।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
श्रीगोपीनाथ क्षीरचोर
यस्मै दातुं चोरयन् क्षीरभाण्डं
गोपीनाथ: क्षीरचोराभिधोऽभूत्।
श्रीगोपाल: प्रादुरासीद् वश: सन्
यत्प्रेम्णा तं माधवेन्द्रं नतोऽस्मि।।
भक्तों के सहित आनन्द-विहार करते-करते जलेश्वर, ब्रह्मकुण्ड, मन्दार आदि तीर्थो में दर्शन-स्नान करते हुए महाप्रभु रेमुणाय नामक तीर्थ में पहुँचे। वहाँ जाकर क्षीरचोर गोपीनाथ भगवान के मन्दिर में जाकर प्रभु ने भगवान के दर्शन किये। प्रभु आनन्द में विभोर होकर गोपीनाथ भगवान की बड़े ही करुण-स्वर में स्तुति करने लगे। स्तुति करते-करते वे प्रेम में बेसुध हो गये। अन्त में उन्होंने भगवान के चरण-कमलों में साष्टांग प्रणाम किया। उसी समय भगवान् के शरीर से एक पुष्पों का बड़ा भारी गुच्छा निकलकर ठीक प्रभु के मस्तक के ऊपर गिर पड़ा। सभी दर्शनार्थी तथा पुजारी प्रभु के ऐसे भक्तिभाव को देखकर अत्यन्त ही प्रसन्न हुए और महाप्रभु के प्रेम की सराहना करने लगे। प्रभु ने उस पुष्प-गुच्छ को भगवान की प्रसादी समझकर भक्ति-भाव से सिर पर धारण कर लिया और बहुत देर तक भक्तों के सहित मन्दिर में संकीर्तन करते रहे। अन्त में वहीं पर रात्रि में विश्राम भी किया।
नित्यानन्द जी ने पूछा- ‘प्रभो ! इन श्रीगोपीनाथ भगवान का नाम ‘क्षीरचोर’ क्यों पड़ा है?’
प्रभु ने हँसकर उतर दिया- ‘आपसे क्या छिपा होगा? गोपीनाथ भगवान को क्षीरचोर बनाने वाले आपके पूज्यपाद गुरुदेव और मेरे गुरु के भी गुरु श्री मन्माधवेन्द्रपुरी जी महाराज ही हैं। उनके मुख से आपने ‘क्षीरचोर’ भगवान की कथा अवश्य ही सुनी होगी। किन्तु फिर भी आप अन्य भक्तों के कल्याण के निमित्त मेरे मुख से इस कथा को सुनना चाहते हैं तो जिस प्रकार मैंने अपने पूज्यपाद गुरुदेव श्रीईश्वरीपुरी के मुख से सुनी है, उसे आपको सुनाता हूँ। ऐसी कथाओं को तो बार-बार सुनना चाहिये। इन कथाओं के श्रवण से भगवान के पादपद्मों में प्रीति उत्पन्न होती है और भगवान की भक्तवत्सलता के विषय में दृढ़ भावना होती है कि वे अपने भक्तों की इच्छा-पूर्ति के निमित्त सब कुछ कर सकते हैं। ऐसी कथाओं के सम्बन्ध में यह कभी भी न कहना चाहिये कि यह तो हमारी सुनी हुई है, इसे फिर क्या सुनें। जैसे एक दिन भरपेट भोजन कर लेने पर दूसरे दिन फिर उसी प्रकार के भोजन करने की इच्छा होती है, इसी प्रकार भक्तों को भगवान के सम्बन्ध की कथाएं सुनने में कभी उपेक्षा न करनी चाहिये, वे जितनी भी बार सुनने को मिल सकें, सुननी चाहिये। भक्त और भगवत-सम्बन्धी कथाओं के सम्बन्ध में सदा अतृप्त ही बने रहना चाहिये।
अच्छा, तो मैं क्षीरचोर श्रीगोपीनाथ के उस पुण्य आख्यान को आप लोगों के सामने कहता हूँ, आप सभी लोग ध्यानपूर्वक सुनें।’ प्रभु की ऐसी बात सुनकर सभी भक्त उत्सुकतापूर्वक प्रभु के मुख की ओर देखने लगे। और भी दस-बीस भद्र पुरुष वहाँ आ गये थे, वे भी प्रभु के मुख से क्षीरचोर भगवान की कथा सुनने के निमित बैठ गये। सबको उत्साहपूर्वक अपनी ओर टकटकी लगाये देखकर प्रभु बड़े ही मधुर स्वर से कहने लगे- मेरे गुरु के भी गुरु वैकुण्ठवासी भगवान माधवेन्द्रपुरी की कृष्ण-भक्ति अलौकिक थी वे अहर्निश श्रीकृष्ण-कीर्तन में ही लगे रहते थे, सोते-जागते वे सदा श्रीहरि के ही रुप का चिन्तन करते रहते। उनकी जिह्वा को भगवन्नाम का ऐसा चश्का लग गया था कि वह कभी ख़ाली नहीं रहती, सदा उन जगत्पति के मंगलमय मंजुल नामों का ही बखान करती रहती। उनकी इस उत्कट भक्ति के ही कारण भगवान को खीर की चोरी करने पड़ी।
भगवान माधवेन्द्रपुरी एक बार व्रज की यात्रा करते-करते गिरिराज गोवर्धन पर्वत के समीप पहुँचे। वहाँ पर गिरि-कानन की कमनीय छटा को देखकर वे मन्त्रमुग्ध-से बन गये और वहीं गिरिवर के समीप विचरण करने लगे। एक दिन उन्होंने गोवर्धन के निकट जंगल में एक वृक्ष के नीचे निवास किया। पुरी महाराज की अयाचित वृत्ति थी। वे भोजन के लिये भी किसी से याचना नहीं करते थे। प्रारब्धवशात जो भी कुछ मिल जाता उसे ही सन्तोषपूर्वक पाकर कालयापन करते थे। उस दिन उन्हें दिन भर कुछ भी आहार नहीं मिला। शाम के समय वे उसी वृक्ष के नीचे बैठे भगवन्नामों का उच्चारण कर रहे थे कि उन्हें किसी के पैरों की आवाज सुनायी दी। वे चौंककर पीछे की ओर देखने लगे। उन्होंने क्या देखा कि एक काले रंग का ग्यारह-बारह वर्ष की अवस्था वाला बालक हाथ में दूध का पात्र लिये उनकी ओर आ रहा है। शरीर का रंग काला होने पर भी बालक के चेहरे पर एक अदभुत तेज प्रकाशित हो रहा था, उसके सभी अंग सुडौल-सुन्दर और चित्ताकर्षक थे।
उसने बड़े ही कोमल स्वर में कुछ हंसते हुए कहा-‘महात्मा जी ! भूखे क्यों बैठे हो ? लो इस दूध को पीलो।’ पुरी ने पूछा- ‘तुम कौन हो और तुम्हें इस बात का कैसे पता चला कि मैं यहाँ जंगल में बैठा हूँ?’
