।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
महाप्रभु का प्रेमोन्माद और नित्यानन्दजी द्वारा दण्ड–भंग
पातालं वज्र याहि वासवपुरीमारोह मेरो: शिर:
पारावारपरम्परास्तर तथाप्याशा न शान्तास्तव ।
आधिव्याधिजरापराहत यदि क्षेमं निजं वाञ्छसि
श्रीकृष्णेति रसायनं रसय रे शून्यै: किमन्यै: श्रमै:।।
छत्रभोग में उस रात्रि को बिताकर प्रभु प्रात:काल अपने नित्यकर्म से निवृत हुए। उसी समय रामचन्द्र खाँ ने समाचार भेजा कि प्रभु को पार करने के लिये घाट पर नाव तैयार हैं। इस समाचार को पाते ही प्रभु अपने साथियों के सहित नाव पर जाकर बैठ गये। मल्लाहों ने नाव खोल दी, महाप्रभु आनन्द के सहित हरिध्वनि करने लगे। भक्तों ने भी प्रभु की ध्वनि में अपनी ध्वनि मिलायी। उस गगनभेदी ध्वनि की प्रतिध्वनि जल में सुनायी देने लगी। दसों दिशाओं में से वही ध्वनि सुनायी देने लगी। तब प्रभु ने मुकुन्द दत्त से संकीर्तन का पद गाने के लिये कहा। मुकुन्द अपने मीठे स्वर से गाने लगे-
हरि हरये नम: कृष्ण यादवाय नम:।
गोपाल गोविन्द राम श्रीमधुसूदन।।
अन्य भक्त भी मुकुन्द की ताल में ताल मिलाकर इसी पद का संकीर्तन करने लगे। महाप्रभु आवेश में आकर नाव में ही खड़े होकर नृत्य करने लगे। नौका नृत्य के वेग को न सह सकने के कारण डगमग-डगमग करने लगी। सभी मल्लाह घबड़ाने लगे कि हमारी नाव इस प्रकार के नृत्य से तो डूब जायगी। उन्होंने कहा-‘सन्यासी बाबा ! हमारे ऊपर दया करो, उस पार पहुँचकर जी चाहे जितना नृत्य कर लेना। हमारी नाव को पार भी लगने दोगे या बीच में ही डुबा दोगे?’
इस प्रकार मल्लाह कुछ क्षोभ के साथ दीन वचनों में प्रार्थना कर रहे थे, किन्तु महाप्रभु किसकी सुनने वाले थे। वे उनकी बातों को अनसुनी करके निरन्तर श्रीकृष्ण–कीर्तन करते ही रहे। तब तो नाविकों को बड़ा भारी आश्चर्य हुआ कि यह सन्यांसी हमारी बात तक नहीं सुनता और उसी प्रकार प्रेम में विह्वल होकर नृत्य कर रहा है। उन्होंने कुछ भय दिखाते हुए विवशता और कातरता के स्वर में कहा- ‘महाराज ! आप हमारी बात को मान जाइये। नाव में इस प्रकार उछल-उछलकर नृत्य करना ठीक नहीं है। आप देखते नहीं, उस पार घोर जंगल है, उसमें बड़े-बड़े खूंखार भेड़िये तथा जंगली सूअर रहते हैं। आपकी आवाज को सुनकर वे दौड़े आवेंगे, जल के भीतर मगर और घडियाल हैं, नदी में चारों ओर नावों पर चढ़कर डाकू चक्कर लगाते रहते हैं, वे जिसे भी पार होते देखते हैं, उसे ही लूट लेते हैं। कृपा करके आप बैठ जाइये और अपने साथ हमें भी विपत्ति के गाल में न डालिये।’
उनकी ऐसी कातर वाणी सुनकर मुकुन्द दत्त आदि तो कीर्तन करने से बंद हो गये, किन्तु भला प्रभु कब बंद होने वाले थे। वे उसी प्रकार कीर्तन करते ही रहे और अन्य साथियों को भी कीर्तन करने के लिये उत्साहित करने लगे। प्रभु के उत्साहपूर्ण वाक्यों को सुनकर फिर सब-के-सब कीर्तन करने लगे। धन्य हैं, ऐसे श्रीकृष्ण प्रेम को, जिसके आनन्द में प्राणो तक की भी परवा न हो। अमृत के सागर में डूबने का भय कैसा? श्रीकृष्ण नाम तो जीवों को आधि-व्याधि तथा सम्पूर्ण भयों से मुक्त करने वाला हैं। उसके सामने मगर, घड़ियाल, भेड़िया तथा डाकुओं का भय कैसा ? राम-नाम के प्रभाव से तो