हुए वे उन सबको पृथ्वी पर ही पड़ा छोड़कर जल्दी से आगे के लिये दौड़ गये। नित्यानन्द, दामोदर, जगदानन्द और मुकुन्ददत्त भी सभी लोगों से विदा होकर प्रभु के पीछे-पीछे दोड़ने लगे और सब लोग वहीं पड़े-के-पड़े ही रह गये। जब भक्तों ने देखा कि प्रभु तो हमें छोड़कर चले ही गये तब उन्होंने और अधिक प्रभु का पीछा नहीं किया। वे खड़े होकर गंगा जी की ओर देखते रहे।
जब तक उन्हें प्रभु के पैरों से उड़ी हुई धूलि और जगदानन्द के हाथ प्रभु का दण्ड दिखायी देता रहा तब तक तो वे एकटक भाव से देखते रहे, अन्त में जब प्रभु अपने साथियों के सहित एकदम अदृश्य हो गये, तब खिन्न-मन से देखते रहे, अन्त में जब प्रभु अपने साथियों के सहित एकदम अदृश्य हो गये, तब खिन्न-मन से माता को आगे करके भक्तों के सहित अद्वैताचार्य अपने घर की ओर लौट आये और श्रीवास आदि भक्त उसी समय माता को साथ लेकर नवद्वीप के लिये चले गये।
इधर महाप्रभु बन्धन से छूटे हुए मत गजेन्द्र की भाँति द्रुत गति से गंगा जी के किनारे-किनारे चले जा रहे थे। उनके पीछे नित्यानन्द जी आदि भक्त भी प्रभु का अनुसरण कर रहे थे। सब-के-सब गृहत्यागी विरागी और अल्पवयस्क युवक ही थे। सभी के हृदय में त्याग-वैराग्य की अग्नि प्रज्वलित हो रही थी। प्रभु ने उन सबके त्याग-वैराग्य की परीक्षा करने के निमित सभी से पूछा- ‘तुम लोग मुझसे सच-सच बताओ, तुमने अपने साथ क्या-क्या सामान बांधा है और किस-किसने तुम्हें मार्ग-व्यय के लिये कितना-कितना द्रव्य दिया है?’
प्रभु के ऐसे प्रश्न को सुनकर सभी ने दीनभाव से कहा- प्रभों ! हम भला, आपकी आज्ञा के बिना कोई वस्तु साथ कैसे ले सकते थे और किसी के द्रव्य को आपके बिना पूछे कैसे स्वीकार कर सकते थे? आप हमारे सम्पूर्ण शरीर को देख लें, हमारे पास कुछ भी नहीं है और न हमसें से किसी ने द्रव्य ही साथ में बाँधा।’ महाप्रभु उनके ऐसे निष्कपट, सरल और नि:स्पृहतापूर्ण उतर को सुनकर बड़े ही प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- मैं तुम लोगों से अत्यन्त ही प्रसन्न हूँ। तुमने साथ में द्रव्य न बांधकर अपनी नि:स्पृहता का परिचय दिया है। नि:स्पृहता ही तो त्याग का भूषण है। जो किसी से धन की इच्छा करके संग्रह करता है, वह कभी त्यागी हो ही नहीं सकता। त्यागी के लिये तो भोजन की चिन्ता करनी ही न चाहिये।
उसे तो प्रारब्ध के उपर छोड़ देना चाहिये। जो प्रारब्ध में होगा वह अवश्य मिलेगा, फिर चाहे तुम मरुभुमि के घोर बालुकामय प्रदेश में ही जाकर क्यों न बैठ जाओ। और भाग्य में नहीं हैं, तो भोगों के बीच में रहते हुए भी उन्हें उन से वंचित रहना पड़ेगा। चाहे जितना धनी क्यों न हो, उसके पास कितनी भी भोज्य-सामग्री क्यों न हो, जिस दिन उसके भाग्य में न होगी, उस दिन वह पास में रखी रहने पर भी उन्हें नहीं खा सकता। या तो बीमार हो जायगा या किसी पर नाराज होकर खाना छोड़ देगा, अथवा दूसरा आदमी आकर उसे खा जायगा। सारांश यह है कि हमें भोग भाग्य के ही अनुसार प्राप्त हो सकेंगे। फिर किसी से मांगकर संग्रह क्यों करना चाहिये।
भूख लगने पर घर-घर से मधुकरी कर लो। यही त्यागी का परम धर्म हैं।’ इस प्रकार अपने साथियों को त्याग, वैराग्य और भक्ति का तत्त्व समझाते हुए सायंकाल के समय आठिसारा नामक ग्राम में पहुँचे और वहाँ परम भाग्यवान अनन्त पण्डित नामके एक ब्राह्मण के घर ठहरे। प्रभु के दर्शन से वह कृतार्थ हो गया और उसने प्रभु को साथियों सहित भिक्षा आदि कराके उनकी विधिवत सेवा-पूजा की।