बालक ने हंसते हुए कहा- ‘मैं जाति का ग्वाला हूँ, मेरा घर इसी झाड़ी के समीप के ग्राम में है। मेरी माता अभी जल भरने यहाँ आयी थी, उसी ने आपको यहाँ बैठे देखा था और घर जाकर उसी ने मुझसे दूध दे आने को कह दिया था। इसीलिये मैं जल्दी से गौ को दुहकर आपके लिये दूध ले आया हूँ।
हमारे यहाँ का यह नियम है कि हमारे यहाँ का यह नियम है कि हमारे ग्राम के समीप कोई भुखा नहीं सोने पाता। जो मांगकर खाते हैं, उन्हें हम रोटी दे देते हैं और जिनका अयाचित व्रत हैं, उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार दूध-फल अथवा अन्न के बने पदार्थ दे जाते हैं। आप इस दूध को पी लें, मैं फिर आकर इस पात्र को ले आऊँगा।’ इतना कहकर वह बालक चला गया।
पुरी महाशय ने उस दूध को पीया। इतना स्वादिष्ट दूध उन्होंने अपने जीवन में कभी नहीं पीया था, वे मन में अत्यन्त ही प्रसन्न हाते हुए उस दूध को पीने लगे। उनके हृदय में उस साँवले ग्वाले के लड़के की सूरत गड़-सी गयी थी, वे बार-बार उसका चिन्तन करने लगे। दूध पीकर पात्र को पृथ्वी पर रख दिया और उस ग्वाल-कुमार की प्रतीक्षा में बैठे रहे। आधी रात्रि बैठे-ही-बैठे बीत गयी, किन्तु वह ग्वाल-कुमार नहीं लौटा। अब तो पुरी महाराज की उत्सुकता उस लड़के को देखने की अधिकाधिक बढ़ने लगी। उसी स्थिति में उन्हें कुछ तन्द्रा-सी आ गयी। उसी समय सामने वही बालक खड़ा हुआ दिखायी देने लगा। उसने हंसते-हंसते कहा- पुरी ! मैं बहुत दिन से तुम्हारे आने की प्रतीक्षा कर रहा था। तुम आ गये, यह अच्छा ही हुआ। ग्वाले के लड़के के वेष में ही तुम्हें दुग्ध दे गया था। अब तुम मेरी फिर से यहाँ प्रतीक्षा करो। मैं यहाँ इस पास की झाड़ी के नीचे दबा हुआ हूँ। पहले मेरा यहाँ मन्दिर था, मेरा पुजारी म्लेच्छों के भय से मुझे इस झाड़ी के नीचे गाड़कर भाग गया था। तब से मैं इस झाड़खण्ड में ही दबा हुआ पड़ा हूँ। अब तुम मुझे यहाँ से निकालकर मेरी विधिवत पूजा करो। मेरा नाम ‘श्री गोपाल’ है, मैंने ही इस गोवर्धन को धारण किया था, तुम इसी नाम से मेरी प्रतिष्ठा करना।’ इतना कहकर वह बालक पुरीक का हाथ पकड़कर उस कुंज के समीप ले गया और उन्हें वह स्थान दिखा दिया।
आँखे खुलने पर पुरी महाराज चारों ओर देखने लगे, किन्तु वहाँ कोई नहीं था। प्रात: काल उन्होंने ग्राम के लोगों को बुलाकर सब वृतान्त कहा और श्रीगोपाल के बताये हुए स्थान को उन्होंने खुदवाया। बहुत दूरी खुदने पर उसमें से एक बहुत ही सुन्दर श्यामवर्ण की सुन्दर सी मन को मोहने वाली मूर्ति निकली। पुरी ने उसी समय ग्रामवासियों से एक छप्पर छवाकर उसमें एक ऊँचा-सा आसन बनाया और उसके उपर उस श्री गोपाल की मूर्ति को स्थापित किया। मूर्ति को स्थापित करके उन्होंने विधिवत भगवान को पंचामृत से स्नान कराया, फिर शीतल जल से भगवान के श्रीविग्रह को खूब मल-मलकर धोया। सुगन्धित चन्दन घिसकर सम्पूर्ण शरीर पर लेपन किया और धूप, दीप, नैवेद्य तथा वन्य फल-फूलों से उनकी यथाविधि पूजा की।
अब पुरी महाराज ने अन्नकूट-उत्सव करने का निश्चय किया। उस ग्राम में जितने ब्राह्मणों के घर थे, सभी से कह दिया कि वे यथाशक्ति अपने घर से भोजन की सामग्री लेकर अपनी-अपनी स्त्रियों के सहित यहाँ अपनी-अपनी रुचि के अनुसार भाँति-भाँति के व्यंजन बनावें। सभी ब्राह्मणों ने प्रसन्नतापूर्वक पुरी की आज्ञा का पालन किया। वे अपने-अपने घरों से बड़े-बड़े घड़ों में दूध, दही तथा घृत भर-भरकर पुरी की कुटिया के समीप लाने लगे। ग्वालों ने अपने घर का सम्पूर्ण दूध दे दिया। दूकान करने वाले बनियों ने चावल, बूरा तथा घृत आदि बहुत-सी भोजन की सामग्री भगवान के भोग के लिये प्रदान की। सुपात्र ब्राह्मणों की स्त्रियाँ आ-आकर अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सुन्दर-सुन्दर पदार्थ भगवान के भोग के लिये तैयार करने लगीं। पदार्थो में कच्चे-पक्के का भेद-भाव नहीं था, जिसे जो भी बनाना आता था और जिसे जो भी अधिक प्रिय था, वही अपनी शुद्ध भावना के अनुसार उसी पदार्थ को भक्तिभाव से बनाने लगी।
कोई तो फिलौरीदार बढ़िया कढ़ी ही बना रही है, कोई मूँग के, उड़द के बड़े ही बनाती है, कोई दही-बड़े, काँजी के बड़े, सोंठ के बड़े बना-बनाकर रख रही है, कोई पूड़ी, कचौड़ी, मालपुआ, मीठे पुआ, बेसन के पुआ, बाजरे की टिकियाँ ही बना रही है, कोई बेसन के लड्डू, मूँग के लड्डू, निकुती के लड्डू, सूजी के लड्डू, चूरमा के लड्डू, काँगनी के लड्डू आदि भाँति-भाँति के लड्डूओं को ही भोग के तैयार कर रही है, कोई भाँति-भाँति के साग, खट्टे, मीठे विविध प्रकार के रायते ही बना-बनाकर एक ओर रखती जाती है, कोई छोटी-छोटी बाटियाँ ही बनाकर उन्हें घी के डूबो-डूबोकर रखती जा रही है, कोई उन्हे हाथ से मीजकर चूरमा बना रही है, कोई पतली-पतली फुलकियाँ पका रही है, कोई-कोई मोटे-मोटे रोट ही बनाकर भगवान को खिलाना चहाती है, कोई काँगनी का भात बना रही है तो कोई बाजरे का भात रही है। कोई रमासों को उबालकर हीं छौंक रही है। कोई चनों को फुलाकर उन्हें घी में तल रही है। कोई अमचूर की, पोदीना की मेवाओं की, इमली की तथा और भी कई प्रकार की चटनियों को पीस-पीसकर पत्थर की कटोरियों में रखती जाती है। कोई मखानों की, चावलों की तथा और भी भाँति-भाँति की खीर ही बना रही है, कोई दूध का खोआ बनाकर पेड़ा, बरफी, खोआ के लड्डू, गुलाबजामुन आदि फलाहारी मिठाइयाँ बना रही है, कोई दूध की रबड़ी बना रही है, कोई खुरचन तैयार करके दूसरी ओर रखती जाती है, कोई मट्ठा की महेरी ही भगवान को भोग लगाना चाहती है। कोई सुन्दर-सुन्दर भाँति-भाँति के चावलों को ही इस प्रकार से राँध रही है। कोई रोटियों को दूध में मीजकर उन्हें दूध में फुला रही है। कोई लपसी बना रही है। कोई हलवा, मोहनभोग, दूधलपसी आदि पदार्थो को बनाने मे लगी हुई है।