विष भी अमृत बन जाता है। हिंसक जन्तु भी अपना स्वभाव छोड़कर प्रेम करने लगते हैं। प्रभु को इस प्रकार कीर्तन में संलग्न देखकर नाविक समझ गये कि ये कोई असाधारण महापुरुष है, इन्हे कीर्तन से रोकना व्यर्थ हैं,जहाँ पर ये विराजमान हैं, वहाँ किसी प्रकार का अमंगल हो ही नहीं सकता। यही सोचकर वे चूप हो गये। फिर उन्होंने प्रभु से कीर्तन करने के लिये मना नहीं किया। प्रभु उसी प्रकार अपने अश्रुओं की धाराओं को गंगा जी के प्रवाह में मिलाते हुए कीर्तन करते रहे। उसी कीर्तन के समारोह में नाव प्रयाग घाट पर आ लगी। प्रभु ने अपने साथियों के सहित नाव से उतरकर प्रयागघाट पर स्नान किया और फिर आगे बढ़ें। अब उन्होंने गौड़-देश को छोड़कर उड़ीसा-देश की सीमा में प्रवेश किया। आज प्रभु ने अपने साथियों से कहा- ‘तुम लोग सब यहीं बैठो, आज मैं अकेला ही भिक्षा करने जाऊँगा।’ प्रभु जी की बात को टाल ही कौन सकता था ? सबने इस बात को स्वीकार किया। प्रभु अपने रंगे वस्त्र को झोली बनाकर भिक्षा मांगने के लिये चले।
यह हम पहले ही बता चुके हैं कि उड़ीसा तथा बंगाल में बने-बनाये अन्न की भिक्षा देने की परिपाटी नहीं है। अब तो कुछ-कुछ लोग सीखने भी लगे है। भट्टाचार्य ब्राह्मण संन्यासी को बने-बनाये सिद्ध अन्न की भिक्षा देने लगे हैं। पहले तो लोग सुखा ही अन्न भिक्षा में देते थे। ग्रामवासी स्त्री-पुरुष प्रभु की झोली में चावल दाल और चिउरा आदि डालने लगे। प्रभु जिसके भी द्वार पर जाकर ‘नारायण-हरि’ कहकर आवाज लगाते वही बहुत-सा अन्न लेकर उन्हें देने के लिये दौड़ा आता। उनके अद्भुत रुप-लावण्य को देखकर सभी स्त्री-पुरुष चकित रह जाते और एकटक भाव से प्रभु को ही निहारते रहते। उनके चेहरे में इतना अधिक आकर्षण था कि जो भी एक बार उनके दर्शन कर लेता वहीं अपना सर्वस्व प्रभु के उुपर निछावर कर देने की इच्छा करता। जिसके घर में जो भी उत्तम पदार्थ होता, वही लाकर प्रभु की झोली में डाल देता। इस प्रकार थोड़ी ही देर में प्रभु की झोली भर गयी। विवश होकर कई आदमियों की भिक्षा लौटानी पड़ी। इससे प्रभु को भी कुछ दु:ख-सा हुआ। वे अपनी भरी हुई झोली को लेकर बाहर बैठे हुए अपने भक्तों के समीप आये। नित्यानन्द जी भरी हुर्इ झोली को देखकर हंसने लगे। अन्त में जगदानन्दजी ने प्रभु से झोली लेकर भोजन बनाया और सभी ने साथ बैठकर बड़े ही आनन्द के सहित उस महाप्रसाद को पाया।
भोजन करके आगे बढ़े। आगे चलकर पुरी जानेवाली सड़क पर उन्होंने कर-गृह देखा। वहाँ पर राजा की ओर से प्रत्येक यात्री पर कुछ नियमित शुल्क लगता था, तब यात्री आगे जा सकते थे। उस समय शुल्क लेने वाले अधिकारी यात्रियों से शुल्क लेने में इतनी अधिक कठोरता करते थे कि बिना नियमित द्रव्य लिये वे किसी को भी आगे नहीं जाने देते थे। यहाँ तक कि वे साधु-सन्यासियों तक से भी वसुल करते थे। प्रभु को भी उन लोगों ने आगे जाने से रोका और कहने लगे- ‘बिना नियमित द्रव्य दिये तुम आगे नहीं जा सकते।’