प्रात:काल वहाँ से चलकर खाड़ी नामक ग्राम के समीप छत्रभोग तीर्थ में पहुँचे। यहाँ पर गंगा जी के किनारे एक अम्बुलिंग नामक जलमग्न शिव है। आज कल तो छत्रभोग और अम्बुलिंग शिव जी गंगा जी से दूर पड़ गये हैं, उस समय गंगा जी की शेष सीमा यहीं पर थी। यहीं पर त्रिलोकी पावनी भगवती भागीरथी सहस्त्र धाराओं का रुप धारण करके समुद्र में मिलती थी। गंगा जी के इस पार छत्रभोग, पीठस्थान और सुन्दर नगर था। यही गौड़-देश की सीमा समाप्त होती थी।
गंगा जी के उस पार उड़ीसा-देश की सरहद थी और उसी पर जयपुर-माजिलपुर उड़ीसा के महाराज की अन्तिम सीमा के नगर थे। इन दोनों स्थानों में तीन-चार कोस का अन्तर था। गौड़-देश और उड़ीसा-देश की सीमा को भगवती भागीरथी ही पृथक करती थीं।
यह हम पहले ही बता चुके हैं कि वह युद्ध का समय था। जिधर देखो उधर ही युद्ध छिड़ा हुआ है। गौड़देश के बादशाह और उड़ीसा के तत्कालीन महाराज प्रताप रुद्र के बीच मे तो लड़ाई-झगड़ा होता रहता था। इसी कारण जगन्नाथ जी जाने वाले यात्रियों को गंगा पार होने में बड़ा कष्ट होता था। गौड़-देश के अधिपति की आज्ञा थी कि उधर से कोई भी पुरुष इधर न आने पावे। उधर उड़ीसा के शासक बंगालियों पर सन्देह करते। जो भी पार आता युद्ध के समय सब जगह एक राज्य की सीमा से दूसरे राज्य की सीमा में जाने पर सभी लोगों को बड़े-बड़े कष्ट सहने पड़ते हैं। दोनों देशों के शासक सदा शत्रुओं के मनुष्यों से शंकित रहते हैं। इसके अतिरिक्त पार उतारने वाले बिना उतराई लिये लोगों को पार उतारते ही नहीं थे। बहुत-से पुरी के यात्री उस पार जाने के लिये पड़े हुए थे। प्रभु भी अपने साथियों के सहित वहाँ पहुँच गये। मुकुन्ददत अपने सुरीले कण्ठ से कृष्ण-कीर्तन कर रहे थे। प्रभु उनके मुख से भगवान के मधुर नामों को सुनकर आनन्दन में विह्रल हो नृत्य कर रहे थे, उनके दोनों नेत्रों में से दो धाराएं निकलकर समुद्र में लीन होने वाली गंगा जी के वेग को और अधिक बढ़ा रही थीं। प्रभु की ऐसी अद्भुत अवस्था देखकर घाट पर के बहुत-से आदमी वहाँ आकर एकत्रित हो गये। सभी प्रभु के दर्शन से अपने को कृतार्थ मानने लगे।
इस प्रकार अम्बुलिंग घाट पर पहुँचकर प्रभु ने साथियों सहित स्नान किया और भक्तों को अम्बुलिंग शिव जी के सम्बन्ध में कथा सुनाने लगे। प्रभु ने कहा- जब महाराज भगीरथ स्वर्ग से गंगा जी को ले आये, तब उनके शोक में विकल होकर शिव जी यहाँ जल में गिर पडे। गंगा जी के प्रेम के कारण यहाँ शिव जी के प्रेम को जानती थीं, उन्होंने यहीं आकर शिव जी की पूजा की और जल में रहने की प्रार्थना की। गंगा जी के प्रेम के कारण यहाँ शिव जी जल में ही निवास करते हैं, इसीलिये ये अम्बुलिंग कहाते हैं, इनके दर्शन से कोटि जन्मों के पापों का क्षय हो जाता हैं।’ इस प्रकार शिव जी का माहात्म्य सुनाकर प्रभु फिर प्रेम में विह्रल होकर नृत्य करने लगे। उसी समय उस प्रान्त के शासक राजा रामचन्द्र खाँ भी वहाँ आ पहुँचे। इस बात को हम पहले ही बता चुके है कि गौड़ाधिपति की ओर से बड़े-बड़े लोगों को बहुत-से गांवों का ठेका दिया जाता था और उन्हें बादशाह की ओर से मजूमदार, खान अथवा राजा की उपाधि भी दी जाती थी। रामचन्द्र खां गौड़ाधिप के अधीनस्थ गौड़देशीय सीमा प्रान्त के ऐसे ही राजा थे। रामचन्द्र खां