इस प्रकार सभी ने अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सैकड़ों प्रकार के षट्र्सयुक्त भोजन बनाये। उन्होंने क्या बनाये, श्री गोपाल भगवान ने स्वंय उनके हृदय में प्रेरणा बनवाये, नहीं तो भला गांव की रहने वाली वे गंवारों की स्त्रियाँ ऐसे पदार्थो का बनाना क्या जानें। भगवान तो सर्वसमर्थ हैं, वे जिसके हाथ से जो भी चाहें करा सकते हैं।
इस प्रकार सब सामान तैयार होने पर पुरी महाराज ने भगवान का भोग लगाया। पता नहीं भगवान कितने दिनों के भूखे थे, देखते-ही-देखते वे उन सभी पदार्थो को चट कर गये। पुरी महाशय को बड़ा विस्मय हुआ। तब भगवान ने हंसकर अपने हाथों से उन पात्रों को छू दिया। भगवान के स्पर्शमात्र से ही वे सभी पदार्थ फिर ज्यों-के-त्यों ही हो गये। पुरी महाराज ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए सभी व्रजवासी स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध तथा युवकों को वह प्रसाद बाँटा। पुरी महाराज ने भगवान श्रीगोपाल को प्रकट किया है, यह समाचार दूर-दूर तक फैल गया था। हजारों स्त्री-पुरुष भगवान के दर्शन के लिये आने लगे। उस दिन भगवान के दर्शन को जो भी आता, उसे ही पेट भरकर प्रसाद मिलता। रात्रिपर्यन्त हजारों आदमी आते-जाते रहे, किंतु अन्त तक सभी को यथेष्ट प्रसाद मिला, कोई भी प्रसाद से विमुख होकर नहीं गया। इस प्रकार उस दिन का अन्नकूट उत्सव बड़ा ही अदभुत रहा।
इसके पश्चात अन्य ग्रामों के भी पुरुष बारी-बारी से श्रीगोपाल भगवान का अन्नकूट करने लगे। इस प्रकार रोज ही पुरी महाराज की कुटिया में अन्नकूट की धूम रहने लगी। यह समाचार दूर-दूर फैल गया। मथुरा के बड़े-बड़े सेठ श्रीगोपाल भगवान के दर्शन को आने लगे और वे सोना, चांदी, हीरा, जवाहिरात तथा भाँति-भाँति के वस्त्राभूषण भगवान की भेंट करने लगे। किसी पुण्यवान पुरुष ने श्रीगोपाल भगवान का बड़ा भारी विशाल मन्दिर बनवा दिया। सभी व्रजवासियों ने एक-एक, दो-दो गाय मन्दिर के लिये भेंट दी। इससे हजारों गौएं मन्दिर की हो गयीं।
पुरी महाराज बड़े ही भक्तिभाव से भगवान की सेवा-पूजा करने लगे। उनका शरीर कुछ क्षीण-सा हो गया था; वे सेवा-पूजा के लिये कोई योग्य शिष्य चाहते थे, उसी समय गौड़-देश से दो सुन्दर युवक आकर पुरी महाराज के शरणापन्न हुए। पुरी ने उन्हें योग्य समझकर दीक्षित किया और उन्हें श्रीगोपाल भगवान की पूजा का काम सौंपा। इस प्रकार दो वर्षो तक पुरी महाराज श्रीगोपाल भगवान की पूजा करते रहे।
एक दिन स्वप्न में भगवान ने पुरी महाराज से कहा- ‘माधवेन्द्र ! बहुत दिनों तक पृथ्वी के अंदर रहने के कारण हमारे सम्पूर्ण शरीर में दाह होती है, यदि तू जगन्नाथ पुरी से मलयागिरी-चन्दन लगाकर हमारे शरीर में लेपन करे तो हमारी यह गर्मी शान्त हो।’
भगवान की आज्ञा शिरोधार्य करके दूसरे दिन शिष्यों को पूजा का सभी काम सौंपकर और भगवान से आज्ञा प्राप्त करके पुरी महाराज ने नीलाचल के लिये प्रस्थान किया। इसी यात्रा में वे नवद्वीप पधारे और अद्वैताचार्य के घर पर आकर ठहरे। आचार्य उनके अदभुत भक्तिभाव को देखकर उनके भगवत-प्रेम पर आसक्त हो गये और उन्होंने पुरी महाराज से दीक्षा लेकर उन्हें अपना गुरु बनाया। कुछ दिन शान्तिपुर में रहकर और अद्वैताचार्य को दीक्षा देकर पुरी महाराज नीलाचल के लिये चले। चलते-चलते वे यहाँ रेमुणाय में आये और उन्होंने श्रीगोपीनाथ के दर्शन किये। गोपीनाथ भगवान के दर्शन से पुरी को अत्यन्त ही प्रसन्नता हुई। यहाँ पर भगवान का साज-श्रृंगार तथा भोग-राग बड़ी ही भावमय पद्धति से किया जाता था, पुरी महाराज वहाँ की पूजा पद्धति को खूब ध्यानपूर्वक देखते रहे। अन्त में उन्होंने पुजारियों से पूछा- ‘यहाँ पर भगवान का मुख्य भोग किस वस्तु का लगता है?’ पुजारियों ने उतर दिया- ‘यहाँ श्रीगोपीनाथ भगवान का क्षीरभोग ही सर्वोत्तम प्रधान भोग है।
गोपीनाथ जी की क्षीर को ‘अमृतकेलि’ नाम से पुकारते हैं। गोपीनाथ जी की प्रसादी खीर सर्वत्र प्रसिद्ध है। बारह पात्रों में शाम को खीर का भोग लगता है।’