प्रभु इस बात को सुनते ही रुदन करने लगें। उनकी आँखों में से निरन्तर अश्रु निकल-निकलकर पृथ्वी को गीली कर रहे थे। वे ‘हा प्रभो ! हे मेरे जगन्नाथदेव ! क्या मैं तुम्हारे शीघ्र दर्शन न कर सकूंगा ? क्या नाथ ! मुझे तुम्हारे दर्शन होंगे?’ ऐसे आर्त वचनों को कह-कहकर रुदन करने लगे। इनके इस हृदयविदारक करुण क्रन्दन को सुनकर पाषाण-हृदय अधिकारी का हो सकता है? अवश्य ही ये कोई महापुरुष हैं। इन्हें जगन्नाथ जी जाने से नहीं रोकना चाहिये।’ यह सोचकर शुल्क एकत्रित करने वाला अधिकारी प्रभु के समीप जाकर पूछने लगा- ‘सन्यासी बाबा! तुम इतने अधीर क्यों होते हो? तुम्हारे साथ कितने आदमी है? तुम सब साथी कितने हो?’ प्रभु ने रोते-रोते अत्यन्त ही दीनभाव प्रदर्शित करते हुए कहा- ‘हमारा इस संसार में साथी ही कौन हो सकता है? हम तो घर-बार-त्यागी विरागी सन्यासी हैं, हम तो अकेले ही हैं। हमारा दूसरा कोई साथी नहीं है।’
प्रभु की ऐसी बात सुनकर अधिकारी ने कहा-‘अच्छा तो आप जायँ।’ उसकी बात सुनकर प्रभु आगे चलने लगे। थोड़ी दूर चलकर प्रभु अपने घुटनों में सिर देकर रुदन करने लगे। इनके रुदन को सुनकर अधिकारियों ने नित्यानन्द जी आदि भक्तों से इसके कारण की जिज्ञासा की। तब नित्यानन्द जी ने सब हाल बता दिया और कहा- ‘हम चारों प्रभु के साथी हैं, वे हमारे बिना अकेले न जायँगे’ तब अधिकारियों ने इन सबको भी जाने दिया।
इस प्रकार उन शुल्क एकत्रित करने वाले अधिकारियों के हृदय में अपने प्रेम-भाव को जताते हुए प्रभु अपने साथियों के सहित स्वर्णरेखा नदी के तट पर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर प्रभु तो नित्यानन्दन जी को प्रतीक्षा में थोड़ी दूर पर जाकर बैठ गये। जगदानन्द–दामोदर आदि पीछे-पीछे आ रहे थे। जगदानन्द जी के हाथ में प्रभु का दण्ड था। उन्होंने नित्यानन्द जी से कहा- ‘श्रीपाद ! यदि आप महाप्रभु के इस दण्ड को भली-भाँति पकड़े रहें तो मैं गांव में से भिक्षा कर लाऊं।’
नित्यानन्द जी ने कहा- ‘अच्छी बात है, मैं दण्ड को खूब सावधानी से रखूँगा, तुम आनन्द के साथ जाकर भिक्षा कर लाओ।’ यह कहकर नित्यानन्द जी ने जगदानन्द पण्डित के हाथ में से दण्ड ले लिया। जगदानन्द भिक्षा करने चले गये।
इधर नित्यानन्द जी ने सोचा- ‘यह दण्ड तो प्रभु के लिये एक जंजाल ही है। जिन्हें प्रेम में अपने शरीर तक का होश नहीं रहता उन्हें दण्ड की भला क्या अपेक्षा हो सकती है? इसकी देख-रेख को एक और आदमी चाहिये। दण्ड का विधान तो साधारण अवस्था वाले सन्यासी के लिये हैं।
महाप्रभु तो प्रेम के अवतार ही हैं, ये तो विधि-निषेध दोनों से ही परे हैं। इसलिये इनके लिये इस दण्ड का रखना व्यर्थ है।’ ऐसा सोचकर नित्यानन्द जी ने उस दण्ड के बीच में से तीन टूकड़े कर दिये और उसे तोड़-ताड़कर वहीं फेंक दिया।
भिक्षा करके जगदानन्द पण्डित लौटे, उन्होंने नित्यानन्द जी के पास दण्ड न देखकर आश्चर्य के साथ पूछा- ‘श्रीपाद ! आपने दण्ड कहाँ रख दिया, कुछ गम्भीरता के साथ इधर-उधर देखते हुए धीरे से नित्यानन्द जी ने उतर दिया- ‘यही कहीं पड़ा होगा, देख लो।’
जगदानन्द जी ने देखा दण्ड एक ओर टूटा हुआ पड़ा है। टूटे हुए दण्ड को देखकर डरते हुए जगदानन्द जी ने कहा- ‘श्रीपाद ! यह आपने क्या किया ? महाप्रभु के दण्ड को तोड़ दिया। उन्होंने तो मुझे सावधानी से रखने के लिये दिया था, आपने प्रभु के दण्ड को तोड़कर अच्छा काम नहीं किया, अब मैं उनसे जाकर क्या कहूंगा ?’