जाति के कायस्थ थे और शाक्त-धर्म को मानने वाले थे। उनका जीवन जिस प्रकार साधारण विषयी धनी पुरुषों का होता है, उसी प्रकार का था, किन्तु वे भाग्यशाली थे, जिन्हें महाप्रभु की थोड़ी-बहुत सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रभु के स्थान पर पधारने का समाचार सुनकर रामचन्द्र खां पालकी से उतरकर उनके दर्शन के लिये गये। उस समय आनन्द में विभोर हुए ‘महाप्रभु गदगद कण्ठ से कृष्ण का कीर्तन करते हुए रुदन कर रहे थे। रामचन्द्र खां प्रभु के तेज और प्रभाव से प्रभावान्वित हो गये और उन्होंने दूर से ही प्रभु के पादपद्मों में प्रणाम किया। किन्तु प्रभु तो बाह्यज्ञान शून्य हो रहे थे। वे तो चक्षुओं को आवृत करके प्रेमामृत का पान कर रहे थे। उन्हें किसी के नमस्कार-प्रणाम का क्या पता। प्रभु के साथियों ने प्रभु को सचेत करते हुए राजा रामचन्द्र खाँ का परिचय दिया। प्रभु ने उनका परिचय पाकर प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ओह ! आपका ही नाम राजा रामचन्द्र खाँ है, आपके अकस्मात खूब दर्शन हुए !’
दोनों हाथो को अंजलि बांधे हुए रामचन्द्र खाँ ने कहा- प्रभो ! इस विषयी कामी पुरुष को ही रामचन्द्र खाँ के नाम से पुकारते हैं। आज मैं अपने सौभाग्य की सराहना नहीं कर सकता, जो मुझ-जैसे संसारी गर्त में सने हुए विषयी पामर को आपके दर्शन हुए। आपके दर्शन से मेरे सब पाप क्षय हो गये। अब आप मेरे योग्य जो भी आज्ञा हो, उसे बताइये।’
‘प्रभु ने कहा- ‘रामचन्द्र ! हम अपने प्राणवल्लभ से मिलने के लिये व्याकुल हो रहे हैं। पुरी में जाकर हम अपने हृदयमण के दर्शन करके जीवन को सफल बना सकें, तुम वैसा ही उद्योग करो। हमें घाट से उस पार पहुँचाने का प्रबन्ध करो। जिस प्रकार हम गंगा जी को पार कर सकें वही काम तुझे इस समय करना चाहिये।’
हाथ जोड़े हुए रामचन्द्र खाँ ने कहा- ‘प्रभो ! इस युद्धकाल में गौड़देशीय लोगों को उस पार उतारना बड़ा ही कठिन कार्य हैं। बादशाह की ओर से मुझे कठिन आज्ञा है कि जिस किसी पुरुष को वैसे ही पार न उतारा जाय। फिर भी मैं अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी आपको पार उतारूँगा। आज आप कृपा करके यहीं निवास कीजिये, कल प्रात: मैं आपके पार होने का यथाशक्ति अवश्य ही प्रबन्ध कर दूँगा।’
रामचन्द्र खाँ की बात को प्रभु ने स्वीकार कर लिया और छत्रभोग नगर में जाकर प्रभु ने एक भाग्यवान ब्राह्मण के यहाँ निवास किया। रात्रिभर प्रभु अपने साथियों के सहित संकीर्तन करते रहे। संकीर्तन की सुमधुर ध्वनि से वह सम्पूर्ण स्थान परम पावन बन गया। वहाँ पर चारों ओर भगवन्नाम की ही गूंज सुनायी देने लगी। प्रभु के संकीर्तन को सुनने के लिये छत्रभोग के बहुत से नर-नारी एकत्रित हो गये और वे भी प्रभु के साथ ताली बजा-बजाकर कीर्तन करने लगे। रामचन्द्र खाँ भी उस संकीर्तनरसामृत का आस्वादन करके अपने जीवन को धन्य किया। इस तरह रात्रि भर संकीर्तन के प्रमोद मे ही प्रभु ने वह रात्रि बितायी।
क्रमशः अगला पोस्ट [90]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram on the way to puri
Don’t go to the unfortunate thunderbolt friend, speak without affection- Stay, dominate as you please, and indifference. Whether it is possible to say ‘I cannot live without you’ O lord teach me what is appropriate to say when I leave for you