पुरी महाराज की इच्छा थी, कि मैंने पूजा की पद्धति तो समझ ली, किन्तु खीर कैसी होती है, इसे मैं ठीक-ठीक नहीं समझ सका। यदि भगवान की प्रसादी थोड़ी-सी खीर मिल जाती, तो उसका स्वाद देखकर मैं भी अपने श्री गोपाल को ऐसी ही खीर अर्पण करता। इस विचार के मन में आते ही उन्हें भय प्रतीत हुआ कि यह मेरी जिह्रा-लोलुपता तो नहीं है। ऐसे भाव रसना-स्वाद के निमित तो मेरे हृदय में उत्पन्न नहीं हो गये। फिर उन्होंने सोचा- ‘भगवान के प्रसाद में क्या इन्द्रिय-लोलुपता? मैं जिह्वा-स्वाद के लिये तो इच्छा कर ही नहीं रहा हूँ, अपने भगवान को भी ऐसी ही खीर खिलाने की मेरी इच्छा थी।’ इन विचारों से उन्हें कुछ-कुछ सन्तोष हुआ, किन्तु वे किसी से प्रसाद माँग तो सकते ही नहीं थे, कारण कि उनका तो अयाचित व्रत था। बिना मांगे जो भी कोई कुछ दे देता, उसी से जीवन-निर्वाह करते, इसलिये प्रसाद को चखने की उनकी इच्छा मन-की-मन में ही रह गयी। उन्होने किसी के सामने अपनी इच्छा प्रकट नहीं की। संध्या को भोग लगाकर शयन-आरती हो गयी। भगवान के कपाट बंद कर दिये गये। सभी लोग अपने-अपने घरों को चले गये। पुरी महाशय भी गांव से थोड़ी दूर पर एक कुटिया में जाकर पड़ रहे।
आधी रात्रि के समय पुजारी ने स्वप्न देखा- मानो साक्षात गोपीनाथ भगवान उसके सामने खड़े होकर कह रहे हैं- ‘पुजारी! पुजारी !! तुम अभी उठकर मेरा एक जरुरी काम करो। मेरा एक परम भक्त माधवेन्द्रपुरी नाम का महाभागवत संन्यासी ग्राम के बाहर ठहरा हुआ है। उसकी इच्छा मेरे ‘क्षीर-प्रसाद’ को पाने की है। अपने भक्त की मनोवांछा को पूर्ण करने के निमित्त मैंने अपने भोग के बारह पात्रों में से एक को चुराकर अपने वस्त्रों में छिपा लिया है, तुम उसे ले जाकर अभी माधवेन्द्र को दे आओ।’ इतना सुनते ही पुजारी चौंककर उठ पड़ा। उसने भगवान के पट खोलकर उनके वस्त्रों को देखा। सचमुच उनमें एक क्षीर से भरा पात्र छिपा हुआ रखा है। पुजारी उस पात्र को लेकर नगर के चारों ओर चिल्लाता फिर रहा था- ‘माधवेन्द्रपुरी किनका नाम है? जो माधवेन्द्रपुरी नाम के साधु हों, वे इस क्षीर के पात्र को ले लें। भगवान ने उसके निमित्त क्षीर की चोरी की है।’
इस प्रकार चिल्लाते-चिल्लाते पुजारी उसी स्थान पर पहुँचा जहाँ पुरी महाराज ठहरे हुए थे। भगवान के पुजारी के मुख से अपना नाम सुनकर पुरी महाराज बाहर निकल आये और कहने लगे- ‘महाराज ! मेरा ही नाम माधवेन्द्रपुरी है, कहिये क्या आज्ञा है?’
पुरी महाराज का परिचय पाकर पुजारी उनके पादपद्मों में प्रणत हुआ और बड़े ही विनीत वचनों से कहने लगा- ‘महाभाग ! आप धन्य है।
आपकी इस अलौकिक भक्ति को कोटि-कोटि धन्यवाद है ! आज हम आपके दर्शन से कृतार्थ हुए। इतने दिन की भगवान् की पूजा का फल आज प्राप्त हो गया। हम-जैसे पैसों के गुलामों को भगवान के साक्षात दर्शन तो हो ही कैसे सकते हैं? किन्तु हम अपना इसी में अहोभाग्य समझते है कि भगवान की पूजा करने के प्रभाव से आप-जैसे भगवान के परम प्रिय भक्त के दर्शन हो गये। हम तो आपको साक्षात् भगवान ने भी क्षीर की चोरी की, वे भी चोर बने, वे महाभागवत तो भगवान से भी बढ़कर हैं। यह लीजिये भगवान ने यह क्षीर आपके लिये चुराकर रख छोड़ी थी। उन्हीं की आज्ञा से मैं इसे आपके पास लाया हूँ।’ पुजारी के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर पुरी महाराज कुछ लज्जित हुए। वे भगवान की कृपालुता, भक्त वत्सलता और अपने भक्तों के प्रति अपार ममता के भावों को स्मरण करके प्रेम में विभोर होकर रुदन करने लगे। रोते-रोते उन्होंने भगवान का दिया हुआ वह महाप्रसाद दोनों हाथ फैलाकर अत्यन्त ही दीन-भाव से भिखारी की भाँति ग्रहण किया। एकान्त में प्रेम में पागल हुए उस महाप्रसाद को वे पाने लगे। उस समय के उनके अनिर्वचनीय आनन्द का अनुमान लगा ही कौन सकता है? एक तो भगवान का महाप्रसाद और दूसरे साक्षात भगवान ने अपने हाथ चोरी करके दिया। पुरी रोते जाते थे और उस प्रसाद को पाते जाते थे। चारों ओर से पात्र को खूब चाट-चाटकर पुरी ने प्रसाद पाया। फिर जल डालकर उसे धोकर पी गये और उस मिटटी के पात्र के टूकड़े कर करके उन्हें अपने वस्त्र में बाँध लिया। भला, भगवान के दिये हुए पात्र को वे फेंक कैसे सकते थे? उस को रोज नियम से एक-एक करके खा लेते थे।
जब रेमुणाय के लोगों को भगवान की क्षीर-चोरी की बात मालूम पड़ी, तब तो हजारों नर-नारी पुरी महाराज के दर्शन के लिये आने लगे। चारों ओर पुरी महाराज के प्रभु प्रेम की प्रशंसा होने लगी। सभी के मुखों पर वही पुरी महाराज की अलौकिक भक्ति की बात थी, सभी उनके भगवत प्रेम की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे। प्रतिष्ठा को शूकरीविष्ठा और गौरव को रौरव-नरक के समान दु:खदायी समझनेवाले पुरी महाराज अब अधिक काल तक वहाँ न ठहर सके, वे श्रीगोपीनाथ भगवान क चरणों की वन्दना करके जगन्नाथ पुरी के लिये चले गये।