यह कहकर जगदानन्दजी बहुत ही दु:खी प्रकट करते हुए कहने लगे- ‘प्रभो ! नित्यानन्दजी को दण्ड देकर मैं भिक्षा करने के निमित्त समीप के ग्राम में गया था, तब तक उन्होंने दण्ड को तोड़ डाला। इसमें मेरा कुछ भी अपराध नहीं है, यदि मुझे इस बात का पता होता, तो कभी उन्हें देकर नहीं जाता।’ इतने में ही नित्यानन्दन जी भी मुकुन्द आदि सहित वहाँ आ पहुँचे। तब प्रभु ने प्रेम का रोष प्रकट करते हुए नित्यानन्द जी से कहा- ‘श्रीपाद ! आपके सभी काम बड़े ही चपलतापूर्ण होतो हैं, भला दण्ड-भंग करके आपको क्या मिल गया ? आप तो मुझे अपने धर्म से भ्रष्ट करना चाहते हैं। सन्यासी के पास एक दण्ड ही तो परमधन है, उसे आपने अपने उद्धत स्वभाव से भंग कर दिया। अब बताइये, कैसे मैं आपके साथ रहकर अपने धर्म का पालन कर सकूंगा ?’
नित्यानन्द जी ने बात को टालते हुए कुछ हंसी के भाव में कहा- ‘वह तो बाँस का ही दण्ड था, उसके बदले में आप मुझे अपना दण्डमात्र बना लीजिये और जो भी उचित दण्ड समझें दे लीजिये।’
महाप्रभु ने कहा- ‘वह बाँस का दण्ड कैसे था, उसमें सभी देवताओं का अधिष्ठान था। आप तो मुझे न जाने क्या समझते हैं, अपनी दशा का पता मुझे ही लग सकता है। आपके हाथ में रहने का मुझे यही फल मिला। एक दण्ड था, वह भी आपने नष्ट कर दिया, अब न जाने क्या करेंगे। इसलिये मैं अब आप लोगों के साथ न जाऊँगा। या तो आप लोग जायँ या मुझे आगे जाने दें।’ इस पर मुकुन्द दत्त ने कहा- ‘प्रभो ! आप ही आगे चलें।’ बस, इतना सुनना था कि प्रभु दौड़ मारकर आगे चलने लगे और दौड़ते-दौड़ते जलेश्वर नामक स्थान में पहुँचे। वहाँ जलेश्वर नामक शिव जी का एक बड़ा भारी मन्दिर है, उस समय बहुत-से वेदज्ञ श्रद्धालु ब्राह्मण उस मन्दिर में धूप, दीप, नैवेद्य आदि पूजन की सामग्रियों से शिव जी की स्तुति ही कर रहा था। भाँति-भाँति के बाजे बज रहे थे। प्रभु उस पूजन-कृत्य को देखकर बड़े ही संतुष्ट हुए। दण्ड-भंग कर देने के कारण नित्यानन्द जी के प्रति थोड़ा-सा क्रोध किया था, वह शिव जी के दर्शन मात्र से ही जाता रहा। वे आनन्द में निमग्न होकर जोर से शिव जी का कीर्तन करने लगे। भावावेश में आकर वे- ‘शिव-शिव शम्भो, हर-हर महादेव, इस पद को गा-गाकर नाचने-कूदने लगे। इनके नृत्य को देखकर सभी दर्शक आश्चर्य के सहित इन्हें चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। उस समय सभी को इस बात का भान हुआ कि मानो साक्षात भोले बाबा ही सन्यासी वेश से ताण्डव-नृत्य कर रहे हैं। प्रभु के दोनों हाथ ऊपर उठे हुए थे, वे मस्त होकर पागल की भाँति प्रेमोन्माद में जोरों से उछल-उछलकर नाच रहे थे। उनके सम्पूर्ण शरीर से पसीनों की धाराएँ बह रही थी। नेत्रों में से श्रावण-भादों की तरह अश्रुओं की वर्षा हो रही थी। वे शरीर की सुध भुलाकर यन्त्र की भाँति घूम रहे थे। उसी समय पीछे से नित्यानन्द जी आदि भक्त भी मन्दिर में आ पहुँचे और प्रभु को नृत्य करते देखकर वे भी प्रभु के ताल-स्वर मिलाकर नाचने-गाने लगे। इससे प्रभु का आनन्द और भी कई गुना अधिक हो गया, उनके सुख की सीमा नहीं रही। सभी दर्शक प्रभु की ऐसी अपूर्व अवस्था देखकर अवाक रह गये।
इस प्रकार संकीर्तन कर लेने के अनन्तर प्रभु ने प्रेमपूर्वक नित्यानन्द जी का आलिंगन किया और उन पर स्नेह प्रदर्शित करते हुए कहने लगे- ‘श्रीपाद ! आप तो मेरे अभिन्न-हृदय हैं। आप जो भी करेंगे, मेरे कल्याण के ही निमित करेंगे। मैंने उस समय भावावेश में आकर जो कुछ कह दिया हो, उसका आप बुरा न मानें। संसार में आपसे बढ़कर मेरा प्रिय और हो ही कौन सकता है- आप मेरे गुरु, माता, पिता और सखा हैं। जो आपका प्रिय है वही मेरा प्रिय है। आप मेरी बातों को कुछ बुरा न मानें।’