Goswami Tulsidas ji has said while comparing the gathering of a gentleman and a wretch-
Take away a separated life. get a terrible suffering.
Truly, at the time of separation from their loved one, the kind hearted men feel sorrow like death. The one with whom we used to joke, eat and drink etc. for so many days, who continued to give us the pleasure of our company and happiness, today our beloved is suddenly separating from us for an unknown period of time, just by remembering this. Heavy anger begins to arise in the hearts of good-hearted people. But even in that sorrow, there is sweet and sweet pleasure, which can only be tasted by passionate loving men. That happiness has not changed in the fate of worldly selfish men.
After keeping the hearts of the devotees happy for ten days, today the Lord will leave Shantipur and become a wanderer of Puri, just remembering this, the heart of all the relatives and ancestors started to feel the pain of separation from the Lord. There was anger on everyone’s face.
Prabhu picked up his colored clothes with some indifference, tied the loincloth around his waist and wrapped a small safi around his head. Taking a stick in one hand and a kamandalu in the other, the Lord came out of the meeting, seeing the Lord dressed as a traveler, all the devotees present started crying bitterly. The heart of old Shachi Mata started beating.
Jagadanand took the punishment from the hand of the Lord and Damodar Pandita took the Kamandalu. Now both the hands of the Lord are empty. Touching the feet of the old mother with both those hands, the Lord said in a thunderous voice – ‘Mother! Give me such a blessing that I can follow my sannyas-dharma properly.’ Don’t know where did the mother get so much courage at that time, who was sad due to her son’s affection? He put his hand on the head of his beloved son and said – Son! May your path be auspicious, may the wind be favorable to you, may you follow your religion duly.’ Mother’s throat was filled with tears while saying this, she could not say anything further. In the same state, the Lord did circumambulation of his mother crying and with folded hands, he selflessly walked towards Puri on the banks of Ganga ji. Hundreds of devotees followed the Lord shedding tears and wailing.
Sachimata also followed her beloved son on foot crying without caring about public shame. Just as a helpless calf leaving its mother is going to the other side on the path of Puri and its mother old cow is running behind it, in the same way, forgetting about the body, Sachi Mata is crying in front of the devotees of the Lord- She was walking ahead. His heart started bursting with his cries. His white hair was disheveled, his chest was wet with tears. She was walking behind the Lord after being left behind.