जगन्नाथ जी में पहुँचते ही पुरी महाराज के आगमन का समाचार चारों ओर फैल गया। दूर-दूर से लोग पुरी महाराज के दर्शन के लिये आने लगे। सचमुच मान-प्रतिष्ठा तथा कीर्ति की गति अपनी शरीर की छाया के समान ही है, तुम यदि स्वयं छाया को पड़ने दौड़ोगें तो वह तुमसे आगे-ही-आगे भगती जायगी। तुम कितना भी प्रयत्न करो, वह तुम्हारे हाथ न आवेगी। उसी की तुम उपेक्षा करके उससे पीछा छुड़ाकर दूसरी ओर भागो, तुम चाहे उससे कितना भी पीछा छुड़ाना चाहो, किंतु वह तुम्हारा पीछा न छोड़ेगी। तुम जिधर भी जाओगे उधर ही वह तुम्हारे पीछे-पीछे लगी डोलेगी। जो लोग प्रतिष्ठा चाहते हैं, प्रतिष्ठा के लिये सब कुछ करने को तैयार हैं, उनकी प्रतिष्ठा नहीं होती और जो संसार में पृथक होकर एकदम प्रतिष्ठा से दूर भागते हैं, संसार उनकी प्रतिष्ठा करता है। इसीलिये तो संसार की गति को उलटी बताते हैं।
गोपीनाथ भगवान के दरबार में से पुरी महाराज प्रतिष्ठा के ही भय से भाग आये थे, उसने यहाँ भी पिण्ड नहीं छोड़ा। अस्तु, कुछ काल तक जगन्नाथपुरी में निवास करके ब्राह्मणों के समुख अपने श्रीगोपाल की इच्छा कह सुनायी। भगवान की इच्छा को समझकर पुरीनिवासी ब्राह्मण परम प्रसन्न हुए और उन्होंने पुरी महाराज के लिये बहुत-से मलयागिरी चन्दन की व्यवस्था कर दी। राजा से कहकर उन्होंने चन्दन के लिये यथेष्ट कर्पूर तथा केसर-कस्तूरी का भी प्रबन्ध कर दिया। उन्हें व्रज तक पहुँचाने के लिये दो सेवक भी पुरी महाराज के साथ कर दिये और राजाज्ञा दिलाकर उन्हें प्रेमपूर्वक विदा कर दिया।
चन्दन, कर्पूर आदि को लिये हुए पुरी महाराज फिर रेमुणाय में पधारे और श्रीगोपीनाथ भगवान के दर्शन के निमित वहाँ दो चार दिन के लिये ठहर गये।
भगवान तो भाव के भूखे हैं, उन्हें किसी संसारी भोग की वांछा नहीं, वे तो भक्त का भक्ति-भाव ही देखना चाहते हैं। पुरी महाराज की अलौकिक श्रद्धा तो देखिये, भगवान की आज्ञा पाते ही चन्दन लेने के लिये भारत के एक छोर से समुद्र के किनारे दूसरे छोर पर आपत्ति-विपत्तियों की कुछ भी परवा न करते हुए प्रेम सहित चल दिये। अब भक्त की अग्नि-परीक्षा हो चुकी। वे उसमें खरे सोने के समान निर्मल होकर चमकते हुए ज्यों-के-त्यों ही निकल आये। अब भगवान ने भक्त को और अधिक क्लेश में डालना उचित नहीं समझा। उस समय मुसलमानी शासन में इतनी दूर तक चन्दन आदि को ले जाना बड़ा कठिन था। फिर स्थान-स्थान पर घोर युद्ध हो रहे थे, कहीं भी निर्विघ्न पथ नहीं था। इसीलिये भगवान ने पुरी महाराज को स्वप्न में आज्ञा दी- ‘श्री गोपीनाथ और मैं एक ही हूँ। तुम हमारे दोनों विग्रहों में किसी प्रकार की भेद-बुद्धि मत रखो। तुम इस चन्दन का लेप श्रीगोपीनाथ के ही विग्रह में करो। इसी से हमारा ताप दूर हो जायगा। हमारे वचनों पर विश्वास करके तुम नि:संकोच-भाव से इस चन्दन को यहीं पर घिसवाकर हमारे अभिन्न विग्रह में लगवा दो।’ पुरी महाराज को पहले जो स्वप्न में आदेश हुआ था, उसकी पूर्ति के लिये तो वे जगन्नाथ जी चन्दन लेने के लिये दौड़े आये थे, अब जो भगवान ने स्वप्न में आज्ञा दी उसे वे कैसे टाल सकते थे, इसीलिये भगवान की आज्ञा शिरोधार्य करके वे वहीं ठहर गये और चन्दन घिसवाने के लिये दो आदमी नौकर और रख लिये।
ग्रीष्मकाल के चार महीनों तक वहीं रहकर पुरी महाराज भगवान के अंग पर कर्पूर, चन्दन आदि का लेप कराते रहे और जब भगवान का ताप दूर हो गया, तो वे चतुर्मास बिताने के लिये निमित्त पुरी चले गये और वहाँ चार महीने निवास करके फिर अपने श्रीगोपाल के समीप लौट आये।
इस प्रकार सभी भक्तों को श्रीमन्माधवेन्द्रपुरी को उत्कट और अलौकिक प्रेम की कहानी कहते-कहते प्रभु का गला भर आया। प्रभु के दोनों नेत्रों से अश्रुधारा निकल-निकलकर उनके वक्ष:स्थल को भिगोने लगी। पुरी के महात्म्य का वर्णन करते-करते अन्त में उन्हें उस श्लोक का स्मरण हो आया जिसे पढ़ते-पढ़ते पुरी महाराज ने इस पांच भौतिक शरीर का परित्याग किया था। वे रुँधे हुए कण्ठ से उस श्लोक को बार-बार पढ़ने लगे-श्लोक पढ़ते-पढ़ते वे बेहोश होकर नित्यानन्द जी की गोद में गिर पड़े। अन्य उपस्थित भक्त भी प्रभु को रुदन करते देखकर जोरों से क्रन्दन करने लगे। उसी समय भगवान का भोग लगाकर शयन-आरती हुई। प्रभु ने सभी भक्तों के सहित शयन-आरती के दर्शन किये और फिर वहीं मन्दिर के समीप ही एक स्थान में रात्रि बिताने का निश्चय किया।
पुजारियो ने लाकर भगवान के क्षीर-भोग के बारह पुत्र प्रभु के सामने रख दिये। प्रभु भगवान के उस महाप्रसाद के दर्शनमात्र से ही परम प्रसन्न हो उठे। प्रसन्नता प्रकट करते हुए उन्होंने कहा- आज हमारा जन्म सफल हआ, जो हम गोपीनाथ भगवान के क्षीर के अधिकारी समझे गये। भगवान के प्रसाद के सम्बन्ध में लोभवृति करना ठीक नहीं है। हम पाँच ही आदमी हैं, अत: आप हमें पांच पात्र देकर सात पात्रों को उठा ले जाइये। भगवान के प्रसाद के अधिकारी सभी हैं। उसे अकेले-ही-अकेले पा लेना ठीक नहीं है। यह कहकर प्रभु ने पाँच पात्रों को ग्रहण करके शेष सात पात्रों को लौटा दिया।
भगवान के उस अदभुत महाप्रसाद ने प्रभु ने अपने भक्तों के साथ श्रद्धासहित पाया और वह रात्रि वहीं भगवान के चरणों के समीप बितायी।
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram Shrigopinath Ksheerchor
To whom they stole a vessel of milk to give Gopinath: He was known as a milk thief. Sri Gopala: appeared subdued I bow to that Madhavendra with love.