प्रभु के मुख से अपने लिये ऐसे स्तुति-वाक्य सुनकर नित्यानन्द जी से कुछ लज्जित-से हुए और संकोच के स्वर में कहने लगे- ‘प्रभो ! आप सर्व-समर्थ हैं, जिसे जो चाहें सो कहें, जिसे जितना ऊँचा चढ़ाना चाहें चढ़ा दें। आप तो अपने सेवकों को सदा से ही अपने से अधिक सम्मान प्रदान करते रहे हैं। यह तो आपकी सनातन रीति है, इस प्रकार प्रेम की बातें होने पर सभी ने विश्राम किया और उस रात्रि में वहीं निवास किया। प्रात: काल नित्यकर्म से निवृत होकर प्रभु आगे चलने लगे। मत्त गजेन्द्र की भाँति प्रेम-वारुणी के मद में चूर हुए नाचते, कूदते और भक्तों के साथ कुतूहल करते हुए प्रभु आगे चले जा रहे थे, कि इतने में ही इन्हें एक वाममार्गी शाक्त पन्थी साधु मिला।
प्रभु की ऐसी प्रेम की उच्चावस्था देखकर उसने समझा ये भी कोई वाममार्गी साधु हैं, अत: प्रभु से वाममार्गी पद्धति से प्रणाम करके कहने लगा- ‘कहो, किधर-किधर से आ रहे हो? आज तो बहुत दिन में दर्शन हुए?’ प्रभु ने विनोद के साथ कहा- ‘इधर से ही चले आ रहे हैं, आपका आना किधर से हुआ? कुछ हाल-चाल तो सुनाओ। भैरवी चक्र में खूब आनन्द उड़ाता है न ?’ प्रभु की बातें सुनकर और ‘भैरवी चक्र’ तथा ‘आनन्द’ आदि वाममार्गियों के सांकेतिक शब्दों को सुनकर वह सब स्थानों के शाक्तों का सम्पूर्ण वृतान्त सुनाने लगा। प्रभु उसकी बातों को सुनते जाते थे और साथियों की ओर देखकर हंसते जाते थे। अन्त में उसने कहा- ‘चलिये, आज हमारे मठ पर ही निवास कीजिये। वह सब मिलकर खूब ‘आनन्द’ उड़ावेंगे।’ प्रभु हँसते हुए नित्यानन्द जी से कहने लगे- ‘श्रीपाद ! ‘आनन्द’ उड़ाने की इच्छा है? ये महात्मा तो शान्तिपुर के रास्ते में जैसे आनन्दी संन्यासी मिले थे, उसी प्रकार के जन्तु हैं। आपके पास आनन्द की कमी हो तो कहिये।’
नित्यानन्द जी ने प्रभु की बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। वे जोरों से हंसने लगे तब उस वाममार्गी साधु ने कहा- ‘नहीं आप लोग कुछ और न समझें। मेरे मठ में ‘आनन्द’ की कुछ कमी नहीं है। आप लोग जितना भी उड़ाना चाहे उड़ावें। चलिये, आप लोग आज मेरे मठ को ही कृतार्थ कीजिये।’
प्रभु ने हँसते हुए कहा- ‘हाँ-हाँ, ठीक तो हैं, आप आगे चलकर सब ठीक-ठाक करें, हम पीछे से आते हैं। यह सुनकर वह साधु अगे को चला गया। प्रभु की प्रेममयी अवस्था देखकर उसने समझा, ये भी कोई हमारी तरह संसारी नशीली चीजों का सेवन करके पागल बनने वाले साधु होंगे। उसे पता नहीं था कि इन्होंने ऐसे प्याले का पी लिया, जिसे पीकर फिर दूसरे अम्ल की जरुरत ही नही पड़ती। उसी के नशे में सदा झूमते रहते हैं। कबीरदास जी ने इसी प्याले को तो लक्ष्य करके कहा हैं-
कबीर प्याला प्रेम का अन्तर लिया लगाय।
रोम-रोम में रमि रहा, और अमल का खाय।।
धन्य है, ऐसे अमलियों को। ऐसे नशेखोरों के सामने ये संसारी सभी नशे तुच्छ और हेय हैं। इस प्रकार अपने सभी साथियों को आनन्दित और सुखी बनाते हुए प्रभु पुरी के पथ को तै करने लगे।
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Mahaprabhu’s ecstasy and punishment by Nityananda
Patalaam vajra yahi vasavapurimaroha mero: shira: Yet your hopes are not satisfied. If you desire your own welfare, defeated by mental illness and old age Taste the chemistry called ‘Sri Krishna’ What is the use of empty efforts
After spending that night in Chhatrabhog, the Lord retired from his daily work in the morning. At the same time Ramchandra Khan sent news that boats were ready at the ghat to take the Lord across. On getting this news, Prabhu went and sat on the boat along with his companions. The boatmen opened the boat, Mahaprabhu along with Anand started chanting Haridhwani. The devotees also added their voices to the voice of the Lord. The echo of that deafening sound was heard in the water. The same sound started being heard from all the ten directions. Then Prabhu asked Mukunda Dutt to sing the verse of Sankirtan. Mukund started singing in his sweet voice –