Prabhu did not hesitate to make eye contact with Mata even after seeing her. Old Advaitacharya was also crying loudly like a child. The Lord became impatient after hearing such cries. He stopped while walking and started saying to Advaitacharya ji with tears in his eyes – Acharyadev! Being so old, when you are crying like children, then who else will give patience to the devotees? You have always been loving me like a son. I know that you have felt immense sorrow due to my separation, but you are omnipotent. My separable sorrow is nothing in front of your courage. Now you go back to Shantipur on my saying. If you go with me then who will look after the mother and the devotees here. You stay in Shantipur for my work. I hand over the mother and the devotees to your hands. You have always been their protector and even now the burden of all these is on you. This pitiful sight is no more seen by me. Now you go back with all these devotees.’
Acharya obeyed the Lord’s command. They stayed there. He returned to the ground and bowed down to the Lord. The Lord put the dust of their feet on his head and worshiping the feet of the mother, he left them all lying on the earth and quickly ran ahead. Nityananda, Damodar, Jagadananda and Mukundadatta also left everyone and started running after the Lord and everyone remained lying there. When the devotees saw that the Lord had left us, they did not follow the Lord any more. He stood and kept looking at Ganga ji.
As long as he could see the dust blown from the feet of the Lord and the punishment of the Lord in the hands of Jagadanand, he kept watching with a sense of sadness, at the end when the Lord became completely invisible along with his companions, then he kept watching with sadness. In the end, when the Lord became completely invisible along with his companions, Advaitacharya along with the devotees returned to his home with a sad heart and Shrivas etc. devotees went to Navadweep with the mother at the same time.
Here Mahaprabhu, like Gajendra, freed from bondage, was moving fast from side to side of Ganga ji. Other devotees like Nityanand ji were also following the Lord behind them. All of them were recluse recluses and minor youths. The fire of renunciation and disinterest was burning in everyone’s heart. In order to test their renunciation and renunciation, the Lord asked all of them – ‘You tell me the truth, what things have you packed with you and who has given you how much money for your travel expenses. ?’
Hearing such a question of the Lord, everyone humbly said – Lord! Well, how could we take something with us without your permission and how could we accept someone’s money without asking you? You see our whole body, we have nothing and none of us has tied matter together.’ Mahaprabhu was very pleased to hear such a sincere, simple and selfless reply from him. Expressing his happiness, he said – I am very happy with you people. You have shown your selflessness by not tying matter together. Selflessness is the jewel of renunciation. The one who collects money by wishing for it can never be a renunciate. For Tyagi, one should not worry about food at all. He should be left on destiny. Whatever is in the destiny, you will definitely get it, even if you go and sit in the harsh sandy region of the desert. And if they are not in luck, then they will have to remain deprived of them even while living in the midst of enjoyments. No matter how rich he is, no matter how many food items he has, on the day when he will not be in luck, he cannot eat them even if they are kept nearby. Either he will get sick or he will stop eating after being angry with someone, or another person will come and eat him. The summary is that we will be able to get enjoyment according to our luck. Then why should the collection be done by begging from someone?
If you are hungry, make honey from house to house. This is the ultimate religion of a renunciate.’ In this way, explaining to his companions the principles of renunciation, disinterest and devotion, he reached a village named Athisara in the evening and stayed there at the house of a Brahmin named Anant Pandit, the most fortunate. He became grateful after seeing the Lord and he duly served and worshiped the Lord by offering alms etc. along with his companions.
Walking from there early in the morning, reached the Chhatrabhog pilgrimage near the village named Khadi. Here on the banks of Ganga ji there is a submerged Shiva named Ambulinga. Nowadays Chhatrabhog and Ambuling Shiv ji have fallen away from Ganga ji, at that time the remaining limit of Ganga ji was here only. This is where Triloki Pavani Bhagwati Bhagirathi used to meet in the ocean in the form of thousands of streams. On this side of Ganga ji was Chatrabhog, Peethasthan and Sundar Nagar. This is where the boundary of Gaud-country used to end.
On the other side of Ganga ji was the border of Orissa-country and on that Jaipur-Majilpur were the last border towns of the Maharaja of Orissa. There was a difference of three to four kos between these two places. Bhagwati Bhagirathi used to separate the border of Gaur-country and Orissa-country.