While enjoying and enjoying with the devotees, Mahaprabhu reached the pilgrimage named Remunaya after visiting and bathing in Jaleshwar, Brahmakund, Mandar etc. pilgrimages. After going there to the temple of Lord Ksheerachor Gopinath, the Lord had darshan of the Lord. Overwhelmed with the joy of the Lord, Gopinath started praising God in a very compassionate voice. While praising, he became unconscious in love. In the end, he prostrated at the lotus feet of the Lord. At the same time, a huge bunch of flowers came out from the body of the Lord and fell right on the head of the Lord. All the visitors and priests were extremely happy to see such devotion of the Lord and started appreciating the love of Mahaprabhu. The Lord put that bunch of flowers on his head with devotion considering it as God’s Prasad and kept doing sankirtan in the temple along with the devotees for a long time. In the end, he also rested there for the night.
Nityanand ji asked – ‘ Lord! Why is this Shri Gopinath Bhagwan named ‘Kshirchor’?
The Lord laughed and got down – ‘ What would be hidden from you? The one who made Lord Gopinath a Kshirchor is your respected Gurudev and my Guru too, Shri Manmadhavendrapuri Ji Maharaj. You must have heard the story of God ‘Kshirchor’ from his mouth. But still you want to hear this story from my mouth for the welfare of other devotees, then I will narrate it to you the way I have heard it from the mouth of my respected Gurudev Shree Ishwaripuri. Such stories should be heard again and again. Hearing these stories, love for the lotus feet of the Lord arises and a firm feeling about the devotional nature of the Lord that He can do everything for the fulfillment of the wishes of His devotees. In relation to such stories, it should never be said that we have heard this, why should we listen to it then. Just like after having a full meal one day, there is a desire to eat the same type of food the next day, in the same way, devotees should never neglect to listen to the stories related to God, they should listen to them as many times as they can. One should always remain unsatisfied in relation to the devotee and Bhagwat-related stories.
Well, then I tell that virtuous story of Kshirchor Shrigopinath in front of you, all of you listen carefully.’ Hearing such words of the Lord, all the devotees eagerly looked at the face of the Lord. Ten-twenty other gentlemen had also come there, they also sat down to listen to the story of Lord Kshirchor from the mouth of the Lord. Seeing everyone enthusiastically gazing at Him, the Lord began to say in a very sweet voice – My Guru’s devotion to Lord Madhavendrapuri, the Lord of Vaikuntha, was supernatural. Keep thinking about Her tongue was so enamored of the name of the Lord that it never remained empty, always reciting the auspicious names of the Lord of the worlds. It was because of his fervent devotion that God had to steal the kheer.
Lord Madhavendrapuri once reached near Giriraj Govardhan mountain while traveling to Vraj. There he became mesmerized by seeing the graceful complexion of Giri-Kanan and started wandering near Girivar there. One day he resided under a tree in the forest near Govardhan. Puri Maharaj had an unwanted attitude. He did not beg anyone for food either. Whatever he got as a result of his destiny, he used to do well after getting it with satisfaction. That day he did not get any food for the whole day. In the evening he was chanting the names of the Lord sitting under the same tree when he heard the sound of someone’s feet. He looked back in astonishment. What did he see that a dark-skinned boy of eleven-twelve years of age was coming towards him with a vessel of milk in his hand. Even though the color of the body was dark, a wonderful brightness was shining on the face of the child, all its parts were curvy, beautiful and attractive.
He laughed something in a very soft voice and said – ‘ Mahatma ji! Why are you sitting hungry? Here, drink this milk.’ Puri asked – ‘Who are you and how did you know that I am sitting here in the forest?’
The child laughed and said – ‘ I am a cowherd by caste, my house is in the village near this bush. My mother had just come here to fetch water, she had seen you sitting here and after going home she had asked me to bring milk. That’s why I have quickly milked the cow and brought milk for you.
It is our rule that no one can sleep hungry near our village. We give roti to those who eat on demand and those who are fasting without any reason, are given milk-fruits or food preparations according to their wish. You drink this milk, I will come again and bring this vessel.’ Having said this, the boy went away.
Puri Mahasaya drank that milk. He had never drunk such delicious milk in his life, he started drinking that milk while being very happy in his heart. The face of that swarthy cowherd boy was buried in his heart, he started thinking about him again and again. After drinking the milk, he put the vessel on the earth and sat waiting for that Gwal-Kumar. Midnight passed while sitting, but that Gwal-Kumar did not return. Now the eagerness of Puri Maharaj to see that boy started increasing more and more. In that situation, he felt somewhat drowsy. At the same time the same child was seen standing in front of him. He said laughingly – Puri! I have been waiting for your arrival for a long time. It is good that you have come. You were given milk in the guise of a cowherd boy. Now you wait for me here again. I’m buried here under this nearby bush. Earlier I had a temple here, my priest buried me under this bush and ran away due to fear of Mlechhas. Since then I am lying buried in this Jharkhand. Now you take me out of here and worship me properly. My name is ‘Shri Gopal’.