O Hari Hari O Krishna Yadava Ome. Gopal Govinda Rama Srimadhusoodana.
Other devotees also started chanting this verse in sync with Mukund’s rhythm. Mahaprabhu got excited and started dancing while standing in the boat itself. Unable to bear the speed of the dance, the boat began to wobble. All the sailors began to panic that our boat would sink because of such a dance. He said – ‘Sanyasi Baba! Have mercy on us, reach the other side and dance as much as you want. Will you allow our boat to cross or will you sink it midway?’
In this way, the sailors were praying in humble words with some anger, but to whom Mahaprabhu was going to listen. Ignoring his words, he continued to do Shri Krishna-Kirtan continuously. Then the sailors were very surprised that this monk does not even listen to us and is dancing in the same way in love. Showing some fear, he said in a voice of helplessness and hesitation – ‘ Maharaj! You accept our words. It is not right to dance like this in a boat. Don’t you see, there is a fierce forest on the other side, in which big ferocious wolves and wild boars live. Hearing your voice, they will come running, there are crocodiles in the water, robbers keep roaming around the river in boats, they rob whoever they see crossing. Please sit down and don’t put us in trouble along with you.’
Mukund Dutt etc. stopped doing kirtan after hearing his kind words, but when was the Lord going to stop. He continued to do kirtan in the same way and started encouraging other companions to do kirtan as well. After listening to the enthusiastic words of the Lord, everyone started singing again. Blessed is the love of Shri Krishna, in whose joy even life is not concerned. What is the fear of drowning in the ocean of nectar? The name of Shri Krishna is the one who frees the living beings from half-diseases and all fears. What is the fear of crocodile, alligator, wolf and dacoits in front of him? With the effect of the name of Ram, even poison becomes nectar. Violent animals also leave their nature and start loving. Seeing the Lord engaged in kirtan in this way, the sailors understood that he is an extraordinary great man, it is futile to stop him from kirtan, where he is seated, no evil can happen there. Thinking this, they became silent. Then he did not forbid the Lord to do kirtan. In the same way, the Lord continued to perform kirtan mixing the streams of his tears with the flow of Ganga ji. In the ceremony of the same kirtan, the boat arrived at Prayag Ghat. Prabhu along with his companions got down from the boat and took bath at Prayagghat and then proceeded further. Now he left Gauda-country and entered the border of Orissa-country. Today Prabhu said to his companions- ‘You all sit here, today I alone will go for alms.’ Who could avoid Prabhu ji’s words? Everyone accepted this fact. Prabhu made his dyed clothes a bag and went to beg for alms.