We have already told that it was the time of war. Everywhere you look there is a war going on. There used to be a fight between the king of Gaudesh and the then Maharaja Pratap Rudra of Odisha. For this reason, the pilgrims going to Jagannath had to face great difficulty in crossing the Ganges. The ruler of Gaud-country had ordered that no man from there should be allowed to come here. On the other hand, the rulers of Orissa used to doubt the Bengalis. Whoever comes across, in the time of war, all the people have to suffer a lot when they go from the border of one state to the border of another state. The rulers of both the countries are always suspicious of the men of the enemies. In addition to this, the ferrymen did not ferry people without disembarking them. Many passengers of Puri were lying on the other side. Prabhu also reached there along with his companions. Mukundat was chanting Krishna-Kirtan with his melodious voice. Hearing the sweet names of the Lord from his mouth, the Lord danced in ecstasy, two streams coming out of both his eyes were increasing the speed of Ganga ji, which was getting absorbed in the ocean. Seeing such a wonderful state of the Lord, many people from the ghat came and gathered there. Everyone started considering themselves grateful after seeing the Lord.
In this way, after reaching Ambuling Ghat, the Lord took bath along with his companions and started narrating the story of Ambuling Shiva to the devotees. The Lord said – When Maharaj Bhagirath brought Ganga ji from heaven, then Shiv ji fell into the water here after being disturbed by her grief. Due to the love of Ganga ji, she knew the love of Shiva here, she came here and worshiped Shiva and prayed to stay in the water. Due to the love of Ganga ji, Lord Shiva resides here only in water, that is why he is called Ambuling, the sins of crores of births are destroyed by seeing him.’ started doing. At the same time, Raja Ramchandra Khan, the ruler of that province also reached there. We have already told this that big people were given contracts of many villages on behalf of Gaudadhipati and they were also given the title of Majumdar, Khan or Raja on behalf of the emperor. Ramachandra Khan was such a king of Gaudeshiya Seema Prant, subordinate to Goudadip. Ramchandra Khan was a Kayastha by caste and was a follower of the Shakta religion. His life was of the same type as that of the rich men of ordinary subjects, but he was the lucky one, who got the fortune of doing a little bit of service to Mahaprabhu. Hearing the news of Lord’s arrival at the place, Ramchandra Khan got down from the palanquin and went to see him. At that time, Mahaprabhu, overwhelmed with joy, was crying while singing Krishna’s kirtan from Gadgad’s voice. Ramchandra Khan was impressed by the effulgence and influence of the Lord and he bowed at the lotus feet of the Lord from a distance. But Lord, external knowledge was becoming zero. They were drinking the nectar of love by covering their eyes. How does he know about someone’s greetings. Prabhu’s companions alerted Prabhu and introduced Raja Ramchandra Khan. Expressing happiness after getting his introduction, the Lord said – Oh! Your name is Raja Ramchandra Khan, you suddenly got a lot of darshan!
Tying both hands with anklets, Ramchandra Khan said – Lord! In this subject, the lustful man is called by the name of Ramchandra Khan. Today, I cannot appreciate my good fortune, that a subject Palmer like me, immersed in the worldly pit, got your darshan. All my sins were destroyed by your darshan. Now whatever command you are eligible for me, tell him.’
The Lord said – ‘Ramchandra! We are anxious to meet our Pranavallabh. By going to Puri, we can see our heart and make life successful, you do the same industry. Make arrangements to take us to the other side from the ghat. The way we can cross Ganga ji, you should do the same work at this time.’
Ramchandra Khan with folded hands said – ‘ Lord! In this war time, it is a very difficult task to bring the people of Gaudesh to the other side. I have a strict order from the king that no man should be made to cross like that. Still, I will take you across even at the risk of my life. Please stay here today, tomorrow morning I will definitely make arrangements for you to cross over.’
The Lord accepted Ramchandra Khan’s words and after going to Chhatrabhog Nagar, the Lord resided at the place of a fortunate Brahmin. Throughout the night, the Lord along with His companions kept doing Sankirtan. With the melodious sound of Sankirtan, that whole place became supremely holy. The echo of God’s name started being heard all over there. Many men and women of Chhatrabhog gathered to listen to the Lord’s sankirtan and they also started clapping and singing along with the Lord. Ramchandra Khan also blessed his life by relishing that Sankirtanarasamrit. In this way, the Lord spent the whole night in the bliss of Sankirtan.
respectively next post [90] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]