On opening his eyes, Puri Maharaj started looking around, but there was no one there. In the morning, he called the people of the village and told them all the details and got them dug up at the place mentioned by Shri Gopal. After digging a long distance, a very beautiful idol of dark color came out of it. At the same time, Puri got a roof made from the villagers and made a high seat in it and installed the idol of that Shri Gopal on it. After installing the idol, he duly bathed the Lord with Panchamrit, then washed the Deity of the Lord with plenty of excreta with cool water. Rubbed fragrant sandalwood and smeared it all over the body and worshiped him with incense, lamp, naivedya and wild fruits and flowers.
Now Puri Maharaj decided to celebrate Annakoot. All the Brahmin houses in that village were told to take food items from their homes as per their capacity and cook different dishes according to their own taste, along with their wives. All the Brahmins happily obeyed Puri. They started bringing milk, curd and ghee in big pitchers from their respective homes near Puri’s hut. The cowherds gave all the milk in their house. Shopkeepers provided many food items like rice, boora and ghee etc. for the enjoyment of God. The women of the deserving Brahmins came and started preparing beautiful things according to their wishes for the enjoyment of God. There was no distinction between raw and solid substances, whatever she knew how to make and whatever she loved more, she started making the same substance with devotion according to her pure feelings.
Some are making fine curry with filooridar, some make only vadas of moong, urad, some are making curd vadas, kanji vadas, dry ginger vadas, some are making puri, kachori, malpua, sweet pua, Gram flour pua, bajra tikkis are being made, some are preparing gram flour laddus, moong laddus, nikuti laddus, semolina laddus, churma laddus, Kangni laddus etc. , Some make different types of greens, sour, sweet raitas and keep aside, some make small balls and keep them immersed in ghee, some knead them by hand and make churma. Some are cooking thin phulkis, some want to make thick chapatis and feed them to God, some are making rice made of cornmeal and some are making rice made of millet. Some are sprinkling the Ramas after boiling them. Someone is puffing the chickpeas and frying them in ghee. Some chutneys of dry mango, mint, tamarind and many other types of chutneys are kept in stone bowls after grinding them. Some are making kheer made of butter, rice and other types of kheer, some are making khoa of milk and fruit sweets like peda, barfi, khoa laddoos, gulabjamun etc., some are making rabdi of milk, some are scraping After preparing it, it is kept on the other side, someone wants to offer food to God only with a mixture of whey. Someone is cooking different types of rice in this way. Someone is kneading chapatis in milk and making them puff up in milk. Someone is making pudding. Some are engaged in making Halwa, Mohanbhog, Dudhalpasi etc.
In this way, everyone prepared hundreds of types of Shatrasyukt food according to their own wishes. What did they make, Shri Gopal Bhagwan himself created inspiration in their hearts, otherwise those illiterate women living in the village would not know how to make such things. God is omnipotent, through whose hands He can get whatever He wants done.
In this way, when all the things were ready, Puri Maharaj offered food to the Lord. Don’t know for how many days God was hungry, in no time he gobbled up all those things. Puri Mahashay was very surprised. Then God laughed and touched those vessels with his hands. With the mere touch of God, all those things again became as they were. Expressing his happiness, Puri Maharaj distributed that prasad to all the residents of Vraj, men and women, children and old people and youth. The news that Puri Maharaj had appeared to Lord Shri Gopal had spread far and wide. Thousands of men and women started coming to see God. Whoever came to see God on that day, only he would get prasad with full stomach. Thousands of people kept coming and going till the end of the night, but till the end everyone got enough prasad, no one left without being dissuaded from the prasad. Thus the Annakoot festival of that day was very wonderful.
After this, the men of other villages also started threshing Lord Shri Gopal one by one. In this way, everyday there was a buzz of Annakoot in Puri Maharaj’s cottage. This news spread far and wide. Big Seth Shri Gopal of Mathura started coming to see God and they started offering gold, silver, diamond, jewels and different kinds of clothes to God. Some virtuous man got a big huge temple of Shri Gopal Bhagwan built. All the residents of Vraj gifted one or two cows for the temple. Due to this thousands of cows became of the temple.
Puri Maharaj started serving and worshiping God with great devotion. His body had become somewhat emaciated; He wanted a worthy disciple for service-worship, at the same time two beautiful youths came from Gaud-Desh and surrendered to Puri Maharaj. Puri initiated him considering him worthy and entrusted him with the task of worshiping Lord Gopal. In this way, for two years, Puri Maharaj Shri Gopal kept worshiping God.
One day in a dream, God said to Puri Maharaj – ‘Madhavendra! Due to being inside the earth for a long time, our whole body burns, if you apply Malayagiri-sandalwood from Jagannath Puri and coat our body, then this heat of ours will be calm.
Following the Lord’s command, Puri Maharaj left for Neelachal on the second day, after handing over all the work of worship to the disciples and taking permission from the Lord. In this journey, he reached Navadvipa and stayed at Advaitacharya’s house. Seeing his amazing devotion, the Acharya became enamored of his love for God and he took initiation from Puri Maharaj and made him his guru. After staying in Shantipur for some days and giving Diksha to Advaitacharya, Puri Maharaj left for Nilachal. While walking, he came here in Remunay and had darshan of Shri Gopinath. Puri was overjoyed to see Lord Gopinath. Here God’s decoration and Bhog-Raag were done in a very emotional way, Puri Maharaj kept watching the worship method there very carefully. In the end, he asked the priests- ‘What is the main bhog of God here?’
Gopinath ji’s milk is called ‘Amritkeli’. Prasadi Kheer of Gopinath ji is famous everywhere. Kheer is offered in twelve vessels in the evening.
It was the desire of Puri Maharaj that I understood the method of worship, but I could not understand exactly what Kheer is like. If God’s prasadi had got a little kheer, then after seeing its taste, I would have offered such kheer to my Shri Gopal. As soon as this thought came to his mind, he felt apprehensive that it was my tongue-gluttony. Such feelings did not arise in my heart for the sake of pleasure and taste. Then he thought- ‘What sense-gluttony in God’s prasad? I am not wishing for the taste of the tongue, I had a desire to feed my God the same kheer. The reason was that he had an unwanted fast. Whatever someone gave without asking, he used to live on that, so his desire to taste the Prasad remained in his mind. He did not reveal his will to anyone. After offering bhog in the evening, the aarti was done. The doors of God were closed. Everyone went to their respective homes. Puri Mahashay was also staying in a hut at a little distance from the village.