We have already told that in Orissa and Bengal there is no practice of giving alms of ready-made food. Now some people have also started learning. Bhattacharya has started giving alms of ready-made Siddha food to the Brahmin monk. Earlier people used to give only dry food as alms. The men and women of the village started putting rice, pulses and chiura etc. in the bag of the Lord. Whoever went to whose door the Lord used to shout ‘Narayan-Hari’, he used to run with a lot of food to give it to them. All the men and women used to be amazed to see his amazing beauty and used to stare at the Lord with a single mind. There was so much attraction in his face that whosoever had darshan of him once, he wanted to surrender his everything to the Lord. Whoever had the best thing in his house, he would bring it and put it in the Lord’s bag. In this way, in a short time the bag of the Lord was filled. Being forced, the alms of many men had to be returned. Due to this even the Lord felt somewhat sad. He came near his devotees sitting outside with his full bag. Nityanand ji started laughing seeing the full bag. In the end, Jagadanandji prepared food by taking a bag from the Lord and everyone sat together and enjoyed that Mahaprasad.
Proceed after eating. Later on, on the road leading to Puri, he saw a tax house. There some regular fee was levied on each passenger from the king, then the passengers could go ahead. At that time, the toll officers used to be so harsh in collecting the fees from the passengers that they did not allow anyone to go further without taking regular money. He used to collect even from the sages and ascetics. Those people also stopped Prabhu from going further and said- ‘You cannot go further without giving regular substance.’
Prabhu started crying as soon as he heard this. Tears were continuously coming out of his eyes and were making the earth wet. They ‘Oh Lord! O my Jagannathdev! Will I not be able to see you soon? Kya Nath! Will I have your darshan?’ Arta started crying saying such words. Can the stone-hearted officer be listening to his heart-wrenching cries of compassion? Surely he is a great man. He should not be stopped from going to Jagannath ji.’ Thinking this, the officer who collected the fee went near the Lord and asked – ‘Sanyasi Baba! why are you so impatient How many men are with you? How many companions are you all?’ Prabhu crying and showing great humility said – ‘Who can be our companion in this world? We are renunciants who leave home again and again, we are alone. We have no other partner.
After hearing such words of Prabhu, the officer said – ‘Well, you go.’ After listening to him, Prabhu started walking ahead. After walking a little distance, the Lord started crying by putting his head on his knees. Hearing their cries, the officials inquired about the reason for this from the devotees like Nityanand ji. Then Nityanand ji told the whole situation and said- ‘All four of us are companions of the Lord, he will not go alone without us’ then the officials let them all go too.
In this way, expressing His love in the hearts of those duty collecting officials, the Lord reached the banks of the river Swarnarekha along with His companions. After reaching there, the Lord sat at a little distance waiting for Nityanandan. Jagadanand-Damodar etc. were coming one after the other. Jagadanand ji had the punishment of God in his hands. He said to Nityanand ji – ‘ Shripad! If you hold on to this punishment of Mahaprabhu very well, then I will bring alms from the village.’
Nityanand ji said- ‘Good thing, I will keep the punishment very carefully, you go with Anand and bring alms.’ Saying this, Nityanand ji took the punishment from Jagadanand Pandit’s hand. Jagadanand went to beg.
Here Nityanand ji thought – ‘ This punishment is just a trap for the Lord. Those who are not even aware of their body in love, how can they expect punishment? It needs another person to look after it. The law of punishment is for a sannyasin in an ordinary state.
Mahaprabhu is the incarnation of love, he is beyond both law and prohibition. That’s why it is useless to have this punishment for them. ‘ Thinking like this, Nityanand ji cut three pieces from the middle of that punishment and threw it there after breaking it.
Jagadanand Pandit returned after alms, he asked Nityanand ji with surprise not seeing the punishment – ‘Shripad! Where did you keep the stick, looking here and there with some seriousness, Nityanand ji slowly said – ‘It must have been lying somewhere, look.’
Jagadanand ji saw that the rod was lying broken on one side. Fearing to see the broken rod, Jagadanand ji said – ‘Shripad! What did you do? Mahaprabhu’s punishment was broken. He had given me to keep carefully, you have not done a good deed by breaking the punishment of the Lord, what will I tell him now?’
Saying this, Jagadanandji expressed great sorrow and started saying – ‘Lord! After punishing Nityanandji, I went to the nearby village to beg for alms, till then he broke the punishment. There is no fault of mine in this, if I had known about this, I would never have given it to him.’ Meanwhile, Nityanandan ji also reached there along with Mukund etc. Then the Lord expressed the fury of love and said to Nityanand ji – ‘Shripad! All your works are very clever, what have you gained by breaking the law? You want to corrupt me from your religion. The sanyasi has only one punishment, Paramdhan, you have dissolved it with your arrogant nature. Now tell me, how can I live with you and follow my religion?’
Avoiding the matter, Nityanand ji said in a sense of laughter – ‘It was only a bamboo punishment, instead of that you make me your punishment and give whatever punishment you think is appropriate.’
Mahaprabhu said- ‘How was that bamboo stick, it had the establishment of all the gods. I don’t know what you think of me, only I can know about my condition. I got this result of being in your hands. There was a penalty, you destroyed that too, don’t know what to do now. That’s why I will not go with you guys anymore. Either you people go or let me go ahead.’ Mukund Dutt said on this – ‘Lord! You go ahead.’ All I had to hear was that the Lord started running forward and while running reached a place called Jaleshwar. There is a huge temple of Lord Shiva named Jaleshwar, at that time many devout Brahmins were praising Lord Shiva with incense, lamp, offerings etc. in that temple. Various instruments were being played. The Lord was very satisfied after seeing that worship. He had a little anger towards Nityanand ji because of the cancellation of the punishment, he kept going only after seeing Shiv ji. Engrossed in joy, they started chanting Lord Shiva loudly. Coming in ecstasy, they started dancing and jumping by singing this verse- ‘Shiv-Shiv Shambho, Har-Har Mahadev’. Seeing his dance, all the spectators surrounded him with surprise and stood up. At that time everyone realized that it was as if Bhole Baba himself was performing Tandav-dance in the guise of a monk. Both the hands of the Lord were raised up, they were jumping and dancing like a madman in love ecstasy. Streams of sweat were flowing from his entire body. Tears were raining like Shravan-Bhad from the eyes. Forgetting about the body, they were moving like a machine. At the same time, Nityanand ji and other devotees also reached the temple from behind and seeing the Lord dancing, they also started dancing and singing in harmony with the Lord. This increased the joy of the Lord many times more, there was no limit to his happiness. All the onlookers were speechless seeing such a unique state of the Lord.
After performing the sankirtana in this way, the Lord lovingly embraced Nityanand ji and showing affection on him, said- ‘Shripad! You are my integral heart. Whatever you do, you will do for my welfare only. Don’t feel bad about whatever I said in a fit of emotion at that time. Who can be more dear to me than you in the world – you are my teacher, mother, father and friend. The one who is dear to you is my dear. Don’t take my words as bad.’
Hearing such words of praise for himself from the mouth of the Lord, Nityanand ji felt somewhat ashamed and started saying in a hesitant voice – ‘Lord! You are all-powerful, call whomever you want, raise whomever you want as high as you want. You have always been giving more respect to your servants than yourself. This is your eternal custom, in this way everyone rested after talking about love and stayed there that night. Early in the morning, after retiring from his routine, the Lord started walking ahead. Like Matta Gajendra, dancing, jumping and being curious with the devotees, Prabhu was going ahead, that in the meantime, he found a left-wing Shaktist monk.
Seeing such a high state of love of the Lord, he understood that he is also a leftist monk, so after saluting the Lord with the leftist method, he said – ‘Tell me, where are you coming from? Today it was a long day?’ Prabhu said with humor – ‘He is coming from here only, where did you come from? Tell me about your condition. He takes a lot of pleasure in the Bhairavi Chakra, doesn’t he?’ After listening to the words of the Lord and listening to the symbolic words of the leftists like ‘Bhairavi Chakra’ and ‘Anand’, he started narrating the entire story of the Shaktas of all the places. Prabhu used to listen to his words and used to laugh looking at his companions. In the end he said – ‘ Come on, stay at our monastery today. All of them will spend a lot of ‘joy’ together.’ Prabhu laughingly said to Nityanand ji – ‘Shripad! Want to fly ‘Anand’? This Mahatma is the same kind of animal as the Anandi Sannyasis met on the way to Shantipur. If you lack joy, then say it.
Nityanand ji did not give any answer to what the Lord said. They started laughing out loud, then that leftist monk said – ‘ No, you people should not understand anything else. There is no dearth of ‘Anand’ in my Math. Fly as much as you want. Come on, you guys should do my math today.’
The Lord said laughing- ‘Yes, yes, it is okay, you go ahead and do everything right, we come from behind. Hearing this, the hermit went ahead. Seeing the loving state of the Lord, he understood that, like us, he too must be a sage who goes mad after consuming worldly intoxicants. He didn’t know that he drank from such a cup, after drinking which there is no need of another acid. They always dance in the intoxication of that. Kabirdas ji has said by aiming at this cup-
Kabir took the cup of love. He was immersed in every pore, and was consumed by his actions.
Blessed are those who have such practices. In front of such addicts, all these worldly intoxications are insignificant and disgraceful. In this way, making all his companions happy and happy, the Lord started swimming on the path of Puri.
respectively next post [91] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]