At midnight the priest saw a dream – as if Lord Gopinath was standing in front of him and saying – ‘Priest! priest !! You get up now and do an important work of mine. One of my supreme devotees named Mahabhagwat Sanyasi named Madhavendrapuri is staying outside the village. His desire is to get my ‘Ksheer-Prasad’. To fulfill the wish of my devotee, I have stolen one of the twelve utensils of my bhog and hid it in my clothes, you take it and give it to Madhavendra now.’ On hearing this, the priest got up in shock. He opened the doors of God and saw his clothes. Literally a vessel full of milk is kept hidden in them. The priest was roaming around the city with that vessel, shouting – ‘Whose name is Madhavendrapuri? Those saints named Madhavendrapuri should take this vessel of milk. God has stolen milk for him.
In this way, shouting and shouting, the priest reached the same place where Puri Maharaj was staying. After hearing his name from the mouth of the priest of God, Puri Maharaj came out and said – ‘Maharaj! My name is Madhavendrapuri, tell me what is the order?
After getting the introduction of Puri Maharaj, the priest bowed down at his lotus feet and started saying with very polite words – ‘Great! you are blessed
Thank you so much for this supernatural devotion of yours! Today we are blessed by your darshan. The fruit of worshiping God for so many days has been received today. How can slaves of money like us get to see God in person? But we consider ourselves unlucky in the fact that due to the effect of worshiping God, we got the darshan of a most beloved devotee of God like you. We have seen you that God also stole milk, he also became a thief, that Mahabhagwat is greater than even God. Take this, God had stolen and left this milk for you. I have brought it to you by his order.’ Puri Maharaj was a bit ashamed to hear his praise from the mouth of the priest. Remembering the kindness of God, the affection of the devotees and the feelings of immense affection towards his devotees, he started crying in love. Weeping, he accepted that great prasad given by God with both hands like a beggar with great humility. They started getting that Mahaprasad who were madly in love in solitude. Who could have guessed his indescribable joy at that time? One is the Mahaprasad of God and the other was actually given by God by stealing from his own hands. Puri used to cry and used to get that prasad. Puri got the prasad by licking the pot a lot from all sides. Then washed it with water and drank it and cut the earthen vessel into pieces and tied them in his clothes. Well, how could they throw away the vessel given by God? Used to eat it one by one everyday as a rule.
When the people of Remunay came to know about God’s theft of milk, then thousands of men and women started coming to see Puri Maharaj. The Lord’s love of Puri Maharaj started being praised all around. On everyone’s face was the same talk of supernatural devotion of Puri Maharaj, everyone was praising his Bhagwat love. Puri Maharaj, who considered reputation as shukarivishtha and pride as painful as Raurav-hell, could not stay there for long, he went to Jagannath Puri after worshiping the feet of Lord Shri Gopinath.
The news of Puri Maharaj’s arrival spread everywhere as soon as he reached Jagannathji. People started coming from far and wide to have darshan of Puri Maharaj. Really, the speed of respect and fame is like that of your body’s shadow, if you run towards the shadow itself, it will keep running ahead of you. No matter how much you try, it will not come in your hands. Ignore that and get rid of her and run to the other side, no matter how much you want to get rid of her, but she will not leave you. Wherever you go, she will follow you there. Those who want prestige, are ready to do everything for prestige, they do not have prestige and those who separate from the world and run away from prestige, the world respects them. That is why the speed of the world is said to be reverse.
Puri Maharaj ran away from the court of Lord Gopinath due to the fear of reputation, he did not leave the body here also. Astu, after living in Jagannathpuri for some time, told the wish of his Shri Gopal in front of Brahmins. Realizing the Lord’s wish, the Brahmins of Puri were overjoyed and arranged a lot of Malayagiri sandalwood for Puri Maharaj. By asking the king, he also arranged for sufficient camphor and saffron-musk for sandalwood. To take him to Vraj, two servants also made him accompany Puri Maharaj and sent him away lovingly after giving him the permission of the king.
Taking sandalwood, camphor etc., Puri Maharaj again came to Remunay and stayed there for two to four days for the darshan of Lord Shri Gopinath.
God is hungry for feelings, He does not want any worldly enjoyment, He only wants to see the devotion of the devotee. Look at the supernatural devotion of Puri Maharaj, as soon as he got God’s permission, he went with love from one end of India to the other end of the sea, not caring about the objections and calamities, to get sandalwood. Now the fire test of the devotee is over. They came out of it just as they were, shining like pure gold. Now God did not think it appropriate to put the devotee in more trouble. At that time, it was very difficult to take sandalwood etc. to such a distance under the Muslim rule. Then fierce battles were taking place from place to place, there was no smooth path anywhere. That’s why God ordered Puri Maharaj in a dream – ‘Shri Gopinath and I are one. Don’t keep any kind of discrimination between our two idols. You apply this sandalwood paste on the Deity of Shri Gopinath only. This will remove our heat. Believing our words, feel free to grind this sandalwood right here and attach it to our integral deity.’ Jagannath ji ran to get the sandalwood to fulfill the order that was given to Puri Maharaj earlier in his dream. Had come, now how could they avoid what God had ordered in the dream, that’s why after obeying God, they stayed there and hired two more servants to grind the sandalwood.
Staying there for four months in the summer, Puri Maharaj continued to apply camphor, sandalwood etc. on the part of the Lord and when the heat of the Lord went away, he went to Puri to spend the Chaturmas and stayed there for four months and then returned to his Shri Gopal. Near returned.
Thus telling all the devotees the story of the ardent and supernatural love of Shrimanmadhavendrapuri, the Lord’s throat was filled with tears. Tears came out from both the eyes of the Lord and started soaking his chest. While describing the greatness of Puri, at the end, he remembered the verse which Puri Maharaj had renounced this five material bodies while reciting. He started reciting that verse again and again with a choked voice – while reciting the verse, he fainted and fell on the lap of Nityanand ji. Other present devotees also started crying loudly seeing the Lord crying. At the same time, after offering food to God, there was a sleep-aarti. Prabhu saw Shayan-Aarti along with all the devotees and then decided to spend the night at a place near the temple itself.
The priests brought and placed the twelve sons of God’s Kshir-Bhog in front of the Lord. He became supremely happy just by seeing that Mahaprasad of Lord God. Expressing happiness, he said – Today our birth was successful, we were considered to be entitled to the milk of Lord Gopinath. It is not right to be greedy in relation to God’s offerings. We are only five people, so you give us five vessels and take away seven vessels. Everyone is entitled to God’s offerings. It is not right to find him alone. Saying this, the Lord accepted the five vessels and returned the remaining seven vessels.
The Lord received that wonderful Mahaprasad of God with his devotees with devotion and spent the night there near the feet of God.
respectively next post [92] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]